बडे़ भाई मजाज़ / हमीदा सालिम / पृष्ठ-4

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अलीगढ़ से बेतहाशा मोहब्बत रखने वाले शायर
लेखिका:हमीदा सालिम

इस वक़्त अपना देश एक बुहरानी दौर से गुज़र रहा है। ज़मीरफ़रोशी, रिश्वतख़ोरी और झूठ व फ़रेब का बाज़ार गर्म है। रहबराने मिल्लत और लीडराने क़ौम इक्‍ति‍दार की कुर्सियों की तलाश में अंधाधुंध लगे हैं। मज़हब के नाम पर ख़ून की नदियाँ बह जायें। ग़रीब अवाम भूख व बेरोज़गारी का शिकार रहें। यूनिवर्सिटी और कॉलेजों तक में फि़रक़े व ज़ात-पांत की गिरोहबंदिया बढ़ती जायें, उन्हें क्या परवाह। उनकी निगाहें वोटों के बैंक पर हैं। बैलेंस उनके मुआफि़क़ रहना चाहिए, ख़्वाह क़ीमत कैसी भयानक क्यों न हो। एक तवक़्क़ो है, एक उम्मीद है। अफ़रातफ़री जब हद से तजावुज़ कर जाती है तो कोई ऐसी लहर ज़रूर उठती है, जो इंसान को तबाही से बचा लेती है। हर तख़रीब में तामीर के बीज होते हैं, इस नज़्म में शायर ने उसी उम्मीद का इज़हार किया है। एक ऐसे अब्र के बरसने का, जो जि़ंदगी के बदनुमा, घिनौने धब्बे धोकर इंसानियत को ताज़गी और नयी जिंदगी देगा। ये आस न हो तो इस दम घुटने वाले हालात में इंसान जिये कैसे। सवाल यह है कि ये दिन कब आयेगा और कितनी दूर है और अलीगढ़ के नौजवानों का उसमें क्या हिस्सा होगा। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का माज़ी गवाह है, हर क़ौमी तहरीक में, ख़्वाह वो समाजी इसलाह की हो, ख़्वाह सियासी आज़ादी की, अलीगढ़ का नौजवान आगे-आगे रहा। एक सोच थी, एक मक़सद था और उस मक़सद के हुसूल के लिए जोश था, वलवला था। तालीमे-निसवां की तहरीक ने, अदब बराय जिंदगी की तहरीक ने यहीं से जन्म लिया। सियासी मैदान में सोच ने दो रास्ते अख्‍ति‍यार किये। अफ़सोस, कुछ को दो क़ौमियत के नज़रिए में राहे निजात नज़र आयी और पूरे जोश के साथ उस राह पर चल पड़े। और कुछ उसी जोशोख़रोश के साथ अपनी पूरी क़ुव्वत से मज़हब और क़ौमियत को अलग-अलग रखने की काविश में लगे रहे। सियासी व समाजी शऊर तबाहकुन सूरत अख्‍ति‍यार कर रहा है। यहाँ तक कि हॉस्टलों में बिहारी और ग़ैर-बिहारी होने की बिना पर आये दिन झगड़े होते हैं। लड़कों में चाकू-छुरी चलने की नौबत आ जाती है। काश, उनके कानों में अपने मेहबूब शायर ‘मजाज़’ के यह अशआर गूँज उठें-

ऐ जवानाने वतन रूह जवां है तो उठो,
आँख उस महशरे नौ की निगरां है तो उठो।
ख़ौफ़े बेहुरमती और फि़क्रे ज़ि‍यां है तो उठो,
पासे नामूसे निगाराने जहाँ है तो उठो।
उठो नक़्क़ारए अफ़लाक बजा दो उठकर,
एक सोये हुए आलम को जगा दो उठकर।

क्या ऐसा नहीं महसूस होता कि अलीगढ़ से बेतहाशा मोहब्बत रखने वाले शायर की रूह तड़प-तड़पकर और चीख़-चीख़कर पूछ रही है कि इस सोये हुए आलम को जगाने वाले नौजवान, तुम कब तक ख़्वाबे-ग़फ़लत में रहोगे। कब तक उस राह पर चलते रहोगे, जो तुम्हारे लिए तबाही और ज़वाल की है। होश में आ जाओ, कभी ऐसा न हो कि हालात क़ाबू से बाहर हो जायें। दुनिया आस पर क़ायम है। वक़्त इसरार भाई के ख़्वाबों की ताबीर का मुंतजि़र है।

इससे इनकार नहीं कि इसरार भाई की शख्‍सि‍यत में एक हद तक सहलपसंदी थी। वे लाल झंडा लेकर जुलूसों में शिरकत के क़ायल न थे। रातों की नींद हराम करके मार्क्‍स और लेनिन की किताबों की वर्क़गरदानी अपना ईमान नहीं समझते थे। उन्होंने कै़पों की रिहायश और अंडरग्राउंड हो जाने की सख्‍ति‍याँ नहीं उठाईं। लेकिन इससे भी इनकार नहीं कि उनके दिल में सरमायादाराना निज़ाम और उसकी ज़्यादतियों व नाइंसाफि़यों के खि़लाफ़ शदीद नफ़रत थी और इस निज़ाम को बदलने की शदीद ख़्वाहिश जो उनको बेचैन और मुज़्तरिब करती रहती थी। उनकी नज़्म इंक़िलाब व सरमायादारी में अहसासात की जो शिद्दत और सोच की जो गहराई मिलती है, वो किसी किताब की वर्क़गरदानी की देन नहीं। वे उनकी अंदरूनी कैफि़यत और इज्‍ति‍राब की पुकार है-

कलेजा फुँक रहा है और ज़बां जुबान कहने से आरी है,
बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज़ ये सरमायादारी है।
ये वो आंधी है, जिसकी रौ मैं मुफ़लिस का नशेमन है,
ये वो बिजली है, जिसकी ज़द में हर दहक़ां का खि़रमन है।
हमेशा ख़ून पीकर हड्डियों के साथ चलती है,
ज़माना चीख़ उठता है, ये जब पहलू बदलती है।
गरजती-गूँजती ये आज भी मैदां में आती है,
मगर मदमस्त है, हर-हर क़दम पर लड़खड़ाती है।
मुबारक दोस्तो, लबरेज है अब इसका पैमाना!
उठाओ आंधियां, कमज़ोर है बुनियादे-काशाना।

यक़ीनन पैमाना लबरेज़ है। तअस्सुब का पैमाना, ख़ुदग़रज़ी का पैमाना, ज़मीरफ़रोशी का पैमाना। लेकिन उन आंधियों में ज़ोर लानेवाले नौजवान, जो इन पैमानों को उठाकर दूर फेंक दें, कहाँ हैं? दूर, शायद बहुत दूर!

मेरे इस भाई ने अपनी जिंदगी के खुशगवार दिन जिस घर में गुज़ारे, वो अब भी अलीगढ़ में मैरिस रोड पर- ‘जि़या-मंजि़ल’ के नाम से मौजूद है। काश, उसके दरो-दीवारों के पास जुबान होती और वे बता सकते कि उस घर के अंदर ‘मजाज़’ की माँ और बहनों ने उनके मुस्तक़बिल के कैसे-कैसे सुनहरे ख़्वाब देखे। बेटा ऊँचे ओहदे पर मुलाजि़म होगा, चाँद-सी बहू आयेगी, आंगन पोते-पोतियों की खिलखिलाहट से जगमगा उठेगा। किसे मालूम था कि ये ख़्वाब कभी शर्मिंद-ए-ताबीर न होंगे। ऐसे बिखरेंगे कि उनके तार भी ढूँढे से न मिलेंगे। उस वक्त इसरार भाई की हैसियत उस शम्‍आ की सी थी, जिस पर गर्ल्‍स कॉलेज की दीवारों के पीछे मुक़ैयद हज़ारों परवाने न्यौछावर होने के लिए बेताब हों। लड़कियाँ तकिये के नीचे उनकी तस्वीर छुपाकर रखती थीं, उनके नाम की परचियाँ निकलती थीं। दीवारें गिर गयीं, पाबंदियाँ हट गयीं, परवाने दूर-ही-दूर से तमाशाई बने रहे। शम्‍आ कतरा-कतरा पिघलती रही, घुलती गयी, आखि़र को बुझ गयी। क्या कमी थी मेरे उस भाई में- छरहरा बदन, लंबा कद, सुतवां नाक, पतले होठ, छोटा दहन, चमकदार आँखें, सुनहरा रंग, तबीयत में कनाअतो-शराफ़त, लहज़े में ठहराव और धीमापन, गुफ़्तगू में मिठास और एक ऐसी बज़ला-संजी(4), जिसकी मिसाल मुश्किल। बरताव में खुलूसो-मोहब्बत, लेकिन शायरी के साथ शराब की आदत हो और जेब ख़ाली हो… ऐसे में किस परवाने की हिम्मत थी क़रीब आकर रिफ़ाक़त का हाथ बढ़ाने की। हिम्मत की भी तो राह में उसके बहीख़्वाहों के मशविरे हाइल हुए। ग़रज़ कि दर-दर से माँ-बहनों के साथ ख़ाली ही वापस हुए और मेरे भाई की जि़दंगी तनहा ही गुज़री। औरत का एक अछूता और ख़ूबसूरत तसव्वुर उनके अशआर ही तक महदूद रहा, उनके लिए असलियत का रूप न ढाल सका-

बताऊं क्या तुझे ऐ हमनशीं किससे मोहब्बत है,
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ, वो उस दुनिया की औरत है,
सरापा रंगो-बू है, पैकरे हुस्नो-लताफ़त है,
बहिश्त-अगोश होती हैं, गुहर अफशानियां उसकी।
मेरे चेहरे पे जब भी फि़क्र के आसार पाये हैं,
मुझे तस्कीन दी है, मेरे अंदेशे मिटाये हैं,
मेरे शाने पे सिर तक रख दिया है, गीत गाये हैं,
मेरी दुनिया बदल देती हैं खुशुलहानियां उसकी।
लबे लालीं पे लाखा है, न रुख़सारों पे ग़ाज़ा है
जबीने-नूर-अफ़शां पर न झूमर है, न टीका है,
जवानी है सुहाग उसका, तबस्सुम उसका गहना है,
नहीं आलूद-ए-जुलमत सेहर दामानियां उसकी।
कोई मेरे सिवा उसका निशां पा ही नहीं सकता,
कोई उस बारगाहे-नूर तक जा ही नहीं सकता,
कोई उसके जुनूं का ज़मजमां गा ही नहीं सकता,
छलकती हैं मेरे अशआर में जौलानियां उसकी।

  • (4). वि‍नोदप्रि‍यता