बंदी / तीसरा दृश्य / जगदीशचंद्र माथुर

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[वही स्‍थान। एक हफ्ते बाद। समय सन्‍ध्‍या। नौकर लोग मकान से बगीचे में होकर बाहर की ओर सामान लाते नजर पड़ते हैं। कभी-कभी आया की दबंग आवाज सुन पड़ती है, कभी चेतू की, कभी और लोगों की]

'वह बिस्‍तरा दो आदमी पकड़ो!'

'सम्‍हाल कर भई।'

'बक्‍से में चीनी के बर्तन हैं।'

'जल्‍दी...जल्‍दी।'

'यह टोकरी दूसरे हाथ में पकड़ो!'

[घर की तरफ से आया का व्‍यस्‍त मुद्रा में जल्‍दी-जल्‍दी आना। बाहर से चेतू आता है।]

आया: सब सामान लद गया चेतू?

चेतू: हाँ आया! बस, बड़े सरकार का अटेची रहा है। उनके आने पर बन्‍द होगा।

आया: कहाँ गये सरकार?

चेतू: चौधरी जी के यहाँ बिदा लेने। सुना है चौधरी के बचने की उम्‍मीद नहीं।

आया: जिस गाँव में भतीजा अपने चचा पर वार कर बैठे वहाँ ठहरना धरम नहीं।

चेतू: अभी जमानत नहीं मिली बालेश्‍वर बाबू को।

आया: अब हमें क्‍या मतलब? हम तो कलकत्ता पहुँच कर शान्ति की साँस लेंगे।

चेतू: शान्ति!

आया: तू तो बुद्धू है, चेतू। चल कलकत्ते। मौज उड़ाएगा। देखेगा बहार और बजाएगा चैन की बंसी।

चेतू: गाँव छोड़ कर? नौकरी ही करनी है तो अपनी धरती पर करूँगा।

आया: अरे, शहर में नौकरी भी न करेगा तो भी रिक्‍शा चला कर डेढ़ दो सौ महीना कमा लेगा।

चेतू: डेढ़-दो सौ?

आया: हाँ, और रोज शाम को सनीमा। होटल में चाय। चकचकाती सड़कें, जगमगाते महल। ठाठ से रहेगा।

चेतू: [विरक्‍त मुद्रा] खाना किराये का, रहना किराये का और बोलो किराये की।

आया: जैसी तेरी मर्जी! भुगत यहीं देहात के संकट।

चेतू: लोचन भैया तो कहत...

आया: [झिड़कती हुई] चल, चल, लोचन भैया के बाबा। अन्‍दर जाकर देख, बीरेन बाबू तैयार हों तो सहारा देकर लिवा ला। हेम बीबी तो तैयार हैं?

चेतू: अच्‍छा।


[अन्‍दर जाता है।]

आया: [जाते-जाते] देखूँ गाड़ी पर सामान ठीक-ठाक लदा है या नहीं।

ये देहाती नौकर...

[बाहर जाती है। थोड़ी देर में रायसाहब और लोचन बातें करते हुए बाहर से प्रवेश]

रायसाहब: भई लोचन, मुझसे यहाँ नहीं रहा जाएगा। अच्‍छा हुआ जाते वक्‍त तुम आ गये। बीरेन ने तुम्‍हें देखा नहीं। चलते वक्‍त उस दिन के एहसान के लिए...

लोचन: मैंने सोचा था कि आप लोग रुक जाएँगे।

रायसाहब: रुकना? आया तो इसी विचार से था कि कलकत्ते के बाद देहात में ही दिन काटूँगा। लेकिन एक महीने में देख लिया कि हम तो इस दुनिया से निवार्सित हो चले। बरसों पहले की दुनिया उजड़ गयी और मैं जिस समाज में बसने आया था, वह ख्‍वाब हो चला! चौधरी भी शायद उसी ख्‍वाब के भटके हुए टुकड़े थे। अभी उन्‍हें देख कर आ रहा हूँ। उम्‍मीद नहीं बचने की। उस दिन के झगड़े में बालेश्‍वर ने उन पर लाठी से वार नहीं किया, दिल को भी चकनाचूर कर दिया।

लोचन: बालेश्‍वर ही गाँव की नयी पीढ़ी नहीं है।

रायसाहब: [निराश स्‍वर] मैं नहीं जानता कि कौन नयी पीढ़ी है। बस, इतना देखता हूँ कि रैयत के सुख-दुख में हाथ बटाने वाला जमींदार, पुरखों के तजुर्बे के रक्षक बुजुर्ग, बेफिक्री की हँसी और बड़ों की इज्‍जत में पले हुए नौजवान... जब ये सब ही नहीं रहे तो गाँव में ठहर कर मैं क्‍या करूँ! शहर...

लोचन: शहर आपको खींच रहा है रायसाहब!

रायसाहब: [लाचारी का स्‍वर] तुम शायद ठीक कहते हो। शहर मुझे खींच रहा है।

लोचन: और आप बेबस खिंचे जा रहे हैं।

रायसाहब: [पीड़ित मुद्रा] बेबस...बेबस...ऐसा न कहो लोचन, ऐसा न कहो!... हम जा रहे हैं क्‍योंकि... क्‍योंकि...

[चेतू का सहारा लिये बीरेन का प्रवेश, साथ में हेम भी है।]

बीरेन: पापा जी, अब आप ही की देरी है।

रायसाहब: [मानो मुक्ति मिली हो] कौन? बीरेन, हेम! तैयार हो गये तुम लोग? तो मैं भी अपना अटैची ले आता हूँ। चेतू, मेरे साथ तो चल!

[घर की तरफ प्रस्‍थान। साथ में चेतू]

लोचन: [हेमलता से] नमस्‍ते!

हेमलता: कौन?...अच्‍छा आप? बीरेन, यहीं है लोचन जिन्‍होंने उस रोज तुम्‍हें बचाया था।

बीरेन: अच्‍छा! उस दिन तो तुम्‍हें देखा नहीं था, लेकिन फिर भी [गौर से देखते हुआ] तुम पहचाने-से लगते हो।

लोचन: [मुस्‍कराते हुए] कोशिश कीजिए। शायद पहचान लें।

बीरेन: [सोचता हुए] तुम...वह...वह...नहीं नहीं। वह तो ऊँची जात का ऊँचे कुल का आदमी था।

हेमलता: कौन?

बीरेन: मेरा कालेज का साथी एल.एस. परमार।

लोचन: [मुस्‍कराहट] एल.एस.परमार।... लोचन सिंह परमार।

बीरेन: [चौंक कर] ऐं! परमार...परमार! !

लोचन: [अविचलित स्‍वर में] हाँ, मैं परमार ही हूँ, बीरेन!

हेमलता: [विस्मित] बीरेन, यह तुम्‍हारे कॉलेज के साथी हैं?

बीरेन: [लोचन का हाथ पकड़ कर] यकीन नहीं होता परमार, कि तुम्‍हीं हो इस देहाती वेश में, मुसहरों के बीच। काँलेज छोड़ कर तो तुम ऐसे गायब हुए थे कि...

लोचन: [किंचित हँसी] एक दिन मैंने तुम लोगों को छोड़ा था और आज [रुक कर] आज, तुम जा रहे हो।

बीरेन: परमार, मैं जा रहा हूँ चूँकि मैं अपने आदर्श को खंडित होते नहीं देख सकता।

लोचन: आदर्श? कौन-सा आदर्श है जिसे गाँव खंडित कर देगा?

बीरेन: क्रान्ति का आदर्श, परमार! मैं भूल गया था कि देहात की मध्‍ययुगीन ऊसर भूमि अभी क्रान्ति के लिए तैयार नहीं है। उसके लिए जरूरत है शहर और कारखानों की सजग और चेतनाशील भूमि की।...

लोचन: [तीव्र दृष्टि] बीरेन, तुम भाग रहे हो।

बीरेन: मैं लाठियों की मार से नहीं डरता, लोचन!

लोचन: तुम भाग रहे हो लाठियों के डर से नहीं, बल्कि उन गुटबन्दियों, अंधविश्‍वास और झगड़े-फसाद की दल-दल के डर से, जिसे तुम एक छलाँग में पार कर जाना चाहते थे। [गम्‍भीर चुनौती-पूर्ण स्‍वर में] तुम पीठ दिखा रहे हो, बीरेन!

बीरेन: [हठात् विचलित] पीठ दिखा रहा हूँ... नहीं... नहीं... यह गलत है।... हम जा रहे...हैं, क्‍योंकि... क्‍योंकि...

[आया का तेजी से प्रवेश]

आया: हेम बीबी! बीरेन बाबू! अरे आप लोगों को चलना नहीं है क्‍या? सारा सामान रवाना भी हो गया। कहीं गाड़ी छूट गयी तो... कहाँ हैं बड़े सरकार? आप लोग भी गजब करते हैं...

[रायसाहब का प्रवेश, साथ में चेतू अटेची लिए हुए]

रायसाहब: यह आ गया मैं। चलो भाई, आया। बीरेन, तुम चेतू का सहारा लेकर आगे बढ़ो, पहले तुम्‍हें बैठना है।

बीरेन: मैं चलता हूँ, परमार। फिर कभी...

लोचन: फिर कभी [किंचित हँसी] फिर कभी!...


[आया अटेची लेती है, चेतू का सहारा लिये हुए बीरेन बाहर जाता है। पीछे-पीछे आया।]

रायसाहब: अच्‍छा भाई लोचन, हम भी चलते हैं... मुमकिन है तुम्‍हारा कहना सही हो!

लोचन: काश, मैं आपको रोक पाता!...

रायसाहब: हेम, तुम्‍हारी तसवीर उधर कोने में रखी रह गयी।

हेमलता: अभी लायी पापा, आप चलिए।

रायसाहब: अच्‍छा!


[चलते हैं]

लोचन: आप भी जा रही हैं हेमलता जी!

हेमलता: मजबूर हूँ।

लोचन: मैं जानता हूँ। बीरेन का मोह।...

हेमलता: मैं बीरेन को यहाँ रख सकती थी लेकिन...

लोचन: लेकिन!

हेमलता: [सत्‍य की खोज से अभिभूत वाणी] लेकिन एक बात है जिसे न पापा समझते हैं न बीरेन। पर मैं कुछ-कुछ समझ रही हूँ। पापा गाँव को लौटे प्रतिष्‍ठा और अवकाश से सराबोर होने, बीरेन ने देहात को क्रान्ति की योजना का टीला बनाना चाहा और मैं... मैं... गाँव की मोहक झाँकी में कल्‍पना का महल बनाने को ललक पड़ी।

लोचन: महल मिटने को बनते हैं, हेम जी!

हेमलता: यह मैं जानती हूँ, लेकिन हम तीनों यह न समझ सके कि हमारी जड़ें कट चुकी हैं, हम गाँव के लिए बिराने हो चुके हैं।... [आविष्‍ट स्‍वर] क्‍या आप इस दुविधा, इस उलझन, इस पीड़ा के शिकार नहीं हुए हैं? एक तरफ गाँव और दूसरी तरफ नागरिक शिक्षा-दीक्षा और सभ्‍यता की मजबूत जकड़! उफ, कैसी भयानक है यह खाई जिसने हमारे तन, हमारे मन, हमारे व्‍यक्तित्‍व को दो टूक कर दिया है? बताइए कैसे यह दुविधा मिट सकती है? कैसे हम धरती की गंध, धरती के स्‍पर्श को पा सकते हैं? बताइए... बताइए!

आया: [नेपथ्‍य में] हेम बीबी, हेम बीबी! जल्‍दी आओ देरी हो रही है।

लोचन: आपके प्रश्‍न का उत्तर मेरे पास है, लेकिन आप तो जा रही हैं।

हेमलता: जाना ही है। आप मेरे लिए पहेली ही बने रहेंगे।... वह तसबीर आपके लिए छोड़े जा रही हूँ। नमस्‍ते।

[जाती है]

लोचन: [कुछ देर बाद आप-ही-आप धीरे-धीरे] पहेली... [तसवीर उठाता है।] और ये बन्‍दी! [तसवीर की ओर एकटक देखता है] मैं जानता हूँ... [गहरी साँस]... मैं जानता हूँ कि कौन-सी जंजीरें हैं तो इन्‍हें बन्‍द किये हैं। [नेपथ्‍य में ताँगे के चलने की आवाज] जा रहे हैं वे लोग! और मैं बता भी न पाया!... कैसे बताऊँ?...कैसे बताऊँ कि यह कुदाली और ये मेहनत-कश हाथ, यही वे तिलिस्‍म है जिससे मैं धरती को भेद पाता हूँ। ये मेरी आजाद दुनिया के सन्‍देश-वाहक हैं, यही वह वाणी है जो मुझे गरीबी के लोक में अपनापन देती है...[रुक कर] तुम लोग जा रहे हो। बच कर भाग रहे हो...लेकिन मैं?... क्‍या मैं अकेला हूँ?... [विश्‍वासपूर्ण स्‍वर] अकेला ही सही, लेकिन बंदी तो नहीं। [इस बीच में चेतू आकर खड़ा-खड़ा लोचन की स्‍वगत-वार्ता को सुनने लगता है।]

चेतू: लोचन-भैया!

लोचन: कौन?

चेतू: लोचन भैया, आप तो अपने आप ही बातें करते हैं।

लोचन: चेतराम!... मैं भूल गया था।

चेतू: क्‍या भूल गये थे भैया?

लोचन: कि मैं अकेला नहीं हूँ।

चेतू: अकेले?

लोचन: हाँ, और यह भी भूल गया था कि हमारी दुनिया में बेकार बातें करने का समय नहीं है।

चेतू: काम तो बहुत है ही भैया। अब वह जमीन वापस मिली है तो...

लोचन: चलो, चेतराम तलहटी वाली जमीन पर खुदाई शुरू करें, आज ही।

चेतू: जी, बाँस के झुरमुट भी तो लगाएँगे।

लोचन: हाँ, और बाँध भी बाँधेंगे।

चेतू: अगली बरखा तक खेत तैयार करेंगे।

लोचन: [उल्‍लासपूर्ण वाणी] चलो हम रोज साँझ को अपने पसीने के दर्पण में कभी न मिटने वाली झाँकी देखेंगे। चलो चेतराम!

[कंधे पर कुदाली और बगल में चेतराम को लेकर प्रस्‍थान करता है। नेपथ्‍य में वाद्य-संगीत जो ओजस्विनी लय में परिवर्तित हो जाता है।]