पैठण की गायिका / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
पैठण की वो युवा गायिका थी । अभी पक्का गाना सीख ही रही थी । मेरे शहर में एक जलसे में गाने आई । मैं इंटरव्यू लेने पहुंचा । ऐसा नहीं कि वो कोई बहुत बड़ी सितारा थी । किंतु माजरा ये था कि जिस अख़बार में उन दिनों मैं नौकरी करता था, वह छोटी हैसियत का था । उसको विज्ञापन नहीं मिलते। पूरे-पूरे खाली पन्नों के ख़ाके मुख्यालय से जारी किए जाते । पेज भरने का सवाल रोज़ सामने होता । तब पेपर के लोग मेरी तरफ उम्मीद भरी नज़र से देखते कि आठ में से पूरा एक पेज तो यह लिक्खाड़ ही भर देगा । मैं तो इस पर सदैव राजी रहता । शर्त यह रहती कि शहर में जब भी कोई लेखक, गायक, चित्रकार, अभिनेता आएगा, मैं इंटरव्यू करूंगा और उस पर तफसील से लिखूंगा। किसी को भी इस पेशकश पर ऐतराज भला क्यूं होता?
संगीत, चित्रकला और रंगकर्म के बारे में जितना कुछ मैं जानता हूं, वह उन्हीं दिनों के लम्बे साक्षात्कारों की देन है । मैंने इन चीज़ों पर बातें कर-करके इन्हें जाना। कलाकारों से मैं बहुत सवाल करता । संगीतकारों से तो विशेषकर । एक बार फ़र्रूख़ाबादी बाज बजाने वाला एक तबलावादक आया । उससे पूछा, आप बनारस वालों से फर्क कैसे, जरा खुलकर बताइये? कश्मीरी संतूर बजाने वाले से पूछा, ये सोपोर से संतूरों का ऐसा क्या राब्ता है? एक विलैतख़ानी सितारिये से पूछा, तुम लोग मैहर घराने वालों की तरह तूम्बा क्यों नहीं लगाते ? कोई ध्रुपदिया मिल गया तो मियां की तोड़ी की तफ्सीलें । ख़यालिया मिल गया तो अमीरख़ानी विलम्बित के बयान । बीनकार मिला तो अदारंग-सदारंग के ज़माने के क़िस्से।
वो पैठण की लड़की थी । एक उभरती हुई गायिका ! मैंने उससे मिलने का समय लिया। अख़बार वालों को भला क्यूं मना होने लगी? मध्याह्न ढलते-ढलते मिलने जा पहुंचा। वो अपने कमरे में नहीं थी। अब क्या करूं। आयोजक से फोन नम्बर लिया। मालूम हुआ, वो देव -दर्शन को निकल आई थी, किंतु अभी
रुद्रसागर ही लांघा था। अभी आई, कहकर उसने फोन काटा। मुझे सुनाई दिया, वह नाद भरा मराठी कंठ - नित्यप्रति के रियाज़ से सधा हुआ ।
पंद्रह मिनट इंतज़ार के बाद आहट सुनाई दी । देहरी पर सैंडिल उतारने का उपक्रम। फिर धौंकनी-सरीखे हांफते हुए वक्षस्थल के साथ उसने कमरे में प्रवेश किया- माफ कीजिये, आपको इंतज़ार करना पड़ा । कोई बात नहीं- मैंने कहा- आर्टिस्ट लोगों से मिलना कहां सहज होता है। वो मुस्कराई । गोल, भरा हुआ चेहरा । भाल पर स्वेदबिंदु थे किंतु कमरे के प्रायः तिमिर में भी उसकी आंखों की चितवन कौंध उठी। मैंने अब ध्यान से देखा - महाराष्ट्रीयन लड़कियों के जैसा संवलाया मुखमण्डल, कत्थई कोंकणस्थ होंठ और तीखे नयन-नक्श । एक-एक कर अनेक संज्ञाएं मेरे मन में गूंज गईं- मातंगी, देवदासी, जोगिनी, कलावंतिनी !
बहुत सादी-सी साड़ी उसने पहन रखी थी। चेहरे पर काजल के सिवा कोई सिंगार नहीं । कुण्डल भरी अलकें । माथे पर बिंदिया । अब वह इत्मीनान से बात करने बैठी। मैंने प्रश्नों का पिटारा खोला। वो एक-एक कर उत्तर देती रही । बीच-बीच में किसी उत्सुक प्रश्न पर ठठाकर हंस देती तो मैं देखता - भुट्टे के दानों जैसी निष्कलुष दंतपंक्ति! ।
आज रात आप क्या गाने जा रही हैं ? पूछने पर उसने बतलाया, किशोरी ताई का रागेश्री । मैंने कहा, तनिक बोल तो सुनाइये । उसने कहा, अभी लीजिये । कंठ खंखारकर आलाप लिया- आली, और फिर एक परिकल्पित सम के सम्मोहन में बंधकर- प ल क ना लागी । मैं अपलक सुनता रहा । यह मराठी कंठ में ही सम्भव हो सकता था - ऐसा लगाव, वैसी सन्निधि | यह कौन है ? मैं सोचने लगा । जैसे आलन्दी की कोई देशस्थ कन्या, नगर-नगर ज्ञानेश्वरी गाने वाली । या अभंगों का गान करने वाली ध्यानेश्वर की भगिनी । या बाल गंधर्व के लोकनाट्य की कोई नायिका - पुणे की चितपावन ।
वो मुस्कराई। मेरी तंद्रा टूटी । देर तलक हम यों ही धीमे-धीमे बतियाते रहे। उस संवाद में एक मीठी प्रीति भर आई । प्रयोजन था, तभी ना यह सम्भव हुआ। मुझे अख़बार में खाली जगहों को भरना था, उसको पैठण जाकर सबको अख़बार में इंटरव्यू की कतरन दिखलाना थी । संसार में सुख भी प्रयोजन के आवरण में ही सम्भव होता है । वह ना हो तो कहां मैं और कहां वो । एक सदी तक हम अलग-अलग संसारों में सिमटे रहते, एक-दूसरे से शब्द ना कह पाते, यों ही अबोले मर जाते ।
डायरी समेटकर मैं उठा । आप गाना सुनने आएंगे ना, उसने कहा । जी, जरूर आऊंगा, मन ही मन बुदबुदाते बोल पड़ा । अच्छा, अब मुझे तैयार होना है, कहकर वो चली। मैं लौट आया। दफ़्तर में बहुत मन से पूरी बातचीत ब्योरेवार लिखी। की-बोर्ड पर देर तलक अंगुलियां थिरकती रहीं । लिखकर स्टोरी सबमिट कर दी। संझा हो आई थी तो घर पहुंचा। मुंह-हाथ धोया । बाल संवारे। तब चल पड़ा मार्तण्ड मंदिर की उस सभा की ओर, जहां उसने गाना गाना था।
जब पहुंचा तो बैठकी जम गई थी। दरी बिछी थी। मंच पर माइक सुसज्जित था। पहले तबले वाले आए, फिर तानपूरे वाले । सारंगी पर लहरा देने वाला उनके पीछे आया। एक-एक कर सभासद जुटने लगे। मैं आंख लगाकर प्रतीक्षा करता रहा। एक ही दिन में यह दूसरी बार मैंने स्वयं को उसकी बाट जोहते पाया था, कल तक तो जानता भी न था । दुनिया के ये कैसे-कैसे नाते। वह आई। मेरी नज़र बंध गई। दोपहर में जिसे देखा था, उससे कितनी भिन्न प्रतिमा। ऐसे सजी-संवरी जैसे दुलहन । शृंगार ने उसके लावण्य में चार चंद्रमा जोड़ दिए थे। आंखों में काजल और आवेग से मंजा था । लाली ने होंठों की कत्थई आंच को ओट कर लिया था । उसने सबको झुककर नमन किया । फिर संगतकारों से दो-चार बोल बोले । आसंदी पर विराजी । तानपूरे पर शुद्ध स्वर गूंजा। उसने आंखें मूंद आलाप शुरू किया । पलक न लागी पर उसने पलकें खोलीं। मुझ पर नज़र पड़ी तो हल्के से मुस्करा दी ।
अभिमान और तृष्णा ने मुझे एक साथ घेर लिया । सबकी जिस पर नज़रें जमी हैं, आज की संध्या का वह ध्रुवतारा मुझे देखकर मुस्कराया था । आकाश में एक कोना मेरा भी था। किंतु पलभर में यह गौरव रीत गया और उसकी जगह एक निस्सहायता ने ले ली। अभी चंद घड़ी पहले हम उस एकांत में बतिया रहे थे, जैसे पुराने प्रेमी हों । वह मेरे निकट थी । मेरे लिए उस पल में उसके सिवा कोई आलम्बन न था। और अब यहां, इस संध्या में, वह कितनी सुदूर हो चुकी थी, कितनी अलभ्य, कितनी अद्वितीय । मैं उसे एक पूरी सभा के साथ साझा कर रहा था। मैं उसे किसी और से बांटना नहीं चाहता था ।
यह मनुज का मन है, जो स्वयं को ऐसे असम्भव अनुराग में बांध लेता है । निमिषभर की निकटता को अपना मान समझ बैठता है । एक संयोग से मिले सुख पर अधिकार जताने लगता है । उसको मालूम नहीं कि पलक लगते ही सब खो जाता है, और जो सुंदर है, वह तो सबसे पहले विलोपता है
किशोरी अमोनकर का वो खयाल उसने उस रात ऐसी तन्मयता से गाया कि सब सम्मोहित हो रहे । संगीत में सौंदर्य का चित्र उभरना चाहिए, वैसा किशोरी ताई कहती थीं । घरानेदार बाध्यताओं को तोड़ देना चाहिए । संगीत पर
कोई बांध नहीं होता। किंतु मन पर अवश्य होता है । सभा टूटी। सब अपने आश्रय लौट रहे। उसको भी सुबह की रेलगाड़ी से लौटना था ।
किंतु मैं देर रात तक जागता रहा । फिर हिम्मत कर उसको मैसेज किया- आपका गाना सुना। अब नींद नहीं आती । पलक लगने से इनकार करती है। देरी तक कोई उत्तर नहीं आया । फिर तड़के एक मुस्कराहट उत्तर में लौटी। इतनी भर ही बात थी। अगले दिन, मध्याह्न में मैसेज आया - आपका अख़बार मेरे हाथ में है, आपने मेरे बारे में बहुत अच्छा लिखा है । इधर से मैंने मुस्कराहट लौटा दी । विदर्भ के किसी अंचल में दौड़ रही रेलगाड़ी में एक मोबाइल फोन पर बीप की ध्वनि गूंजी होगी । मेरी मुस्कराहट उस तक पहुंची होगी। बस इतनी भर ही बात थी किंतु मैं अगले दिन लौटकर उस जगह पर गया, जहां उससे बातें की थीं। खाली कमरे को निहारकर लौट आया । फिर उस सभा में, जहां उसने गाना गाया था । वंदनवार अभी सजा था, किंतु सभा कभी की विसर्जित हो रही थी । फिर देर तलक एक म्यूजिक शॉप में भटकता रहा । मुझको किशोरी अमोनकर का रिकॉर्ड चाहिए। रागेश्री में निबद्ध बड़ा खयाल- आली, पलक ना लागी...। ताई का माण्ड-खमाज मिला, पूरिया धनाश्री मिला, राग भूप तो मिला ही, नहीं मिला तो वही एक गाना नहीं मिला। जब हम कुछ खो देते हैं, तो खोते ही चले जाते हैं । घर लौट आया। अख़बार खोलकर उसमें छपी उसकी बातें पढ़ने लगा | वो जो उसने मुझसे अकेले में कही थीं, लेकिन मैंने दुनिया को बतला दीं । शायद इसी की यह सजा थी । वो सब सुनने के लिए मैंने उसका इंतज़ार किया था । जिसका इंतज़ार करो, मन में उससे एक तार जुड़ ही जाता है- जाने ये कौन-सा रहस्य है।
तब मैं सोचने लगा- ये दुनिया इतनी बड़ी क्यूं है कि उसमें मालवा से विदर्भ के बीच रेलगाड़ियां चलती हैं, ये दुनिया एक कमरे जितनी क्यूं नहीं है, जिसमें मैं और वो होते। ये जीवन इतना लम्बा क्यूं है, जिसमें आज के बाद कल आता है, ये जीवन एक दोपहर जितना भर क्यूं नहीं, जिसमें मैं सुनता उसका गाना।