बांसगांव की मुनमुन / दयानंद पाण्डेय / समीक्षा-1
समीक्षा:अशोक कुमार शुक्ला
दयानन्द पाण्डेय का यह उपन्यास समूचे हिन्दीभाषी उत्तर भारत के एक आम कस्बे की कहानी है जो आजादी के उत्तरोत्तर वर्षों में शहरीकरण और आबादी के बढते बोझ के कारण नया स्वरूप लेते समाज की वानगी प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में एक ही गांव में निवास करने वाले राय परिवार के पट्टीदारों के मध्य व्याप्त शीतयुद्ध सरीखे वातावरण के बीच एक परिवार के सभी बालकों का बारी बारी से प्रतिष्ठित सेवावों में जाते हुये अपने पीछे गांव में छूट गये परिवार की कहानी तो है ही साथ ही आम भारतीय पीढियों की संस्कारो से पलायन की कहानी भी है।
उपन्यास की शुरूआत आज कें संयुक्त परिवारों में व्याप्त सामान्य कलह की परिणामी घोषणा के रूप में मुनक्का राय के एन आर आई पुत्र का अपने मां पिता की अंत्येष्टि तक में भी न आने के निष्चय से होता है-
'अम्मा जान लो अब मैं भी फिर कभी लौट कर बांसगांव नहीं आऊंगा।' अम्मा भी चुप रही।
'तुम लोगों की चिता को अग्नि देने भी नहीं।' राहुल जैसे चीखते हुए शाप दे रहा था अपनी अम्मा को। फिर अम्मा बाबू जी के बिना पांव छुए ही वह घर से बाहर आया और बाहर खड़ी कार में बैठ कर छोड़ गया बांसगांव।
वही इसका अंत उसी मुनक्का राय की बेटी मुनमुन का सफल होकर प्रशासनिक अधिकारी बनने के बाद भी अपने बूढे पिता को अपने साथ रखते हुये मुनमुन को प्राप्त वैभव का साझीदार बनाने के साथ होता है-
मुनक्का राय ने कोई जवाब देने के बजाय छड़ी उठा ली है। और टहलने निकल गए हैं। रास्ते में सोच रहे हैं कि क्या मुनमुन अब अपना वर भी खुद ही नहीं ढूंढ सकती? कि वह ही फिर से ढूंढना शुरू करें। मुनमुन के लिए कोई उपयुक्त वर। क्या अख़बारों में विज्ञापन दे दें? या इंटरनेट पर? घर लौटते वक्त वह सोचते हैं कि आज वह इस बारे में मुनमुन से स्पष्ट बात करेंगे। वह अपने आप से ही बुदबुदाते भी हैं, ‘चाहे जो हो शादी तो करनी ही है मुनमुन बिटिया की!’
यह उपन्यास यह संदेश भी देता है कि जहां बेटे सफलता के पायदानों पर चढने के साथ मां बाप को एकाकी जीने के छोडने में कोई संकोच नहीं करते वहीं पुत्रियां सफलता के पायदानों पर चढते हुये भी मां बाप को साथ रखना नही भूलते। इस प्रसंग को लेखक ने मुनमुन की मां के हवाले से कही इस रोचक बोध कथा द्वारा दिया है -
'बाबू एक राजा था। उस ने सोचा कि वह दूध से भरा एक तालाब बनवाए। तालाब खुदवाया और प्रजा से कहा कि फला दिन सुबह-सुबह राज्य की सारी प्रजा एक-एक लोटा दूध इस तालाब में डालेगी। यह अनिवार्य कर दिया। प्रजा तुम्हीं लोगों जैसी थी। एक आदमी ने सोचा कि सब लोग दूध डालेंगे ही तालाब में हम अगर एक लोटा पानी ही डाल देंगे तो कौन जान पाएगा? उस ने पानी डाल दिया। राजा ने दिन में देखा पूरा तालाब पानी से भर गया था। दूध का कहीं नामोनिशान नहीं था। तो बाबू तुम्हारे बाबू जी अपने परिवार के वही राजा हैं। सोचते थे कि सब बेटे लायक़ हो गए हैं थोड़ा-थोड़ा भी देंगे तो बुढ़ापा सुखी-सुखी गुज़र जाएगा। पर जब उन की आंख खुली तो उन्हों ने देखा कि उन के तालाब में तो पानी भी नहीं था। यह कैसा तालाब खोदा है तुम्हारे बाबू जी ने बेटा मैं आज तक नहीं समझ पाई।' कह कर अम्मा रोने लगीं।
समूचे उपन्यास में एक इमानदार अधिवक्ता का तहसील स्तरीय वकालत मे न टिक पाना और शनै शनै कुंठाग्रस्त होकर अवसाद का शिकार होना विद्यमान न्यायिक व्यवस्था की कलई भी खोलता है-
उस की प्रैक्टिस अब लगभग निल थी। कई बार तो वह कचहरी जाने से भी कतराने लगा। पत्नी के साथ देह संबंधों में भी वह पराजित हो रहा था। चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता। एक दिन उस ने पत्नी से लेटे-लेटे कहा भी कि,
'लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।'
पत्नी कसमसा कर रह गई। आखों के इशारों से ही कहा कि,
'ऐसा मत कहिए। पर रमेश ने थोड़ी देर रुक कर जब फिर यही बात दुहराई कि,
'लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।' तो पत्नी ने पलट कर कहा,
'ऐसा मत कहिए।' वह धीरे से बोली,
'अब मेरी भी इच्छा नहीं होती।'
क्या पैसे की तंगी और बेकारी आदमी को ऐसा बना देती है? नपुंसक बना देती है? रमेश ने अपने आप से पूछा।
हांलांकि यही अवसादग्रस्त अधिवक्ता अपनी पत्नी के सहृदयतापूर्ण व्यवहार और सर्मपण की बदौलत वरिष्ठ न्यायिक सेवा में चयनित होता है
इस उपन्यास में जितनी बेबाकी से लेखक ने यह दिखाया है कि आज यहां शिक्षामित्र से लेकर आंगनबाडी कार्यकर्ती तक की नौकरी हासिल करने के लिये सिफारिश से अलावा कोई विकल्प नहीं है उतनी ही सुन्दरता से यह भी यह भी साबित किया है अपने श्रम की बदौलत प्रत्येक मेहनतकश युवा आज भी व्यवस्था के उच्च पदों पर पहुंच भी सकता है।
वास्तव में मुनक्का राय के परिवार के बच्चों का धीरे धीरे उच्च पदों पर चयनित होते जाना आज के युवा वर्ग के लिये विद्यमान व्यवस्था के प्रति विश्वास जगाने की कहानी भी है। आज के अधिकांश लेखक जब व्यवस्था के प्रति नकारात्मक संदेश को अपने लेखन का आधार बना रहे हों वहां दयानन्द जी का यह उपन्यास नयी पीढी को आशावाद का संदेश देता है।