गहनों से लदी दुल्हन भगाना / बायस्कोप / सुशोभित

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गहनों से लदी दुल्हन भगाना
सुशोभित


मेरा ब्याह कब होगा? किससे होगा? जिससे होगा वो कैसी होगी ? अभी इस वक़्त वो कहां होगी ? क्या वो भी मेरे बारे में सोचती होगी ?

इसी तरह के खयालों में जब दिन-रात गुज़रते थे, उन्हीं बेसबब दिनों का यह किस्सा है।

मैं अपनी ही उधेड़बुन में मोटरसाइकिल चलाता माधवनगर से चला जा रहा था। बजाज, सीटी-100 । किफायत की सवारी । जन-यान। ग़रीब-रथ। यामाहा जैसा पिकअप नहीं तो क्या हुआ, पेट्रोल तो नहीं पीती, अस्सी का एवरेज तो देती है? और क्या चाहिए ? नेपोलियन का जो पोर्ट्रेट हमने हमेशा देखा। उसमें उसका घोड़ा दो पैरों पर खड़ा कूच को तैयार नज़र आता है । यामाहा भी वैसी ही उदग्र मोटरसाइकिल है । किंतु हम कहां के नेपोलियन थे ? हमारा शब्दकोश तो असम्भव के पर्यायवाची शब्दों से भरा हुआ था!

तो साहब, अपनी ही धुन में चला जा रहा था कि देखता क्या हूं- सामने से एक दुल्हन दौड़ी चली आ रही है !

कपाल पर मांगटीका, कलाई में चूड़े, बदन पर लाल जोड़ा, गले से कमर तक जेवर, और... हाथों में सूटकेस । मैंने आंखें मलीं और फिर देखा नहीं, यह वहम नहीं था। सच में ही एक दुल्हन दौड़ी चली आ रही थी । दुल्हन भी कभी दौड़ती हैं ? वो तो सप्तपदी भी यों निरावेग होकर चलती हैं, जैसे धरती पर नहीं हवा में तैर रही हों । वह तो विदाई के समय भी ऐसे मंथर सरकती हैं, मानो पांव में कई मन की सिल्लें बंधी हों | दुल्हन भी कभी दौड़ती हैं ?

जैसे कि इतना ही कम न था, तिस पर तुर्रा यह कि वह दुल्हन मेरी तरफ़ दौड़ी चली आ रही थी !

मैं जस का तस रह गया। वहीं अवाक रुक गया। गाड़ी चौथे गियर में बंद हो गई। एकटक देखता रहा । दुल्हन मेरे पास आई और बोली- बस स्टैंड चलोगे?

मैंने मंत्रमुग्ध होकर कह दिया- हां। मैंने यह नहीं पूछा कि मैं ऑटो-रिक्शा नहीं हूं, बस स्टैंड चलोगे का क्या मतलब है?

दुल्हन मेरी गाड़ी पर बैकसीट पर आकर बैठ गई । मैंने किक मारी। चौथे गियर में बंद होने के कारण गाड़ी हिचकोला खा गई । मैंने कांपते हुए पांव से उसको न्यूट्रल किया। हेडलाइट के ऊपर हरी बत्ती जल गई। उसने चलने का संकेत किया। दुल्हन ने मन ही मन सोचा होगा, ये भला नौसुखिया मिला है आज ।

देवासगेट चलोगे? दुल्हन ने पूछा। जहन्नुम चलने का बोलोगी तो भी चल पडूंगा, मैंने मन ही मन कहा, और चल दिया ।

थोड़ा तेज़ चलाओ ना । दुल्हन ने आग्रह किया । मेरे हाथ एक्सीलेटर पर घूम गए। हवा का एक बगूला कमीज में घुसा और फुगावे - सा फूल गया । मुझको लगा, जैसे मैं किसी रथ पर सवार हूं । या किसी विश्वविजेता अश्व पर । दुल्हन की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं । मेरी पीठ पर उसकी गर्म सांसें चिड़िया का एक घोंसला बुनने लगीं ।

एक घोंसला, जिसमें एक-दूसरे के प्यार में डूबे दो पक्षी रहते हों । जबकि संसार, इसके बाहर, केवल संध्यावेला का निरर्थ कोलाहल!

मुझको मथुरा मोहन नौटंकी कम्पनी की याद हो आई । कम्पनी की हीराबाई तो पतुरिया थी, वधू कहां थी ? किंतु फणीश्वरनाथ रेणु का हिरामन उसे अपनी बैलगाड़ी में ऐसे ही ले जाता है, जैसे किसी नववधू का गौना कराकर ला रहा हो - “लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया !” उसको देख गांव - जवार के बच्चे गौने का गीत गाने लगते हैं । हिरामन के मन में कोमल भावना का ज्वार मचल उठता है। हिरामन की स्वयं की दुल्हनिया कहां थी ?

मुझको निमिषभर को लगा, जैसे कि यह घर से भागी दुल्हन मेरी अपनी वधू थी, और मैं उसका गौना कराकर ला रहा था । एक गहरी रागात्मक अनुभूति मुझे मथने लगी। देवासगेट गाड़ी अड्डे पर ठीक मेरे कान में जब एक बस ड्राइवर ने भोंपू बजाया तब जाकर प्रकृतिस्थ हुआ ।

दुल्हन की काजल अंजी आंखों ने मुझसे जैसे प्रश्न पूछा । मैंने पूछा- आपको कहां जाना है। उसने कहा- नलखेड़ा । मैंने कहा- यहां तो खंडवा की बसें खड़ी हैं, नलखेड़ा की बस उधर से मिलेगी । दुल्हन ने कहा, तो वहीं चलिए । मैं चला। नलखेड़ा की बस बाहर ही खड़ी मिली। इंजिन घरघरा रहा था । दुल्हन उतरी और निश्चिंत होकर बस में जा बैठी । गाड़ी चलने को ही थी । मैं ठीक समय पर दुल्हन को ले आया था ।

किंतु ये दुल्हन जा कहां रही थी? और उसे कोई छोड़ने क्यों न आया ? और वो यों भागती हुई क्यों आई थी? ये तमाम प्रश्न अब जाकर मेरे जेहन में उगे । अब जाकर मुझे होश आया। अभी तक तो बेसुध था । गाड़ी चल दी । बस की खिड़की में मुझे दुल्हन की कलाइयां दिखीं, जिनमें लाल चूड़े। फिर उसका कोमल चेहरा खिड़की में उभरा। वो मुस्कराई । क्या यह धन्यवाद था ? हां, धन्यवाद ही होगा। यह प्रेम निवेदन तो हरगिज नहीं था ।

जैसे रिक्त हो गया हूं, वैसे ही धक्क से खड़ा रह गया । ऐसा लगा जैसे मेरा कुछ लुट गया हो । मेरे घर से डोली उठ गई हो और अब केवल खाली कनस्तर-सा मेरा अंतर्मन हो, गूंजता हुआ । सांय - सांय करता । बंजर और वीराना । तमाम सपने अपनी जगह कायम थे । कोई सपना पूरा नहीं हुआ था । केवल चंद लमहों का एक मनबहलाव था । कुछ अरमान जरा देर को मचल उठे थे। शाम को जाकर वस्तुस्थिति मेरे सामने स्पष्ट हुई।

सांध्य दैनिक में बड़े अक्षरों में ख़बर थी- " माधवनगर क्षेत्र से एक दुल्हन दिनदहाड़े फरार। सूत्रों के अनुसार तहसील नलखेड़ा, जिला शाजापुर की रहने वाली इस लाचार लड़की के माता-पिता ने गुरबत से तंग आकर पूछताछ किए बिना एक शातिर नौजवान से उसको ब्याह दिया था। मालूम हुआ वो लड़का फरेबी है। प्रदेश में फर्जी शादी गिरोह सक्रिय है, जो नवविवाहित लड़कियों को झांसे में लेकर जेवर - नकदी लूट लेता है। उज्जैन आते ही लड़की को सच पता चला तो वह पिंजरे के पंछी की तरह तड़प उठी । कम ही युवतियां इस गिरोह के चंगुल से अपने गहने-जेवर-नगदी बचा पाती हैं किंतु वह भाग्यशाली सिद्ध हुई कि अपना सारा सामान लेकर वहां से निकल सकी । आख़िरी बार उसे माधवनगर थाने के सामने एक युवक की मोटरसाइकिल पर देखा गया था । अटकलें लगाई जा रही हैं कि यह युवक उसका प्रेमी है, जो उसे इस जहन्नुम और जिल्लत से बचाकर अपने साथ ले गया ।" मैंने अख़बार एक तरफ रख दिया और शून्य में ताकने लगा। अब तक तो गाड़ी नलखेड़ा लग गई होगी? क्या बना होगा उसका ? मां-बाप ने अपनाया होगा या नहीं ? दुखियारी थी, मां-बाप आसरा न देंगे तो कौन देगा? इस छली संसार में एक अकेली जान को कितने दुःख हो सकते हैं, कितने उसकी घात में खड़े हो सकते हैं, इसका कोई हिसाब भी है ?

मैंने नज़र घुमाई । अख़बार के हर्फ मेरी आंखों के सामने कौंध गए- "वह युवक उसका प्रेमी था, जो उसे बचाकर ले गया ! "

नहीं, मैं उसका प्रेमी नहीं था | वो मेरी ब्याहता नहीं थी । मैं उसका गौना कराकर नहीं लाया था। मैं केवल एक पुल था, जिससे होकर वो गुज़री । दूसरे पार लगी। मैं केवल एक रास्ता था । मैं केवल एक जरिया था । वो मेरी दुल्हन नहीं थी। वो गाड़ी अड्डे पर बस की खिड़की में टंगी केवल एक मुस्कराहट थी, जिसने मुझे इंडिया के घी की तरह मथ दिया था । मैं केवल एक खाली कनस्तर था, जिसमें अभी जाने क्यूं, यह लहर बनकर बार-बार उग आती थी, उसके कंगन की चहक !