बस, इतनी-सी चाह है / संतोष श्रीवास्तव
स्त्री पुरुष की शारीरिक रचना में जमीन आसमान का अंतर है। नारी की कोमलता पुरुष की बलिष्ठता का विलोम है। जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कोमलता और बलिष्ठता दोनों की आवश्यकता है। नारी धरती है... पुरुष धर्म है। जब पुरुष धर्म निभाता है तो नारी जंगल बन जाती है। धरती का कण-कण उसकी उर्वरक शक्ति से लहलहा उठता है। अत्यधिक पीड़ा, कष्ट और संघर्ष झेलकर वह इस कानन का सर्जन करती है। वह पीड़ा झेलती है और आनंद का तिलक पुरुष के माथे पर लगता है। नारी में रस और विष दोनों को पचा लेने की शक्ति है जबकि पुरुष रस ग्रहण करने की प्रक्रिया को संघर्ष मानता है। विष सदा नारी के हिस्से आया है। जमाने की कठोरता में भी नारी अपनी समग्र कोमलता से खड़ी है। सफलता उसके पांव चूम रही है।
विवाह के बाद उसे एक बिल्कुल अजनबी दुनिया से टकराना पड़ता है। नये रिश्ते बनाने पड़ते हैं और खुद को अपरिचित परिवेश में अभियोजित करना पड़ता है। रिश्तों को बिगड़ने की आशंका, गृहस्थी की जिम्मेदारी के साथ बहुत सारे ऐसे सवालों से भी उसे जूझना पड़ता है जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की। अपनी संघर्ष यात्रा में उसका मन कितने अंतर्द्वद्वों से गुजरता है वह सोचने का विषय है। नारी मुक्ति के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह बहुत काफी नहीं है। मुक्तिबोध ने लिखा था-मुक्ति अकेले नहीं होती, नारी की अपनी देह से नहीं मन से भी मुक्ति ज़रूरी है। प्राचीन भारत में नारी पूर्ण स्वतंत्र थी। तब शिक्षा प्रणाली आश्रम व्यवस्था पर निर्भर थी। नारियाँ भी आश्रमों में पुरुषों के साथ शिक्षा प्राप्त करती थीं। गार्गी, मैत्रेयी, अरुंधती मंत्र दृष्टा थीं। शकुंतला, गौतमी, विदुषी नारियाँ थीं। युद्ध भूमि में मर्दाना वेश धारण कर नारियाँ दुश्मन के छक्के छुड़ाती थीं। खेतों में किसान पति के कंधे से कंधा मिलाकर काम करती थईं। क्या ऐसी नारियाँ आधुनिका नहीं कहलायेंगी? नारी सदा से आधुनिक है। कर्मठ, सहृदय, कठोर श्रम करने वाली, आंधी, ओले, बरसात सहन करने वाली, चुनौतियों को वहन करने वाली शोषित भी है और जुझारू भी। फर्क बस इतना है कि सदी बदल जाती है।
नारी की पूर्ण स्वायत्तता का आंदोलन लगभग एक शताब्दी पुराना है। भारत में राजा राम मोहन राय के प्रादुर्भाव के साथ नारी जागरण का संदेश फैलना शुरू हो गया था। नारी को एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि पुरुष और स्त्री के सह-अस्तित्व से ही जीवन में समरसता आएगी। देश-विदेश में कहीं भी नारियों के लिए यही उचित है कि मुक्त होने के क्रम में वे अपना नारीत्व न खोएँ। व्यक्तित्व का आकर्षक होना और स्वावलंबी होना ही मुक्ति नहीं है और न ही वे अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों को विकसित करने के बदले पुरुषों के गुण ओढ़कर अपने को आधुनिका समझें। पुरुष की नकल नारी मुक्ति का आधार नहीं होना चाहिए। नारी का गौरव स्त्रियोचित गुणों से युक्त रहने में ही है। ममता, मातृत्व, कोमलता, सुंदरता, सहजता आदि गुणों से युक्त नारी का पूर्ण विकास बिल्कुल तय है। नारी अगर अपने विकास में कहीं रुकावट पाती है तो सौ फीसदी मात्र पुरुष से ही... आज का पुरुष न तो विकसित है और न मुक्त। अत: नारी विकास के लिए पुरुष की मुक्ति ज़रूरी है। यदि पुरुष विकसित और मुक्त होता तो नारी इतनी असुरक्षित नहीं होती। लड़कियों की जन्म दर कम नहीं होती, सुप्रीम कोर्ट को घरेलू हिंसा से स्त्री की रक्षा के लिए नए कानून नहीं बनाने पड़ते और न ही आए दिन बलात्कार के शर्मनाक किस्सों से अखबार रंगे रहते।
ऋग्वेद में कहीं स्त्री-पुरुष में असमानता नहीं मिलती। दोनों को एक जैसा सम्मान प्राप्त है। लेकिन मध्य युग में जब समाज पर नैतिकता हावी हुई तब पुरुष ने सेक्स को बुरी तरह दबा लिया और जब सेक्स को लेकर पुरुष के मन में दूषित विचार पनपने लगे तो स्त्री कामुकता का प्रतीक बन गई, नरक का द्वार बन गई। ऐसे विचार मुक्त दिमाग के नहीं हो सकते। अत: यह ज़रूरी है कि महिला दिवस की तरह पुरुष दिवस भी हो। उस दिन वह यह याद करे कि उसे महिलाओं के प्रति अपने हीन विचारों से मुक्त होना है, अपनी पाशविकता से मुक्त होना है, अपनी कामुकता से निजात पानी है। स्त्री-पुरुष दोनों की मुक्ति ही स्वस्थ सुंदर समाज की रचना कर सकती है।
आधुनिक नारी स्वयंसिद्धा है। वर्षों से विपरीत परिस्थितियों में जीते हुए वह सुदृढ़ व्यक्तित्व की हो चुकी है। अत: उसके लक्ष्य भी सुदृढ़ होने चाहिए। उसमें वह सिद्धता होनी चाहिए जिसके सहारे वह हर चुनौती का सामना कर सके। आज उसके सामने परिवार और समाज दोनों हैं। इनमें से वह किसी एक को नहीं चुन सकती। उसे दोनों में संतुलन बनाते हुए आगे बढ़ना है। कहीं ऐसा न हो कि अपनी योग्यता साबित करने की दौड़ उससे उसका परिवार छीन ले या परिवार को बनाए रखने का प्रयास उससे उशकी योग्यता छीन ले। यह काम बहुत नाजुक है लेकिन असंभव नहीं है। भारतीय परिवारों के आदर्श, नेग, दस्तूर, परंपराओं का निर्वाह सब केवल नारी की बदौलत जिंदा है। वे इसी तरह चलते रहें यही कोशिश होनी चाहिए।
आधुनिक नारी के लिए सभी दिशाएँ खुली हैं। पक्का इरादा करके वह आज सब कुछ करने में समर्थ है। वह किसी भी दिशा में जाकर अपनी बुद्धिमत्ता और कार्य कौशल दिखा सकती है। आधुनिक नारी का लक्ष्य ऐसा हो जिसमें उसकी अपनी सुरक्षा, आत्मविश्वास शामिल हो। कुरीतियों और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर श्रेष्ठ पथ का निर्माण हो, इच्छित कार्य का जोश हो। प्रतिस्पर्द्धा हो लेकिन केवल कर्म में। व्यवहार कुशलता और मानवता में नहीं। पुरुष शक्तिशाली है पर वह पीड़ा नहीं झेल सकता, परिस्थिति से समझौता नहीं कर सकता, जीवन की संध्या में जीवनसंगिनी के बिछुड़ जाने पर वह अफने को निरुपाय पाता है। अकेले जीवन जीना उसके बस की बात नहीं। स्त्री में ये सारे गुण मौजूद हैं। आंधियों के चलते भी वह खुद को टूटने बिखरने से बचा ले जाती है। लेकिन फिर भी उसे हौसला पुरुष से ही मिलता है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अगर यह हौसला कायम रहे फिर तो उसे बवंडर में भी ढकेला जा सकता है, बस आग्रह इतना ही-
तू पंख ले ले, मुझे सिर्फ़ हौसला दे दे,
फिर आंधियों को मेरा नाम और पता दे दे।