तारामण्डल / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
तिमंज़िले मकान की छत पर टहलते-टहलते ही देखा, सुदूर पश्चिम में सूरज डूब गया है। रोज़ शाम कुछ कोस चहलक़दमी की आदत! न चलो तो शरीर की शिराएं शिथिल होने लगतीं। सड़कों पर चलना मुहाल था तो छत के आयताकार हाशिये में ही करीने की क़दमताल। वहाँ से आकाश ऐन सिर पर दिखता था, बड़े से धुले टोप की तरह। सूरज डूबा तो पश्चिम का क्षितिज लला गया, जैसे दिनान्त के शोक से। पूर्व में कालिमा घिर आई। जल में स्याही की बूंद-सी वह फलक में फैलने लगी। मैंने देखा आकाश में अंधकार की एक हिलोर पूर्व से पश्चिम की ओर तैर रही थी।
चंद्रमा ऊगा। किंतु अकेला नहीं। चांद के पास एक सितारा था। चांद के बाद सबसे चमकीला। शुक्र तारा : जो कि वास्तव में तारा नहीं है। टकटकी बंध गई। देखा तो पहले भी था, सहस्र-कोटि बार, किंतु वैसी फ़ुरसत से न देखा था। समय का फीता इधर बहुत लम्बा हो चला था। उसे धीरे-धीरे कुतरने पर क़ाहिल कहलाने का कलंक नहीं लगता था, कहीं से कोई नालिश-हिदायत पेश नहीं आती थी। इस दौर ने ही बड़ी ख़ुशी से ये इजाज़त दे दी थी कि शाम का आकाश छत पर से ख़ूब निहारो।
लिहाजा, फ़र्श पर ही निःशेष लेट गया, पीठ में कंकरीट की कनियाँ गचने लगीं! जब पूर्व से चली अंधेरे की लहर पश्चिम तक एक लय में खिंच गई तो एक एक कर तारे दीखने लगे। मोतियों से जड़ा थाल सज गया! आकाश साफ़ हो और अंधेरा निथरा हो तो आदमी नंगी आंख से हज़ार तारे देख सकता है और हरेक को उसने एक नाम से पुकारा है! मैं इनमें से कितने सितारों को नाम से जानता था? किसी को नहीं। मेरा सारा इल्म खुले आकाश के नीचे ज़ाया हो गया। धरती हवा के एक लिहाफ़ में लिपटी थी, जो सूरज की रौशनी से नीलगूं हो जाती थी। मैं उस ख़ला की वुसअत के सामने ख़ामोश लेटा था, जब घनेरा अंधेरा गहराया।
मैं चंद्रमा को पहचानता था। शुक्र तारे को जानता था, जो हर दिन चंद्रमा से दूर खिसकता जाता था। तब चंद्रमा के पास कालपुरुष तारामण्डल की आकृति को पहचानकर मैं सगर्व मुस्कराया। मैं कालपुरुष को भी पहचानता था। अंग्रेज़ी में यह अरियन कहलाता है। इसके तमाम नुक़्तों को जोड़कर एक रेखाचित्र बनाएं तो किसी अहेरी जैसा मालूम होता है। अहेरी की अचकन में तीन बटन हैं, जो तारामण्डल के संयोजन में बड़े सजते हैं। वो कहते हैं अरियन दिख जाए तो फिर तॉरस, कैनिस मेजर, रीगेल तारों को खोजना कठिन नहीं, किंतु मेरी वैसी अभ्यस्त आंखें कहाँ?
वो फाल्गुन मास था, इसलिए सोचा कि सप्तर्षि तारामण्डल भी निकट ही होगा। सप्तर्षि सदैव ही दिखलाई नहीं देता, किंतु फाग के बाद बरखा की रुत तलक उत्तरी गोलार्द्ध में इसे खोज निकालना सहल है। बहुत खोजने पर, चंद्रमा से दूर, किंचित छिटककर, तब मुझको पहचान आया, सात ऋषियों का वह संयोजन। सात सितारे। अंग्रेज़ी में जिसको कहते हैं- द बिग डिपर। यह तो जानता था कि दो सप्तर्षि हैं- वृहद और लघु- ऊर्सा मेजर और ऊर्सा माइनर। तब सहसा, एक कौंध की तरह, अतीत में कहीं पढ़ी वह बात याद आई कि वृहद का एक छोर लघु के दूसरे छोर से जहाँ मिलता है, वहाँ ध्रुवतारा होता है। लघु सप्तर्षि का आख़िरी सितारा- एक सीध में वृहद सप्तर्षि की दूरस्थ बांह से जुड़ता हुआ। और जहाँ ध्रुवतारा है, वहीं उत्तर दिशा है। वह नॉर्थ स्टार इसीलिए कहलाया है- पोलरिस!
इस अन्वेषण से चकित बड़ी देर तक खोजता रहा, किंतु ध्रुवतारा नहीं मिला। आकाश में मेघ थे। उसने मण्डल को ओट में कर लिया था। किंतु चंद्रमा और शुक्रतारे के बाद दो और तारामण्डल मार्च के उस आकाश में खोजकर मुझको बड़ा गौरव हुआ। कितने तारामण्डल हैं? कोई गिनती ही नहीं। अलेक्सांद्रिया के समुद्रतट पर लेटे-लेटे टॉलेमी ने 48 तारामण्डल खोज निकाले थे और उनके नाम अपनी किताब में दर्ज़ किए थे। बाद उसके यह गणना फिर बढ़ती ही रही। छत पर लेटा मैं सोचता रहा कि मैं उन्नीस सौ साल पहले जीकर मर गए टॉलेमी से भी कितना पीछे हूं। सभ्यता के अभिप्राय कौंध गए। सभ्यता एक यात्रा है, जिसमें एक पीढ़ी अपनी ज्ञान-परम्परा दूसरी को सौंप जाती है, दूसरी पीढ़ी उसका उपयोग करती है या किताबों में बंद करके बिसरा देती है। तब मैं किस सभ्यता का वंशज कहला सकता था? मैं, जो आकाश में दो ही तारामण्डल पहचान सकता था? विरासत में जो मिल जाए, उसको एक सीमा के बाद अपना नहीं ही समझना चाहिए, कदाचित्।
अतीत के वर्षों में जब नाविक समुद्र-यात्रा पर निकलते थे, तो ये तारे और मण्डल देखकर ही दिशा पहचानते थे। ध्रुवतारा उनको राह दिखलाता था। पोलरिस किसी लाइट-पोल से कम नहीं था- आकाश में आलोक का एक स्तम्भ। एक आदिम रोमांच मुझको मथने लगा। मैं मृत्युओं, दिशासूचकों, दु:साहसों, एकांतवासों और निस्संगताओं का वंशज था। यही मेरे पुरखों का तारतम्य था। फाल्गुन के निस्पंद आकाश के नीचे हाड़-मांस का एक पुतला- जिसमें जीवन की ज्योति।
और तब, एक टूटा तारा दीखा। सुदूर, किसी सफ़ेद ग़ुब्बारे-सा वह उड़ा चला जा रहा था। देरी तक वह आकाश में तैरता रहा, फिर ओझल हो गया। मेरा मन उससे जुड़ा गया। उसके अभाव के शोक से भर उठा। आत्मा में दूरस्थ की प्रीति जग आई। कौन जाने, जब एक सदी के बाद कोई आने वाले दिनों का इतिहास लिक्खेगा तो उसमें यह दर्ज़ करेगा या नहीं कि ये टूटे बेनाम तारों से भरे आकाश का दौर था, जो बहुत धीरे-धीरे बीता था, अतीत की तरह!