बांसगांव की मुनमुन / भाग - 18 / दयानंद पाण्डेय

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और देखते ही देखते मुनमुन के नाम का चनाजोर गरम सारी हदें लांघ कर शहर में भी बिकने लगा। न सिर्फ़ बस स्टैंड पर शहर के मुख्य बाज़ार गोलघर में भी। लोग चनाजोर गरम खाते हुए पूछते, ‘भइया ये मुनमुन है कौन?’

‘बांसगांव की रानी है साहब अत्याचारियों के पिछाड़ी में भरने वाली पानी है साहब!’

‘अभी तक तो बांसगांव के गुंडों का नाम सुनते थे। अब ये रानी कहां से आ गई?’

‘आ गई साहब, आ गई। बड़े-बड़े गुंडों को पानी पिलाने।’

‘क्या?’

‘और क्या?’

गोया मुनमुन, मुनमुन न हो पतियों के अत्याचार के खि़लाफ बिकने वाली ब्रांड हो! हां, अब मुनमुन ब्रांड हो चली थी। कम से कम बांसगांव में तो वह अत्याचार के खि़लाफ ब्रांड थी ही। ख़ास कर बांसगांव के बस स्टैंड या टैम्पो स्टैंड पर तिवारी जी जब मुनमुन को देख लेते तो अपना स्वर और तेज़ और ओजपूर्ण कर लेते। फिर लगभग पंचम सुर में आ कर उच्चारते, ‘इस को खाती बांसगांव की मुनमुन/सहती एक न अत्याचार/चनाजोर गरम!’ मुनमुन मंद-मंद मुसकाती धीरे-धीरे चलती हुई तेज़-तेज़ चलने लगती। मुनमुन की पहचान पहले एक वकील की बेटी फिर अधिकारी और जज की बहन के रूप में थी। लोग उसे सम्मान से देखते। फिर वह अपनी शोख़ी के लिए जानी जाने लगी। लोग उसे ललक के साथ देखने लगे। बिजलियां गिराती इतराती चलती वह। और जल्दी ही एक सताई हुई औरत हो गई वह। लोग उसे सहानुभूति मिश्रित करुणा या फिर उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। पर अब उपेक्षा की जगह अपेक्षाकृत सम्मान से देखने लगा बांसगांव। कोई-कोई उसे बोल्ड एंड ब्यूटीफुल कहता, कोई झांसी की रानी, कोई कुछ, कोई कुछ। सब के अपने-अपने पैमाने थे। पर परिवार तथा समाज में सताई हुई, वंचित और अपमानित औरतें मुनमुन में अब अपनी मुक्ति तलाशतीं। ऐसी औरतें उस के पास सलाह लेने आने लगीं। धीरे-धीरे वह शिक्षामित्र ही नहीं सताई हुई औरतों की मित्र भी बन गई। लगभग एक काउंसलर की छवि बन गई उस की।

पास के गांव की एक औरत थी सुनीता। पिता मिलेट्री में थे। अब रिटायर्ड थे। पर सुनीता जब नाइंथ में थी, सेंट्रल स्कूल में पढ़ती थी। उस की किसी कापी में उस की मां ने अमिताभ बच्चन की कोई मैगज़ीन से काटी हुई फ़ोटो पा लिया। उस को बहुत डांटा। पर कुछ दिन बाद फिर आमिर ख़ान की फ़ोटो मिल गई उस की कापी में। मां ने बवाल कर दिया। बात पिता तक पहुंची। आनन फ़ानन उस की शादी कर दी गई। ज़ाहिर है तब लड़का भी छोटा था और इंटर में पढ़ता था। संयोग था कि दुर्भाग्य शादी के दस साल बाद भी कोई बच्चा नहीं हुआ। सास के ताने सुन-सुन कर वह आजिज़ आ गई। पति भी जब-तब तलाक़ की धमकी देने लगा। पर ससुर सरकारी नौकरी में था सो बचा कर रहता था। फिर अचानक जाने क्या हुआ कि वह प्रिगनेंट हो गई। सब के भाव बदल गए। वह कुलच्छिनी से लक्ष्मी हो गई। पर जल्दी ही यह लक्ष्मी का भाव भी उतर गया जब उस ने एक लक्ष्मी को जन्म दे दिया। पर बांझ होने का कलंक उस के माथे से मिट गया। जल्दी ही वह फिर गर्भवती हुई। फिर उम्मीदें बंधीं। पर फिर लक्ष्मी के आ जाने से उस की दुर्दशा बढ़ गई। मार पीट और तानों में इज़ाफ़ा हो गया। ससुर रिटायर हो गए थे। ख़र्चे बढ़ गए थे और पति पियक्कड़ और निकम्मा हो गया था। हार कर सुनीता बेटियों को लेकर मायके आ गई। प्राइवेट हाई स्कूल का इम्तहान दिया। पास हो गई तो दो साल बाद इंटर का इम्तहान दिया। फिर पास हो गई। बी.ए. का प्राइवेट फ़ार्म भरा। अब पति ने सुनीता को मायके में आ कर तंग करना शुरू कर दिया। अंततः सुनीता के पिता ने उसे ससुराल भेज दिया। पर सुनीता का पति एक दिन सुनीता के पिता के पास पहुंचा। बोला, ‘ठेकेदारी शुरू करना चाहता हूं।’

‘तो शुरू करो।’ सुनीता के पिता ने कहा।

‘आप से मदद चाहिए।’

‘क्या मदद चाहते हो?’ सुनीता के पिता बिदके।

‘पैसे की मदद।’

‘वो मैं कहां से दूं?’

‘अभी-अभी आप रिटायर हुए हैं। फंड, ग्रेच्युटी मिली होगी।’

‘तो वह हमारे बुढ़ापे के लिए मिली है। तुम्हें शराब पिलाने के लिए नहीं।’

‘उधार समझ कर दे दीजिए।’ सुनीता का पति बोला, ‘जल्दी ही वापस कर दूंगा।’

‘शराबी पैसा वापस कहां से देगा और कैसे देगा?’ सुनीता के पिता ने स्पष्ट कह दिया, ‘मैं नहीं दूंगा। अपने बाप से मांग लो।’

‘वह नहीं दे रहे, आप ही दे दीजिए।’ कह कर वह ससुर के पैरों पर गिर पड़ा।

‘चलो जहां ख़र्च लगे बताना मैं ख़र्च करूंगा। पर पैसा तुम्हारे हाथ में नहीं दूंगा।’

‘ठीक है आप ही ख़र्च करिएगा। पर कितना एमाउंट देंगे यह तो बता दीजिए।’

‘तुम को चाहिए कितना?’

‘चाहिए तो दस लाख रुपए।’

‘इतना पैसा तो मुझे मिला भी नहीं है।’

‘तो फिर?’

‘मैं तुम्हें ज़्यादा से ज़्यादा पचास हज़ार दे सकता हूं। बस!’

‘पचास हज़ार में कौन सी ठेकेदारी होगी भला?’ वह उदास हो कर बोला।

‘जाओ पहले किसी ठेकेदार के यहां नौकरी करो। ठेकेदारी सीखो। फिर ठेकेदारी करना।’

‘पैसा देना हो तो दीजिए।’ सुनीता का पति बोला, ‘ज्ञान और उपदेश मत दीजिए!’

‘चलो यह भी नहीं देता।’

फिर सुनीता के पति ने सुनीता को ख़ूब मारा पीटा। और अंततः अपने माता पिता से अलग रहने लगा। सुनीता के साथ शहर में अलग किराए पर घर ले कर। अब सुनीता के उपवास के दिन आ गए। ससुर के घर लाख ताने, लाख मुश्किल थी पर दो जून की रोटी और बेटियों को पाव भर दूध तो मिल ही जाता था। यहां यह भी तय नहीं था। तिस पर मार पीट आए दिन की बात हो गई थी। अंततः हार कर सुनीता के पिता ने बाल पुष्टाहार में एक लिंक खोजा और दस हज़ार रुपए की रिश्वत दे कर बेटी को उस के गांव में आंगनवाड़ी की कार्यकर्त्री बनवा दिया।

रोटी दाल चलने लगी। बस दिक्क़त यही हुई कि सुनीता को शहर छोड़ कर गांव में आ कर रहना पड़ा। पर भूख और लाचारी की क़ीमत पर शहर में रहने का कोई मतलब नहीं था। लेकिन सुनीता के पति ने यहां आंगनवाड़ी में भी उसे चैन से रहने नहीं दिया। आंगनवाड़ी की दलिया बिस्कुट बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया। सुनीता ने विरोध किया तो उस ने आंगनवाड़ी कार्यालय में उस की लिखित शिकायत कर दी। कि वह निर्बल आय वर्ग की नहीं है। मैं बी ग्रेड का ठेकेदार हूं। घर में खेती बारी है आदि-आदि। सो सुनीता को आंगनवाड़ी से बर्खास्त कर दिया जाए। सुनीता को नोटिस मिल गई कि क्यों न उस की सेवाएं समाप्त कर दी जाएं! वह भागी-भागी पिता के पास पहुंची। पिता ने जिस आदमी को दस हज़ार रुपए दे कर सुनीता को आंगनवाड़ी में भर्ती करवाया था उसी आदमी को पकड़ा। उस ने दो हज़ार रुपए और ले कर मामला रफ़ा-दफ़ा करवाया।

अब सुनीता का पति कहने लगा कि, ‘तुम्हारे आंगनवाड़ी में काम करने से हमारी बेइज़्ज़ती हो रही है। या तो आंगनबाड़ी छोड़ दो या मुझे छोड़ दो।’

सुनीता घबरा गई। किसी ने उसे मुनमुन से मिलने की सलाह दी। सुनीता बांसगांव आ कर मुनमुन से मिली। सारा वाक़या बताया। और पूछा कि, ‘क्या करूं? इधर खंदक, उधर खाई? पति छोडूं कि आंगनवाड़ी?’

‘खाना कौन दे रहा है?’ मुनमुन ने पूछा, ‘पति कि आंगनवाडी?’

‘आंगनवाड़ी!’

‘तो पति को छोड़ दो।’ मुनमुन बोली, ‘जो पति अपनी पत्नी को प्यार और परिवार का भरण पोषण करने के बजाय उस पर बोझ बन जाए, उलटे मारपीट और उत्पीड़न करे, ऐसे पति का यही इलाज है। ऐसे पति को कह दो कि बातों-बातों में बोए बावन बीघा पुदीना और खाए उस की चटनी। हमें नहीं खानी यह चटनी!’ मुनमुन ने सुनीता को रघुवीर सहाय की एक कविता भी सुनाई, ‘पढ़िए गीता/बनिए सीता/फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए।’ कविता सुना कर बोली, ‘हमें ऐसा घर बार नहीं बसाना, नहीं बनना ऐसी सीता, ऐसी गीता पढ़ कर। समझी मेरी बहन सुनीता।’

‘हूं।’ कह कर सुनीता जैसे संतुष्ट और निश्चिंत हो गई। फिर मुनमुन ने सुनीता को अपनी कथा सुनाई और कहा, ‘तुम्हारे पास तो दो बेटियां हैं, इन के सहारे जी लोगी। मेरे पास तो मेरे वृद्ध माता पिता हैं, जो मेरे सहारे जीते हैं। सोचो भला कि मैं किस के सहारे जियूंगी?’ कह कर मुनमुन उदास हो गई।

‘हम हैं मुनमुन दीदी आप के साथ!’ कह कर सुनीता रो पड़ी। और मुनमुन से लिपट गई। पर मुनमुन नहीं रोई। यह सुनीता ने भी ग़ौर किया। मुनमुन समझ गई। सुनीता से बोली, ‘तुम सोच रही होगी कि अपनी विपदा कथा बता कर मैं रोई क्यों नहीं? है न?’ सुनीता ने जब स्वीकृति में सिर हिलाया तो मुनमुन बोली, ‘पहले मैं भी बात-बेबात रोती थी। बहुत रोती थी। पर समय ने पत्थर बना दिया। अब मैं नहीं रोती। रोने से औरत कमज़ोर हो जाती है। और यह समाज कमज़ोरों को लात मारता है। सो मैं नहीं रोती। तुम भी मत रोया करो। कमज़ोर औरत को लात मारने वाले समाज को उलटे लतियाया करो। सब ठीक हो जाएगा!’

लेकिन सुनीता फिर रो पड़ी। बोली, ‘कैसे सब ठीक हो जाएगा भला?’

‘हो जाएगा, हो जाएगा। मत रोओ।’ मुनमुन बोली, ‘भरोसा रखो अपने आप पर। और यह सोचो कि तुम अब अबला नहीं हो। क्यों कि ख़ुद कमाती हो, ख़ुद खाती हो। अपने बारे में ऐसे सोच कर देखो तो सब ठीक हो जाएगा।’

‘जी दीदी!’ कह कर सुनीता मुसकुराई और मुनमुन से विदा मांग कर चली गई बांसगांव से अपने गांव। और फिर सुनीता ही क्यों? रमावती, उर्मिला, शीला और विद्यावती जैसी जाने कितनी महिलाएं मुनमुन से जुड़ती जा रही थीं। और मुनमुन सब को सबला बनने का पाठ पढ़ा रही थी। वह बता रही थी कि, ‘अबला बनी रहोगी तो पिटोगी और अपमानित होगी। ख़ुद कमाओ, ख़ुद खाओ। तो सबला बनोगी, पिटोगी नहीं, अपमानित नहीं होओगी। स्वाभिमान से रहोगी।’

मुनमुन शिलांग जैसी जगहों का हवाला देती। बताती कि वहां मातृ सत्तात्मक समाज है, मातृ प्रधान समाज है। प्रापर्टी औरतों के नाम रहती है, पुरुषों के नाम नहीं। जितना पुरुषों से यहां औरतें कांपती हैं, उस से ज़्यादा वहां शिलांग में औरतों से पुरुष कांपते हैं। जानती हो क्यों?’ वह साथी औरतों से पूछती। और जब वह न जानने के लिए सिर हिला कर नहीं बतातीं तो मुनमुन उन्हें बताती, ‘क्यों कि वहां सारी शक्ति, जायदाद औरतों के हाथ है। इतना कि शादी के बाद वहां औरत पुरुष के घर नहीं, पुरुष औरत के घर जा कर रहता है। बड़े-बड़े आई.ए.एस. अफ़सरों तक को बीवी के घर जा कर रहना पड़ता है और दब के रहना पड़ता है। क्यों कि वहां औरत सबला है।’ वह बताती कि, ‘हैं तो वहां ज़्यादातर क्रिश्चियन लेकिन वह सब मूल रूप से दरअसल आदिवासी लोग हैं। तो जब दबी कुचली आदिवासी औरतें सबला बन सकती हैं तो यहां हम लोग क्यों नहीं बन सकतीं?’ मुनमुन बताती कि, ‘ऐसा ही थाईलैंड में भी है। वहां भी औरतें मर्दों को कुत्ता बना कर रखती हैं। वहां भी मातृ सत्तात्मक परिवार और समाज है। औरतें वहां भी सबला हैं।’

‘क्या आप शिलांग और थाईलैंड गई थीं मुनमुन दीदी?’

‘नहीं तो!’

‘तो फिर कैसे जानती हैं?’

‘तुम लोग दिल्ली के बारे में जानती हो?’

‘हां, थोड़ा-बहुत!’

‘तो क्या दिल्ली गई हो?’ मुनमुन बोली, ‘नहीं न? अरे कहीं के बारे में जानने के लिए वहां जाना ज़रूरी है क्या? पढ़ कर, सुन कर भी जाना जा सकता है। मैं ने इन दोनों जगहों के बारे में पढ़ कर ही जाना है।’ वह बोली, ‘मैं तो चंद्रमा पर भी नहीं गई और अमरीका भी नहीं गई। तो क्या वहां के बारे में जानती भी नहीं क्या?’ उस ने पूछा और ख़ुद ही जवाब भी दिया, ‘पर जानती हूं। पढ़ कर, टी.वी. देख कर।’

मुनमुन की छवि अब धीरे-धीरे मर्द विरोधी होती जा रही थी। तो क्या वह अपने पति, ससुर और भाइयों से एक साथ प्रतिशोध ले रही थी? यह एक बड़ा सवाल था। बांसगांव की हवा में। बांसगांव की सड़कों और समाज में। हालां कि वह साथी औरतों से कहती, ‘जैसे पुरुष औरत को ग़ुलाम बना कर, अत्याचार और सता कर रखे तो यह ठीक नहीं है, ठीक वैसे ही औरत भी पुरुष को या पति को कुत्ता बना कर रखे यह भी ठीक नहीं है।’ वह जैसे जोड़ती, ‘हमारे संविधान ने स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया है, हमें वही बराबरी चाहिए। वही सम्मान और वही स्वाभिमान चाहिए जो किसी भी सभ्य समाज में होना चाहिए।’

तो क्या मुनमुन राय अब राजनीति का रुख़ कर रही थी? बांसगांव की सड़कें एक दूसरे से यह पूछ रही थीं। मुनमुन राय की लोकप्रियता का ग्राफ़ मजबूर कर रहा था लोगों को यह सोचने के लिए। लेकिन एक औरत एक रोज़ मुनमुन से कह रही थी, ‘क्या बताएं मुनमुन बहिनी ये बांसगांव की विधानसभा और संसद की दोनों ही सीटें अगर सुरक्षित सीट नहीं होतीं तो तुम को यहां से निर्दलीय चुनाव लड़वा देते। और तुम जीत भी जाती।’

‘अरे क्या कह रही हो चाची एक घर तो चला नहीं पा रही राजनीति क्या ख़ाक करूंगी?’ मुनमुन बोली, ‘इस बांसगांव में तो रह नहीं पा रही। तो राजनीति तो वैसे भी काजल की कोठरी है। मर्द लोग उसे वेश्या भी जब तब कहते ही रहते हैं।’

‘मर्द तो हमेशा के हरामी हाते हैं।’ औरत बोली, ‘उन की बात पर क्या ग़ौर करना?’

‘ऐसा?’ मुनमुन बोली, ‘क्या तुम भी मर्दों की सताई हुई हो चाची? दिखती तो बड़ी सुखी और संतुष्ट हो?’

‘विधाता ने औरतों को शायद सुखी और संतुष्ट रहने के लिए इस समाज में भेजा ही नहीं।’ वह औरत बोली, ‘सब बाहरी दिखावा है। नहीं कौन औरत सुखी और संतुष्ट है यहां?’

‘ये तो है चाची!’ मुनमुन बोली, ‘उपेक्षा और अपमान जब घर में ही लोग देने लगें तो बाहर वालों की क्या कहें? मेरी कहानी तो तुम से क्या किसी से छुपी नहीं है। पर वीना शाही का क्या करें?’

‘क्या हुआ वीना को? उस का भाई तो पुलिस में बड़ा अफ़सर है।’

‘हां, है तो! आजकल कहीं एस.पी. है। पर बहन को नहीं पूछता। इकलौती बहन है। पति ने मार पीट कर दो बच्चों सहित छोड़ दिया है। तलाक़ का मुक़दमा लड़ रही है। बच्चे तक बाप से डरे हुए हैं वीना के। बाप की चर्चा चलते ही बच्चे रोने लगते हैं- पापा के पास नहीं जाना। बहुत मारते हैं। बेटी बच्चों को ले कर मेरी तरह मां बाप की छाती पर बैठी हुई है। इंगलिश मीडियम की पढ़ी बेचारी वीना कहीं की नहीं रही।’ मुनमुन हताश होती हुई बोली, ‘लगता है बांसगांव अब धीरे-धीरे दबंगों की नहीं पियक्कड़ों और परित्यकताओं की तहसील बनती जा रही है।’

जो हो मुनमुन राय अब न सिर्फ़ बांसगांव बल्कि बांसगांव के आस-पास की परित्यक्ताओं, सताई और ज़ुल्म की मारी औरतों का सहारा बनती जा रही थी। एक तरह से धुरी। इस में अधेड़ वृद्ध, जवान हर तरह की औरतें थीं। कोई पति की सताई, तो कोई पिता की। तो कोई बेटों की सताई हुई। ज़्यादातर मध्य वर्ग या निम्न मध्य वर्ग की। मुनमुन कहती भी कि हमारे समाज में शोहदों, पियक्कड़ों, अवैध संबंधों और परित्यक्ताओं का जो बढ़ता अनुपात है और वह लगातार घना हो रहा है। इस पर जाने क्यों किसी समाजशास्त्री की नज़र नहीं जा रही। नज़र जानी चाहिए और इस के कारणों का पता लगा कर इस का कोई निदान भी ज़रूर ढूंढा जाना चाहिए।

एक दिन सुबह-सुबह सुनीता का पति मुनमुन के घर आया। आते ही तू-तड़ाक से बात शुरू की। कहने लगा, ‘तुम मेरी बीवी को भड़काना बंद कर दो। नहीं एक दिन चेहरे पर तेज़ाब फेंक दूंगा। भूल जाओगी नेतागिरी करना।’

शुरू में तो मुनमुन चुपचाप सुनती रही। पर जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तो बोली, ‘ज़्यादा हेकड़ी दिखाओगे तो अभी पुलिस बुला कर जेल की हवा खिला दूंगी। सारी हेकड़ी निकल जाएगी।’

सुनीता का पति फिर भी बड़बड़ाता रहा। तो मुनमुन बोली, ‘तुम शायद मुझे ठीक से जानते नहीं। मेरे भाई सब जज हैं, बड़े अफ़सर हैं।’ उस ने मोबाइल उठाते हुए कहा, ‘अभी एक फ़ोन पर पुलिस यहां आ जाएगी। फिर तुम्हारा क्या हाल होगा, सोच लो। और फिर मैं ने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं बाक़ी औरतों की तरह!’ मुनमुन यह सब बोली और इतने सर्द ढंग से बोली कि सुनीता के पति की अक्की-बक्की बंद हो गई। वह जाने लगा तो मुनमुन ने उसे फिर डपटा, ‘और जो घर जा कर सुनीता को कुछ कहा या हाथ लगाया तो पुलिस तुम्हारे घर भी पहुंच सकती है, इतना जान लो।’

सुनीता का पति उसे घूरता, तरेरता चला गया। मुनक्का राय तब घर पर ही थे। सुनीता के पति के चले जाने के बाद वह मुनमुन से बोले, ‘बेटी क्या अपनी विपत्ति कम थी जो दूसरों की विपत्ति भी अपने सिर उठा रही हो?’

‘क्या बाबू जी आप भी!’

‘नहीं बेटी तुम समझ नहीं पा रही हो कि तुम क्या कर रही हो?’ मुनक्का राय बोले, ‘तुम बांसगांव को बदनामी की किस हद तक ले गई हो तुम्हें अभी इस की ख़बर नहीं है।’

‘क्या कह रहे हैं बाबू जी आप?’ मुनमुन चकित होती हुई बोली, ‘क्या बांसगांव के बाबू साहब लोग मर गए हैं क्या जो मैं बांसगांव को बदनाम करने लग गई?’

‘अरे नहीं बेटी बाबू साहब लोगों की दबंगई से वह नुक़सान नहीं हुआ जो तुम्हारी वजह से हो रहा है।’

‘क्या?’ मुनमुन अवाक रह गई।

‘हां, लोग अकसर हमें कचहरी में बताते रहते हैं कि तुम्हारी वजह से बांसगांव की लड़कियों की शादी कहीं नहीं तय हो पा रही। लोग बांसगांव का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। कहते हैं लोग अरे वहां की लड़कियां तो मुनमुन जैसी गुंडी होती हैं। अपने मर्द को पीटती हैं। उन से कौन शादी करेगा? लोग कहते हैं कि बांसगांव की लड़कियों के नाम से चनाजोर गरम बिकता है। ऐसी लड़कियों से शादी नहीं हो सकती।’

‘क्या कह रहे हैं बाबू जी आप?’

‘बेटी जो सुन रहा हूं वही बता रहा हूं।’ मुनक्का राय बोले, ‘बंद कर दो अब यह सब। तुम कंपटीशन की तैयारी करने वाली थी, वही करो। कुछ नहीं धरा-वरा इन बेवक़ूफ़ी की चीज़ों में। फिर तुम्हारे सामने तुम्हारी लंबी ज़िंदगी पड़ी है।’

‘कंपटीशन की तैयारी तो बाबू जी मैं कर ही रही हूं।’ मुनमुन बोली, ‘पर जो मैं कर रही हूं वह बेवक़ूफ़ी है, यह आप कह रहे हैं बाबू जी!’

‘हां, मैं कह रहा हूं।’ मुनक्का राय बोले, ‘यह बग़ावत, यह आदर्श सब किताबी और फ़िल्मी बातें हैं, वहीं अच्छी लगती हैं। असल जिंदगी में नहीं।’

‘क्या बाबू जी!’

‘ठीक ही तो कह रहा हूं।’ मुनक्का राय उखड़ कर बोले, ‘तुम्हारी बग़ावत के चलते तुम्हारे सारे भाई घर से बिदक गए। इस बुढ़ापे में बिना बेटों का कर दिया हमें तुम ने और तुम्हारी बग़ावत ने। हक़ीक़त तो यह है।’ वह ज़रा रुके और बोले, ‘हक़ीक़त तो यह है कि तुम्हारे चलते इस बुढ़ापे में भी संघर्ष करना पड़ रहा है। साबुन, तेल, दवाई तक के लिए तड़पना पड़ रहा है। लायक़ बेटों का बाप हो कर भी अभावों और असुविधा में जीना पड़ रहा है। तो सिर्फ़ तुम्हारी बग़ावत के चलते। तुम्हारी बग़ावत को समर्थन देने के चक्कर में।’