भोपाल के बाग़ / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
भोपाल की बेगमात को गुलिस्तानों का बड़ा चाव था।
हर बेगम एक बाग़ लगवाती। उसका एक ख़ुशतबीयत नाम रखती। बेगमें हुक्म चलाकर मर जातीं। उनकी ज़िंदगानी से तवील उम्र जीकर वो बाग़ भी एक रोज़ गुमनाम हो जाते।
ख़ाक़ से गुल और गुल से ख़ाक़ का ये क़िस्सा यों ही चलता रहता।
शाहजहाँ बेगम ने 'निशात अफ़ज़ा' बाग़ लगवाया था।
सुल्तान जहाँ बेगम ने 'हयात अफ़ज़ा' बाग़ लगवाया था।
सिकन्दर जहाँ बेगम ने 'फ़रहत अफ़ज़ा' बाग़ लगवाया था।
बैसाख की जाने कितनी बेसबब दोपहरें इन बाग़ों से गुज़रकर सिफ़र हो गई होंगी, मैं अपनी उम्र की लम्बाई से उन्हें मापने बैठूं, तो कितनी उम्र जीना होगा?
'फ़रहत अफ़ज़ा' बाग़ बेगम के नाम पर 'गुलिस्ताने-सिकन्दरी' कहलाता था। 'निशात अफ़ज़ा' बाग़ बेगम के नाम पर 'गुलशने-शाहजहानी' पुकारा जाता। कहते हैं, जिस दिन 'निशात अफ़ज़ा' बाग़ बनकर तैयार हुआ, उस दिन भोपाल में गुलाबी जश्न मनाया गया था और दरबारियों से लेकर चाकरों तक ने गुलाबी पोशाकें ही पहनी थीं। शाहजहानी बेगम की तबीयत ही कुछ वैसी रंगीन थी।
सिकन्दर जहाँ बेगम के सेक्रेटरी साहब मुंशी हुसैन ख़ां के नाम पर भोपाल में तलैया भी है और बाग़ भी है। मुंशी जी की तलैया शाहजहानाबाद के टखनों पर टिकी है। मुंशी जी का बाग़, इब्लीस ही जाने, आज कहाँ हो?
बेगमात से पहले भोपाल में नबी बाग़, बड़ा बाग़, नज़र बाग़ बसाए गए थे। क़ुदसिया बेगम ने ऐशबाग़ लगवाया था। ये इतना हसीन बाग़ था कि फ़िरंगियों ने इसको देखकर कहा, इससे ख़ूबसूरत चमनबंदी हिंदोस्तां में दूसरी नहीं देखी। यहाँ से रेल लाइन गुज़री तो ये बाग़ बरबाद हो गया।
बाद में ऐशबाग़ में एक हॉकी स्टेडियम बना दिया गया, जहाँ भोपाली लोग अपने पायजामे चढ़ाकर खपोटे से बहोत नफ़ीस गोल दाग़ा करते थे, ज्यूं सुई की आंख में धागा पिरो रहे हों।
शह्र के नए बाग़ों में कमला पार्क, किल्लोल पार्क, चिनार पार्क, फ़िरदौस पार्क, गिन्नौरी बाग़ शुमार हैं। श्यामला हिल्स के साये तले राष्ट्रीय उद्यान वन विहार तो है ही। हस्बेमामूल, भोपाल में महलात और बाग़ात की कोई क़िल्लत नहीं।
लेकिन इससे हमको क्या? हम अपने सिर पर धूप का एक टिप्पा और बादल की टुकड़ी लिए चलते। जहाँ एक भी छतनार की पनाह मिलती, वहीं बैठ जाते। मन ही मन हफ़ीज़ का ये शे'र दोहराते--
'बैठ जाता हूं जहाँ छांव घनी होती है
हाये क्या चीज़ ग़रीब-उल-वतनी होती है।'
हाँ, भेल कम्पाउंड के रास्ते से आते-जाते जवाहर बाग़ पर हमारी नज़रें ज़रूर बेसाख़्ता टिक जातीं। पुराने ज़माने में भोपाल में शरीफ़े और संतरे के बाग़ात बड़े मशहूर थे, चुनांचे ये आमों का बाग़ है। फाल्गुन लग गया है तो बैसाख किधर निहाँ रहेगा? जवाहर बाग़ में डालपक आमों का सौदा सजेगा, वो दिन अब दूर थोड़े ना हैं।
किसी भी बाग़ का फूल किसी शाहेन्शाह के लिए ज़्यादह और किसी ख़ाकनशीं के लिए कम हसीन नहीं होता।
और आमबाग़ के फल जैसे बेगमात के लिए रसीले होते थे, मेरे लिए उससे कम भला क्यूं कर होने लगे-- फिर शह्र में नंगे सिर फिरने वाला नाकुछ ही क्यों ना होऊं?