भोपाल का ताज / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
आगरे का ताज महल शाहजहाँ ने बनवाया था, भोपाल का ताज महल शाहजहाँ बेगम ने!
शाहजहाँ बेगम ने 1868 से 1901 तक भोपाल रियासत पर राज किया। उन्होंने ख़ूब इमारतें तामीर करवाईं। उन्हीं के राज में भोपाल में पहली रेलगाड़ी चली। एक मनसूबे के तहत उन्होंने अपने नाम से शाहजहानाबाद आबाद करवाया। वहाँ ताजुल मसाजिद बनवाई और अपने शौहर के साथ रहने के लिए इबादतगाह के बग़ल में ख़ुद के लिए ताज महल तामीर करवाया। साल अठारह सौ इक्यासी में जब ताज महल बनकर तैयार हुआ, तो भोपाल में जो जश्न मनाया गया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं। ग़रीबों को खाना खिलाया गया था और खाने के बाद मरज़ानी, मुक़ेशी हार और सोने-चांदी के वर्क़ों में लिपटी गिलोरियाँ तक़सीम की गईं। ख़ादिमों और ख़्वासों को जाफ़रानी जोड़े दिए गए। रंग से भरा चांदी का कटोरा, ख़ासदान और एक-एक पिचकारी दी गई। आला दर्ज़े के लोगों को दी गई पिचकारियाँ सोने की थीं!
शाहजहानाबाद भोपाल में तनिक उठंगी ज़मीन पर आबाद है। भोपाल में धरती की करवट से बनीं ऐसी कई सलवटें हैं। कोहेफ़िज़ा के आगे जो ईदगाह है, वह भी उठंगी धरती पर है। श्यामला हिल्स तो है ही पहाड़ी। पुल बोगदा से पहले बसा ऐशबाग़ स्टेडियम भी ऊंचाई पर है। जॉर्ज पंचम के मुकुट के आकार वाला मिंटो हॉल भी खड़ी ढाल पर है। प्रियदर्शिनी पार्क के सामने वाली खड़ी सड़क तो रात को रौशनी के झरने जैसी मालूम होती है, गाड़ियों की बत्तियाँ उसमें एक रौ में नीचे गिरती हैं! एक अठपहलू मीनारों वाली जामा मस्जिद ही है, जो चौक बाज़ार में धंसी है और शाहजहानाबाद की घाटी से भोर के सपने सरीखी दरयाफ़्त होती है।
एक दफ़े मैं टहलता हुआ ताज महल में चला गया। अपने साथ ताज महल की पुरानी तस्वीरें ले गया, जो विन्टेज भोपाल करके एक बहोत आला रिसाले में शाया हुई थीं। बारादरी के सामने जहाँ बेगम का दरबार सजता था, ऐन वहीं पहुंच गया, हवा ने भी नहीं रोका। तस्वीर में हब्शियों का एक जत्था बेगम के डोले को लेकर सीढ़ियाँ उतर रहा था, मैं उन्हीं सीढ़ियों पर जा बैठा। तसव्वुर में पूरे के पूरी एक तस्वीर खिंच गई, जैसे बीच के सवा सौ साल जाने कहाँ खेत रहे हों। मैं देर तलक उन दोनों तस्वीरों का मिलान करता रहा- एक वो जो रिसाले में थी, एक वो जो मिरे तसव्वुर में!
झरोके से ताजुल मसाजिद की मीनारों का अक्स मोतिया ताल में लहलहा रहा था, जैसे कोहरे में जलती मोमबत्ती!
ताज महल के जलसाघर की दीवारों से कान सटाकर मैंने सुना तो ऐसा ग़ुमान हुआ कि पुराने जश्नों की गूंजें उनमें आज भी बसी हुई थीं।
ग़ालिबन, जब साज़िंदे उठ जाते हैं तो दीवारें ख़ुद गुनगुनाने लगती हैं।