बांसगांव की मुनमुन / दयानंद पाण्डेय / समीक्षा
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समीक्षा:शुचिता श्रीवास्तव
संस्कृति साहित्य दिल्ली द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखक दयानंद जी की रचना [उपन्यास ] बांसगांव कि मुनमुन परिवार और समाज में संघर्ष कर रही दुनिया भर की औरतों को समर्पित है । सरल और सहज भाषा शैली में लिखी गयी यह रचना दिल को छूती है ह्रदय को उद्वेलित भी करती है समाज के सच को उजागर करती है यह इतना भयानक समय है कि सवेदनशीलता का कहीं नमो निशान तक नहीं बचा है कहाँ से कहाँ पहुँच गए है हम तरक्की के आसमान पर बैठे हैं पर कर्त्तव्यनिष्ठा पाताल में चली गयी है अपने देश ,अपने समाज के लिए उसके हित के बारे में हम क्या सोचेंगे जब अपने परिवार के बारे में ही नही सोच पा रहे हैं जन्म देने वाले पिता तक कि परवाह नही इतने संकुचित हैं कि बस अपनी पत्नी और बच्चों से आगे का कोई रिश्ता ही नहीं दिखता अपने ही घर मेहमान की तरह जाते हैं और चले आते हैं।माँ बाप का तनाव उनका अभावग्रस्त जीवन देखकर भी अनदेखा करते हैं इतना लालच है कि निसंकोच भाई की लाश तक काटने की बात करते है उत्तर प्रदेश के एक शहर गोरखपुर के पास है बांसगांव कस्बा यह उपन्यास उसी कस्बे में रहने वाले पेशे से वकील मुनक्का राय की कहानी है उनके संघर्षों के सफ़र की कहानी है| उनके जीवन में उतार चढ़ाव की कहानी है| वास्तव में देखें तो यह सब कहानी नहीं समाज की बहुत बड़ी सच्चाई है इसके सारे के सारे पात्र हमारे आस पास मौजूद हैं यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है साथ ही लेखक की बहुत बड़ी सफलता की पूरे उपन्यास में कहीं भी काल्पनिकता झलकती ही नहीं। सब कुछ ऐसा लगता है मानो हमारे अगल बगल की घटनाएं हों।
मुनक्का राय के कहने को तो चार चार बेटे है जिसमें एक जज है एक प्रशासनिक अधिकारी एक बैंक मैनेजर और एक एन आर आई है पर कोई भी माता पिता और छोटी बहन को साथ रखने को तैयार नही है न ही उनके खर्चे उठाने को तैयार हैं कभी कभार छोटा बेटा राहुल पैसे भेज दिया करता है और उतने से ही सब अपने कर्त्तव्यों कि इतिश्री समझ लेते हैं चार बेटों {जज ,प्रशासनिक अधिकारी ,बैंक मैनेजर और एन आर आई }के पिता मुनक्का राय को ठीक तरह से गृहस्थी चलाने और अपनी पत्नी और बेटी का इलाज करवाने के लिए पैसों का मोहताज होना पड़ता है दुर्भाग्य वश मुनक्का राय की सबसे छोटी बेटी मुनमुन को टीबी की बीमारी हो जाती है पर भाइयों के पास उस बहन का इलाज करवाने के लिए पैसा और समय दोनों नहीं है जिसको बचपन में गोद में उठाकर वो गाया करते थे मेरे घर आयी एक नन्ही परी,,,, कितनी बड़ी विडंबना है ये और समाज का सच भी .......चारो भाइयों में किसी के पास इतना समय नही की उस परी के लिए पिता द्वारा ढूढे गये वर की जाँच पड़ताल कर लें बेचारी की शादी एक शराबी और पागल लड़के से ही हो जाती है और जब मुनमुन ससुराल से वापस आ जाती है अपनी शिक्षा मित्र की नौकरी से माता पिता और अपना भरण पोषण करती है ,अपना इलाज करवाती है आत्मसम्मान से रहने का प्रयास करती है तो उसके भाई उसे आवारा तक कहने में संकोच नहीं करते जो जज दूसरों को न्याय देते है वो अपनी बहन को झोंटा पकड़ कर जबर्दस्ती शराबी ,पागल पति के पास उसके ससुराल भेजने को तैयार हैं यहां सवाल उठता है कि क्या बहन कि जगह उनकी अपनी बेटी होती तो क्या उसके साथ भी यही सुलूक करते ?
हर तरफ से निराश होने पर आँसू बहाते बहाते जब मुनमुन थक जाती है तो खुद अपनी किस्मत बदलने का निर्णय लेती है। और फिर चल पड़ती है उस राह पर जो उसे अपने मंजिल पर ले जायेगा। अपने साथ-साथ अपनी तरह की दूसरी औरतों की पीड़ा का भी एहसास है उसे। इस लिए वह दूसरों को भी रास्ता दिखाती है उनकी मदद करती ह। जब पागल और शराबी पति उसके घर आकर उसे जब तब आकर मारता पीटता है गली गलोज करता है तो तंग आकर एक दिन सरेआम मुनमुन भी उसे जी भर के पीटती है। जो आज कल बदल रही औरतों का सच ह॥ और लोग भी उसके इस काम पर तालियां बजाते हैं। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं यह औरत का आत्मविश्वास है। अपने दम पर जी सकती है वह किसी के सहारे कि जरुरत नही॥ आज कल की औरतों को उनके अंदर एक आग है। अपनी ही आग में तप कर वह खरा सोना बन सकती है। अगर पति नाकारा है तो आज कल की औरत को अपने सुहाग चिन्ह मिटा डालने तक से गुरेज नहीं ह। निश्चित ही औरत बदल रही ह। वह अब केवल पिजरे में बंद तोता नहीं रह॥ न वह शारीरिक पीड़ा सहने को तैयार है न मानसिक। मुनमुन की हिम्मत थी जो अपने दम पर शराबी और पागल पति से पीछा छुड़ाया और खुद शिक्षा मित्र की नौकरी करते करते प्रशासनिक अधिकारी के पद पर पहुंची। मुनमुन समाज कि सारी महिलाओं कि प्रेरणा बनी। अत्याचार मत सहो किसी भी कीमत पर नही ……कुल मिलाकर बांसगाव की मुनमुनबहुत रोचक उपन्यास है एक बार में ही पठनीय।