बांसगांव की मुनमुन / भाग - 16 / दयानंद पाण्डेय

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‘हां, हुई तो है। मुनमुन की विदाई ज़बरदस्ती करने को कह रहा है। भइया उस को समझाओ जज है, जज ही रहे, जानवर न बने।’ वह बोलीं, ‘बताओ वह इतना बौखला गया है कि बहन के घाव पर मरहम लगाने के बजाय गालियां दे रहा है। तमाम ऊल जलूल बक रहा है। उस का घाव और गहरा कर रहा है। यह ठीक नहीं है।’

‘अच्छा मामी समझाता हूं रमेश को।’ दीपक बोला, ‘आप चिंता मत करिए।’

‘चिंता कैसे न करूं? आखि़र करूं भी क्या?’

‘अच्छा मामी प्रणाम!’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। अब वह चिंता में पड़ गया कि क्या करे?

अंततः उस ने सोचा कि अब वह मुनमुन की ससुराल वालों से ख़ुद बात करेगा। इस बारे में दीपक ने पत्नी से भी राय मशविरा किया। पत्नी बोली, ‘यह सब तो ठीक है पर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बहुत ठीक नहीं है।’

‘मतलब?’

‘मुनमुन के भाई लोग ख़ुद इतने सक्षम हैं और वह लोग कुछ नहीं कर रहे हैं और आप हैं कि अब की जब से बांसगांव से लौटे हैं पगला गए हैं। जब देखो तब मुनमुन-मुनमुन! मुनमुन न हो आप का ओढ़ना बिछौना हो! कहिए तो किसी चैनल वालों से कहूं कि सब एक ख़बर चला दें कि आग लगी है बांसगांव में, फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियां दौड़ रही हैं दिल्ली में।’

‘क्या बेवक़ूफी की बात करती हो वह मेरी भी बहन है।’ दीपक तमतमा गया, ‘मेरी भी ज़िम्मेदारी है।’

पत्नी चुप हो गई। दीपक ने फिर राहुल को एक मेल लिखा। और सारा हाल बताते हुए पूछा कि, ‘क्या मुनमुन की ससुराल से सीधे मेरा बात करना ठीक रहेगा?’

राहुल का जवाब उसी दिन आ गया। उस ने रमेश की गाली गलौज वाली भाषा पर हैरत जताते हुए अफ़सोस किया। और लिखा कि उन को इस तरह मुनमुन से पेश नहीं आना चाहिए। लेकिन अब वह बड़े हैं सो कुछ कहते भी नहीं बनता। अम्मा बाबू जी का हाल सुन कर वह दुखी हुआ। लेकिन मुनमुन का फ़ोन हरदम स्विच आफ़ रहने के कारण वह बांसगांव बात नहीं कर पा रहा। रही बात मुनमुन के ससुराल से बात करने की तो इस से अच्छी बात क्या होगी? उस ने लिखा था कि, आप के पास कोई पूर्वाग्रह नहीं है, कोई गांठ या कोई इगो नहीं है आप के पास। आप बात करिए दोनों पक्ष से। मेरा मतलब है मुनमुन से भी और मुनमुन की ससुराल वालों से भी। क्या पता कोई बात बन जाए, कोई रास्ता निकल जाए। दीपक दो एक दिन तक लगातार राहुल की चिट्ठी पर सोचता रहा। सोचता रहा कि वह करे तो क्या करे? अंततः उस ने मुनमुन की ससुराल फ़ोन किया। मुनमुन के ससुर घनश्याम राय फ़ोन पर मिले। वह बड़े ख़ुश हुए कि, ‘इतने लंबे गैप के बाद कोई तो बातचीत के लिए आगे आया।’ वह बोले, ‘नहीं मैं ही दो बार गया और बेइज़्ज़त हो कर लौट आया।’

‘ऐसा तो नहीं है।’ दीपक बोला, ‘रमेश ने इस बीच आप से विदाई के बाबत बात की है।’

‘हां-हां। फ़ोन आया तो था जज साहब का। लेकिन फिर वह भी भभक कर बुता गए।’

‘मतलब?’

‘मतलब यह कि विदाई हुई नहीं और वह कहते रहे कि यह कर दूंगा, वह कर दूंगा।’

‘देखिए बात अचानक विदाई की करना ठीक भी नहीं है।’ दीपक बोला, ‘पहले जो राह के रोड़े हैं उन्हें साफ़ कर लिया जाए फिर बात आगे बढ़ाई जाए।’

‘समझा नहीं मैं।’ घनश्याम राय थोड़ा बिदक कर बोले।

‘मतलब यह कि जिन कारणों से विदाई रुकी पड़ी है या मुनमुन को आप के यहां से लौटना पड़ा है, पहले उन समस्याओं का वाजिब हल ढूंढ लिया जाए। समाधान हो जाए तो फिर विदाई में कोई समस्या ही नहीं है।’

‘देखिए दीपक जी मेरा मानना है कि विदाई हो जाएगी तो बाक़ी समस्याएं स्वतः हल हो जाएंगी।’

‘नहीं मुझे लगता है पहले कोर इशू जो है, जो रूट काज़ है पहले उसे सुलझाया जाए।’

‘क्या है रूट काज़? क्या है कोर इशू?’ बिदकते हुए घनश्याम राय बोले, ‘आप तो पाकिस्तानी मुशर्रफ की तरह बोल रहे हैं कि जैसे वह आतंकवाद पर ब्रेक लगाने के बजाय कश्मीर-कश्मीर चिल्लाता था और कोर इशू, रूट काज़ कश्मीर बताता था। आप वैसे ही बोल रहे हैं। बताइए आप का कश्मीर, आप का रूट काज़, कोर इशू क्या है?’

‘देखिए हमारा नहीं आप का ही है कश्मीर, आप का ही है रूट काज़ और कोर इशू।’

‘मतलब?’

‘आप का बेटा राधेश्याम है कश्मीर। राधेश्याम की पियक्कड़ई है रूट काज़ और उस की बदतमीज़ी है कोर इशू। इस को निपटा लीजिए। सारी समस्याओं का समाधान हुआ समझिए!’

‘कोशिश तो हम कर रहे हैं दीपक बाबू।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर अकेले हमारे बेटे का ही क़सूर नहीं है।’

‘समझा नहीं।’

‘समझना यह है कि पहले मेरा बेटा पियक्कड़ नहीं था। शादी के बाद बल्कि गौने के बाद जब बहू चली गई तो लोग ताना देने लगे। किसिम-किसिम का ताना। हम से ही लोग कहते हैं कि का घनश्याम बाबू आप की पतोहू भाग गई क्या? तो मैं तो सिर झुका कर सुन लेता हूं। वह नहीं सुन पाता। फ्रस्ट्रेट हो जाता है। फ्रस्ट्रेशन में पीने लगता है। बवाल करने लगता है। घर में भी। बाहर भी। तो इसी लिए बार-बार मैं कहता हूं कि विदाई हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा।’

‘चलिए कुछ सोच विचार करता हूं। फिर आप को फ़ोन करता हूं।’

‘ठीक है दीपक बाबू मैं इंतज़ार करता हूं आप के फ़ोन का।’ घनश्याम राय बोले, ‘अरे दीपक बाबू एक बात और कह दूं कि हमारे घर में रहने के लिए मुनमुन को अपनी नौकरी छोड़नी पडे़गी। और इस में कोई तर्क-वितर्क नहीं। कोई इफ़-बट नहीं। क्यों कि मेरा मानना है कि उस की यह शिक्षा मित्र की टुंटपुंजिया नौकरी ही सारी समस्याओं की जड़ है। इसी ने उस का दिमाग़ ख़राब कर रखा है। नहीं हमारे घर रही होती तो अब तक बाल बच्चे हो गए होते। उसी में उलझी रहती। बग़ावत नहीं करती इस तरह। तो कोर इशू यह भी है।’

‘चलिए देखते हैं।’

‘देखते नहीं यह फ़ाइनल है।’

‘बिलकुल।’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। फिर बांसगांव फ़ोन मिलाया। जो हमेशा की तरह स्विच आफ़ मिला। अंततः उस ने एक एस.एम.एस. कर दिया मुनमुन को कि बात करे। दूसरे दिन मुनमुन का मिस काल आया। सुबह-सुबह। दीपक मार्निंग वाक की तैयारी में था तब। लेकिन उस ने मुनमुन का मोबाइल तुरंत मिलाया। यह सोच कर कि फिर जाने कब तक बंद रहे। फिर मुनमुन को घनश्याम से हुई सारी बात बताई और पूछा कि, ‘तुम्हारी क्या राय है? आमने सामने एक बार बात हो जाए?’

‘आप भी भइया क्यों पानी पीट रहे हैं?’ मुनमुन बोली, ‘मुझे नहीं लगता कि वह सुधरेगा और कोई रास्ता निकलेगा।’

‘क्यों? ऐसा क्यों लगता है?’ दीपक ने पूछा।

‘अभी कल ही वह आया था। गाली गलौज कर के दरवाज़ा पीट कर गया है। और आप हैं कि सुधार की उम्मीद कर रहे हैं!’

‘देखो मुनमुन उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। तो यहां भी हम नाउम्मीद नहीं हैं।’ दीपक बोला, ‘इतना सब के बावजूद भारत-पाकिस्तान से बात कर सकता है तो हम लोग भी उन लोगों से बात क्यों नहीं कर सकते?’

‘बिलकुल कर सकते हैं आप कह रहे हैं तो।’ मुनमुन बोली, ‘पर भइया यह जान लीजिए कि बातचीत के बाद जो नतीजा पाकिस्तान-भारत को देता है वही नतीजा यहां भी वह सब देंगे।’

‘ठीक है चलो देखते हैं एक बार बात कर के भी।’

‘हां पर यह बातचीत किसी तीसरी जगह रखिएगा। न मेरे घर बांसगांव में न उस के घर।’ मुनमुन बोली, ‘और हां, यह भी कि वह पी कर नहीं आए।’

‘ठीक बात है।’ दीपक बोला, ‘अच्छा एक बात और। वह लोग चाहते हैं कि तुम यह शिक्षा मित्र की नौकरी छोड़ दो।’

‘यह नौकरी तो भइया हरगिज़ नहीं छोडूंगी।’ मुनमुन बोली, ‘यही तो एक आसरा है मेरे पास जीवन जीने का। यही तो एक हथियार है मेरे पास अपनी जंग लड़ने का। और इसी को छोड़ दूं?’

‘तो इस टुंटपुंजिया नौकरी के लिए पति और घर बार छोड़ दोगी?’

‘टुंटपुंजिया ही सही है तो मेरी नौकरी!’ मुनमुन बोली, ‘ऐसे अभागे पति के लिए मैं अपनी यह नौकरी नहीं छोडूंगी। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं। हरगिज़ नहीं।’ मुनमुन पूरी सख़्ती से बोली, ‘आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं। ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाना भी नहीं ला सकूं। माफ़ कीजिए भइया ऐसा मैं नहीं कर पाऊंगी। जान दे दूंगी पर नौकरी नहीं छोड़ूंगी। यही तो मेरा स्वाभिमान है।’

‘ठीक बात है।’ दीपक बोला, ‘ पर मुनमुन एक बात बताऊं कि थोड़ा झुक जाने में कोई नुक़सान नहीं है।’

‘किस के आगे?’

‘अपने पति और ससुराल के आगे।’

‘आप भी भइया!’

‘देखो मुनमुन जो औरत अपने पति के आगे नहीं झुकती उसे अंततः सारी दुनिया के आगे झुकना पड़ता है। और बार-बार झुकना पड़ता है।’

‘क्या भइया!’ वह बोली, ‘चाहे जो हो मैं नहीं झुकने वाली किसी के भी आगे।’

‘चलो ठीक है पर सोचना ज़रूर मेरी बात पर एक बार।’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। मुनमुन की बात पर चिंता में पड़ गया। यह एक नया बदलाव था। दूसरे दिन धीरज को फ़ोन मिलाया। इत्तफ़ाक़ से धीरज ने फ़ोन उठा लिया। दीपक ने अब तक रमेश, राहुल, मुनमुन, घनश्याम राय से हुई बातचीत के डिटेल्स देते हुए उसे बताया कि, ‘एक फ़ाइनल बातचीत आमने सामने की होनी है। और मैं चाहता हूं कि इस मौक़े पर तुम भी रहो तो अच्छा रहेगा।’

‘ठीक है भइया मैं रह जाऊंगा पर बातचीत का ज़िम्मा आप ही संभालिएगा।’

‘ठीक है। बस तुम आ जाओ।’ कह कर दीपक ने धीरज का फ़ोन काट कर घनश्याम राय का फ़ोन मिलाया। और कहा कि, ‘भई देखिए अगले महीने के सेकेंड संडे को हम लोग बातचीत के लिए मिलेंगे। बातचीत में मुनमुन और उस के अम्मा पिता जी, धीरज और मैं रहूंगा। और आप अपनी तरफ़ से राधेश्याम और उन की मम्मी को ले कर आइएगा। यह बातचीत न आप के यहां होगी न बांसगांव में। बल्कि कौड़ीराम के डाक बंगले में होगी। और हां, राधेश्याम को समझा लीजिएगा कि पी कर नहीं आएंगे।’

‘ठीक है दीपक जी। ऐसा ही होगा। पर अब की बात फ़ाइनल हो जानी चाहिए। और जो कहिए तो एक वकील भी लेते आऊं। फिर जो भी फ़ैसला हो वह स्टैम्प पेपर पर दर्ज कर दिया जाए। ताकि रोज़-रोज़ की चिक-चिक ख़त्म हो जाए।’ घनश्याम राय बोले।

‘यह बताइए पारिवारिक बातचीत में वकील या स्टैम्प पेपर की बात कहां से आ गई भला?’ दीपक बिदक कर बोला।

‘अब बात पारिवारिक कहां रही?’ घनश्याम राय बोले, ‘बात पारिवारिक होती तो अब तक विदाई हो गई होती। पारिवारिक बात होती तो आप को बीच में नहीं आना पड़ता।’

‘घनश्याम जी आप भूल रहे हैं कि मैं परिवार का ही हूं। परिवार से ज़रा भी अलग नहीं हूं। ननिहाल है मेरा। मेरी देह में दूध और ख़ून वहीं का है।’

‘ननिहाल है आप का दीपक बाबू! रिश्तेदारी हुई। घर नहीं। वहां की विरासत आप नहीं मुनक्का राय के लड़के संभालेंगे।’ घनश्याम राय तल्ख़ हो कर बोले, ‘क्या मुनक्का राय के लड़कों ने चूड़ियां पहन रखी हैं जो अब आप को बात करनी पड़ रही है?’

‘घनश्याम जी आप की बात में मामला सुलझाने की नहीं उलझाने की गंध आ रही है। क्षमा करें ऐसे तो मैं बात नहीं कर पाऊंगा। न ही आ पाऊंगा।’

‘मामला सुलझाने के लिए ही यह सब करने को कह रहा हूं दीपक बाबू।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर आप तो बुरा मान गए। और जो आप पारिवारिक मामला बता रहे हैं, वह सचमुच पारिवारिक कहां रहा? समाज में तो हमारी पगड़ी उछल गई है। और बांसगांव में?’ वह ज़रा रुके और बोले, ‘बांसगांव में आदमी-आदमी की ज़बान पर हैं मुनमुन की कहानियां। विश्वास न हो तो किसी पान वाले, खोमचे वाले, ठेले वाले से जा कर पूछ लीजिए। आंख मूंद कर बता देगा। तो अब भी आप कहंगे कि मामला पारिवारिक है?’

‘हां, है यह मामला पारिवारिक ही। और परिवार के स्तर पर ही मामला निपटाया जाएगा।’ दीपक बोला, ‘और जो आप को लगता है कि मैं बाहरी हूं तो चलिए मैं अपने को इस बातचीत से अलग कर लेता हूं। मैं नहीं आऊंगा। सिर्फ़ धीरज ही जाएगा।’

‘अरे तब तो ग़ज़ब हो जाएगा!’ घनश्याम राय बोले, ‘आप अवश्य आइए। नहीं धीरज बाबू हों चाहे रमेश बाबू ई लोग तो हरदम ऐसे बात करते हैं जैसे कोई आदेश लिखवा रहे हैं। डिक्टेशन दे देते हैं और बात ख़त्म। अगले पक्ष की बात ही नहीं सुनते।’

‘पर आप के हिसाब से तो मैं बाहरी आदमी हूं।’

‘हैं तो पर आप आइए परिवार के ही बन कर ताकि यह झंझट ख़त्म हो।’

‘चलिए ठीक है।’ दीपक खीझता हुआ बोला, ‘पर कोई वकील नहीं, कोई स्टैम्प पेपर नहीं।’

‘ए भाई, ई तो आप भी डिक्टेशन देने लगे।’ घनश्याम राय बोले, ‘आप भी मास्टर हैं, मैं भी मास्टर हूं। हम लोग तो मास्टरों की तरह बात करें। अधिकारियों की तरह नहीं।’

‘घनश्याम जी मैं प्रोफ़ेसर हूं मास्टर नहीं जैसा कि आप समझ रहे हैं।’

‘चलिए प्रोफ़ेसर साहब अब आप का लेक्चर ही सुन लेते हैं डिक्टेशन की जगह।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर बातचीत में कोई सुलहनामा तो करना ही पड़ेगा। भले ही किसी सादे क़ाग़ज पर ही क्यों न किया जाए। और हां, एक बात और जो मैं पहले भी कह चुका हूं कि हमारे घर में रहने के लिए मुनमुन को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ेगी।’

‘चलिए कोई रास्ता निकलेगा तो यह देख लिया जाएगा।’ दीपक ने कहा, ‘तो हम लोग उस दिन, दिन के 11-12 बजे मिलेंगे।’

‘जैसा आप का हुकुम प्रोफ़ेसर साहब!’

‘ओ.के. घनश्याम जी!’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। फिर मुनमुन और धीरज को तारीख़ समय और जगह की सूचना देते हुए एस.एम.एस. कर दिया। धीरज को एक एस.एम.एस. और किया कि वह कौड़ीराम का डाक बंगला उस दिन के लिए आरक्षित करवा ले। बाद में धीरज का कनफ़र्मेशन भी आ गया। पर मुनमुन का कोई जवाब नहीं आया। दीपक ने पत्नी से यह सब बताते हुए घनश्याम राय की वकील, स्टैम्प पेपर और सुलहनामे वाली तफ़सील बताई तो पत्नी बोली, ‘फिर वह आदमी बहुत ही काइयां है और डरपोक भी।’

‘मतलब?’

‘वह एक साथ दो निशाने साध रहा है।’

‘क्या मतलब?’

‘पहला काम वह यह कर रहा है कि विदाई का मामला वह आन रिकार्ड करना चाहता है। ताकि कभी बात और बिगड़ने पर मुनमुन लोग दहेज वाला मुक़दमा लिखवाएं तो उसे ज़मानत के लिए ग्राउंड बना ले कि मामला दहेज का नहीं विदाई का है। दूसरे, विदाई न हो तो इसी ग्राउंड पर वह तलाक़ फ़ाइल कर देगा।’

‘बड़ा धूर्त है साला।’ दीपक खीझ कर बोला।

‘आप असल में हर मामला भावुकता में ले लेते हैं। और यह मामला अब भावुकता का नहीं लगता मुझको। अब यह मामला दांव पेंच का हो गया है। अब वह दहेज विरोधी मुक़दमे से बचने और तलाक़ लेने की जुगत में है।’ दीपक की पत्नी बोली, ‘अब वह मुनमुन नाम की झंझट से छुटकारा पाना चाहता है।’

‘तो अब क्या किया जाए?’ दीपक सिर पकड़ कर बोला।

‘कुछ नहीं। मेरी मानिए तो अभी जाने-वाने का कार्यक्रम कैंसिल कीजिए। नहीं यश मुश्किल से मिलता है और अपयश बहुत जल्दी।’ दीपक की पत्नी बोली, ‘कुछ दिन के लिए मामला यों ही छोड़ दीजिए। भूल जाइए सब कुछ। ठीक होना होगा तो अपने आप सब ठीक हो जाएगा। समय बहुत कुछ करवा देता है। नहीं अभी हड़बड़ी में वह तलाक़ के ग्राउंड तलाश कर तलाक़ का मुक़दमा दायर कर देगा और ठीकरा आप के माथे फूटेगा कि आप ने तलाक़ करवा दिया।’