बांसगांव की मुनमुन / भाग - 19 / दयानंद पाण्डेय

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‘तो बाबू जी आप क्या चाहते हैं। कसाइयों के आगे घुटने टेक दूं? बढ़ा दूं अपनी गरदन उन के आगे कि लो मेरी बलि चढ़ा लो?’ मुनमुन बोली, ‘बोलिए बाबू जी, आप अगर यही चाहते हैं तो?’

मुनक्का राय कुछ बोले नहीं। चारपाई पर चद्दर ओढ़ कर लेट गए। मुनमुन बाबू जी के पैताने जा कर खड़ी हो गई। बोली, ‘ज़ाहिर है आप ऐसा नहीं चाहते। और मैं ऐसा करूंगी भी नहीं। आप चाहेंगे तो भी नहीं। मैं भले मर जाऊं इस तरह। पर हथियार डाल कर नहीं, लड़ते हुए मरना चाहूंगी। सारे कसाइयों को मार कर मरूंगी।’ अचानक वह रुकी फिर बोली, ‘और मरूंगी भी क्यों? मरें मेरे दुश्मन। मैं तो शान से जिऊंगी। जिस को जो कहना सुनना हो कहे सुने।’

फिर तैयार हो कर बाबू जी को सोता छोड़ वह स्कूल जाने के लिए बस स्टैंड पर आ गई। उधर सुनीता का पति घर जा कर सुनीता से तो कुछ नहीं बोला। पर शहर जा कर बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां मुनमुन की लिखित शिकायत कर आया। शिकायत में लिखा कि मुनमुन शिक्षामित्र की नौकरी करने के बजाय नेतागिरी कर रही है। और इस नेतागिरी की आड़ में तमाम औरतों को भड़का-भड़का कर उन के परिवार में विद्रोह करवा कर परिवार तोड़ रही है। नज़ीर के तौर पर उस ने अपना ही हवाला दिया था और लिखा था कि मुनमुन राय के हस्तक्षेप के चलते उस की बीवी भी नेता बनने की कोशिश कर रही है और मेरा घर टूट रहा है। उस ने यह भी लिखा था कि जिस औरत के नाम से चनाजोर गरम बिकेगा वह अपने स्कूल में भी क्या पढ़ाएगी? नेतागिरी ही करेगी। इस से बच्चों का भविष्य ख़राब होगा।

उस ने अपने लंबे से शिकायती पत्र के अंत में यह भी ख़ुलासा किया था कि इसी नेतागिरी के चक्कर में मुनमुन ने अपना परिवार भी तोड़ दिया है और कि अपने पति का घर छोड़ कर अपने बाप के घर रह रही है। यहां तक कि अपने गांव में रहने के बजाय बांसगांव में रहती है। स्कूल जाने की बजाय क्षेत्र की औरतों को भड़का कर नेतागिरी कर रही है। सो इस पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच करवा कर मुनमुन राय को शिक्षामित्र की नौकरी से तत्काल बर्खास्त करने की अपील भी की थी सुनीता के पति ने। उस ने शिकायती पत्र में यह बात भी जोड़ी थी कि मुनमुन राय अपने भाइयों के ऊंचे ओहदों पर बैठे होने की भी सब को धौंस देती रहती है कि मेरे भाई जज और कलक्टर हैं। वग़ैरह-वग़ैरह। और यह भी कि वह एक नंबर की चरित्रहीन भी है। बाप वकील है। इस लिए उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता। लेकिन अगर शिक्षा विभाग ने उस की हरकतों पर अंकुश नहीं लगाया तो बांसगांव इलाक़े के समाज में किसी दिन ऐसा भूकंप आएगा कि संभाले नहीं संभलेगा।

सुनीता के पति के इस शिकायती पत्र ने रंग दिखाया और बेसिक शिक्षा अधिकारी ने ख़ुद ही इस प्रकरण की जांच करने की सोची। चूंकि मुनमुन राय शिक्षामित्र थी, नियमित शिक्षिका नहीं थी सो कोई नोटिस देने के बजाय उस ने पी.ए. से फ़ोन करवा कर मुनमुन राय को मिलने के लिए बुलवाया। मुनमुन गई तो बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उसे एक घंटा बाहर ही बैठाए रखा। फिर बुलवाया। तब तक मुनमुन इंतज़ार में बैठे-बैठे पक चुकी थी। दूसरे घर से खाना खा कर नहीं गई थी। सो भूख भी ज़ोर मार रही थी। वह अंदर जा कर खड़ी हो गई। और बोली, ‘सर!’

‘तो तुम्हीं मुनमुन राय हो?’

‘हूं तो!’

‘गांव में रहने के बजाय बांसगांव में रहती हो?’

‘जी सर, गांव वाला घर गिर गया है। बांसगांव में माता-पिता जी के साथ रहती हूं।’

‘शादी हो गई है?

‘जी सर!’ वह ज़रा रुकी और धीरे से बोली, ‘पर टूट चुकी है।’

‘क्यों?’

‘सर! यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। आप इस बारे में कुछ न ही पूछें तो उचित होगा।’

‘अच्छा?’ बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उसे तरेरते हुए पूछा, ‘तुम्हारा व्यक्तिगत व्यक्तिगत है, और किसी दूसरे का व्यक्तिगत व्यक्तिगत नहीं हो सकता है?’

‘सर मैं समझी नहीं।’ मुनमुन बोली, ‘ज़रा इस बात को स्पष्ट कर के बता दें!’

‘तुम्हारे खि़लाफ शिकायत आई है कि तुम स्कूल में पढ़ाने के बजाय नेतागिरी करती हो। क्षेत्र की औरतों को भड़का कर उन का परिवार तोड़ती हो! अपनी नेतागिरी चमकाती हो!’

‘जिस भी किसी ने यह शिकायत की है सर, ग़लत की है। स्कूल मैं नियमित जाती हूं। हस्ताक्षर पंजिका मंगवा कर आप देख सकते हैं। विद्यार्थियों से, गांव वालों से और स्टाफ़ से दरिया़त कर सकते हैं। मैं नियमित और समय से स्कूल जाती हूं। और कि कहीं कोई नेतागिरी नहीं करती हूं। किसी का परिवार नहीं तोड़ा है। अगर कोई ऐसा कहता है तो उसे पेश किया जाए।’ मुनमुन राय पूरी सख़्ती से बोली।

‘सुना है तुम्हारे नाम से चनाजोर गरम बिकता है।’

‘मैं यह व्यवसाय नहीं करती सर!’

‘जो बात पूछी जाए उस का सीधा जवाब दो!’

‘किस बात का सीधा जवाब दूं?’

‘यही कि तुम्हारे नाम से चनाजोर गरम बिकता है?’

‘मैं ने आप को पहले ही बताया कि यह या ऐसा कोई व्यवसाय मैं नहीं करती!’ मुनमुन ज़रा रुकी और बेसिक शिक्षा अधिकारी को तरेर कर देखती हुई बोली, ‘अगर आप इजाज़त दें तो मैं बैठ जाऊं? बैठ कर आप के सवालों का जवाब दूं?

‘हां, हां बैठ जाओ!’

‘थैंक यू सर!’ कह कर मुनमुन बैठ गई। उस के बैठते ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के फ़ोन पर किसी का फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर बतियाने लगा। इधर मुनमुन पशोपेश में थी कि आखि़र किस ने उस की शिकायत की होगी? कहीं भइया लोगों में से ही तो किसी ने शिकायत नहीं कर दी उस की? यही सोच कर वह शुरू से ही मारे संकोच के भइया लोगों का नाम भी नहीं ले रही थी। फ़ोन पर बेसिक शिक्षा अधिकारी की बातचीत संक्षिप्त ही थी। बात ख़त्म करते ही उस ने मुनमुन की ओर बिलकुल पुलिसिया अंदाज़ में देखा जैसे कि मुनमुन कितनी बड़ी चोर हो और कि उस की पकड़ में आ गई हो। देखते हुए ही वह बोला, ‘तो?’

‘जी?’ मुनमुन बोली, ‘क्या?’

‘तो तुम्हें इस शिकायत का क्या दंड दिया जाए?’

‘किस शिकायत का?’

‘जो मेरे पास आई है!’

‘मुझे मालूम तो पड़े कि मेरे खि़लाफ शिकायत क्या है? शिकायतकर्ता कौन है?’ वह बोली, ‘फिर जो आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जो भी विधि सम्मत कार्रवाई हो आप करने के लिए स्वतंत्र हैं।’

‘क़ानून मत छांटो!’ बेसिक शिक्षा अधिकारी गुरेरते हुए बोला, ‘जानता हूं कि वकील की बेटी हो।’

‘वकील की बेटी ही नहीं, न्यायाधीश की बहन भी हूं। मेरे एक भाई प्रशासन में भी हैं।’ मुनमुन अब पूरे फ़ार्म पर आ गई, ‘आप अंधेरे में तीर चला कर कार्रवाई करना चाहते हैं तो बेशक करिए।’ वह ज़रा रुकी और बेसिक शिक्षा अधिकारी को उसी की तरह तरेरती हुई अपना हाथ दिखाती हुई बोली, ‘यह देखिए कि मैं ने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।’

‘अरे तुम तो सिर पर चढ़ती जा रही हो?’

‘सिर पर नहीं चढ़ रही, साफ़ बात कर रही हूं।’ वह बोली, ‘मेरे खि़लाफ जो भी शिकायत हो मुझे लिखित रूप में दे दीजिए। मैं लिखित जवाब दे दूंगी। फिर आप को जो कार्रवाई करनी हो कर लीजिएगा।’

‘तो अपने भाइयों का धौंस दे रही हो?’

‘जी नहीं सर!’ वह बोली, ‘मैं ने अपने भाइयों का ज़िक्र किया। वह भी तब जब आप ने मुझे वकील की बेटी कहा। तो मैं ने प्रतिवाद में यह कहा।’

‘अच्छा-अच्छा!’ बेसिक शिक्षा अधिकारी नरम पड़ता हुआ बोला, ‘जब तुम्हारे भाई लोग उच्च पदों पर आसीन हैं तो तुम शिक्षामित्र की नौकरी क्यों कर रही हो?’

‘इस लिए कि मैं स्वाभिमानी हूं।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘आप तो शिक्षामित्र की नौकरी को ऐसे उद्धृत कर रहे हैं जैसे शिक्षामित्र न हो चोर हो।’

‘नहीं-नहीं ऐसी बात तो नहीं कही मैं ने।’ वह अब बचाव में आ गया।

‘सर, आप को बताऊं कि मेरे एक भइया बैंक में मैनेजर हैं और एक एन.आर.आई भी हैं तो भी मैं शिक्षामित्र की नौकरी कर रही हूं। और यह कोई आखि़री नौकरी नहीं है।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘मैं कंपटीशंसन की तैयारी कर रही हूं। जल्दी ही किसी अच्छी जगह भी आप को दिख सकती हूं।’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है।’ अधिकारी बोला, ‘तो फिर बेवजह के कामों में क्यों लगी पड़ी हो?’ अधिकारी का सुर अब पूरी तरह बदल गया था। सुनीता के पति का शिकायती पत्र दिखाता हुआ वह बोला, ‘कि ऐसी शिकायतों की नौबत आए!’

‘यह शिकायती पत्र मैं भी देख सकती हूं सर!’

‘हां-हां क्यों नहीं?’ कह कर उस ने वह शिकायती पत्र मुनमुन की तरफ़ बढ़ा दिया।

मुनमुन ने बड़े ध्यान से वह पत्र देखा फिर पढ़ने लगी। पढ़ कर बोली, ‘आप भी सर, इस पियक्कड़ की बातों में आ गए?’

‘नहीं आरोप तो है!’

‘ख़ाक आरोप है।’ वह बोली, ‘एक आदमी आपनी बीवी की कमाई से शराब पी कर उस की पिटाई करता है। बीवी उस पर लगाम लगाती है तो वह ऊल जलूल शिकायत करता है। और हैरत यह कि आप जैसे अफ़सर उस की शिकायत सुन भी लेते हैं!’

‘अब कोई शिकायत आएगी तो सुननी तो पड़ेगी।’

‘तो सर सुनिए!’ वह बोली, ‘एक तो यह शिकायत मेरे शिक्षण कार्य के बाबत नहीं है। शिक्षाणेतर कार्यों के लिए है। और आप को बताऊं कि मैं शिक्षामित्र हूं। और किसी शिक्षक का काम सिर्फ़ उस के स्कूल तक ही सीमित नहीं होता। समाज के प्रति भी उस का कुछ दायित्व होता है। और मैं इस दायित्व को भी निभा रही हूं। अपनी सताई हुई बहनों को स्वाभिमान और सुरक्षा का स्वर दे रही हूं कि वह अन्याय बर्दाश्त करने के बजाय उस का प्रतिकार करें, डट कर मुक़ाबला करें और पूरी ताक़त से उस का विरोध करें। और इस के लिए एक नहीं हज़ार शिकायतें आएं मैं रुकने वाली नहीं हूं।’

बेसिक शिक्षा अधिकारी हकबक हो कर मुनमुन को देखने लगा।

‘और सर, आप जो यह चाहते हैं कि मैं स्कूल में बच्चों को मिड डे मील के पकाने और बंटवाने में ज़िंदगी ज़ाया करूं तो क्षमा कीजिए यह नहीं करने वाली।’ वह बोलती रही, ‘अब तो अख़बारों में भी स्कूलों में बंटने वाले मिड डे मील के बारे में ही ख़बरें छपती हैं। कि मिड डे मील घटिया था। कि मिड डे मील किसी दलित महिला के बनाने से सवर्ण बच्चों ने नहीं खाया वग़ैरह-वग़ैरह। यह ख़बर नहीं छपती कि अब इन स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। कि इन स्कूलों में अब पढ़ाई नहीं होती। कि इन स्कूलों में छात्र ही नहीं हैं। कि इन स्कूलों में पंद्रह-बीस बच्चों को मिड डे मील खिला कर सौ-दो सौ बच्चों को मिड डे मील खिलाना काग़ज़ों में दर्ज हो जाता है। कि शिक्षा विभाग और प्रशासन के अधिकारी स्कलों में यह जांच करने आते हैं कि मिड डे मील का वितरण ठीक से हो रहा है कि नहीं। और इस में उन का हिस्सा उन को ठीक से पहुंच रहा है कि नहीं? अधिकारी भूल कर भी यह नहीं जांचने आते कि इन स्कूलों में पठन-पाठन का स्तर क्या है और कि इस की बेहतरी में उन का क्या योगदान हो सकता है?’

‘अरे तुम तो पूरा भाषण ही देने लग गई। वह भी मेरे ही खि़लाफ़। मेरे ही चैंबर में।’ बेसिक शिक्षा अधिकारी खिन्न हो कर बोला।

‘भाषण नहीं दे रही सर, आप को वास्तविकता बता रही हूं। कि प्राथमिक स्कूलों में अब दो ही काम रह गया है कि मिड डे मील पकवाओ और स्कूल की बिल्डिंग बनवाओ! मतलब येन केन प्रकारेण धन कमाओ! बताइए भला शिक्षक का काम है स्कूल बिल्डिंग बनवाना या इंजीनियर का? यह तो शासन प्रशासन को सोचना समझना चाहिए?’ वह बोली, ‘ट्रांसफ़र पोस्टिंग का धंधा तो आप भी जानते होंगे? सर आप ही बताइए हम अपने नौनिहालों को कौन सी शिक्षा दे रहे हैं?’

‘तुम तो बोले ही जा रही हो!’

‘हां सर, बोल तो रही हूं।’ वह बोली, ‘आप ने वह पुराना गाना तो सुना ही होगा कि इंसाफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के!’

‘ओह अब तुम जाओ!’

‘जा रही हूं सर, पर सोचिएगा कभी और पूछिएगा अपने आप से अकेले में कभी कि इस गाने का हम ने आप ने, हमारे समाज और सिस्टम ने क्या कर डाला? सोचिएगा ज़रूर सर!’ कह कर मुनमुन राय बेसिक शिक्षा अधिकारी के कमरे से बाहर निकल गई।

‘आप ने भी सर, किस को बुला लिया था? पूरा का पूरा बर्रइया का छत्ता है यह। चनाजोर गरम इस के नाम से ऐसे ही थोड़े बिकता है।’ बड़े बाबू कुछ फ़ाइलें लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी के कमरे में घुसते हुए बोले।

‘हां, पर बात कुछ बहुत ग़लत कह भी नहीं रही थी।’ बेसिक शिक्षा अधिकारी बोले, ‘बड़े बाबू ध्यान रखिएगा यह लड़की कभी बहुत आगे निकल जाएगी!’

‘सो तो है साहब!’

‘हां, यह शिक्षामित्र ज़्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली।’ अधिकारी बोले, ‘इतनी निडर लड़की मैं ने पहले नहीं देखी। सोचिए बड़े बाबू कि उस को जांच के लिए बुलाया था, उस की नौकरी जा सकती थी पर वह तो हमीं को लेक्चर पिला गई।’

‘अरे तो अनुशासनहीनता के आरोप में ससुरी की छुट्टी कर दीजिए। भूल जाएगी सारी नेतागिरी!’

‘अरे नहीं, भाई सब इस के उच्च पदों पर हैं। कहीं लेने के देने न पड़ जाएं। चनाजोर गरम वैसे ही बिकवा रही है, हम सब को भी बिकवा देगी।’

‘हां, साहब सब इस को बांसगांव की मरदानी-रानी भी कहते हैं।’

‘तो?’ बेसिक शिक्षा अधिकारी बोला, ‘जाने दो। जो वह कर रही है उसे करने दो।’

‘जी साहब!’

मुनमुन भी बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय से निकल कर बस स्टैंड आई। बस पकड़ कर बांसगांव आ गई। घर पहुंची तो पास के गांव के एक बाप बेटी आए हुए थे। बेटी को उस के पति ने शादी के ह़फ्ते भर में ही उस से किनारा कर लिया और मार पीट, हाय तौबा कर के छह महीने में ही घर से बाहर कर दिया था। उस का क़सूर सिर्फ़ इतना ही था कि उस के बाएं हाथ की दो अंगुलियां कटी हुईं थीं। बचपन में ही चलती चारा मशीन में खेल-खेल में हाथ डालने से अंगुलियां कट गई थीं।

‘तो शादी के पहले ही यह बात लड़के वालों को बता देनी थी।’ मुनमुन लड़की का हाथ अपने हाथ में ले कर उस की अंगुलियां देखती हुई बोली, ‘यह कोई छुपाने वाली बात तो थी नहीं।’

‘छुपाए भी नहीं थे।’ लड़की का पिता बोला, ‘शादी के पहले ही बता दिया था।’

‘तब क्यों छोड़ दिया?’

‘अब यही तो समझ में नहीं आ रहा।’ लड़की का पिता बोला, ‘अब वो लोग कह रहे हैं कि शादी के पहले अंधेरे में रखा।’

‘तो अब क्या इरादा है?’

‘यही तो बहिनी आप से पूछने आए हैं कि क्या करें?’

‘जो लोग शादी में मध्यस्थता किए थे, उन को बीच में डालिए। कुछ रिश्तेदारों को बीच में डालिए। समझाएं लोग उन सब को। शायद मान जाएं।’

‘यह सब कर के हार गए हैं।’ लड़की का पिता बोला, ‘हम यह भी कहे कि हम लोग ब्राह्मण हैं, लड़की की दूसरी शादी भी नहीं कर सकते। लड़के और लड़के के बाप के पैरों पर अपना सिर रख कर प्रार्थना की। पर सब बेकार गया।’ कह कर वह बिलखने लगा।

‘तो अब?’

‘हमारी तो कुछ अक़ल काम नहीं कर रही बहिनी! तो अब आप की शरण में आ गए हैं।’

‘फिर तो थाना पुलिस, कचहरी वकील करना पड़ेगा। बोलिए तैयार हैं?’

‘ई सब के बिना काम नहीं चलेगा?’ वह जैसे घिघियाया।

‘देखिए जिस की आंख का पानी मर जाए, समाज की शर्म को जो पी जाए, घर परिवार और रिश्तों की मर्यादा जो भूल जाए, ऐसी फूल सी लड़की के साथ जो कांटों सा अमानवीय व्यवहार करे उस के साथ क़ानून का डंडा चलाने में गुरेज़ करना, अपने साथ छल करना है, आत्मघात करना है।’

‘फिर भी वह लोग इसे न रखें तब?’

‘वहां रखने की इसे अब कोई ज़रूरत भी नहीं है।’ मुनमुन बोली, ‘उन सब को सबक़ सिखाइए और इस की दूसरी शादी की तैयारी करिए।’

‘दूसरी शादी?’ पिता की घिघ्घी बंध गई। उस ने फिर दुहराया, ‘हम लोग ब्राह्मण हैं।’ वह ज़रा रुका और फिर बुदबुदाया, ‘कौन करेगा शादी? और फिर लोग-बाग क्या कहेंगे?’

‘कुछ नहीं कहेंगे।’ मुनमुन बोली, ‘बेटी जब आप की सुख से रहने लगेगी तो सब के मुंह सिल जाएंगे। हां, अगर रोज़ ऐसे ही छोड़-पकड़ लगी रहेगी तो ज़रूर सब के मुंह खुले रहेंगे। अब आप सोच लीजिए कि क्या करना है आप को?’ वह बोली, ‘जल्दबाज़ी में कोई निर्णय मत लीजिए। अभी घर जाइए। सोचिए-विचारिए। और घर में पत्नी से, बेटी से, परिजनों से विचार विमर्श करिए। ठंडे दिमाग़ से। दो-चार-दस दिन में आइए। फिर फ़ैसला करते हैं कि क्या किया जाए?’

‘ठीक बहिनी!’ कह कर वह बेटी को ले कर चला गया। दो दिन बाद फिर वह आया। बेटी को साथ ले कर। और मुनमुन से बोला, ‘हम ने फ़ैसला कर लिया है। अब आप जो कहिए, जैसे कहिए हम सब कुछ करने को तैयार हैं।’

‘अच्छी बात है।’ मुनमुन उस की बेटी की तरफ़ देखती हुई बोली, ‘क्या तुम भी तैयार हो?’

पर वह कुछ बोली नहीं। चुपचाप कुर्सी पर बैठी नीचे की ज़मीन पैर के अंगूठे से कुरेदती रही। ऐसे गोया कुछ लिख रही हो पैर के अंगूठे से।

‘पैर के अंगूठे से नहीं, हौसले से अपनी क़िस्मत लिखनी होती है।’ मुनमुन बोली, ‘अगर तुम तैयार हो तो स्पष्ट रूप से हां कहो और नहीं हो तो ना कहो। बिना तुम्हारी मंज़ूरी या मर्ज़ी के कुछ नहीं करने वाली मैं।’

वह फिर चुप रही। हां, अंगूठे से ज़मीन कुरेदना बंद कर दिया था उस ने।

‘तो तैयार हो?’ मुनमुन ने अपना सवाल फिर दुहराया।

‘जी दीदी!’ वह धीरे से बोली।

‘तो चलो फिर थाने चलते हैं।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘पर पहले एक वकील पकड़ना पड़ेगा।’

‘वह किस लिए?’ लड़की के पिता ने अचकचा कर पूछा।

‘एफ़.आई.आर. का ड्रा़ट लिखवाने के लिए।’

‘तो वकील तो पैसा लेगा।’