हौज़ ख़ास की एन्टीक दुकानें / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
हौज़ ख़ास में एन्टीक की दुकानें बहुत हैं!
आप वैसी किसी भी दुकान में चले जाइये, अजीबो-ग़रीब चीज़ें आपको मिलेंगी। नक़्शे, वंशावलियाँ, पुरानी फ़िल्मों के पोस्टर, क़ुतुबनामे, चिलमें और सिक्के, ग्रामोफ़ोन, पुराने टाइपराइटर, गुलदान और मर्तबान, काठ की संदूक़चियाँ, घड़ियाँ, पेंडुलम, सीपियाँ, देवप्रतिमाएं और बेनाम चेहरों से भरी तस्वीरें। हरेक की कोई ना कोई संगीन कहानी।
आप इन तमाम चीज़ों को देखते रहिये। अगर आप ये सोचते हैं कि दुकान मालिक आपको इनके बारे में ब्योरेवार तफ़्सीलें बतला सकेगा तो ये आपकी भूल है। वो आपको केवल उन चीज़ों के दाम बता सकता है। बाज़ दफ़े वो उन चीज़ों से उतना ही ग़ैरवाक़िफ़ रहता, जितने कि आप। तब आपको लगता कि वो एन्टीक शॉप एक अर्बन स्पेस में मौजूद ऐसा जंक्शन है, जहाँ लोग आकर पुरानी चीज़ें बेच जाते हैं और कुछ और लोग उन चीज़ों को ख़रीद लेते हैं, लेकिन ये चीज़ें ठीक-ठीक कहाँ की थीं, और यहाँ कैसे आन पहुंचीं, ये तो शैतान ही जानता है।
आप ख़ुफ़िया सुराग़ों से भरी उन पुरानी चीज़ों के अजायबघर में घंटों गुम हो सकते थे।
मुझे शेखर कपूर और शाम्भवी कौल की एक फ़िल्म याद आती है, जिसमें एक नौजवाँ लड़की रोज़ ही घर का कोई पुराना सामान बेचने एन्टीक शॉप आती और एक दिन एन्टीक शॉप का मालिक ख़ुद उसे ख़रीदकर अपने घर में सजा देता। वो इस बात के लिए उसको कभी माफ़ नहीं कर पाती। दुकान मालिक सोचता, मैंने तो लड़की के लिए दरियादिली दिखाई थी, वो ये समझ नहीं पाता कि दरियादिली ही तो उस लड़की को नहीं चाहिए थी। उसके लिए रहमदिली घर के किसी कोने में रखा सिगार था, जिसे बेचकर चंद रुपए हासिल किए जा सकते थे। इससे ज़्यादा नहीं।
मैं जब भी हौज़ ख़ास जाता, एन्टीक की दुकानों का फेरा ज़रूर लगाता। क़ुतुबनामे की चुम्बक वाली सुई को ग़ौर से देखता और अटलांटिक में गुम हो चुके किसी जहाज़ की कल्पना करता। रोमनों की वंशावलियों को निहारता। टस्कनी प्रान्त के नक़्शे को देखते ही पहचान लेता। उन्नीस सौ ग्यारह के दिल्ली दरबार की तस्वीरें मुझको लुभातीं और तब अचानक मुझको अहसास होता कि तस्वीरों में से कोई एक मुझे घूरकर देख रहा है, और शायद मैं उस नज़र को पहचानता हूं।
दिल्ली मेरे लिए वैसी ही थी, जैसे रिल्के के लिए पेरिस। जैसे रिल्के पेरिस में शांज़-लीज़े न जाकर र्यू-दे-सीन की छोटी दुकानों में चला जाता, ऐसे ही मैं दिल्ली में कनॉट प्लेस न जाकर हौज़ ख़ास चला आता। र्यू-दे-सीन में क़ीमती गुलदानों या पुरानी किताबों की दुकानें देखकर रिल्के सोचता कि काश वह भी ऐसी ही किसी दुकान ख़रीदकर उसमें बीस साल तक चुपचाप और अकेला बैठा रहता, जहाँ कभी कोई ना आता, और हौज़ ख़ास की एन्टीक दुकानों में मुझको भी वैसा ही महसूस होता, कौड़ियों का कलाईपट्टा देखकर जब-तब चहक उठने वाली साउथ देल्ही की किसी लड़की के वहाँ होने के बावजूद, जिसका नाम होता- काइरा या शनाया!
नए को पुराने की चाहना होती है, शहर को देहात की। नए को पुराना हुए बिना पुराना लुभाता, शहर को गांव हुए बिना गांव। इसी तिलिस्म के चलते हौज़ ख़ास की एन्टीक दुकानों में काठ की मैली-कुचैली संदूक़चियाँ और मिट्टी की तश्तरी की अनुकृतियाँ बेशक़ीमती हो जातीं। लालसा बेछोर होती। वो सबकुछ को अपने में जज़्ब कर लेना चाहती। दिल्ली के दक्खन में एक अर्बन विलेज सबकुछ का पैनोरेमा बन जाता, परस्पर विपरीतों का नर्वस एनर्जी से भरपूर एक संयोजन। इससे ज़ेहन में एक कॉस्मोपोलिटन रंगत उभरकर सामने आती, गर्म कॉफ़ी की भाप से धुंधलाती हुई। नीम नश्शे में गाफ़िल कर देने वाली उत्कंठाएं! तब मैं सोचता कि आख़िर ये दिल्ली भी तो पुरानी चीज़ों की एक बड़ी-सी दुकान से कम नहीं थी, जिसमें किसी अजनबी तहसील के नक़्शे जैसा हौज़ ख़ास विलेज था। और मैं, पूरे बीस साल तक उसकी गलियों में चुपचाप चलते रहना चाहता था, किसी और का हाथ थामे बग़ैर।