बांसगांव की मुनमुन / भाग - 15 / दयानंद पाण्डेय
या यह सब कुछ एक साथ मिश्रित था? जो भी हो उस की जिंदगी गडमड हो गई थी। थोड़ी देर बाद राहुल का फ़ोन आया तो उस ने राहत की सांस ली। राहुल कहने लगा, ‘भइया आप का फ़ोन पा कर मैं तो चकित रह गया। पहली बार यहां आप का फ़ोन आया और माफ़ कीजिए उस वक्त बात नहीं कर पाया।’
‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं।’ दीपक ने कहा।
‘और भइया सब ठीक तो है न!’
‘राहुल अगर सब ठीक होता तो मैं तुम्हें फ़ोन क्यों करता भला?’
‘हां, भइया बताइए क्या हो गया?’
‘मैं पिछले महीने बांसगांव गया था।’
‘अच्छा-अच्छा।’ राहुल ने पूछा, ‘क्या हालचाल है वहां का?’
‘तो तुम को कुछ भी नहीं मालूम?’
‘नहीं इतना तो मालूम है कि बाबू जी मुनमुन को विदा करवा लाए हैं।’
‘बस!’
‘क्या कुछ और गड़बड़ हो गया क्या?’
‘हो तो गया है।’ कह कर दीपक ने वह सारी बातें राहुल से भी कहीं जो रमेश, धीरज और तरुण से कही थीं।
राहुल ने पूरी बात सुनी और परेशान हो गया। बाक़ी तीनों भाइयों की तरह ठंडापन नहीं दिखाया उस ने जब कि आई.एस.डी. काल का ख़र्चा था। फिर भी वह बोला, ‘भइया मामला तो बहुत गंभीर हो गया है। अगर राधेश्याम घर पर आ कर अम्मा और मुनमुन की पिटाई और गाली गलौज कर रहा है तब तो बात और भी गंभीर हो गई है। रही बात अम्मा बाबू जी के वेलफ़ेयर की तो उधर तो मैं जब तब पैसा भेजता ही था। आप जानते ही हैं कि मुनमुन की शादी में सारा ख़र्च लगभग मुझे ही करना पड़ा था तो वह क़र्ज़ा निपटाने में लगा हूं। और मैं सोचता था कि भइया लोग ख़याल रख रहे होंगे।’
‘देखो तुम्हारा पैसा बहुत ख़र्च हो रहा होगा फ़ोन पर।’ राहुल की उत्सुकता देखते हुए दीपक बोला, ‘तुम अपनी आई.डी. बताओ हम लोग मेल के थ्रू बात करते हैं या फिर तुम याहू मैसेंजर पर भी आ सकते हो। तब हम लोग सीधी बातचीत कर सकेंगे।’
‘हां, भइया आप ठीक कह रहे हैं। कह कर उस ने अपनी याहू आई.डी. लिखवा दी और दीपक की भी आई.डी. लिख ली। और कहा कि, ‘हम लोग फिर नेट पर ही बात करते हैं।’
‘हां, क्यों कि बात लंबी है और मामला गंभीर!’
‘ठीक भइया। प्रणाम!’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।
राहुल की इस बातचीत से दीपक जो गहरे डिप्रेशन में जा रहा था, उबर आया। उस को लगा कि अब कोई रास्ता ज़रूर निकल जाएगा। घुप्प अंधेरे में कोई रोशनी दिखी तो थी। और सचमुच दूसरे दिन राहुल की लंबी मेल दीपक को मिली। राहुल ने विस्तार से सारी बातें रखी थीं घर के प्लस-माइनस बताए थे और माना था कि मुनमुन के साथ पूरे घर ने मिल कर अनजाने में सही अन्याय कर दिया था। जिस में कि सब से ज़्यादा दोषी वह ख़ुद है। कि सिर्फ़ पैसा ख़र्च करना ही अपनी ज़िम्मेदारी समझी। घर बार और वर देखने की भी ज़िम्मेदारी उसे निभानी चाहिए थी जो समय की कमी और बाक़ी घर वालों पर विश्वास के चलते नहीं निभा पाया। फिर उस ने मुनमुन का एक तर्क भी जोड़ा था विवाह पूर्व का कि आदमी एक कपड़ा भी ख़रीदता है तो दस कपड़े देख कर और ठोंक बजा कर फिर हम लोग तो उस का लाइफ़ पार्टनर तय कर रहे थे। और फिर भी नहीं देखा। जब कि मुनमुन लगातार आशंका जता रही थी और सब से चिरौरी कर रही थी कि लड़के को ठीक से देख जांच लिया जाए। पर सब एक दूसरे पर टाल गए। और मान लिया गया कि बाबू जी ने देख लिया है तो सब ठीक ही होगा। शायद अति विश्वास और संयुक्त परिवार में ज़िम्मेदारियों को एक दूसरे पर टालने की त्रासदी है यह। फिर एक लड़के से मुनमुन का बढ़ता मेल जोल एक बड़ा दबाव था जो उस की शादी में जल्दबाज़ी का कारण बना और सब ने एक ड्यूटी की तरह शादी शायद नहीं की, शादी की कार्रवाई की। यह नहीं सोचा किसी ने कि अगर मुनमुन के साथ कुछ अप्रिय होगा, और वह हो भी गया है तो वह इसी परिवार की ज़िम्मेदारी होगी और कि जो एक दाग़ लगेगा वह सभी के दामन पर लगेगा। फिर राहुल ने अपनी चिट्ठी में दीपक से इस बात पर बेहद ख़ुशी और संतोष जताया था कि हमारे परिवार और इस पीढ़ी में आप सब से बड़े हैं और आप इस में जो इस शिद्दत से जुड़ाव महसूस कर रहे हैं तो ज़रूर इस समस्या का कोई सम्मानजनक समाधान भी निकलेगा। फिर उस ने सुझाया था कि उस की राय में मुनमुन की ससुराल में बातचीत कर के उस की सम्मानजनक ढंग से विदाई करवा कर इस समस्या को सुलझाना ठीक रहेगा। मुनमुन वहां जा कर अपने बिगड़ैल पति को सुधार भी सकती है। ऐसा कई बार देखा भी गया है कि पत्नी के प्यार में बहुत सारे बिगड़े लोग सुधर भी गए हैं। बस प्रयास सकारात्मक होना चाहिए।
राहुल की इस साफ़गोई, सुझाव और मेच्योरिटी का दीपक क़ायल हो गया। और रमेश को फ़ोन किया कि, ‘थोड़ा समय निकालो तो बांसगांव चल कर मुनमुन के ससुराल वालों के साथ मिल बैठ कर कोई रास्ता निकाला जाए।’ रमेश सहमत हो गया और बोला, ‘मैं आप को बताता हूं। ख़ुद फ़ोन करूंगा।’
दीपक को लगा कि अब तो बात बन ही जाएगी। कुछ दिन बाद रमेश का फ़ोन आया कि, ‘भइया मैं ने मुनमुन की विदाई का दिन तय कर दिया है। आप भी फला तारीख़ को पहुंचिए विदाई संपन्न करवा दीजिए।’
‘चलो यह बहुत अच्छा काम किया।’ दीपक बोला, ‘पर मेरा पहुंचना कोई ज़रूरी तो है नहीं। और फिर जब विदाई का दिन तय हो गया है तो विदाई हो ही जाएगी। मेरे आने न आने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?’
‘फ़र्क़ पड़ जाएगा भइया।’ रमेश बोला, ‘मैं ने मुनमुन की ससुराल वालों को विदाई के लिए राज़ी किया है। अपने घर वालों को नहीं।’
‘तो उन्हें भी राज़ी कर लो।’
‘कैसे राज़ी करूं?’ रमेश चिढ़ कर बोला, ‘मुनमुन किसी सूरत तैयार नहीं है और अम्मा उस को शह दे रही हैं। जबकि बाबू जी हमेशा की तरह तटस्थ हो गए हैं।’
‘तो फिर कैसे होगी विदाई?’ दीपक चिंतित हो कर बोला।
‘कुछ नहीं भइया आप आ जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा।’
‘कैसे भला?’ दीपक ने आश्चर्य से पूछा, ‘मेरे पास कोई जादू की छड़ी है क्या?’
‘हां है न!’
‘क्या बेवक़ूफ़ी की बात करते हो?’
‘अरे भइया आप को नहीं पता पर मैं जानता हूं कि आप की बात न तो मुनमुन टालेगी, न अम्मा, न बाबू जी। आप को शायद पता नहीं कि हमारे घर में जितनी आप की एक्सेप्टेंस है शायद किसी और की नहीं। भगवान झूठ न बोलवाए और माफ़ करे तो मैं कहूंगा कि शायद उतनी भगवान की भी नहीं।’ वह बोला, ‘बस आप उस दिन पहुंच भर जाइए।’
‘भई मुझे तो यह बात नहीं जम रही।’ दीपक बोला, ‘अगर मुनमुन की सहमति नहीं है तो मैं नहीं समझता कि विदाई होनी चाहिए।’
‘फिर?’ रमेश हताश हो कर बोला।
‘फिर क्या?’ दीपक बोला, ‘पहले तो मुनमुन को ही समझाना ज़रूरी है। वह छोटी है और हम लोग बड़े। उस को समझाना, बताना हम लोगों का धर्म है। फिर वह वयस्क है, पढ़ी लिखी है, अपना अच्छा-बुरा समझती है, उस की अपनी जिंदगी और अपना स्वाभिमान है। तुम भी पढ़े लिखे हो। एक ज़िम्मेदार पद पर हो। किसी के साथ इस तरह ज़ोर ज़बरदस्ती! भई मुझे तो नहीं समझ में आती और न ही तुम्हें शोभा देती है।’ वह बोला, ‘फिर यह मसला इतना नाज़ुक है कि इस में बहुत जल्दबाज़ी भी ठीक नहीं लगती मुझे।’
‘कुछ नहीं भैया आप पहुंचिए।’
‘अच्छा चलो मैं पहुंचूं और मुनमुन मामी वग़ैरह मेरी भी बात टाल गईं तो?’
‘तो क्या?’ रमेश बोला, ‘झोंटा पकड़ कर, खींच कर जबरिया घसीट कर विदा कर दूंगा।’
‘फिर तो भई मैं ऐसी विदाई में बिलकुल नहीं आऊंगा।’ दीपक बोला, ‘और तुम्हें भी सलाह दूंगा कि तुम भी हरगिज़ ऐसा मत करो।’
‘फिर क्या करूं?’
‘दोनों पक्षों को आमने-सामने बैठा कर सम्मानजनक हल निकालने की कोशिश करो।’
‘कर चुका हूं यह कोशिश भी पर हल निकलने के बजाय बात और बिगड़ गई।’
‘एक बार फिर कोशिश करो। दो बार, तीन बार, चार बार, हज़ार बार कोशिश करो।’ दीपक बोला, ‘ऐसे हार मान जाने से और इस तरह हड़बड़ाने से तो बात नहीं बनने वाली है।’
‘पर मुनमुन का क्या करूं तब तक?’ रमेश बोला, ‘वह तो पतंग हुई जा रही है। पतंग बन कर परिवार की इज्ज़त पूरे बांसगांव में उड़ा रही है!’
‘मतलब?’
‘मतलब यह भइया!’ रमेश रुआंसा होता हुआ बोला, ‘कहते हुए अच्छा भी नहीं लगता पर कहना भी पड़ रहा है कि मुनमुन चरित्रहीन हो गई है। और क्या कहूं?’
‘ओह!’
‘इसी लिए कह रहा हूं कि येन केन प्रकारेण उसे विदा कर देना ही परिवार के हित में है।’ रमेश बोला, ‘आप को बताऊं भइया कि इसी चक्कर में हड़बड़ा कर ही उस की आनन-फानन शादी भी करनी पड़ी। और शादी में भी उस ने क्या-क्या नाटक नहीं करवाया। वह तो धीरज ने मामला संभाला किसी तरह। और क्या-क्या बताऊं आप को!’
‘चलो थोड़ा धीरज और रखो।’ दीपक बोला, ‘बात बिगड़ी हुई है तो थोड़ा समय लगेगा और समझदारी से काम लेना पड़ेगा।’
‘अब क्या बताऊं?’
‘नहीं सोचो कि अभी जल्दबाज़ी में शादी ग़लत हो गई। और जल्दबाज़ी में कहीं बात कुछ और न बिगड़ जाए। वो कहते हैं न कि पेंच ज़्यादा कसने से पेंच टूट भी जाता है।’
‘हां, यह तो है।’
‘चलो तुम भी कुछ सोचो, मैं भी कुछ सोचता हूं।’
‘ठीक भइया प्रणाम!’ कह कर रमेश ने फ़ोन काट दिया।
दीपक ने रमेश से हुई सारी बात राहुल को लिख भेजी। राहुल बहुत आशान्वित हुआ। उस ने अपनी मेल में लिखा कि, ‘अब आप दोनों भइया इस काम में लग गए हैं तो मुझे पूरी उम्मीद है कि बात बन जाएगी और कोई न कोई सम्मानजनक हल निकल आएगा।’ दीपक ने इस के जवाब में राहुल को लिखा, ‘मामला इतना आसान नहीं है और बहुत जल्दी नतीजे की उम्मीद करना भी बेमानी है।’
फिर दीपक ने धीरज को फ़ोन किया। पर धीरज का फ़ोन नहीं उठा। मुनमुन को मिलाया तो उस का फ़ोन स्विच आफ़ मिला। कुछ दिन बाद रमेश का फ़ोन आया और वह पूछने लगा, ‘भइया क्या सोचा?’
‘सोचना क्या है मैं ने तुम्हें पहले ही बता दिया है कि मुनमुन की इस तरह विदाई के ख़िलाफ हूं मैं। इस में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।’ दीपक ने कहा, ‘हां, तुम जब चाहो दोनों पक्षों को आमने सामने बैठ कर बातचीत से पहले कोई हल निकालने की कोशिश की जाए फिर विदाई की बात आए तो मेरे हिसाब से ठीक रहेगा।’
‘भइया मैं आप से फिर कह रहा हूं कि विदाई ही एकमात्र हल है। नहीं मुनमुन कुछ अनर्थ करवा कर ही छोड़ेगी।’
‘तो करो विदाई मैं क्या कर सकता हूं?’
‘आप विदाई के समय आ सकते हैं।’
‘मैं तुम्हें कैसे और कितनी बार बताऊं रमेश कि ऐसे और इस तरह से विदाई से मैं सहमत नहीं और न ही आ सकता हूं।’
‘चलिए भइया मैं फिर फ़ोन करूंगा। आप फिर इस पर सोचिएगा। प्रणाम।’
रमेश के फ़ोन के बाद उस ने मुनमुन का फ़ोन मिलाया। लेकिन उस का फ़ोन पहले ही की तरह स्विच आफ़ मिला। वह जब-जब मिलाता हर बार स्विच आफ़ मिलता। अंततः एक दिन उस ने मुनमुन को एस.एम.एस. किया कि, ‘ज़रूरी बात करनी है और तुम्हारा फ़ोन हरदम स्विच आफ़ मिलता है। मुझे फ़ोन करो।’
दूसरे दिन ही मुनमुन की मिस काल मिली। दीपक ने तुरंत उसे फ़ोन मिलाया। उधर से मुनमुन ने फ़ोन रिसीव भी कर लिया। दीपक ने उस से पूछा, ‘तुम्हारा फ़ोन जब मिलाओ स्विच आफ़ रहता है। आखि़र बात क्या है?’
‘क्या बताएं भइया वह दुष्ट फ़ोन कर-कर के गालियां बकता रहता है। अनाप-शनाप बकता रहता है। इस लिए स्विच-आफ़ रखना पड़ता है।’
‘ऐसे तो सब से कट जाओगी।’ बताओ कोई तुम्हें मेसेज देना चाहे तो कैसे देगा। औरों की छोड़ो मैं ही परेशान हो गया।’
‘तो करूं क्या?’
‘सीधी बात नंबर बदल लो। और परिचितों को जिन को ज़रूरी समझो नंबर बता दो। जिन को न बताना हो मत बताओ।’
‘और यह परिचित ही नया नंबर फिर से उस राक्षस को दे देंगे। भइया कोई फ़ायदा नहीं।’
‘तो यह स्विच आफ़ तो कोई रास्ता नहीं है।’ रमेश बोला, ‘ख़ैर, छोड़ो यह बताओ कि रमेश से तुम्हारी कोई बात हुई है?’
‘हां, हुई तो थी, उधर दो बार।’
‘क्या कह रहा था?’
‘अब क्या बताऊं?’ कह कर मुनमुन रोने लगी। बोली, ‘ज़बरदस्ती मेरी विदाई करना चाहते हैं। मैं ने मना किया तो मुझे रंडी, कुत्ती बनाने लगे। कहने लगे झोंटा खींच कर, घसीट कर घर से बाहर कर दूंगा। कैसे नहीं जाओगी अपनी ससुराल।’
‘अरे?’ दीपक ने हैरत में आते हुए पूछा, ‘फिर?’
‘बताइए बहन से कोई इस तरह भला बात करता है?’ मुनमुन बोली, ‘मैं ने तो फिर भी मना कर दिया और कह दिया कि जो भी करना हो कर लीजिए। चाहिए तो मेरा गला दबा कर यहीं मार डालिए। पर ऐसे तो मैं उस राक्षस के यहां नहीं जाऊंगी। हां, भइया अगर आप की रमेश भइया से फिर कभी बात हो तो उन्हें बता दीजिएगा कि झोंटा पकड़ कर ज़बरदस्ती मेरी विदाई की कोशिश नहीं करें। वह जज हैं घरेलू हिंसा का क़ानून वह जानते ही होंगे। मैं उन पर आज़मा भी सकती हूं यह क़ानून। फिर उन की सारी जजी धरी की धरी रह जाएगी। मैं भी थोड़ा बहुत क़ानून जानती हूं।’
‘ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है। तुम भी थोड़ा पेशेंस रखो।’ वह बोला, ‘अच्छा ज़रा मामी से बात करवाओ!’
‘करवाती हूं ज़रा रुकिए!’ कह कर उस ने कहा, ‘अम्मा दीपक भइया का फ़ोन है।’
‘अच्छा-अच्छा!’ कह कर मामी बोलीं, ‘हां, दीपक भइया!’
‘मामी जी प्रणाम।’ दीपक ने पूछा, ‘और क्या हालचाल है?’
‘हालचाल तो भइया तुम को मालूम ही है सब आगे क्या बताऊं? बस बुढ़ापा है।’
‘वो तो है। पर यह बताइए रमेश से बात हुई आप की?’