बहुरूप दिल्ली / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
दिल्ली चीज़ ही ऐसी थी, यहाँ जो भी आता घर बनाता.
ग़रीब ग़ुरबे घरौंदे बुनते, अमीर उमराव महल सजाते और हुक्मराँ नए शह्र ही बसा डालते!
जाने कितने हुक्मरानों ने दिल्ली में जाने कितने शह्र बसाए, कोई हिसाब ही नहीं.
शेरशाह ने शेरगढ़ बसाया, तुग़लक ने जहाँपनाह. ग़ियासुद्दीन ने तुग़लकाबाद, फ़िरोज़शाह ने कोटला. और शहज़ादा ख़ुर्रम के ख़ाबों की तामीर शहरे-शाहजहानी में हुई, जहाँ आज पुरानी दिल्ली की रेलमपेल. लाट साहिबों ने यहीं तब दिल्ली दरबार सजाकर नया शह्र बसाया.
एक नक़्शे पर दूसरा उभर आता तो उनके नुक़ूश मिले-जुले बन जाते. बस्तियों का जंजाल बिछ जाता. शहर अपनी केंचुली बदलकर नई चमक अख़्तियार कर लेता.
कभी आगरा कभी दौलताबाद, कभी कलकत्ता कभी शिमला, सल्तनत की गादी जब भी दिल्ली से बाहर गई, एक अफ़सोस और तड़प के साथ लौटकर ही आई. के इस शह्र की हवा में ही खिंचाव था.
जब भी दिल्ली में कोई नया शहर बसाया जाता, हुकूमत का कारख़ाना वहाँ शोर करने लगता. हुक्मरां आते, उनके साथ उनके वज़ीर, अफ़सरान, कारिन्दे आते, तब अवाम को भी मजबूरन पोटली उठाकर आना होता. अवाम का क्या है, वो तो हाँके जाने के लिए ही बनी थी.
साल सौ साल नया शहर आबाद रहता कि फिर बदली होती. नया सुल्तान नई बस्ती बसाता और उसपे अपना नाम चस्पा कर देता. सुल्तान का नाम बुलंद रहे, इस ग़रज़ से लोग भूत बने एक से दूसरे शह्र भटकते रहते, और दिल्ली का दायरा फैलता ही रहता. उसके कशीदे में अनगिनत पहलू उभर आते. पुराना शहर नए के सिरहाने ऊंघता रहता, पर भरी दोपहरी में भी किसी को उसकी परवा ना होती.
नए मकां और पुरानी बस्तियों का ये भूखा शह्र यों ही आबाद रहता, आस पड़ोस के गाँव क़स्बों को भी निगलता हुआ! दिल्ली के बारहा शहरों में से एक था-- सिरी. जब महरौली में दिल्ली बसी थी, तब खिलजियों ने मंगोलों से हिफ़ाज़त करने की ग़रज़ से इसे बनाया और दारुल-ख़िलाफ़त कहके पुकारा. सिरी में ही पानी के बंदोबस्त के लिए हौज़े ख़्वास बनाया गया, जिसके पानी में जब तैमूरलंग का साया उभरा, तो सिहर गया लहू की हज़ार नहरों वाला ये शहर.
हाये, ये कितनी बार बसा, कितनी बार उजड़ा है!
शाइर ने भले दिल के लिए कहा हो, हम तो दिल्ली के लिए ही मानेंगे, के ये बस्ती दिल की बस्ती है, ये शहर बड़ा पुराना है! साल बयासी में राजधानी में जब एशियाई खेल हुए तो परदेसियों की आवभगत के लिए उसी सिरी में खेल गाँव बसाया गया. ये दौरे-नौ था और परदेसी अब यहाँ पदक लूटने आते थे, ख़ंज़र की प्यास मिटाने नहीं.
हिंदुस्तानी पदकवीरों के नाम पर इसी खेल गांव में फिर कंकरीट के नफ़ीस घोंसले बसाए गए-- मालवा सिंह ब्लॉक, चंदगी राम ब्लॉक, लेवी पिंटो ब्लॉक, मारुति माने ब्लॉक, सचिन नाग ब्लॉक, हवा सिंह ब्लॉक! एक एक नाम एक कहानी. दिल्ली के इसी खेल गांव में इधर दो रोज़ के लिए अपना चिमटा गड़ा था, चूल्हा जला था. यहीं नींदें नाज़िल हुई थीं, ज़िंदगी बसर हुई थी.
खेल गांव में घने दरख़्तों, जो मुंह जोड़े ऊंघते रहते हैं, से सजी सरसब्ज़ चौड़ी सड़कें बिछाई गई हैं, जिन पर शामों को लोग तफ़रीह करते हैं. यों लगता कि वो नीमबेहोशी में चलते, जाने क्या सोचते हुए. बाज़ दफ़े ऐसा मालूम होता कि उन सबों की पीठ पर मुर्दे लदे हैं, उनके कानों में कुछ फुसफुसाते हुए.
दिल्ली प्रेतबाधा से ग्रस्त थी, यहाँ किसी की पीठ ख़ाली नहीं थी. यहाँ किसी का काफ़िला ठहरता न था.
ये दिल्ली चीज़ ही ऐसी थी- यहाँ जो भी घर बनाता, फिर एक रोज़ डेरा भी उठाता!