भोपाल के दरिया / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
एक ज़माने में भोपाल में शीरीं नदी हुआ करती थी।
भोपाल उठानों और ढलानों की बस्ती है। बरखा के दिनों में पानी के धारे जहाँ-तहाँ हुमकते नज़र आते। शीरीं नदी भी बहुत शोर करती। कहते हैं, बारिश में शीरीं का शोर इतना बुलंद होता कि लोगबाग घरों में ऊंचे सुर में बात करने को मजबूर हो जाते। इसके बावजूद वे 'बेमज़ा' नहीं होते थे।
वो ग़ालिब का शे'र है ना-
'कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ।'
कुछ वही आलम था।
शाहजहाँ बेगम ने जहाँ ताज महल बनवाया था, उसके बराबर पहले एक सरकारी गंजीख़ाना था। यहाँ ईदगाह की पहाड़ी के पानी को रोककर एक तालाब बनाया गया। जब इसका नाम रखने की बारी आई, तो इसका नाम 'शीरीं तालाब' ही रखा गया। बाद में यह मोतिया ताल के नाम से मशहूर हुआ।
लेकिन बात इतनी ही नहीं, शाहजहाँ बेगम शायरा भी थीं और 'शीरीं' नाम से ही कवित्त कहतीं।
उनके नाम पर ये नदी और तलैया के नाम रखे गए थे, या नदी और तलैया के नाम पर उन्होंने अपना नाम शीरीं रखा, या उन्हें शीरीं नाम ही इतना अज़ीज़ था कि वो हर ख़ूबसूरत चीज़ को शीरीं कहकर बुलातीं, ये तो मालूम नहीं, लेकिन शाहजहाँ बेगम बहुत क़ाबिल शायरा थीं।
भोपाल की चारों बेगमों में सिकंदर जहाँ बेगम सबसे सख़्तमिज़ाज थीं, वहीं उनकी बिटिया शाहजहाँ सबसे नर्मदिल थीं। इस मामले में उनकी तबीयत अपने वालिद नवाब जहाँगीर ख़ां के मुताल्लिक़ थी, जो बड़े रसिकमिज़ाज थे और उनकी इस क़ुदरत से उनकी बेगम बड़ी हैरान रहती थीं। जब-तब उनसे रूठकर इस्लामनगर चली जातीं, जो बेरसिया के रास्ते बसा था। आज तलक वहाँ बेगम का चमन महल आबाद है।
शाहजहाँ बेगम की शाइरी की तीन किताबें हैं- 'सदकुल बयान', 'ताजुल कलाम' और 'दीवाने-शीरीं।' भोपाल के मआज़ी का ब्योरा फ़रमाने वाली उनकी एक और किताब है 'ताजुल इक़बाल।' एच.सी. बैरस्टो के तर्जुमे में यह किताब अंग्रेज़ी में आई है- 'द ताजुल इक़बाल तवारीख़ भोपाल।' औरतों के रहन-सहन पर भी उन्होंने एक किताब शाया करवाई, जिसका नाम था- 'तहज़ीब निस्वान।' मेरे शहर के एक शाइर ने भोपाल की बोली-बानी, हवा-पानी पर 'क़िस्सा कोताह' करके एक बहोत ख़ूबसूरत किताब लिक्खी है। इसमें उन्होंने शाहजहाँ बेगम की किताबों का बयान फ़रमाया था। उन्होंने बेगम की शाइरी का एक नमूना भी पेश किया। आप भी देखिये-
'सिंघाड़े शरीफ़े अनार और बिही
बकसरत करे इसमें जलवागिरी
लो आमद है चैत बैसाख की
कि जिसकी सिकत हमने यह है सुनी
चने और गेहूं हों इसमें नसीब
शिकम सैर होता अमीरो ग़रीब।'
और यह भी-
'आदमी को ख़ाक से पैदा किया
देखिये अदना को क्या आला किया।
शुक्र ‘शीरीं’ उसका करना चाहिए
जिसने ऐ शीरीं तुझे गोया किया!'
वाह! सुब्हानअल्ला!
कौन जाने 'दीवाने-शीरीं' में ऐसे जाने कितने और लाल-जवाहर होंगे, जो रक़ीबों को भी बेमज़ा ना करें।