हुकुम सेठ और पंड्या जी / बायस्कोप / सुशोभित

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हुकुम सेठ और पंड्या जी
सुशोभित


कहते हैं ब्राह्मण-देवता के तीन रूप होते हैं- सुदामा, चाणक्य और परशुराम । किंतु पंड्या जी का एक ही रूप था । परशुराम वो भला कैसे होते, उन्हें तो कभी क्रोध ही नहीं आता था। रोष में आकर कभी तिनका नहीं उठाया, फरसा तो की

दूर बात। और वो भोले इतने थे कि चाणक्य से उनकी तुलना कैसे की जाए ? हां, सुदामा चरित के साथ अवश्य उनकी संगति बैठती थी। वो वैसे दीन-हीन ही थे, निर्धन और निरंक, और इसके बावजूद प्रकृतिस्थ और आत्मतुष्ट ।

उज्जैन के तेलीवाड़ा में कोठारी साहित्य सदन करके पाठ्यपुस्तकों की एक दुकान है, जहां स्कूली विद्यार्थियों के लिए उपयुक्त पाठ्य-सामग्रियां मिलती थीं। यहां परीक्षाओं के लिए कुंजियां भी प्रकाशित होती थीं । छापाखाना मेरठ में था और सेठ भी मेरठ ही रहता था । यहां गोयल जी करके एक प्रबंधक दुकान का काम देखते थे। मैं यहां कुंजियों की प्रूफ रीडिंग करता था । श्री प्रबोध चंद्र पंड्या अकाउंटेंट थे और थूक लगाकर नोट गिनते थे । सीजन के टाइम उनकी गर्दन सीधी न होती थी। कान में क़लम खोंसकर रखते । बहियों में हिसाब दर्ज करते रहते । एक-एक पाई की गिनती बराबर । किंतु अपने भले स्वभाव के कारण वे कार्यालय के कर्मचारियों की विनोद - वृत्ति का विषय बनते रहते थे।

पंड्या जी का निवास सिंहपुरी में था । कार्तिक चौक की तरह सिंहपुरी भी ब्राह्मणों की बस्ती थी। वहां रहने वाले बामण गुरुमण्डली कहलाते थे । उनमें से बहुतों की शिप्रा तीरे या किसी मंदिर में परम्परागत रूप से पंडितई - पुरोहितई थी और उनके यजमान बंधे हुए थे। पंड्या जी का भी एक मंदिर खत्रीवाड़े में था, जो चौरासी महादेवों में से एक था । काम समाप्त करके वो वहां संध्या-आरती करने जाते । दफ़्तर से सीधे मंदिर जाते, इसलिए अपने साथ एक रामनामी झोला लेकर चलते थे। इस झोले के कारण भी यारलोग उनकी टांग खिंचाई से बाज नहीं आते थे । गुरु महाराज सबकुछ सुनकर मंद-मंद मुस्काते रहते थे

एक दिन समाचार मिला कि हुकुम सेठ उज्जैन में अपना कारोबार बढ़ाना चाहते हैं, इसलिए एक छोटी छपाई मशीन यहां लगाना चाहते हैं । फिर मक्सी रोड पर भूमि देखी गई, पूजन हुआ, कुदाली चली, शेड लगा और तब एक दिन बेल्जियम से शानदार ऑफसेट मशीन पधारी । सबसे अंत में यह कुशल - संवाद कि हुकुम सेठ मशीन का उद्घाटन करने स्वयं आएंगे। ये ख़बर सुनकर कोठारी साहित्य सदन को काटो तो खून नहीं । ये हुकुम सेठ अपने सख्त मिजाज के कारण बदनाम थे । रुष्ट होकर नौकरी खाने में देर नहीं करते थे। मैनेजर जब भी उनके साथ बैठक करने मेरठ जाता तो ऐसे रवाना होता, जैसे पानीपत की लड़ाई लड़ने जा रहा है कि पता नहीं सही-सलामत लौटकर आना हो न हो । ये महाराज स्वयं यहां पधारेंगे तो क्या होगा। सभी अंदेशे में थे। ऐसे अवसर पर भी पंड्या जी के साथ छेड़खानी का लोभ संवरण कोई न कर सका । सुना है, सेठ नोट गिनने की मशीन भी लगवाएगा । खाता बही के बजाय कम्प्यूटर लगेंगे। पंड्या जी, और सब तो ठीक है, आपका क्या होगा ? अबके तो समझो गुरुमण्डली की नौकरी गई !

नियत दिवस आया। कार्यालय के बाहर लम्बी-चौड़ी कार आकर रुकी। उसमें से हुकुम सेठ का भव्यातिभव्य मांसपिंड शरीर बाहर निकला ! उनके व्यक्तित्व के वैभव से सबके घिग्घी बंध गई। सिल्क का पीला कुर्ता, गले में सोने की चेन । गाल जैसे गुलाब जुमान । चमड़ी जैसे मक्खन | क्या महंगी घड़ी, क्या मूंगे- माणिक की अंगूठियां | और क्या चरमराती हुई मोजड़ी । रबड़ी से नीचे बात नहीं करते होंगे। कुल्ला भी केसरिया दूध का करते होंगे । उनको देखकर लगा जैसे साक्षात सम्राट विक्रमादित्य सिंहासन से उतरकर आ गए हों। प्रबंधक महोदय हाथ जोड़कर खड़े हो गए । आगे-पीछे घूमने लगे ।

सब सुचारु चल रहा था किंतु मक्सी रोड प्रिंट यूनिट प्लांट पर एक नई मुसीबत आन खड़ी हुई | मुहूर्त सिर पर था किंतु पंडित की मोपेड पंक्चर हो गई, तो वो आ न सका। कॉइन बॉक्स वाले फोन से उसने सूचना दी कि नहीं नहीं करके भी पौन घंटा लग जाएगा। जो सेठ मेरठ से चलकर यहां आया, वो क्या पौन घंटा बैठकर मुहूर्त टलने की प्रतीक्षा करेगा ? आज तो सर्वनाश हो रहा । अब क्या किया जाए। तभी किसी की दृष्टि दीन-हीन सुदामा पर पड़ी । उपहास का पात्र उनका रामनामी झोला ज्यों प्रकाश-पुंज की तरह दीप्त हो उठा। प्रबंधक के कान में जाकर बोला गया- कांख में छोरा और नगर में ढिंढोरा । अरे, अपने पंड्या जी हैं ना, किसी पंडित का फिर क्या काम ?

पंड्या जी को राजी करना किंतु इसके लिए कठिन था । निर्धन आदमी सिर झुकाकर काम करता था और सायंकालीन चाय भी यों संकोचवश पीता था, जैसे इसके दो रुपए भी वेतन से कटेंगे। ये हुकुम सेठ को पूजा कैसे करवाएंगे? उनके हाथ-पांव जोड़े गए, कोठारी साहित्य सदन की दुहाई दी गई, बारह परिवारों की रोज़ी-रोटी का हवाला दिया गया, तब जाकर माने । झोला उठाया । कोने में जाकर पतलून उतारी और धोती पहनी । कमीज निकाली तो उघड़े बदन पर जनेऊ सजी दिखी। चंदन-लेप निकाला और मस्तक पर त्रिपुंड सजाया । पूजन-सामग्री लेकर सेठ के सामने हाज़िर | मशीन को रोली - चंदन - अक्षत लगाया गया। नारियल फोड़ा गया। पंड्या जी ने मद्धम स्वर में पूजन-पाठ आरम्भ किया किंतु देखते ही देखते यों रंग में आ गए कि सभी चकित । ओजस्वी स्वर में मंत्रजाप गूंज उठे। लगा जैसे वैदिक काल से कोई ऋषिपुत्र अवतरित हो गया हो । आध घंटा यह आयोजन चला। बोल महान्काल महाराज की जै के उद्घोष के साथ समापन हुआ। सभी आनंद से गदगद हो गए ।

पंड्या जी पेड़ा-प्रसादी लेकर आगे बढ़े। एक - एक कर सबको खिलाई । हुकुम सेठ के सामने पहुंचे तो उन्होंने जेब से पांच सौ एक रुपए निकालकर थाली में रखे और झुककर उनके पांव छू लिए । अरे यह क्या ! सभी सकते में आ गए। कुशल छायाचित्रकार ने आगे बढ़कर इस क्षण को बांध लिया ।

आप कह सकते हैं कि हुकुम सेठ को मालूम नहीं था कि ये पंड्या जी उनके ही वेतन पर पलने वाले दो कौड़ी के अकाउंटेंट थे । वे चाहते तो ऐसे सौ पंड्या जी को रोज़ नौकरी पर रख सकते थे । किंतु मालूम होता तो भी क्या करते। उन्होंने व्यक्ति को नहीं वेश को नमन किया था । जैसे रामलीला वग़ैरह में मुख्यमंत्री भी राम-जानकी का वेश धारण करने वालों को प्रणाम करते हैं । आयोजन सानंद सम्पन्न हुआ । सेठ प्रसन्नचित्त होकर लौटे। सबकी जान में जान आई।

कार्यक्रम की तस्वीरें छपकर आईं तो एक तस्वीर प्रिंटिंग प्लांट पर मशीन के ठीक सामने फ्रेम में मंडवाकर लगाई गई - हुकुम सेठ झुककर पंड्या जी के चरण स्पर्श कर रहे हैं। मशीन के उन्नत भाल पर कुम्कुम दीप रहा है

उस दिन के बाद छेड़खानी के विषय बदल गए । क्या पंड्या जी, नहीं मानोगे ! ऐसी झांकी ! हम जैसे छोटे-मोटे आदमी से तो आप बात ही मत करो अब, सीधे हुकुम सेठ आपके चरणों में हैं ! हम पर दयादृष्टि बनाए रखना गुरु महाराज, हम सब बाल-बच्चे आपकी छत्रछाया में हैं ! पंड्या जी पहले की तरह यह सब सुनकर मुस्कराते रहते । संध्याकालीन चाय आई तो सबने कहा, पहले पंड्या जी को पिलाओ भाई, और साथ में बिस्कुट - विस्कुट भी दो, वो कुपित गए तो सेठ को बोलके तुम्हारी नौकरी खा जाएंगे । सेठ का पेट बहुत बड़ा है ! पंड्या जी ने ये सुना तो ठहाका लगाया । दंतपंक्ति चमक उठी । काम समाप्त करके वही झोला उठाया । अपने मंदिर पहुंचे, दीप जलाया । संध्या आरती के समस्त मंत्रजाप के साथ अब एक नन्हीं सी प्रार्थना भी उसमें जुड़ गई- हुकुम सेठ का कारोबार फले-फूले, कोठारी साहित्य सदन दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी करे, और बारह परिवारों के घर में चूल्हा निरंतर जलता रहे, बस इतनी प्रार्थना है, महादेव !