बडे़ भाई मजाज़ / हमीदा सालिम / पृष्ठ-3
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लेखिका:हमीदा सालिम
अलबत्ता जब महमूद साहब(3) के ज़रिये मेरे घर शादी का बक़ायदा पयाम पहुँचा, उन्होंने रिश्ते की पुरज़ोर हिमायत की। दूसरों के अहसासात का इस हद तक लिहाज़ रखने वाली शख्सियत, ऐसी मोहब्बत करनेवाली हस्ती, ख़ुद नाकामयाबियों का शिकार रही। तन्हाई की तारीकियों में उलझती चली गयी और ऐसे उलझी कि निकल ही न सकी। ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, कि़स्मत को रोयें, समाजी कद्रों का मातम करें या मिडिल क्लास ज़हनियत पर लानत भेजें। लेकिन हुआ ऐसा ही। जवानी के आते ही कमउम्री की शोख़ी-शरारत को बेराहरवी और बदचलनी का नाम मिलने लगा। पास-पड़ोस से शिकायतें आनी शुरु हुईं। माँ-बाप परेशान हो उठे।
इसरार भाई ने मैट्रिक पास ही किया था कि अब्बा का तबादला आगरा हो गया। उनका दाखि़ला सेट जोंस कॉलेज में करवा दिया गया और केमिस्ट्री, फि़जि़क्स, मैथमेटिक्स जैसे मज़ामीन का इंतिख़ाब हुआ। माँ-बाप बेटे के इंजीनियर बनने के ख़्वाब देख रहे थे। उधर असलियत दूसरा रुख़ अख्तियार कर रही थी। घर, फ़ानी बदायूनी का पड़ोस मिला। कॉलेज में जज़्बी भाई और अपने से सीनियर सरवर साहब का साथ मिला। तबीयत का फितरी रुझान, जो अब तक गुलदानों में फूल सजाकर बच्चों के लिए नित नयी तस्वीरें बनाकर और खू़बसूरत चेहरे वालों के पास घंटों-घंटों वक़्त गुज़ारकर मुतमइन हो जाता था, भरपूर तौर पर उभर पड़ा और अपना सही रास्ता ढूँढ़ने पर माइल हुआ। ऐसा लगता था कि ये दोराहे पर खड़े थे- हैरान व परेशान। किधर जायें किधर न जायें। फितरत के तक़ाज़े एक तरफ़ खींच रहे हों और उनके चाहने वालों की तवक़्क़आत दूसरी तरफ़। जिंदगी में बदनज़्मी व अबतरी पैदा हुई। हिसाब व साइंस की खुश्क किताबों से दिल उठ गया। क्लासों से ग़ायब होना शुरू हुए। हाज़रियाँ कम हुईं। फ़ेल भी हुए। माँ-बाप परेशान हो उठे। बाप का तबादला अलीगढ़ हो चुका था। इंटर के बाद वहीं बुलवाये गये। मज़ामीन बदले गये, उर्दू, फ़लसफ़ा, तारीख़ जैसे मज़ामीन का इंतिख़ाब हुआ। अल्लाह-अल्लाह करके बी.ए. पास किया। वे इम्तिहान का परचा हल करने जाते और माँ जाये-नमाज़ पर सिजदे में होतीं। एम.ए. उर्दू में दाखि़ला लिया। उम्मीद बंधी कि मज़मून पसंद का है, जि़ंदगी राह पर आ जायेगी।
अलीगढ़ यूनीवर्सिटी का ये दौर उसका सुनहरा दौर था। उस दर्सगाह के उफ़क़ पर ऐसे-ऐसे सितारे उभरे और जगमगाये, जिनकी रौशनी से मुल्क का कोना-कोना फै़ज़याब हुआ। शेरो-शायरी, इल्मो-अदब, सियासी व समाजी, ग़रज़ कि हर मैदान में अलीगढ़ के तुलबा नुमायां नज़र आ रहे थे। इसरार भाई की जि़ंदगी का भी यह रौशनतरीन दौर था। यहाँ उनको रशीद अहमद साहब जैसे बुलंद पाया अदीब की सरपरस्ती मिली। महमूद साहब जैसे क़ाबिल व रौशन दिमाग़ व रौशन ख़याल उस्ताद की दोस्ती मिली। बशीर साहब व मुख़्तार साहब जैसे संजीदा और क़ाबिल हस्तियों का बुज़ुर्गाना क़ुर्ब मिला। जज़्बी भाई, भाई अख़्तर, सरदार जाफ़री, अख़्तरुल ईमान, अख़्तर हुसेन रायपुरी, और सबते भाई जैसे हमरुझान और हमख़याल दोस्तों की सोहबत मिली। एक उभरते हुए नौजवान शायर की हैसियत से इसरार भाई की मक़बूलियत अपने नुक़्तए उरूज़ तक पहुँची। उस वक़्त यूनिवर्सिटी से नौजवानों का एक ऐसा गिरोह उभर रहा था जिसको अलीगढ़ की तारीख़ भुला नहीं सकती। कोई अच्छा मुक़र्रर था तो कोई चोटी का अदीब व शायर। अदब बराय जिंदगी का पयामबर। सभी अपने-अपने हथियारों से फ़रसूदा निज़ाम से लड़ रहे थे। और नयी क़द्रों को जिंदा रखने में मुनहमिक थे। एक नया शऊर उभर रहा था। एक नयी जिंदगी जन्म ले रही थी। मुक़र्रर कभी-कभी अपनी ज़ुबानदराज़ी से तकलीफ़ पहुँचा जाता है। अदीब के क़लम की नोक की तेज़ी भी कभी-कभी खटक जाती है। लेकिन शायर तो दिलों का राज़दाँ होता है। अच्छे शायर की बोली दिल से निकलती है और दिल पर लगती है। उसका प्याम सच्चा होता है। उसकी बोली मीठी होती है। फिर मेरे भाई जैसा शायर, जिसके दिल में बग़ावत की आग, रगों में जवानी का जोश और साथ ही साथ गले में नग़मासंजी का वफ़ूर था, जिसने इंकि़लाब के नारे लगाने के बजाय इंकि़लाब के गीत गाये, जिसने अलीगढ़ को अपना चमन क़रार दिया और चमन भी ऐसा वैसा नहीं-
ये दश्ते जुनूं दीवानों का, ये बज़्मे-वफ़ा परवानों की,
ये शहरे-तरब रूमानों का, ये खुल्दे बरीं अरमानों की।
फि़तरत से सिखायी है हमको उफ़ताद यहाँ परवाज़ यहाँ,
गाये हैं वफ़ा के गीत यहाँ, छेड़ा है जुनूं का साज़ यहाँ।
तदबीर के पाये संगीं पर, झुक जाती है तक़दीर यहाँ,
ख़ुद आँख से हमने देखी है, बातिल की शिकस्ते फ़ाश यहाँ।
बहन के नाते मैं अलीगढ़ के तुल्बा व तालिबात की शुक्रगुज़ार हूँ, उन्होंने अपने इदारे के साथ इसरार भाई के साथ इस बेपनाह मोहब्बत व अक़ीदत की क़द्र की और इस नज़्म को यूनिवर्सिटी का तराना बनाया। जब यूनिवर्सिटी के नौजवान पूरी उमंग और तरंग से ये तराना सुनाते हैं, महफि़ल झूम उठती है और इन अशआर पर ईमान सा आने लगता है-
जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा,
हर जूए-रवाँ पर बरसेगा, हर कोहे-गराँ पर बरसेगा।
हर सरवो-समन पर बरसेगा, हर दश्तो-दमन पर बरसेगा,
ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, ग़ैरों के चमन पर बरसेगा।
हर शहरे तरब पर गरजेगा, हर क़स्रे तरब पर कड़केगा,
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा।
- (3). मेहमूद हुसैन, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के उस्ताद,