बडे़ भाई मजाज़ / हमीदा सालिम / पृष्ठ-2
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हमीदा सालिम
आज भी आसमान पर बादल देखकर अपने बचपन का सावन याद आ जाता है। क़स्बाती जिंदगी में बरसात का यह महीना हम लड़कियों के लिए बहुत अहमियत रखता था। हमारी सावन की तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी। लाल और हरी चुंदरियाँ रंगरेज़ों से रंगवाई जाती थीं। मनिहारनें रंग-बिरंगे शाहाने(1) टोकरियों में सजाकर घर पहुँचती थीं। घर-घर झूले पड़ते थे, पकवान तले जाते। लड़के-लड़कियों के साथ बुज़ुर्ग भी बहैसियत तमाशाई उस तफ़रीह में शरीक होते। हमारे घर में भी सावन बहुत ज़ोर-शोर से मनाया जाता था। इंतिज़ामात में इसरार भाई मय अपने दोस्तों के आगे-आगे होते। कोठरियों से झूले का तख़्ता निकालना, मोटी रस्सी दस्तयाब करना और कुएं के पास नीम के दरख़्त में झूला डालना उन्हीं की जि़म्मेदारी थी। मुआवजे़ में हम लड़कियों को उनको और उनके साथियों को पींगों का हक़ देना होता था। ये पींगें ऊँची से ऊँचीतर होती जातीं और हमारे बेसुरे सावन गीत भयानक चीख़ों में तबदील हो जाते, साथ-साथ पींगें मारने वालों के फ़लक़-शिगाफ़ क़हक़हे। ये शोर उस वक़्त रुकता जब कोई बुज़ुर्ग बाहर निकलकर डाँट-डपटकर हालात को क़ाबू में लाता। हम हंडकुल्हियाँ पकाते तो मिठास चखने के बहाने हमारी मीठे चावलों की हांडी आधी से ज़्यादा ख़ाली हो जाती। हमारी गुडिया और गुड्डे की शादी में वे क़ाज़ी का रोल अख्तियार कर लेते। ‘गाजर, मूली, गोभी का फूल बोल गुडि़या तुझे निकाह क़बूल’ कहते-कहते हमारी लाड़ली गुडि़या की चोटी उनके हाथ में होती और वह ग़रीब उनके हाथ में नाचती नज़र आती। हम उनसे रूठते भी भला कैसे, अपना ही नुकसान था। हंडकुल्हियों के लिए गुड़, चावल, अनाज की कोठरियों से और गुडि़या के कपड़ों के लिए कतरनें माँ की ऊँची कारनिसों पर रखी हुई बुग़चियों से हम तक उन्हीं की मदद से पहुँचती थीं।
शरीर से बेख़बर होने के साथ-साथ पढ़ाई में भी बहुत तेज़ थे। हिसाब में होशियार, लिखाई मोती जैसी साफ़ सुथरी, ड्राइंग बहुत अच्छी, मिनटों में हम बच्चों के लिए सादा काग़ज़ पर पेंसिल की मदद से सुबुक-रफ़्तार घोड़ा और माइल-ब परवाज़ चिड़िया तैयार हो जाती थी। हमेशा अच्छे तालिबेइल्मों में शुमार हुआ। इब्तिदाई तालीम रुदौली के मख़दूमिया और लखनऊ के अमीनाबाद स्कूल में हुई। हाई स्कूल में फ़र्स्ट क्लास लाये। पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाने का भी सलीका़ रखते थे। मुझ जैसे बदशौक़ इनसान को, जिसका मौलवी साहब के चाँटे के बाद पढ़ाई से बिलकुल दिल उठ गया हो, राह पर लाना उन्हीं का काम था। जाने यह हम दोनों के दरम्यान जज़्बाती बंधन की देन थी या उनका पढ़ाने का ढंग, कि मैं पढ़ाई जैसे खुश्क मशग़ले की तरफ़ फिर माइल हो सकी। उर्दू, अंग्रेज़ी, हिसाब सब ही कुछ तो उन्होंने मुझे पढ़ाया। मेरी पढ़ाई की बागडोर अगर उन्होंने अपने हाथ में न ली होती तो जाने मेरी जिंदगी किस राह पर होती। ख़ानदान की अपनी दूसरी हमउम्र लड़कियों की तरह घर की महदूद दुनिया में घुटी-घुटी सी जिंदगी मैं गुज़ार रही होती। सफि़या आपा भी उनसे हिसाब और अंग्रेज़़ी में कभी-कभी मदद लेती थीं, लेकिन ख़ात्मा बहसोमुबाहिसे पर होता था। रुझान और दिलचस्पियों के लिहाज़ से सफि़या आपा उनसे बहुत क़रीब थीं, लेकिन महज इस वजह से कि वो लड़की हैं, उनके दबाव में आने पर अपने को रज़ामंद नहीं कर पाती थीं। उन दोनों की लड़ाइयों में डाँट बेचारी सफि़या आपा ही को सुननी पड़ती थी। कहने को तो ये कहा जाता था कि छोटी हो, लेकिन यह बात भी दबी-छुपी नहीं रखी जाती कि तुम लड़की हो। उस माहौल में भला लड़की और लड़के का क्या मुक़ाबला, वह भी जग्गन भइया जैसी लाड़ली औलाद से।
इसरार भाई ने हम बहनों का साथ हर मोड़ पर दिया और हर आड़े-तिरछे मौके़ पर काम आये। लड़कियाँ सोलह-सतरह साल की हो जायें और उनके हाथ पीले न हों तो ऐसा लगता था जैसे पूरा कुनबा ही उस ग़रीब के बोझ से दबा हुआ हो। बड़े के नाते साफि़या आपा ही उस मुसीबत का शिकार रहीं। उल्टा-सीधा कोई भी रिश्ता आता, ख़्वाह तहसीलदार हो, ख़्वाह लंबा-तड़ंगा थानेदार, माँ और मश्विरेका रिश्तेदारों की ख़्वाहिश होती थी कि फ़र्ज़ से अदायगी हो ही जाये तो बेहतर। हमारे ये भाई ही आड़े आते, माँ को रिश्ते की नामौजूनियत का अहसास दिलाते। जब भाई अख़्तर की तरफ़ से पयाम आया तो उन्होंने रिश्ते की मुनासिबत की हिमायत की। वे सफि़या आपा की ख़्वाहिश से बाख़बर थे। इसके बावजूद, मुझे याद है, उन्होंने सफि़या आपा से कहा था,
‘मिज़ाज बहुत जिन्नाती है, सोच लो।’
मुझे यक़ीन है कि वे भाई अख़्तर की जिंदगी की पेचीदगियों, फ़ातिमा बहन के साथ उनके ताल्लुक़ात से ज़रूर वाकि़फ़ रहे होंगे। आखि़र को वो भाई अख़्तर के क़रीबी दोस्त थे, लेकिन सफि़या आपा के फ़ैसले और ख़्वाहिश का एहतराम करते हुए उन्होंने इस बात की भनक हम लोगों के कानों तक नहीं पहुँचने दी। माँ-बाप पर बेटी कितनी भी भारी क्यों न हो, इतनी दूभर भी नहीं होती कि वे उसे जानते-बूझते, बक़ौल भाई अख़्तर की रिश्ते की एक बहन के, उसे जि़ंदा मक्खी निगलने देते। सफि़या आपा को एक और दिल तोड़नेवाली आज़माइश का सामना करना पड़ता। मेरी शादी के सिलसिले में भी बज़ाहिर एक छोटा-सा ही वाक़आ है। लेकिन इसरार भाई की शख्सियत का एक अहम सबूत। एक ऐसे मुतवस्सित घराने के माहौल का ख़याल करिए, जो नयी क़द्रों की तरफ़ हाथ बढ़ा रहा हो और साथ ही साथ पुराने बंधनों को तोड़ने की भी हिम्मत न रखता हो। मैं अलीगढ़ इकोनोमिक्स डिपार्टमेंट की पहली और अकेली सिन्फ़े-नाज़ुक की नुमाइंदा थी। पसेपरदा लेक्चर्स सुनने की इजाज़त थी, लेकिन लाइब्रेरी और सेमिनार में दाखि़ला ममनूअ था। सालिम और हमज़ा अलवी(2) के ज़रिये ज़रूरी किताबें और रसाइल मुझ तक पहुँच पाते थे। सालिम के साथ ज़हनी कुर्ब ने धीरे-धीरे जज़्बाती लगाव की सूरत अख्तियार की। उस ज़माने में लगाव का इज़हार जुबान से करना बड़ी हिम्मत का काम था। मैं यूनिवर्सिटी की तालीम ख़त्म करके भी लखनऊ में थी और सालिम दिल्ली जनरलिज़्म को अपनी लाइन बनाने चले गये थे। अपने घर आज़मगढ़ जाते हुए कभी-कभी लखनऊ रुकते थे और मेरे घर आते थे।
एक ऐसी ही मुलाक़ात के दौरान उन्होंने मुझे एक रुक़्आ थमाया। इतने में इसरार-भाई कमरे में दाखि़ल हुए, ये कमरा उन्हीं का था। सालिम तो सलाम-दुआ के बाद रुख़सत हो गये और मैं कुछ इस तरह बौखलायी कि रुक़्आ वहीं छोड़कर अंदर आ गयी। दूसरी सुबह मैंने उस कमरे का कोना-कोना छान मारा, पर ये रुक़्आ न मिलना था न मिला। उस कमरे में था ही क्या, एक पलंग, एक मेज़, एक कुर्सी, आलमारी पर चंद किताबें और चंद रसाइल और एक सूटकेस में चंद जोड़े कपड़े। अपनी तलाश में मुझे खिड़की की कारनिस पर जले काग़ज़ के कुछ बाकि़यात ज़रूर नज़र आये। मैं अपनी जगह परेशान और पशेमान, लेकिन मेरे अज़ीम भाई ने इशारतन भी मुझसे जि़क्र नहीं किया कि उन्हें रुक़्आ मिला था, जिसे उन्होंने जला दिया था।
- (1)लाख की बनी हुई ब्रेसलेटनुमा चूडियां
- (2) एम.ए. में मेरे क्लासफेलो