परीकथा जैसा शहर / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
रौशनपुरा चौराहे तक अच्छा-ख़ासा शहर था, उसके बाद परीकथा बन जाता।
चाय की प्याली से जैसे कोई चम्मच टिकी हो, वैसी एक ढलाऊ सड़क चौक से नीचे गिरती।
तीन भवनों के त्रिक से एक बांह खुलती और विमान की उड़ान के पथ-सी ऊपर उठती चली जाती।
शामला हिल्स से लेक व्यू सड़क का रास्ता मुड़ता। ये जगह इतनी ऊंचाई पर बसी होती, कि लगता झील की संदूक़ची में किसी ने लाल-जवाहर छुपा रखे हों, और गश्त के लिए उस पर ये चौकी बनाई हो।
बड़ी झील का शीशा दूर तक पसरा रहता। उसके किनारे की किरचें आंख से ओझल रहतीं, अगस्त में पानी कम पड़ने के बावजूद।
आकाश का बिम्ब झील में इतने गहरे समाया होता कि नभ-जल का गहन नील एकमेक हो जाता।
आप जब भी शामला हिल्स के मोड़ से लेक व्यू सड़क पर निकलते और सहसा एक इलहाम की तरह झील का अछोर पसार आपको दरियाफ़्त होता, गुर्दे में गुदगुदी-सी होने लगती। और ऐसा हर मर्तबा होता।
झील पर झिलमिल झलकता संझा का आलोक आंख में कनी-सा गचने लगता।
जब हम शामला हिल्स के साये में होते, तब भी वो हमें अकेला ना छोड़ती। सड़क के दूसरी तरफ़ झील का रूमाल फैला होता, जिसके बीच में शाह अली शाह के तकिये का कशीदा, जैसे किसी ने हरे रंग का बूटा काढ़ा हो।
वन विहार की पूरी गोलाई नाप आने के बावजूद पानी की एक आस्तीन देर तक आपके साथ बनी रहती, अलबत्ता वो अब एक पतली धार में बदल जाती।
भदभदे से आगे कालियासोत तक ठहरे हुए पानी की गंध आपका पीछा नहीं छोड़ती। और फेफड़ों में ठंडा सीसा भर जाता, बरौनी पर धूला।
आपके घर लौटकर सो जाने के बाद झील, पहाड़ी और सड़क हमजोलियों की तरह आपस में हिल-मिलकर बतियाते। तीनों मिलकर रात की सलाइयों पर एक सपना बुनते, जो सुबह होने पर टूटता नहीं, बल्के और गाढ़ा हो जाता।
रौशनपुरा चौराहे तक अच्छा-ख़ासा शहर था, उसके बाद भरी दोपहर का सपना बन जाता।