बांसगांव की मुनमुन / दयानंद पाण्डेय / समीक्षा-2
समीक्षा:वसुंधरा पांडेय
'बांसगांव की मुनमुन' दयानंद पांडेय का उपन्यास है,जिसे पढने की इच्छा मेरी इधर चार दिन पहले पूरी हुई। कहानी शुरू होती है जैसा कि आप नाम से ही समझ सकते हैं..बांसगांव से ! 'बांसगांव की मुनमुन की चर्चा बहुत सुनी थी ! (बचपन में एक बार बांसगांव जाने का सौभाग्य मिला था , माँ की सखी की बेटी का ससुराल जो ठहरा !ठाकुरों की दबंगई और बात -बात पर काटने, मारने गाड़ देने और ये धमकी कि ऐसा गाड़ देंगे कि पोस्टमार्टम के लिए मृत शरीर ढूंढते रह जाओगे नही मिलेगा, बात -बात पर लाठी भाला बंदूक और देशी तमंचा आम बात होती है। हाँ, बचपन से सुनती आई थी की वहां का नाम सुबह-सुबह ले लो तो दिन भर भोजन न मिले,जैसा कि उपन्यास में भी वर्णित है। कोई झगड़ने न आ जाए भई बांसगाव वाला,, तो मैं बता दूँ की मेरे मायके के लोग तिवारी हैं..कटियारी के तिवारी । वहां के बारे में भी सुना है की कटियारी का नाम सुबह -सुबह ले लो तो आगे आया हुआ भोजन छिन जाए। ) हाँ, तो इस उपन्यास को पढने की उत्सुकता इस लिए और थी क्यों कि उस बांसगांव को मैं जानती हूँ। कहानी भले ही काल्पनिक हो पर पढ़ते समय आप एकमुश्त बंध जाएंगे पूरी कहानी ख़त्म करने तक। क्यों कि इस उपन्यास में हम सभी पात्रों को अपने आस-पास ही पाते हैं। इस उपन्यास ने चरित्रों को खूब समझा-जीया है । घर गृहस्थी की किच-किच, शकुनी चालें...
कहाँ किसी लड़की को बदनाम कर देना, कहाँ पौरा भारी देख गिरगिट सा रंग बदलना, फिर परास्त हो कर अंत में सारे कर्मों का लेखा जोखा यहीं भरपाई कर के जाना।
यह उपन्यास उसी गाँव में रहने वाले पेशे से वकील ,मुनक्का राय के संघर्षों के सफ़र की कहानी है! मुनक्का राय के कहने को तो चार चार बेटे हैं। जिस में बड़ा बेटा जज है, दूसरा प्रशासनिक अधिकारी, तीसरा बैंक मैनेजर और चौथा एन आर आई है। पर चारों में कोई भी माता पिता और छोटी बहन को साथ रखने को तैयार नही है। और ना हीं उन के खर्चे उठाने को तैयार हैं। सब से छोटा बेटा राहुल कभी-कभी पैसे भेज दिया करता है और उसे लगता है की उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया... ! ऐसे 'होनहार-बीरवान' चार सपूत होते हुए भी पिता मुनक्का राय को घर के खर्चे चलाने और छोटी बेटी (जिसे टीबी हो गया है ) की बीमारी का इलाज करवाने के लिए पैसों का मोहताज होना पड़ता है ! उसी बहन के बड़े भाइयों के पास उस बहन का इलाज करवाने के लिए समय और पैसा दोनों नहीं है, जिस को बचपन में गोद में उठा कर वो सब मिलकर गीत गाया करते थे,मेरे घर आई एक नन्ही परी...! उसी नन्ही परी का विवाह एक पियक्कड़ पागल लड़के से हो जाता है ,विवाह में मेहमान बन कर चारो भाई आते हैं और दो दिन में ही सब चले जाते हैं, उन्हें इतना वक्त नहीं होता कि पिता द्वारा ढूंढे हुए वर की जाँच-पड़ताल कर लें । जब कि बहन मुनमुन, भाई और भाभियों को मुंह खोल कर बोलती है कि एक बार होने वाले बहनोई को देख समझ आओ..! और शादी के पंद्रह दिन बाद मुनमुन वापस मायके आ जाती है। पहले से लगी हुई शिक्षा मित्र वाली नौकरी कर के अपना और अपने बुजुर्ग माँ बाप का पेट पालती है ..इस उपन्यास को पढ़ते समय आपको कई बार पुक्का फाड़ कर ( जोर से चिल्ला-चिल्ला कर ) रोने का जी चाहेगा !
यहाँ सोचने वाली बात है कि जिस बहन के पति को वे गजटेड अफ़सर नाकारा भाईयों ने ज़रा भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि लड़का कैसा है जिस से हम अपनी परी का ब्याह कर रहे हैं। क्या उन की अपनी बेटी का ब्याह करना होता तो ऐसे ही बूढ़े असहाय पिता के ढूंढे हुए वर से कर देते ? और नहीं तो ज़बरदस्ती उस बहन को उस शराबी के यहाँ भेजने की सारी तरकीबें,,हैवानियत के सारे फंडे आजमा लेते हैं। उपन्यास के मध्य भाग में मुनमुन के फुफुरे भाई दीपक का आगमन होता है जो दिल से चाहते हैं की सारे भाई मिल कर एक हो जाएं ताकि मुनमुन के उजड़े जीवन को सजा दिया जाए। पर कामयाब नही हो पाते हैं। ऐसे में पीड़ा सहते इन चालबाजों के करतूतों से थक जाती है मुनमुन। जो बचपन में चुलबुली अल्हड़ मनमौजी एक प्यारी सी फूल की मानिंद थी , वो एक मजबूत दिल वाली दबंग औरत बन जाती है। असहाय औरतों के लिए रौशनी की एक किरण है मुनमुन! एक मशाल है मुनमुन! परिस्थितियों से कैसे जूझा जाए और कैसे निपटा जाए? फूल सी मुनमुन ज्वालामुखी सी नज़र आती है अपने और दूसरी औरतों के हक़ के लिए समाज में वो मिशाल बनती है! आए दिन शराबी पति आ कर मुनमुन और उस की माँ को पीट जाता है,गाली गलौज करता है। एक दिन मुनमुन भी पलट कर जब चंडी बनती है और लाठी से पति की पिटाई करती है तो वही समाज वाले तब तालियाँ बजाते हैं। मुनमुन नाम से चनाजोर गरम बेच कर कमाई करने वाले कमाते हैं क्यों कि अब गौरैया मुनमुन नहीं थी, मुनमुन शेरनी हो गई थी। मुनमुन जब शिक्षा मित्र की नौकरी कर अपना और माता-पिता का भरण पोषण करती है तो भाईयों को शर्म आती है। और जब मुनमुन जी तोड़ मेहनत करके 'एस डी एम' बन जाती है तो नाते रिश्तेदार सब बधाई देते हैं पर भाईयों का फ़ोन तक नहीं आता! इस उपन्यास को पढ़ते समय बहुत सारी भावनाएं उमड़ी-घुमड़ी, आँखों की कोरें भी भींगीं।
कैसी बिडंबना है अपने समाज की। आज 99 प्रतिशत घरों में यही स्थिति है बेटों को ले कर। बेटी ही है जो माँ बाप को समझती है। अधिकांश वही बेटियां जब बहू बनती हैं तो उन्हें क्यों नहीं समझ आता,सास ससुर का खयाल? क्यों नहीं रहता? उन्ही सास -ससुर से तो वो पति वाली बनी हैं। क्यों आते ही बेटों को भी माँ बाप से दूर कर देती हैं? और बेटे भी क्यों बस पत्नी और अपने जने बच्चों के हो कर रह जा रहे हैं? बड़ी भयावह होती जा रही है यह स्थिति! मन टूटता है, दरकता है, जेठ माह के दरारों सा ! कहाँ से पानी लाया जाय, इन दरारों को पाटा जाय,, कलेजा मुंह को आता है आज कल की ये सोच देख कर! यह उपन्यास टूटती हुई स्त्रियों के लिए स्तंभ है, मशाल है ! अगर मुनमुन समाज की दृष्टि में बुरी थी या है तो मुझे ऐसी लाखों-लाखों मुनमुन स्वीकार हैं! पाण्डेय जी,बहुत-बहुत बधाई आप को,हमें हमारी कस्बाई माटी की सुगंध देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
इस उपन्यास को पढ़ते समय बहुत सारी भावनाएं उमड़ी-घुमड़ी, आँखों की कोरें भी भींगीं