भोपाल की एक तस्वीर / बावरा बटोही / सुशोभित

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भोपाल की एक तस्वीर
सुशोभित


ये मेरे शह्र भोपाल की एक तस्वीर है।

जेब से जैसे रूमाल गिर गया हो, वैसे ही शाहजहाँबाद की उठान से नीचे की ओर चौक बाज़ार की ये दो मीनारें दिखाई देती हैं। बीच में मुंशी हुसैन ख़ां की तलैया का मटमैला शीशा औंधे मुंह पड़ा होता। उसके किनारे पर दरारें खिंच आतीं।

ये मीनारें जामा मस्जिद की हैं, जो भोपाल की चार बेगमों में से पहली क़ुदसिया बेगम ने बनवाई थी! इसके कोई तीस साल बाद उनकी पोती सुल्तान शाहजहाँ (भोपाली इनको 'शाजा बेगम' कहते हैं) ने शाहजहाँबाद बसाया और वहाँ ताजुल मसाजिद तामीर करवाई।

ताजुल भोपाल ही नहीं, हिंदोस्तां की सबसे अज़ीमुश्शान मस्जिद है। मस्जिद नहीं, 'मसाजिद' है, यानी एक से ज़्यादह इबादतगाहों का संकुल। मोतिया ताल में ताजुल की मीनारें किसी जहाज़ के मस्तूलों जैसी मालूम होती हैं, वो एक दीगर क़िस्सा है। लेकिन ताजुल के पहले जामा की ये दो अठपहलू मीनारें ही भोपाल की सबसे बुलंद इमारतें हुआ करती थीं, शह्र के हर कोने से गरदन उचकाए दिखतीं।

बड़ी झील से लगा हुआ है गौहर महल। इसी से दो फर्लांग दूर है मोती मस्जिद। यहाँ से एक रास्ता पीरगेट की जानिब कटता है। पीरगेट के चौराहे से एक निहायत संकरी गली चौक बाज़ार में खुलती है। ये गली इतनी संकरी है कि उधर से कोई सांड चला आए, तो उसको रास्ता देने की कोशिश में आपके घुटने दाईं तरफ़ की दुकानों के ओटले से जा भिड़ेंगे। वही पुरानी कपड़ों औ ज़ेवरों की दुकानें।

चौक बाज़ार भोपाल का दिल है। भोपाल में दिल में ये दो मीनारें उगी हुई हैं।

मोती मस्जिद के बारे में सुना है, विलायत से क़बूतर बुलाए गए थे, लेकिन चौक बाज़ार की इन मीनारों के क़बूतर भोपाली ही हैं। जिसको कि बोलते हैं- लक़्क़ा क़बूतर। ये चौक बाज़ार अपने तरह की अनूठी जगह है। पुराना वक़्त जैसे यहाँ आकर रुक गया है। पुरानी काट की ओटलों वाली दुकानें यहाँ उगी हुई हैं। यहाँ से एक रास्ता सराफ़े को जाता है, दूसरा इतवारे को, तीसरा इब्राहीमपुरे में खुलता है।

मेरे शह्र के एक शाइर ने अपनी एक किताब में बतलाया था कि एक ज़माने में इब्राहीमपुरे में अहद होटल करके बड़ा मशहूर चायघर हुआ करता था, जहाँ उर्दू-हिंदी के बड़े-बड़े राइटर लोग आकर चाय पीते थे। मुक्तिबोध से लेकर परसाई और फ़ज़्ल ताबिश तक! ये हमें तब याद आया, जब इतवार की सांझ एक अदद चाय के लिए हम इसी चौक बाज़ार में मारे-मारे फिर रहे थे, और क़सम दुश्मनों की, हमारे भेजे में बल आ गया था!

शह्र के बीच में चार बांहों वाला चौक बाज़ार था। चौक बाज़ार में ग्यारह सौ दुकानें थीं। बहत्तर गुलाबी सीढ़ियों का मुहाना चौक में खुलता था। वहाँ पर दो बुलंद मीनारें थीं। मीनारों में आठ पहलू थे। यहाँ से एक सड़क बड़ी झील को चली जाती।

हर चीज़ की गिनती थी, एक चौक बाज़ार की मीनारों में गुटरगूं करने वाले क़बूतरों का ही कोई हिसाब नहीं था।

और मैं इसी वहशत में सिर में सौदा लिए इस शह्र की गलियों में तफ़री करता फिरता कि क़बूतरों की शुमारी के काम पर मुझको भला कौन फन्ने ख़ां रक्खेगा और चाय-सुपारी नसीब हो जावै, खीसे के लिए उतनी तनख़्वाह भी देगा?