पड़ोस में प्रेमिका / बायस्कोप / सुशोभित

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पड़ोस में प्रेमिका
सुशोभित


वो लड़की मेरे पड़ोस में रहती थी - दो मकान छोड़कर । मैं उन्नीस का था और बी.ए. फ़र्स्ट ईयर का परचा भरा था । वो इलेवन्थ में पढ़ती थी और बहुत से बहुत सत्रह की होगी । मैं उन दिनों लम्बा-सा कुर्ता पहनता था और सई-सांझ अहाते में किताब लेकर बैठता था । वो भी दिन में दो बार - एक बार स्कूल से लौटते समय, एक बार ट्यूशन से - मेरे घर के सामने से निकलती । मुझ पर नज़र पड़ती तो आंख झुका लेती । दुपट्टा ठीक करने लगती । बदन चुराती । मैं उसे देखता रहता। जब तारे छुप जाते हैं तो पूरब में लाली खिल आती है । जब कोई लड़की आंख झुका लेती है तो उसके होंठों पर भी एक भूलेपन की ललाई चली आती है। मैं उससे अपनी नज़र नहीं हटा पाता । ।

एक रात घर लौटा, साइकिल दालान में लगाई और सांकल लगाने को बढ़ा कि देखा, दो मकान छोड़कर उस एक घर में बत्ती जल रही है, खिड़की में परदा खिंचा है और परदे के पीछे एक परछाई है । मेरा दिल धक्क से रह गया । क्या यह सच में मुमकिन है, मैंने खुद से कहा । अगले दिन फिर वही दृश्य । उसके बाद फिर वही। तो क्या वह रोज़ रात खिड़की में खड़ी मेरा इंतज़ार करती थी ? गौरव से मेरा कलेजा फूल गया । चाहना की अनुभूति मुझको मथने लगी।

हम दोनों के मकान के बीच और एक मकान था । उसमें कोई चौदह साल की एक लड़की रहती थी, जो उसी के स्कूल में थी, लेकिन सेवन्थ में पढ़ती थी। उसकी उससे आस-पड़ोस की बोलचाल थी । एक दिन वह आई और बड़ी देर तक शरारत से छेड़ती रही । फिर धीरे से बोली- “भैया, कोई तो है जो रोज़ आपका इंतज़ार करती है ।" मैं सकपका गया । अनजान बनते हुए पूछा- " कौन?" वह खिलखिलाई और बोली - " जैसे कि आपको पता ही नहीं ।"

फिर वो शाम भी आई, जब वो चहकते हुए एक पर्ची लेकर आई । आंख दबाकर बोली, “किसी ने आपके लिए यह संदेश भिजवाया है ।" मैंने पर्ची ले ली और जेब में रख ली। कई घंटों तक खोलकर पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई । रात को साहस करके देखा । उसमें लिखा था - " आपका नाम Sushobhit बहुत लम्बा है, इसलिए मैं आपको SH कहती हूं । ये नाम अच्छा है ना?” मैं मुस्करा दिया। जवाब में लिखा- “हां, Sweet Heart के लिए SH बहुत अच्छा शॉर्ट फॉर्म है!” एक पल में बात आगे बढ़ गई । संकोच का बांध टूट गया। अब चिट्ठियों का सिलसिला शुरू हुआ। कुछ दिन वह चौदह साल की लड़की हम दोनों के बीच संदेशवाहक बनी रही, फिर हमने ही इसका एक रास्ता खोज निकाला । हम पर्ची को पत्थर में लपेटकर एक-दूसरे की छत पर उछाल दिया करते थे । उनके जरिये हमारी चाहना बढ़ने लगी । वह चिट्ठी के नीचे दिल का निशान बनाती, मैं दो दिल का निशान। पूरी-पूरी रात हम छत पर टहलते और कॉपी के पन्ने फाड़-फाड़कर पर्चियों के जरिये बात करते । एक रात में तीन या चार वाक्य ही इस तरह हम कह पाते। उस ज़माने में कहां इंटरनेट और कहां मोबाइल ? रातरानी महकती रहती। अंधकार में वो दो मूर्तियां एक-दूसरे को लालसा से निहारती रहतीं ।

एक दिन उसकी चिट्ठी आई, जिसमें लिखा था - " क्या किसी को इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि कोई उसको चाहता है?" मैंने जवाबी खत लिखा- “और कोई तो यह भी नहीं सोचता कि चिट्ठी के नीचे बने दो दिल में से दूसरा दिल किसका है ?"

एक बार प्यार का इजहार हो जाए तो फिर तमन्नाएं आसमान छूने लगती हैं। अब चिट्ठियों से हमारा कहां मन भर सकता था ? तब बहुत हिम्मत करके एक दिन बाहर मिलने की योजना बनाई । शरमाते - सकुचाते हम हरसिद्धि मंदिर में मिले । मंदिर के पीछे शिप्रा नदी थी। हम नृसिंह घाट पर जा बैठे। सुनसान जगह थी । वहां रहने वाला एक आदमी हमें देर तक देखता रहा । फिर आकर बोला, “बेटा यहां सांप वग़ैरा निकलते हैं, यहां बैठना ठीक नहीं।" हम उसका इशारा समझ गए। वहां से उठे। पास में एक कॉलोनी थी। वहां एक बाग था। अब हम बाग में जाकर बैठे। एक-दूसरे का हाथ थाम लिया । शाम हुई तो कॉलोनी में कुछ लोग टहलने चले आए। अब एक अधेड़ उम्र के सज्जन हमारे पास आए और बोले, “ये पब्लिक पार्क है, यहां हम शाम को घूमने आते हैं और हमारे बच्चे यहां खेलते हैं। तुम

लोग यहां ऐसे मत बैठो।" हम हताश होकर वहां से भी उठे । गला रूंध गया। दो प्यार करने वाले मन ही मन अपनी एक दुनिया बसा लेते हैं, लेकिन जो वास्तविक दुनिया होती है, उसमें उनके लिए एक कोना भी ऐसा नहीं होता, जहां वो दो घड़ी चैन से बैठ सकें ।

तब हम तड़पते-तरसते प्रेमियों के लिए हरितालिका तीज का त्योहार वरदान बनकर आया। इस दिन लड़कियां निर्जला व्रत रखती हैं और रात जागकर भोर में व्रत तोड़ती हैं। वो दुलहन की तरह सजकर तैयार होती हैं और उनकी पूरी रात भजन-कीर्तन, गप्प - तफ़रीह में कटती है । उस एक रात लड़कियां शहर की सड़कों की रानियां बन जाती हैं। उसने भी तीज का व्रत रखा। मोहल्ले में दस घर छोड़कर उसकी मौसी रहती थी । आधी रात हुई तो उसने मां से कहा, मैं मासी के यहां जा रही हूं, सुबह लौट आऊंगी। मां राजी हो गई । वह बड़ी दिलेर थी। घर से छूटी और सीधे मेरे यहां चली आई | हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और सांसें थामकर छत पर जा बैठे। हमारे दिल धौंकनी की तरह धड़क रहे थे । मैंने खुद से पूछा - " क्या यह कोई सपना है ? "

जिसे दूर से देखता था, चिट्ठियों से जिससे बात करता था, जिसको छूने को तरसता था, वो अभी दुलहन की तरह सजी मेरे सामने थी, और अंधेरे की चादर हमें अपने में छुपाए हुए थी । हमारे अरमान जवां हो गए। वो मेरी गोदी में सिर रखकर लेट गई, मैं उसके बालों और गालों को सहलाता रहा । तब वो बड़ी मासूमियत से बोली- “ आज की रात हमारी है और मैं तुम्हारी हूं । जितना प्यार करना है, कर लो। लेकिन प्लीज, होंठों पर प्यार नहीं करना, मेरा व्रत टूट जाएगा!”

उस जादुई रात को ना तो वो, और ना ही मैं समझ पा रहे थे कि हमारे साथ यह सब क्या हो रहा है । लेकिन उससे सुंदर रात मैंने अपने जीवन में कोई दूसरी नहीं जानी थी।

आस-पड़ोस के लोगों की नज़र से ऐसे रिश्ते ज़्यादा दिन छुप जाएं, ऐसा तो हो ही नहीं सकता । धीरे-धीरे हम भी नज़र में आ गए। हमें इशारों से बात करते देख लिया गया । राज खुल गया । कानाफूसी होने लगी | मोहल्ले में बदनामी हुआ। शोर बरपा । उसके घर वालों को पता चला तो उसका बाहर आना-जाना बंद हो गया । इलेवन्थ के बाद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई। कुछ दिन बाद उसके काका साहब मेरे घर आए और मुझे बहुत धमकाकर गए । फिर मेरे मालिक - मकान को पता चला तो वो भी बिगड़े । एक दिन आए और इशारे में कह गए कि बेहतर होगा यहां से बोरिया-बिस्तर समेट लो | मुझे मकान खाली करना पड़ा। उस मकान के साथ वो छत, वो खिड़की, वो परदा, वो परछाई, वो अंधेरा, वो रातरानी, और वो प्यार - सब पीछे छूट गए।


फिर बहुत साल बीत गए । मैंने मोबाइल फोन ले लिया था । एक दिन मुझे कॉइन बॉक्स से एक फोन आया। फोन उठाया । उसकी आवाज़ थी । उसने कहा - " तुमसे मिलना है ।" तय किया कि इंडियन कॉफी हाउस पर मिलेंगे। वो आई। मैंने कहा- “मेरा नम्बर कैसे मिला?” उसने जैसे सुना ही ना हो, अपनी रौ में कहा- “इस रिश्ते की वजह से मैंने क्या क्या सहा है, मैं ही जानती हूं। सब ख़त्म हो गया। मेरी पढ़ाई चौपट हो गई । अब मेरी शादी तय हुई है । तुमसे यह कहने आई हूं कि मैंने जो खत तुम्हें लिखे थे, वो सब लौटा दो।” मैंने कटाक्ष किया- “अच्छा, तो तुमको लगता है मैं वो खत तुम्हारे पति को दिखलाने का डर बताकर तुमसे पैसे ऐंठूंगा?" वो बोली- “जो चाहे समझो, लेकिन मुझको वो सब वापस चाहिए।” मैंने तैश में आकर कहा, “मैं वो जेब में रखकर नहीं घूमता हूं, कल आकर ले जाना। इसके अलावा और कुछ चाहिए ?” उसने अपराधियों की तरह सिर झुकाकर कहा - "नहीं, और कुछ भी नहीं। "

अगले दिन वो आई। मैं अपनी मोटरसाइकिल लिए खड़ा रहा। गाड़ी से नीचे नहीं उतरा। उसे देखते ही मैंने एक थैली थमा दी, जिसमें मेरे और उसके तमाम खत थे। काला चश्मा चढ़ाया और गाड़ी स्टार्ट कर वहां से चला गया । मैंने लौटकर देखा नहीं लेकिन मुझे ऐसा लगा, जैसे वो देर तक वहां खड़ी मुझे देखती रही थी। मुझे अपनी पीठ पर उसकी नज़र की छुअन महसूस होती रही । मैंने तमाम खत लौटा दिए थे, जिनमें उसने आख़िर में एक दिल और मैंने दो दिल बनाए थे। पता नहीं, उसने उन पत्रों का क्या किया, जलाया या फाड़कर फेंक दिया या कहीं सहेज लिया। लेकिन पत्रों के साथ एक गहना भी था। हरितालिका तीज की उस रात वह उसे मेरे पास भूल गई थी और मैं उसे उन जादुई लमहों की यादगार बतौर अपने पास हमेशा सहेजकर रखता था । वो अंगूठी नहीं थी, बल्कि चांदी का एक छल्ला था, जो मैंने उसे उस रोज़ भेंट किया था, जब हम हरसिद्धि मंदिर में मिले थे। उसे लौटा देने के बाद मैं पछतावे से भर गया । मुझको लगा, छल्ले में तो कोई नग नहीं था, लेकिन जब उसने उसे देखा होगा तो शायद उसकी आंख में एक मोती देर तक टिमटिमाया होगा ।