बचपन की सहेली / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
एक थी मुक्ता, एक था मैं ।
मैं कौन था, ये मुझे ही पता न था । किंतु मुक्ता कौन थी, ये जैसे पूरी दुनिया को मालूम था । मुक्ता यानी सुशोभित की सबसे अच्छी सहेली। जहां मुक्ता, वहां सुशोभित । दोस्त, साथी, हमजोली । इन दोनों की तो शादी करा देनी चाहिए, दीक्षित जी की पत्नी कहा करती । हम हंस देते | शादी क्या होती है, ये साल नब्बे में नौ साल के हम दोनों को क्या मालूम था ।
उज्जैन में एक कार्तिक चौक है । ब्राह्मणों की बस्ती । उस कार्तिक चौक में एक ज़माने में एक बाड़ा हुआ करता था - हाथी वाले पंडे का मकान | श्री कैलाश नारायण चौबे जी उसके मालिक थे, जो बराई माता की गली में रहते थे। इसी गली में नागर धाकड़ समाज का मंदिर भी था । बाड़े में आठ मकान थे, जिसमें आठ परिवार ठसकर रहते थे। कोई सेठ नहीं, सभी किरायेदार । एक मकान में पंडित, दूसरे में सिंधी, तीसरे में तम्बोली और चौथे में मोढ़न । मोढ़न यानी मेरी मां, जो गुप्ता - बनिया परिवार की थीं और जिन्होंने झाबुआ के एक ठाकुर से अंतर्जातीय प्रेम-विवाह किया था । उनका सुपुत्र मैं । हम पहले तले पर रहते थे । नीचे बाड़े में सिंधियों का डेरा था। सिंधियों की ही बेटी थी मुक्ता ।
स्कूल में मेरी सहपाठिनी । खेलकूद में मेरी हमकदम | पढ़ाई में कमजोर, लेकिन मौज-मस्ती में अव्वल । सलवार-कुर्ती, दो चोटी, चोटी में लाल रिबन - हमेशा इसी रूप में दिखती । स्कूल में वो सालों तक मेरी कॉपी से तैयारी करके पास होती रही। जब चाहे मेरे घर आ जाती । कुंडी खड़काती । दरवाज़ा खोलो तो सामने हाज़िर ।
- क्या काम है ? - भूगोल की कॉपी चाहिए, कल विजयवर्गीय मैडम को दिखाना है । - ठीक है, दे दूंगा, पर पहले मेरे साथ खेलना पड़ेगा । -हां, चल । बैठक-चांदी खेलते हैं। -नहीं, वो नहीं, मुझको तो लंगड़ी - पव्वा खेलना है । अंटी खेलना मुझको आता नहीं, और सितौलिये में तू हर बार जीत जाती है ।
-चोर-सिपाही खेलें तो कैसा रहे? - तू चल तो सही, फिर देख लेंगे । और फिर, देर तक बाड़े में गूंजता रहता " घोड़ा बादाम शाही, पीछे देखे मार खाई" से लेकर
“छिपे रहना भाई, आया है सिपाही !” का अनुनाद ।
- ये तेरे बटुवे में क्या है ? - चांदी का सिक्का । - कहां से लाई ? - पाकिस्तान के सिंध से मेरी नानी आई थी, वो ही दे गई है । मुझको दिखा ना । - नहीं, ये नसीब का सिक्का है, किसी को दिखाते नहीं । - ठीक है, अब तू मेरी कॉपी लेके दिखा दे । - ऐ इत्ता गुस्सा क्यों करता है रे, चल चित्रकला वाली कॉपी में फोटो चिपकाते हैं। मैंने आटे - चावल की लई बनाई है !
तीसरी से चौथी, चौथी से पांचवीं, पांचवीं से छठी - साल दर साल दर साल बीतते रहे। मैं सिंधियों की जीवनशैली देखकर चकित रहता था। मसलन, वो लोग चीनी मिट्टी नहीं, स्टील के मग में चाय पीते थे । बशी के बजाय तश्तरी इस्तेमाल करते थे। और वो भी जस्ते या एल्युमीनियम की । चाय के साथ वो हमेशा टोस्ट खाते थे। उनकी रसोई में चवले बहुत पकाए जाते । मीठे में हलुआ । -ये हलुआ खा-खाके ही तू ऐसी टुनटुन हो रही है, मैं उससे कहता । - तेरे को उससे क्या, तू अपना काम कर ना, वो तुरंत जवाब देती । बातों में उससे कोई जीत नहीं सकता था । कतरनी की तरह उसकी जबान चलती, ज्यों दांतों से कान काटती।
आठवीं क्लास । एक रोज़ की बात है । स्कूल में लड़कियां मुक्ता को घेरे हुए थीं, और वो सुबक रही थी । क्या बात रही होगी? हम लड़के पास से गुज़रे तो मुक्ता ने श्श्श करके सबको चुप करा दिया। क्या मुक्ता के पास कोई ऐसी बात भी हो सकती है, जो मुझसे छिपाई जा सकती है ? क्लास में उषा मैम ने कहा- मुक्ता, जरा बाहर आओ । हम सब बाहर देखने लगे, मैम उसको देर तक हिदायत देती रही । आख़िर में मुक्ता ने रोते हुए कहा- लेकिन इसमें मेरा क्या दोष, मैं तो उस लड़के को जानती तक नहीं । और, उसकी आंखों में ये मोटी-मोटी बूंदें ।
उस दिन के बाद सबकुछ संगीन हो गया, सबकुछ संजीदा । बातें छुपाई जाने लगीं, बातें समझ न आने लगीं। शाम को वो बाड़े में खेलने नहीं आती । बहुत दिन हुए तो मैंने उसके घर में झांककर देखा । वो पेटी पर बैठी होमवर्क कर रही थी। मैंने छी करके पुकारा । उसने मेरी तरफ देखा मैंने अंगुलियों से पेंसिल-परकार का निशान बनाकर इशारा किया, रेखागणित की कॉपी चाहिए? वो
चुप रही। पीछे से मेरी मम्मी ने आवाज़ लगाई। बाद में मुझसे कहा- तुम लोग अब बड़े हो गए हो, उसको ऐसे इशारे करना बंद करो ।
क्या सच ही अब हम बड़े हो गए थे? क्यूं बड़े हो गए थे? इससे क्या लाभ था?
आठवीं का वो पूरा साल ऐसे ही बेढब बीता । असहजता से भरा । नौवीं के बाद हमारा आठ साल का स्कूल का साथ छूट गया । वो विजयाराजे हायर सेकंडरी स्कूल चली गई, मैं महाराजवाड़ा । फिर वो गर्ल्स डिग्री कॉलेज चली गई, मैं माधव कॉलेज। कार्तिक चौक का बाड़ा चौबे जी ने खाली करवा लिया। वो कुम्हारवाड़ी रहने चली गई, मैं पुल के उस पार घासमंडी। नए शहर से पुराने शहर कौन मेलजोल करने जाता है और एक ही शहर में एक-दूसरे को भला कौन चिट्ठी लिखता है ? बात करने के कोई रास्ते थे नहीं । बात करने की ज़रूरत भी क्या थी ।
कोई दस साल बाद मेरे घर पर एक कार्ड आया । मां ने खुशी-खुशी बताया- अरे, वो चौबे जी के बाड़े में मुक्ता थी ना, उसकी शादी हो रही है। सबको बुलाया है। पच्चीस को चलना है, सिंधी धर्मशाला में। मैंने मन ही मन बुदबुदाकर कहा, जैसे खुद से कह रहा होऊं, हां जाऊंगा ।
धर्मशाला खचाखच भरी थी । मैं पहुंचा। मालूम हुआ, मुक्ता शादी करके इंडिया से बाहर जा रही है, उसका पति बहरीन में काम करता है । पासपोर्ट बन गया है । अब इंडिया आना क्या हो, साल में एकाध बार आ जाए तो बहुत । दुल्हन दूर से दिखाई दी । मैं पास जाकर खड़ा हो गया । मुझसे आंख मिली तो हौले से मुस्कराई। उसमें आज ये इतनी नजाकत कहां से चली आई, वो तो इतनी बदतमीज और उद्दंड थी? या मैंने ही उसे बहुत दिनों के बाद देखा है। कितनी सुंदर लग रही थी वो। सितौलिया खेलने वाले खुदुरे हाथों में मेहंदी । स्याही के दाग वाली अंगुलियों में अंगूठी। जो बाल उलझे रहते थे, उनमें मांगटीका । दीक्षित जी की बीवी नज़र आई, जो चौबे जी के बाड़े में रात-दिन कहा करती थी, इन दोनों की तो शादी करा देनी चाहिए । फिर मेरी शादी उससे क्यों नहीं कराई ? या यों ही उन्होंने कहने को कह दिया था । ऐसी बेसिरपैर की बातें तब लोग कहते ही क्यों हैं?
ब्याह की रस्में हुई । लाड़ा-लाड़ी खाना खाने बैठे। दोनों ने एक-दूसरे को मीठा खिलाया। मुक्ता ने थोड़ा-सा चखा । हलुआ ठूंस-ठूंसके मोटी हो गई है, मेरे मन में गूंजा। मैं मुस्करा दिया । फिर सोचा, जैसे वो दस-बारह सालों का साथ एक सपना हो, पलभर में बुझ गया । आप हजार साल किसी रौ में जीते रहो, एक दिन सब मटियामेट कर देता है । किसी को कुछ याद नहीं रहता । लोग सब भूलकर आगे बढ़ जाते हैं ।
दावत के बाद मैं जाने को हुआ कि मुक्ता का भाई दौड़ता हुआ आया। उसने मुझे पुकारा। मैंने मुड़कर देखा । उसने मुझे एक डिबिया थमाई और कहा, ये जीजी ने कहा था कि तुम आओ तो दे दूं। और भैया, बाकी सब ठीक ? मैंने कहा, हां सब कुशल - मंगल, लेकिन ये कहते-कहते दिल धक्क से रह गया । तो क्या आज भी मुक्ता को मेरी याद थी? ब्याह करके बिदेस जा रही है, पर सबकुछ भूली नहीं थी ? आख़िर क्या हो सकता है इस डिबिया में ? उधेड़बुन में घर पहुंचा। जेब से डिबिया निकाली, उसे खोला, और देखता ही रह गया। पलभर को मुझको लगा कि मेरे चेहरे पर मुस्कराहट की एक झीनी चांदनी फैल गई है। उसकी एक झलक शायद सिंध प्रांत के उस चांदी के सिक्के में भी कहीं ना कहीं कौंधी तो होगी !