बंदी / दूसरा दृश्य / जगदीशचंद्र माथुर
[स्थान वही। पन्द्रह रोज बाद। समय सबेरे। बाहर से रायसाहब और एक व्यक्ति की बातचीत का अस्पष्ट स्वर और फिर थोड़ी देर में ठहाका मार-मार कर हँसते हुए रायसाहब का प्रवेश]
रायसाहब: हा, हा, हा! वाह भाई वाह! सुना बेटी हेम! हेम!
हेमलता: [नेपथ्य में] आयी पापा!
रायसाहब: हा, हा, हा!
[हेम का प्रवेश, हाथ में एक बड़ा-सा चित्र और ब्रश]
हेमलता: क्या बात हुई, पापा?
रायसाहब: हेम, हमारे चौधरी साहब भी लाजवाब हैं! अभी तो मुझे फाटक पर छोड़ कर गये हैं। सबेरे की चहलकदमी में इनका साथ न हो तो मैं तो इस देहात में गूँगा भी हो जाऊँ और बहरा भी।
हेमलता: आप तो आज उनके घर तक जाने वाले थे।
रायसाहब: गया तो था, यही सोच कर कि थोड़ी देर के लिए उनकी बैठक में भी चलूँ, लेकिन बाहर से ही बोले, 'वहीं ठहरिए!'
हेमलता: अरे!
रायसाहब: कहने लगे, 'पहले में ऊपर पहुँच जाऊँ, तब आप कार्ड भेजिएगा और तब बैठक में जाना मुनासिब होगा! कायदा जो है।'
हेमलता: [हँसती है] ऐसी भी क्या अंग्रेजियत?
रायसाहब: और भी तो सुनो। घर में उनका जो प्राइवेट कमरा है, उसमें बाहर एक घंटी लगी है। जिसे भी अन्दर जाना हो, घंटी बजानी होती है। बिना घंटी बजाए अगर कोई अन्दर आ गया तो चौधरी साहब उससे बात नहीं करते, चाहे उनकी बीबी हो।
हेमलता: मालूम होता है मनुस्मृति की तरह एटीकेट संहिता चौधरी साहब छोड़ कर जाएँगे।
रायसाहब: लेकिन आदमी दिल का साफ और बिलकुल खरा है, हीरे की मानिन्द! दूसरे के एक पैसे पर हाथ नहीं लगाता।
हेमलता: तभी शायद बीरेन ने उन्हें ग्रामोद्धार-समिति का आडीटर बनाया है।
रायसाहब: बीरेन से कह देना कि चौधरी साहब हिसाब में बहुत कड़े हैं। कह रहे थे कि चूँकि इस संस्था में उनका भतीजा बालेश्वर शामिल है, इसलिए इसकी तो एक-एक पाई पर निगाह रखेंगे।
हेमलता: बालेश्वर मुझे पसन्द नहीं। झगड़ालू आदमी है।
रायसाहब: झगड़ा तो गाँव की नस-नस में बसा है।
हेमलता: पहले भी ऐसा था पापा?
रायसाहब: था, लेकिन ऐसी हठ-धर्मी नहीं थी। मैं यह नहीं कहता कि पहले, शेर-बकरी एक घाट पानी पीते थे, लेकिन... लेकिन...पहले, पढ़े-लिखे नौजवान गाँव में कम थे और...
हेमलता: पढे-लिखे नहीं, अधकचरे। टैगोर ने लिखा है न 'हाफ बेक्ड कल्चर'। लेकिन पापा, क्या सब बीरेन का तूफानी जोश और उसकी पैनी सूझ गाँव में काया-पलट कर देगी?
रायसाहब: तुम क्या समझती हो?
हेमलता: कह रहे थे न बीरेन उस रोज कि गाँव में क्रान्ति के लिए एक नये दृष्टिकोण की जरूरत है एक नये मानसिक धरातल की...
रायसाहब: बीरेन बोलता खूब है! उसी का जादू है।
हेमलता: सैकड़ों की जनता झूम जाती है।
रायसाहब: उस दूसरी पार्टी का क्या हुआ। ग्राम-सुधार-समिति में शामिल हुई या नहीं?
हेमलता: अभी तो नहीं। कल रात बहुत-सा वाद-विवाद चलता रहा। बीरेन देर से लौटे थे। पता नहीं क्या हुआ?
रायसाहब: लेकिन आज तो नींव पड़ेगी समिति की!
हेमलता: हाँ, आप नहीं जाइएगा उत्सव में पापा?
रायसाहब: न बेटी, मैंने तो बीरेन से पहले ही कह दिया था कि मैं नहीं जा सकूँगा। मुझे...
[एक हाथ में कागज लिये, दूसरे से कुरते के बटन लगाते हुए बीरेन का प्रवेश।]
बीरेन: लेकिन पापा जी, चौधरी साहब तो आ रहे हैं।
रायसाहब: उन्हें ठीक स्थान पर बैठाना, नियम के साथ।
बीरेन: [हँसते हुए] उनकी पूरी देख-भाल होगी। पापा जी, अगर आप वहाँ पहुँच नहीं रहे हैं तो यह तो देखिए मेरे भाषण का ड्राफ्ट।
रायसाहब: [उसके हाथ से कागज लेते हुए] तुम तो बिना तैयारी के ही बोलते हो।
[कागज पढ़ने लगते हैं]
बीरेन: जी हाँ, लेकिन आज तो ग्राम-सुधार-समिति की समूची योजना को गाँव के सामने रखना है... पढ़िए न!
रायसाहब: [पढ़ते हुए] बड़ी जोरदार स्कीम है!
बीरेन: जी, आगे और देखिए [हेम से] और हेम, समिति के भवन में जो चित्र टँगेंगे तुमने पूरे कर लिये?
हेमलता: एक तो तैयार ही-सा है।
[चित्र की ओर संकेत करती है]
बीरेन: यह?... बड़े चटकीले रंग हैं, बड़ा मनोहर नाच का दृश्य है... खूब! लेकिन... ये... इन कोने के अँधरे में ये कौन लोग हैं?...
हेमलता: तुम क्या समझते हो?
बीरेन: [रुक कर सोचता-सा] जैसे निर्वासित भटके हुए प्राणी!
रायसाहब: [पढ़ते-पढ़ते] बीरेन, तुम्हारी ग्राम-सुधार-समिति में दिमागी कसरत तो बहुत है... पुस्तकालय, भाषण, अध्ययन मंडल...
बीरेन: [चित्र को अलग रखता हुआ] वही तो पापा जी! ग्राम-जागृति के मानी क्या हैं? अपनी जरूरतों और समस्याओं पर विचार करने की क्षमता! देहात की मूक-व्यथा को वाणी की आवश्यकता है। माँग है, चुने हुए ऐसे नौजवानों की जो धरती की घुटनों को गगन के गर्जन का रूप दे सकें, जो रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठा सकें, जो आर्थिक प्रश्नों से माथापच्ची कर सकें। मैं समिति के पुस्तकालय में मार्क्स, लेनिन से लेकर स्पेंग्लर, रसेल इत्यादि सभी ग्रन्थों का अध्ययन कराऊँगा। एक नयी रोशनी, एक नया मानसिक मन्थन... इंटलैक्चुअल फरमेंट...
रायसाहब: ठीक बीरेन ठीक! बातें तो बहुत होंगी, लेकिन भई, देहात को गरीबी और गन्दगी को देख कर तो मन उचाट होता है।
बीरेन: [जोश के साथ] यह आपने ठीक सवाल उठाया। गरीबी और गन्दगी! पापा जी, इस गरीबी और गन्दगी को देख कर मेरा मन क्रोधाग्नि से जल जाता है। वे बे-घरबार के बूढ़े-बच्चे, वह भूखे भिखमंगों की टोली, वे चीथड़ों में सिकुड़ी औरतें... इन सबके ध्यान मात्र से दया का सागर उमड़ उठता है। लेकिन दया के सागर में क्रोध के तूफान की जरूरत है पापाजी! तूफान, जो न थमना जाने न चुप रहना। और इस तूफान को कायम रखने के लिए चाहिए कुछ ऐसी हस्तियाँ, जो उस क्रोध और दया के काबू में न आ कर भी उसी के राग छेड़ सकें, वकील की तरह पूरे जोश के साथ जिरह कर सकें, लेकिन मुवक्किल से अलग भी रह सकें।
हेमलता: सरोवर में कमल, लेकिन जल से अछूता।
बीरेन: हाँ, उसी की जरूरत है। जो लोग इस गरीबी और गन्दगी की दलदल से दूर रह कर उसमें फँसी दुनिया के बेबस अरमानों को समाज के सामने मुस्तैदी के साथ चुनौती का रूप दें सकें। [रुक कर भाषण के स्तर से उतरता हुआ] लेकिन मुझे तो चलना है पापाजी! पहले से जाकर समिति के कुछ उलझनें सुलझानी हैं, जिससे उत्सव के वक्त फसाद न हो।... तुम तो थोड़ी देर में आओगी हेम? तब तक इस चित्र को ठीक-ठाक कर लो। अच्छा तो मैं चला।
[चला जाता है। कुछ देर चुप्पी रहती है।]
रायसाहब: यही तो जादू है बीरेन का।
हेमलता: जादू वह जो सिर पर चढ़ कर बोले।
रायसाहब: कभी-कभी मुझे तो देहात में उलझन-सी लगती है। बरसों बाद आया हूँ...जैसे चश्मा शहर ही छोड़ आया हूँ... और बीरेन हैं कि आते ही गाँव को अपना लिया।
हेमलता: मालूम नहीं पापाजी, उन्होंने गाँव को अपना लिया... या...
[चेतू का प्रवेश]
चेतू: सरकार का नाश्ता तैयार है।
रायसाहब: [आते हुए] अच्छा चेतू! आता हूँ। [चलते-चलते चित्र पर निगाह जाती है।] हेम! यह तसवीर अच्छी बनी है।
हेमलता: थोड़ा टच करना बाकी है।
रायसाहब: नाचने वालों की टोली में बड़ी लाइफ है। रंग की भी, गति की भी! लेकिन... कोने में यह लोग कैसे खड़े हैं?
हेमलता: आप क्या समझते हैं?
रायसाहब: [सोचते-से सप्रयास] जैसे... जैसे सूखे और सूने दरख्त जिन्हें धरती से खुराक ही नहीं मिलती।
हेमलता: पापा, आप भी तो कवि हैं।
रायसाहब: [हँसते हैं] तुम्हारा बाप भी जो हूँ।... अच्छा मैं तो चला।
[चले जाते हैं]
हेमलता: [विचार-मग्न] सूखे और सूने दरख्त!... या निर्वासित और भटके प्राणी!...नहीं...नहीं कुछ और, [चेतू से] चेतू, जरा लाना वह स्टूल, यहीं बैठ कर जरा इसे ठीक करूँ।
चेतू: [स्टूल रखता हुआ] यह लीजिए। रंग भी यहीं रख दूँ?
हेमलता: लाओ, मुझे दो। अब तो तुम्हें मेरी तसवीर खींचने की झक की आदत हो गयी है।
[रंग तैयार करने लगती है]
चेतू: जी, बीबी जी।
हेमलता: देखो, थोड़ी देर में यह तसवीर लेकर तुम्हें मेरे साथ चलना है।
चेतू: कहाँ?
हेमलता: बीरेन बाबू की समिति का जलसा कहाँ हो रहा है, वहीं पहाड़ी की तलहटी पर।
चेतू: [झिझकता हुआ] बीबी जी, वहाँ मैं नहीं जाऊँगा।
हेमलता: क्यों?
चेतू: बीबी जी, वहाँ हम गरीब मुसहर अपना बसेरा करने वाले थे। हम बाँस की पौध लगा रहे थे। मेहनत करके टोकरी बनाते, घर तैयार करते। बाँध होता तो खेत भी...
हेमलता: [चित्र बनाते-बनाते] लेकिन ग्रामोद्धार-समिति से भी तो आखिर तुम लोगों की तकलीफें दूर होंगी।
चेतू: पता नहीं बीबी जी। समिति में बहुत देर तक बहसें तो होती हैं। पर...
हेमलता: और फिर बीरेन बाबू के दिल में तुम लोगों के लिए कितना ख्याल है, कितनी दया है।
चेतू: [किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत हो] हमें दया नहीं चाहिए।
हेमलता: [चौंक कर उसकी ओर मुड़ती है] दया नहीं चाहिए? चेतू! यह तुमसे किसने कहा?
चेतू: [कुछ सकपका कर] बीबी जी, लोचन भैया कहते हैं कि...
[सड़क पर से सम्मिलित स्वर में नारों की आवाज]
ग्रामोद्धार-समिति जिन्दाबाद!
बी.पी. सिन्हा जिन्दाबाद!
गद्दारों का नाश हो!
ग्रामोद्धार-समिति जिन्दाबाद!
[आवाज दूर हो जाती है]
हेमलता: चेतू यह सब क्या है?
[खड़ी होकर देखने लगती है।]
चेतू: उत्सव में ही जा रहे हैं। बालेश्वर बाबू की पार्टी के लोग हैं। करमचन्द बाबू इनसे अलग हो गये हैं और ठाकुर पार्टी के लोगों में जा मिले हैं।
हेमलता: कल रात झगड़ा तय नहीं हुआ?
चेतू: पता नहीं... यह देखिए दूसरी पार्टी के लोग भी जा रहे हैं। कहीं झगड़ा न हो जाय।
[सड़क पर से दूसरे दल के नारों का शोर सुनाई देता है।]
करमचन्द की जय हो!
करमचन्द की जय हो!
ग्रामोद्धार-समिति हमारी है!
ग्राम-जागृति जि़न्दाबाद!
स्वार्थी सिन्हा मुर्दाबाद!
[आवाज दूर हो जाती है]
हेमलता: [चिन्तित स्वर में] चेतू, ये लोग तो लाठी लिये हुए हैं।
चेतू: जी हाँ, पहली पार्टी भी लैस थी।
[नेपथ्य में पुकारते हुए आया का प्रवेश]
आया: चेतू, ओ चेतुआ! देख तो यह क्या फसाद है?
चेतू: बालेश्वर बाबू और करमचन्द की पार्टियाँ हैं। दोनों बीरेन बाबू के उत्सव में गयी हैं।
हेमलता: लाठी-डंडा लिये हुए, आया!
आया: और तू यहीं खड़ा है चेतुआ। अरे जल्दी जा दौड़ कर चौकीदार से कह कि थाने में खबर कर दे। क्या मालूम क्या झगड़ा हो जाय। जल्दी जा। लाठी चल गयी तो बीरेन बाबू घिर जायेंगे। ... जल्दी दौड़ जा!
[चेतू तेजी से जाता है]
हेमलता: मैं भी जाऊँगी, आया। बीरेन अकेले है।
आया: न बीबी जी, तुम्हें न जाने दूँगी। [जाते हुए चेतू को पुकारते हुए] चेतू, लौटते वक्त जलसे में झाँकता आइयो [हेम से] हेम बीबी, कहाँ की इल्लत मो मोल ले ली बीरेन बाबू ने!
हेमलता: उनकी बात तो सब लोग सुनेंगे।
आया: बीबी जी, तुमने अभी तक नहीं समझा गाँव-गँवई के मामलों को। यहाँ भले मानसों का बस नहीं है। अपना तो वही कलकत्ता अच्छा था।
हेमलता: [झिड़कते स्वर में] आया, तुम तो बस...
आया: मैं ठीक कह रही हूँ बीबी जी। अभी तुम लोगों को पन्द्रह दिन हुए हैं यहाँ आये। देख लो, बड़े सरकार की तबीयत ऊबी-सी रहती है। चौधरी न हों तो एक दिन काटना मुश्किल हो जाय। और तुम हो...
हेमलता: मुझे तो अच्छा लगता है। कई स्केच बना चुकी हूँ।
आया: अरे, तसवीरें तो तुम कलकत्ते में भी बना लोगी। अनगिनती और इनसे अच्छी।
हेमलता: तुम तो, आया, उलटी बातें करती हो। आखिर हम लोग गाँव की ही औलाद हैं। यह धरती हमारी माँ है। अब हम लोग फिर यहाँ आकर रहना चाहते हैं। इसकी गोदी में आना चाहते हैं।
आया: अब बीबी जी इतनी हुसियार तो मैं हूँ नहीं जो तुम्हें समझा सकूँ। पर इतना कहे देती हूँ कि उखाड़े हुए पौधे की जड़ में हवा लग जाए तो फिर दुबारा जमीन में गाड़ना बेकार है। उसके फूल तो बँगले के गुलदस्तों की ही शोभा बढ़ाएँगे।
हेमलता: [अचंभित आया को देखती रह जाती है] आया तुम्हारी बात... तुम्हारी बात... खौफनाक है!
[नेपथ्य से आवाजें - 'इधर...इधर... ले आओ, सम्हल कर... चेतू तुम हाथ पकड़ लो...इधर...इधर']
आया: हैं! यह कौन आ रहा है? [बाहर की ओर देखते हुए] अरे, यह तो बीरेन बाबू को पकड़े दो आदमी चले आ रहे हैं। घायल, हो गये क्या? बाप रे!...
[दौड़कर बाहर की तरफ जाती है।]
हेमलता: [घबरा कर] बीरेन, बीरेन! बँगले की तरफ पुकारते हुए... पापा जी, पापा जी इधर आइए!
रायसाहब: [नेपथ्य में] क्या हुआ?
हेमलता: बीरेन घायल हो गये। ओह!...
[बेहोश बीरेन को लाठियों के स्ट्रेचर पर सम्हाले हुए, चेतू और एक व्यक्ति, जिसकी अपनी बाँह पर घाव है, प्रवेश करते हैं। वह इस परिस्थिति में भी स्थिरचित्त जान पड़ता है। उसकी वेशभूषा चेतू की-सी है।]
आया: [घबड़ाई हुई] चेतू, ये तो बेहोश हैं। हाय... राम!
[स्ट्रेचर जमीन पर रख दी जाती है]
व्यक्ति: घबड़ाइए नहीं।
हेमलता: [स्ट्रेचर के पास घुटने टेकती हुई] बीरेन! बीरेन!
[रायसाहब घबड़ाए हुए प्रवेश करते हैं]
रायसाहब: क्या हुआ? यह तो बेहोश है।... चेतू, क्या हुआ?
चेतू: सरकार, दोनों पार्टी के लठैत भिड़ गये। बीच में आ गये बीरेन बाबू। वह तो लोचन भैया ने जान पर खेल कर बचा लिया, वरना...
व्यक्ति: इन्हें फौरन मकान के अन्दर पहुँचाइए। पट्टी-वट्टी है घर में?
हेमलता: बीरेन! बीरेन!
रायसाहब: आया, जल्दी अन्दर ले चलो।... चेतू सम्हल कर लिटाना। हेम, मेरी ऊपर वाली अलमारी में लोशन है, जल्दी...जल्दी... [बीरेन को पकड़ कर आया, चेतू और हेम जाते हैं] और यह लोचन कौन है?
व्यक्ति: मेरा ही नाम लोचन है।
रायसाहब: तुमने बड़ी बहादुरी का काम किया। यह लो दस रुपये और जरा दौड़ जाओ, थाने के पास ही डाक्टर रहते हैं।
लोचन: आप रुपये रखें। मैं डाक्टर के पास पहले ही खबर भेज आया हूँ। आते ही होंगे।
रायसाहब: [कुछ हतप्रभ] तुम...तुम इसी गाँव के हो?
लोचन: हूँ भी और नहीं भी।.. .आप बीरेन बाबू को देखें।
रायसाहब: [संकुचित होकर] हाँ...आँ...हाँ...
[जाते हैं। लोचन कमर में बँधे कपड़े को फाड़ कर, अपनी बायीं भुजा में बहते हुए घाव पर पट्टी बाँधता है, तसवीर को सीधा उठा कर रखता और गौर से देखता है। इतने में तेजी से हेमलता का प्रवेश]
हेमलता: तुम्हारा ही नाम लोचन है?
लोचन: जी!
हेमलता: तुम्हीं ने बीरेन की जान बचायी है। [प्रसन्न स्वर में] वे होश में आ गये हैं। हम लोग बड़े अहसानमन्द हैं।
लोचन: [स्पष्ट स्वर में] जान मैंने नहीं बचायी।
हेमलता: तुम्हारी बाँह पर भी तो चोट है।
लोचन: जान उन गरीब मुसहरों ने बचायी है जिनसे जमीन छीन कर बीरेन बाबू ग्रामोद्धार-समिति का भवन बनवा रहे हैं। जब समिति के क्रान्तिकारी नौजवान आपस में लाठी चला रहे थे, तब यही गरीब बीरेन बाबू को बचाने के लिए मेरे साथ बढ़े। [व्यंग्यपूर्ण मुस्कान] क्रान्ति का दीपक बच गया!
हेमलता: [हिचकिचाती हुई] तुम... आप पढ़े-लिखे हैं?
लोचन: पढ़ा-लिखा? [वही मुस्कान] हाँ भी और नहीं भी।... अच्छा चलता हूँ।... हाँ, यह तसवीर आपने बनायी है?
हेमलता: कोई त्रुटि है क्या?
लोचन: नहीं! आपने हमारे नाच की गति को रेखाओं और रंगों में खूब बाँधा है। और...
हेमलता: और?
लोचन: कोने में खड़े छाया में लपटे ये व्यक्ति...
हेमलता: कैसे हैं?
लोचन: [बिना झिझक के] जैसे अपनी ही जंजीरों से बँधे बन्दी!
हेमलता: बन्दी! क्यों?
लोचन: [वही मुस्कान] यह फिर बताऊँगा। [चलते हुए] अच्छा नमस्ते!
[लोचन चला जाता है। हेमलता अचरज में खड़ी रह जाती है। फिर चित्र उठा कर घर की तरफ जाती है]
हेमलता: [जाते-जाते मंद स्वर में] बन्दी! अपनी ही जंजीरों में बँधे बन्दी...
[पर्दा गिरता है।]