आमबाग़ में नौका / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
जैसे आमबाग़ ही कोई कम कौतुक था, तिस पर यह कि आमबाग़ में नौका! ये नौका यहाँ कैसे आई, इस जिज्ञासा ने आम की क़िस्मों के कौतूहल को आच्छादित कर दिया।
भोपाल शहर में एक लम्बी सड़क है, घने दरख़्तों से सजी। इधर से उधर तक, पेड़ों की पंक्तियाँ। पुल बोगदा से गोविन्दपुरा होते जो सीधी सड़क रायसेन को चली गई है, उसकी दाईं भुजा, जहाँ भेल प्रांगण है। इसी सड़क पर एक बाग़ है, बाग़ का नाम जवाहर। अलबत्ता कोई लाल-जवाहर यहाँ उगते हों, वैसा नहीं है, लेकिन वैशाख के बाद आओ तो लालबाग़ आम यहाँ ज़रूर मिलेगा। कि ये आम का बाग़ जो ठहरा।
लालबाग़ आम यानी सिन्दूरी। लाल छींट वाला फल, जिसका स्वाद मीठे के साथ ही तीता-कसैला। इसी की एक क़िस्म कहलाई है गुलाबख़ास। जैसे लंगड़े की एक क़िस्म मालदा कहलाती है। जवाहर बाग़ में लंगड़ा भी है, मालदा भी। कोहिनूर भी है, सुवर्णरेखा भी। चौसा भी है दशहरी भी। सुदूर दक्खन के बैंगनपल्ली और बॉम्बे ग्रीन की क़िस्में भी यहाँ उगती हैं। चौकोर गुठली वाला मल्लिका मध्यप्रांत में और कहीं उगे ना उगे, यहाँ उगता है। के ये बाग़ आमों की बहार है।
मैं रोज़ इस सड़क से निकलता। जवाहर बाग़ पड़ता तो बाद उसके अमराई का गझिन छायारूप बिम्ब मेरे साथ हो लेता, जब तक चेतक पुल पर कोई असावधानी से हॉर्न बजाकर मेरी तंद्रा नहीं तोड़ता। मुझे आभास होता कि मैं जवाहर बाग़ के सम्मोहन में बंध गया हूं। देर रात लौटते समय जब अंधकार में डूबे बाग़ के सामने से गुज़रता तो अंतर्बोध से उसके प्रसार को टोहने का उद्यम करता। चालीस एकड़ क्या बड़ी बात है, मेरी कल्पना तो चालीस सहस्र कोस तक जा सकती थी!
चैत्र लगता और जवाहर बाग़ अाम्रकुंज बन जाता। बौर उसमें फूट आते। कोकिला का स्वर कभी-कभी कानों में पड़ता तो मालूम होता यह विगत जन्म की किसी प्रेयसी की पुकार होगी। वैसा शुद्ध पंचम, कहीं वह तानपूरा लेकर तो ना गाती होगी, भोरे-भोरे भैरवी। मन मृग से कम नहीं था, कहाँ से कहाँ चला जाता।
फिर हम रुक जाते। जवाहर बाग़ की उपज उसके ठीक सामने एक दूकान सजाकर साल के दो-तीन महीने भरपूर बेची जाती। तुला दोलती ही रहती! बारह क़िस्मों के ताज़े डालपक आम उसमें धज से रखे होते। देशी आम तो गुणगाहकों को मुफ़्त ही चूसने को प्रस्तुत कर दिया जाता। बाग़ के भीतर वैसे बीसियों आम रात को गिरकर मिट्टी में लटपटा जाते होंगे। ये कोई फल मंडी थोड़े ना है, जहाँ एक-एक बेर का तौल-मोल होता हो। ये तो आमों का बाग़ है साहब। समय रहते फल नहीं बिकेगा तो यों भी ख़राब हो जावैगा। और घर ले जाकर भी क्या करेंगे। ठेकेदार के बच्चों ने गुड़ उतना नहीं खाया होगा, खांड से वैसा परिचय ना होगा, जितने आम हर मौसम में छककर खाए हैं। आमों से जी ऊब गया। अब आम का क्या करें।
किंतु ये तो ठेकेदार के बच्चों की बात हुई, हम जैसों के लिए आम की कैरी भी कौतूहल का केंद्र है। बाग़ में टहलते जहाँ नीचे गिरी दिखी, झट्ट से उठाकर दांत खट्टे कर लिए। जीभ की नोंक पर रोमांच हो आया। एक आंख मुंद गई। मंडी में दस रुपिया सेर भी कोई यह कैरी बेचे तो आप ना लें, किंतु आमबाग़ में वही धरती पर पड़ा मिले तो अमृतफल मालूम होता है। मनुज के मन के वैसे ही अचरज हैं, कोई क्या करे!
किंतु अभी नौका में मन उलझा था! आमबाग़ में नौका कैसे आई? ये वैसा ही अचरज है, जो मार्केज़ के उपन्यास में दलदल में धंसा जहाज़ देखकर माकोन्दो के एक लड़के में उग आया था। किसी नदी किनारे बाग़ होता तो आप कहते कि पूर में यहाँ छूट गई होगी। किंतु भोपाल में नदी कहाँ। हाँ, तालाब ज़रूर है। छोटा-मोटा नहीं, महाताल है। ताल तो भोपाल ताल, बाक़ी सब तलैया। पर वो यहाँ से बारह कोस से कम नहीं होगा। काठ नहीं जस्ते की यह नाव है। डोंगी कह लो। किंतु धरती पर तो नहीं ही चलती होगी। इसके पहिये भी कहाँ हैं?
कभी-कभी ऐसा होता कि ब्रह्मा का मन भी पेड़ के उस कोटर में अटक जाता, जहाँ चींटियों के अन्न का कोठार होता है। और एक मैं था, जो आमों की बहार में एक नौका पर आकर ठहर गया था। निश्चय ही, कोई ना कोई कथा इसके पीछे होगी, किंतु कथा बखाने कौन? बाग़ के ठेकेदार को कलदार गिनने से अवकाश हो तब ना? ज्येष्ठ मास में तो आम ही मिष्ठान्न है, आमरस ही मधु है। उसका हाथ ना रुकता ता, कथा क्या बांचेगा?
कोई उपाय ना था सो एक सेर मालदा लेकर लौट आया। मोटरसाइकिल को किक मारकर चल पड़ा। जवाहर बाग़ की सीमा कुछ देर साथ चली, फिर सड़क मुड़ गई। एक पहर बाद दिन संध्या में गुम गया। संध्या बड़ी झील में डूब रही! रात उगी। जवाहर बाग़ में जितने आम थे, उतने तारे आकाश में जड़ गए। धनुष जैसा चंद्रमा तोरण की तरह खिंच गया। आज के आनंद की जय, हमने स्वयं से कहा। कि यह दिन अब समाप्त हुआ।
किंतु नींद में तैरती रही आमबाग़ की नौका। तंद्रा में समस्त अवबोध ज्यूं जलथल हो जाता है। वस्तुगत यथार्थ खूंटे पर रख दिया जाता है। सो उसी झोंक में बाग़ में नहर चली आई। नहर में नौका। नौका में आमों का टोकरा। मैं नौका पर सवार था। कोयल कूकी। आवाज़ पहचानकर मैं मुस्करा दिया, किंतु नाम याद ना आया! टहनी चटखने के शब्द से सशंक हुआ। किंतु यह तो केवल अमराई की पुरवाई थी। एक पत्ता टूटकर गिरा, स्वप्न की विलम्बित धड़कन में। और इतनी देर तक गिरता रहा, जितने में रात को भोर के घर जाना था।