भ्रमणरति / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
अगर आप मुझसे पूछें कि यात्राओं का क्या अर्थ है, तो मैं कहूंगा, दूरियों की वेदना से सुख पाने की प्रत्याशा।
दूरियाँ वेदना की वर्तनी में रचा गद्यगीत होती हैं।
दिशाओं में जैसे दूरियों के घाव होते हैं।
‘देश’ और ‘काल’, अगर हमारी चेतना के संताप के दो मानबिंदु हैं, तो हर यात्रा इन दोनों बिंदुओं का अवगाहन भी है।
कि हम ‘देश’ के भीतर यात्रा करते हैं। और इस दौरान ‘समय’ हमारे भीतर से किसी यात्रिक की तरह होकर चला जाता है।
समय बीतता है, हम बीत जाते हैं। खिड़की के बाहर दृश्यालेख बदल जाता है, हमारे भीतर भी कुछ बदल जाता है।
यात्राएँ केवल मानचित्र पर एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक दौड़ने का ही नाम नहीं, वे हमारी चेतना की निर्मिति के अनेक प्रसंगों का आलोकन भी करती हैं।
जिसने दुनिया देखी हो, उसके लिए देशकाल कुछ और है। जिसने स्थैर्य का अनुशासन साधा हो या जिससे वह बलात् ही सधा लिया गया हो, उसके दिनमान की पहचान ही कुछ और।
यात्राओं से सम्भवत: सुख ही मिलता होगा। तभी तो लोग यात्राओं की योजनाएं बनाते हैं, मन में बड़े मनोरथ बांधते हैं, बहुत ही पुलक से गंतव्य से प्रस्थान करते हैं, विदा के निर्निमेष में हिलाते हुए हाथ।
किंतु मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा कि यात्राओं से सुख मिलता हो या नहीं, किंतु उनसे इतना अवश्य होता है कि हमारे भीतर हमारे होने का जो बिम्ब है, उसे यात्राएं हमारी चेतना के फ़ोकस से थोड़ा ओझल और डावांडोल कर देती हैं।
अकारण नहीं कि यात्राओं के दौरान हम बहुधा स्वयम् को अवसन्न और अपदस्थ पाते हों, फिर चाहे वह विचलन सुख का ही क्यों न हो, आवेश का ही क्यों ना।
वो गीत है ना- ‘लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है!’
जर्मन रोमांसवाद से निकला हुआ शब्द है- ’वान्डरलुष्ट’। हिंदी में इसे अनूदित करें तो कहेंगे- ‘भ्रमणलिप्सा’।
‘भ्रमणलिप्सा’- वही अनुरति, जो ऋतुओं को चलाए हुए है, जिसकी धुरी पर पृथिवी घूमती है, जो सभ्यताओं की महायात्रा की जननी है, जो मनुष्य को धरती का चक्कर लगाने के लिए विकल कर देती है, समुद्रों को लांघने के लिए, भिन्न-भिन्न देशों की धूप-बारिश को भोगने के लिए, हमारे भीतर एक ‘कोलम्बस’ का रूपक रचते हुए, जिसे शायद यह नहीं मालूम था कि उसे पाना क्या है, सिवाय इसके कि उसे कुछ न कुछ ज़रूर पा लेना है।
’वान्डरलुष्ट’ का एक नया पर्याय उन्होंने इन दिनों खोज निकाला है। वे इसे ‘फ़ारसिकनेस’ कहते हैं। दूरियों की चाहना। यह उस ‘होमसिकनेस’ शब्द का विपर्यय है, जो सही मायनों में ‘भ्रमणलिप्सा’ का विपरीत ध्रुव रचता है।
‘वॉन्डरलस्ट’ में यात्री घर छोड़ देने को बेचैन रहता है, ‘होमसिकनेस’ में वह घर लौट आने को आकुल होता है।
दुनिया को ‘विश्वग्राम’ बना देने वाली तकनीकी ताक़तों ने जिस एक और परिघटना को हमारी सदी में रच दिया है, उसे ‘हाइपरमोबिलिटी’ कहते हैं। एक ऐसी चिर-यात्रिकता, जिसमें ‘जेट-लैग’ भी रोज़मर्रा का एक रिवाज़ बनकर रह जाए।
जो दुनिया मनुष्यता के लाखों वर्षों के इतिहास में बेमाप थी, उसे इस ‘हाइपरमोबिलिटी’ ने एक गतिमयता के छंद में गूंथ दिया है। उसने सदियों पहले गृहवासी बने मनुष्य को फिर से बंजारा बना दिया है। यायावर बना दिया है। इतिहास का एक वर्तुल जैसे पूर्ण हुआ हो।
किंतु तब भी इस पूरी दुनिया की ख़ाक़ भला कौन बटोही छान पाता है? वायुयान में बैठकर समुद्रों को लांघ जाने के औद्धत्य से ‘पृथिवी प्रदक्षिणा’ कहाँ पूर्ण होती है?
शायद यात्राएँ एक छोटी-सी मृत्यु की तरह हैं। क्योंकि मृत्यु कुछ और नहीं, अगर वह किन्हीं पूर्वनियत मानकों का प्रत्याख्यान नहीं। अगर वो हमारे भीतर पैठे प्राण की सत्ता का तख़्तापलट नहीं।
चेतना के मानचित्र पर विस्थापन और विचलन का वैसा ही एक रचाव बनाती यात्राएँ भी मुझे मृत्यु की ही तरह रोमांचक और शोकात्मक मालूम होती हैं।
मैं सैलानियों की भीड़ में कई बार सम्मिलित रहा हूं और हर बार उन्हें देखकर मैंने यह सोचा है कि यह दूरियों के दु:खों को उत्सव की संज्ञा देकर उन्हें समारोहपूर्वक भोगना ही तो नहीं है?
गुरुत्वाकर्षणों से परिभाषित हमारी अस्ति की चेतना तब बहुत क्षुब्ध करने वाली हो जाती है।
शायद हमारी चेतना के भीतर भी कोई ‘लो-सेंटर ऑफ़ ग्रैविटी’ होती है, धरती का गुरुत्वाकर्षण जिसको अपनी ओर खींचता है, जो धरती पर बिछौना बिछाकर सो जाने के लिए बेचैन रहती है। और इस तरह हमारे पैरों के आवारापन में बांध देती है मृण्मयता की बेड़ी।
शायद हमें एक समय के बाद ठहर जाना चाहिए। कहीं और नहीं तो सम्भवतया यात्राओं के भीतर ही कहीं।
शायद यात्राओं के उत्सव का यही पछतावा हो!