बडे़ भाई मजाज़ / हमीदा सालिम / पृष्ठ-1
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लेखिका:मजाज़ की बहन हमीदा सालिम
आपा के बाद जग्गन भइया थे, यानी असरारुल हक़ मजाज़। वे 19 अक्टूबर 1911 ई. में मुबारक-सलामत की सदाओं के दरम्यान नबीख़ाने की सहदरी में पैदा हुए। उनसे डेढ़-दो साल बड़ा बच्चा ख़त्म हो चुका था, इसलिए बहुत ही मन्नतों-मुरादों से पाले गये। मोहर्रम की सातवीं को फ़क़ीर बनाये जाते, फिर दसवीं को पायक। एक कान में मन्नत का बुंदा डाला गया, जो सात साल की उम्र में अजमेर जाकर उतारा गया। छींक भी आ जाती तो सदक़े उतरते। नौ साल के हुए थे कि जवान भाई का नागहानी इंतिक़ाल हो गया। घर पर क़यामत टूट पड़ी। माँ और नानी दीवानगी की हद तक उनके तहफ़्फ़ुज़ में लग गयीं। मजाल था कि बेटा अकेले घर से बाहर क़दम निकाले। एक नौकर साये की तरह साथ रहता था। बाहर जाते तो वापसी तक माँ की आँखें दरवाज़े पर होतीं। कोई सुबह ऐसी न गुज़रती कि माँ ने उनकी जिंदगी के लिए दो रकअत शुक्राने के न पढ़े हों। होने को तो दो बेटे थे- इसरार भाई और अंसार भाई, माँ की ममता सब ही के लिए होती है। लेकिन इसरार भाई के साथ उनकी वाबस्तगी ममता की हदों को भी पार कर गयी थी। ऐसा लगता था वही कायनात का मेहवर हैं। ये तो उनकी अपनी ज़ाती कशिश थी, वरना हम सब में रक़ाबत का जज़्बा पैदा होना नागुज़ीर था। माँ ने उनकी परवरिश में कितनी रातें जागकर गुज़ार दीं, इसका अंदाज़ा यूँ हो सकता है कि उनकी उर्फि़यत जग्गन होने की वजह तस्मिया ये थी कि रात को ख़ुद जागते थे और माँ को भी जगाते थे, जिंदगी की यह इज़तिराबी कैफि़यत शायद कुछ ऐसी फितरी खुसूसियत थी, जो जिंदगी की आखि़री साँस तक उनके साथ रही। इसरार भाई और आपा की उम्र में काफ़ी फ़ासला था।
उन दोनों के दरम्यान ख़ुर्दी-बुज़ुर्गी का रिश्ता था। मैं बहुत छोटी थी, लिहाज़ा मेरी तरफ़ मोहब्बत और शफ़क़त का रवैया। अलबत्ता बीच के तीन इसरार भाई, अंसार भाई और सफि़या आपा ऊपरतले के थे। उन तीनों में छीन-झपट, छेड़-छाड़ और कभी-कभी मारपीट की भी नौबत आ जाती थी। हर वक़्त माँ के सामने उन तीनों के मुक़दमे पेश होने पर फ़ैसला इसरार भाई के हक़ में होता। अगर मामला अब्बा के सामने पेश होता तो सिर्फ़ वो ही थे जो ग़ैर-जानिबदार रहते थे। इसरार भाई ने अब्बा के साथ हमेशा रिवायती अदब व लिहाज़ रखा। उनके सामने कभी सिगरेट न पी। यहाँ तक कि तरन्नुम के साथ कलाम सुनाने से भी गुरेज़ करते थे।
इसरार भाई बचपन से शोख़ व शरीर और ज़हीन थे। खेलकूद में आगे, उधमबाजी में मुमताज़, शरारत और शोख़ी के साथ-साथ तबीयत में एक तरह की सादगी और मासूयिमत भी थी, साथ ही साथ लाउबालीपन भी। हमारे एक चचा उन्हें सिड़ी और सनकी के नामों से मुख़ातिब करते थे। ज़मींदाराना माहौल में जो ऊँच-नीच का माहौल था, उससे वे बिलकुल बेनियाज़ थे। घर के काम करने वाले लड़कों के साथ उनका गहरा याराना था। गुल्ली-डंडे के दौर से निकले तो हॉकी और क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी रहे। अगरचे घर के लातादाद पलंग उनकी लाँग जंप और हाई जंप की नज़्र हुए तो दूसरी तरफ, शतरंज जैसे दिमाग़ लगाने वाले खेल में भी माहिर थे।
कैरमबोर्ड की गोटों का दमभर में सफ़ाया हो जाता था और हम मुँह फाड़े देखते रह जाते थे। हर तफ़रीह से दिलचस्पी, हर खेल में माहिर, किसे मालूम था कि जिंदगी के सबसे अहम खेल में, जहाँ दिल की बाज़ी लगती है, ऐसी मात खायेंगे, ऐसी चोट खायेंगे कि चकनाचूर होकर रह जायेंगे। कि़स्मत को क्या कहिए, मोहब्बत के मैदान में क़दम बढ़ाया तो उस मैदान की तरफ़ जहाँ दाखि़ला ममनूअ था। नज़र उठायी तो ऐसी हस्ती की तरफ़ जिसको पाना नामुमकिन!