बांसगांव की मुनमुन / भाग - 20 / दयानंद पाण्डेय

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‘हां लेगा तो।’ मुनमुन बोली, ‘पर ज़्यादा नहीं।’

‘पर मैं तो अभी किराया भाड़ा छोड़ कर कुछ ज़्यादा पैसा लाया नहीं हूं।’

‘कोई बात नहीं।’ मुनमुन बोली, ‘वकील को पैसे बाद में दे दीजिएगा। अभी सौ पचास रुपए तो होगा ही, वह टाइपिंग के लिए दे दीजिएगा।’

‘ठीक है!’

वकील के पास जा कर पूरा डिटेल बता कर, नमक मिर्च लगा कर एफ़.आई.आर. की तहरीर टाइप करवा कर मुनमुन बाप बेटी को ले कर थाने पहुंची। थाने वाले ना नुकुर पर आए तो वह बोली, ‘क्या चाहते हैं आप लोग सीधे डी.एम. या एस.एस.पी से मिलें इस के लिए? या थ्रू कोर्ट आर्डर करवाएं?’ वह बोली, ‘एफ़.आई.आर. तो आप को लिखनी ही पड़ेगी। चाहे अभी लिखें या चार दिन बाद!’

अब थानेदार थोड़ा घबराया और बोला, ‘ठीक है तहरीर छोड़ दीजिए। जांच के बाद एफ़.आई.आर. लिख दी जाएगी।’

‘और जो एफ़.आई.आर. लिख कर जांच करिएगा तो क्या ज़्यादा दिक्क़त आएगी?’ मुनमुन ने थानेदार से पूछा।

‘देखिए मैडम हमें हमारा काम करने दीजिए!’ थानेदार ने फिर टालमटोल किया।

‘आप से फिर रिक्वेस्ट कर रहे हैं कि एफ़.आई.आर. दर्ज कर लीजिए। मामला डावरी एक्ट का है। इस में आप की भी बचत ज़्यादा है नहीं। और जो नहीं लिखेंगे अभी एफ़.आई.आर. तो इसी वक्त शहर जा कर डी.एम. और एस.एस.पी. से मिल कर आप की भी शिकायत करनी पड़ेगी। आप का नुक़सान होगा और हमारी दौड़ धूप बढ़ेगी बस!’ थानेदार मान गया। रिपोर्ट दर्ज हो गई। लड़की के ससुराल पक्ष का पूरा परिवार फ़रार हो गया। घर में ताला लगा कर जाने कहां चले गए सब। रिश्तेदारी, जान-पहचान सहित तमाम संभावित ठिकानों पर छापा डाला पुलिस ने। पर कहीं नहीं मिले सब। महीना बीत गया। महीने भर बाद ही पारिवारिक अदालत में मुनमुन ने लड़की की ओर से गुज़ारा भत्ता के लिए भी मुक़दमा दर्ज करवा दिया। अब ससुराल पक्ष की ओर से एक वकील मिला बाप बेटी से। वकील ने लड़की के पिता से कहा कि, ‘सुलहनामा कर लो और वह लोग तुम्हारी बेटी को विदा करा ले जाएंगे।’

लड़की के पिता ने मुनमुन से पूछा कि, ‘क्या करें?’

‘करना क्या है?’ वह बोली, ‘मना कर दीजिए। और कोई बात मत कीजिए। अभी जब कुर्की की नौबत आएगी तब पता चलेगा। देखें, कब तक सब फ़रार रहते हैं।’

‘पर वह लोग बेटी को विदा कराने के लिए तैयार हैं।’

‘कुछ नहीं। यह मजबूरी की पैंतरेबाज़ी है। कुछ भी कर लीजिए वहां अब आप की बेटी जा कर कभी ख़ुश नहीं रह पाएगी।’

‘क्यों?’

‘क्यों कि गांठ अब बहुत मोटी पड़ गई है।’ मुनमुन बोली, ‘थोड़े दिन और सब्र कीजिए। और दूसरे विवाह के लिए रिश्ता खोजिए। इन सब को भूल जाइए।’

और अंततः सुलहनामा हुआ। मुनमुन के कहे मुताबिक़ लड़की के पिता ने दस लाख रुपए बतौर मुआवजा मांगा। बात पांच लाख पर तय हुई। दोनों के बीच तलाक़ हो गया। लड़की के पिता ने इस पांच लाख रुपए से लड़की की दूसरी शादी कर दी। लड़की के बारे में सब कुछ पहले से बता दिया। कटी अंगुली से लगायत पूर्व विवाह तक। कोई बात छुपाई नहीं। एक दिन लड़की अपने दूसरे पति के साथ मुनमुन से मिलने आई। लिपट कर रो पड़ी। मुनमुन भी रोने लगी। यह ख़ुशी के आंसू थे। बाद में लड़की बोली, ‘दीदी आप ने मुझे नरक से निकाल कर स्वर्ग में बिठा दिया। ये बहुत अच्छे हैं। मुझे बहुत मानते हैं।’ फिर उस ने धीरे से जोड़ा, ‘दीदी अब आप भी शादी कर लीजिए!’

मुनमुन चुप रह गई। कुछ देर तक दोनों चुप रहीं। और वो जो कहते हैं न कि इतिहास जैसे अपने को दुहरा रहा था। मुनमुन कुर्सी पर बैठे-बैठे पैर के अंगूठे से नीचे की मिट्टी कुरेद रही थी।

‘दीदी बुरा न मानिए तो एक बात कहूं?’ चुप्पी तोड़ती हुई लड़की बोली।

‘कहो।’ मुनमुन धीरे से बोली।

‘छोटा मुंह और बड़ी बात!’ लड़की बोली, ‘पर दीदी आप ने ही एक बार यहीं बैठे-बैठे मुझ से कहा था कि पैर के अंगूठे से नहीं, हौसले से अपनी क़िस्मत लिखनी होती है!’

‘अच्छा-अच्छा!’ कह कर मुनमुन धीरे से मुसकुराई।

‘तो दीदी आप भी शादी कर लीजिए!’ लड़की ने जैसे मनुहार की।

‘अब मेरे नसीब में जाने क्या लिखा है मेरी बहन!’ कह कर उस लड़की को पकड़ कर वह फफक पड़ी, ‘समझाना आसान होता है, समझना मुश्किल!’ कह कर वह उन दोनों से हाथ जोड़ती हुई, रोती हुई घर के भीतर चली गई। रोना घोषित रूप से छोड़ देने के बाद आज मुनमुन पहली बार ही रोई थी। सो ख़ूब रोई। बड़ी देर तक। तकिया भीग गया। जल्दी ही मुनमुन फिर रोई। चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी का निधन हो गया था। वह पता कर के उन के घर गई और तिवारी जी की विधवा वृद्धा पत्नी के विलाप में वह भी शामिल हो गई। फिर बड़ी देर तक रोई। तिवारी जी ने उस के नाम से चनाजोर गरम बेच कर जो मान, स्वाभिमान और आन बख़्शा था, वह उस की ज़िंदगी का संबल बन गया था, यह बात वह तिवारी जी के निधन के बाद उन के घर जा कर महसूस कर पाई। शायद इसी लिए उस का रुदन श्रीमती तिवारी के रुदन में अनायास मिल गया था। ऐसे जैसे छलछलाती यमुना गंगा से जा मिलती है। मिल कर शांत हो जाती है। फिर साथ-साथ बहती हुई एकमेव हो गंगा बन जाती है। और वो जो कहते हैं न कि पाट नदी का यमुना की वजह से चौड़ा होता है, पर नाम गंगा का होता है। तो यहां भी बाद में रोई ज़्यादा मुनमुन पर श्रीमती तिवारी का विलाप सब ने ज़्यादा सुना। गंगा के पाट और श्रीमती तिवारी के विलाप का यह एकमेव संयोग भी जाने क्यों मुनमुन का रुदन नहीं रोक पा रहा था। घर में तो तकिया भीग गया था। पर यहां क्या भीगा? क्या यह बहुत दिनों तक मुनमुन के नहीं रोने की ज़िद थी? कि सावन भादो में सूखा पड़ा था और क्वार कार्तिक में बाढ़ आ गई। इतनी कि बांध टूट गया! यह कौन सा मनोभाव था?

समझा रही हैं मुनमुन की अम्मा भी मुनमुन को कि, ‘अब तुम या तो अपनी ससुराल जाने का मन बनाओ और जाओ। और जो वहां न जाने की ज़िद है तो दूसरा विवाह ढूंढ कर कर लो। इस-उस के साथ घूमने से तो यही अच्छा है!’

‘क्या करें अम्मा!’ मुनमुन कहती है, ‘साथ घूमने-सोने के लिए तो सभी तैयार रहते हैं हमेशा! पर शादी के लिए कोई नहीं।’ वह जोड़ती है, ‘इस के लिए तो सब को दहेज चाहिए!’

‘तो दूसरों को दहेज बटोरने का टोटका बता सकती हो। दहेज का मुक़दमा लिखवा कर, गुज़ारा भत्ता का मुक़दमा लिखवा कर लाखों का मुआवज़ा दिलवा कर दहेज जुटा कर दूसरी शादी का रास्ता सुझा सकती हो तो ख़ुद अपने लिए यह रास्ता क्यों नहीं अख़्तियार कर सकती हो?’

‘इस लिए नहीं कर सकती अम्मा कि यह सब कर के मैं अपने तौर पर उस शादी को मान्यता दे बैठूंगी जिस को कि मैं शादी नहीं मानती!’ मुनमुन कहती है, ‘मैं यह नहीं करने वाली!’

‘लोग बदल गए, चीज़ें बदल गईं। तुम्हारे सब भाई तक बदल गए। पर तुम और तुम्हारे बाबू जी नहीं बदले।’

‘ऐसे तो बदलेंगे भी नहीं अम्मा।’ वह बोली, ‘कि बेबात सब के आगे घुटने टेक देंगे। स्वाभिमान और आन गिरवी रख देंगे? हम इस तरह तो नहीं बदलेंगे अम्मा!’

क्यों नहीं बदलती मुनमुन? और उस के बाबू जी! यह एक नहीं, अनेक जन का यक्ष प्रश्न है! घनश्याम राय का भी यह प्रश्न है। भले ही वह इस प्रश्न का उत्तर भी साथ ले कर घूमने लगे हैं। जैसे कि कहीं बात चली कि, ‘आप का लड़का जब लुक्कड़, पियक्कड़ और पागल है तो मुनमुन जैसी लड़की कैसे रह सकती है उस के साथ?’ तो घनश्याम राय का जवाब था कि, ‘लड़का हमारा पागल और पियक्कड़ है। मैं तो नहीं। मैं रख लूंगा मुनमुन को। दिक्क़त क्या है?’

सवाल करने वाला शर्मिंदा हो गया पर घनश्याम राय नहीं। सवाल करने वाले ने टोका भी कि, ‘क्या कह रहे हैं राय साहब, बहू भी बेटी समान होती है।’

‘तो?’ घनश्याम राय ने तरेरा।

घनश्याम राय का यह जवाब बड़ी तेज़ी से सब तक पहुंचा। मुनमुन तक भी। सुन कर वह बोली, ‘मैं शुरू से ही जानती हूं कि वह कुत्ता है। अघोड़ी है।’

फिर उस ने घनश्याम राय को फ़ोन कर उन की जितनी लानत-मलामत कर सकती थी किया। और कहा कि, ‘आइंदा जो ऐसी वैसी बात कही तो तुम्हारे बेटे को तो अपने दरवाज़े पर जुतियाया था, तुम्हें तुम्हारे दरवाज़े पर ही जुतियाऊंगी!’

‘इतनी हिम्मत हो गई है तेरी!’ घनश्याम राय ने हुंकार तो भरी पर डर भी गए और फ़ोन काट दिया।

फिर एक वकील से मशविरा किया। और मुनमुन की विदाई के लिए मुक़दमा दायर कर दिया। मुनमुन को जब इस मुक़दमे का सम्मन मिला तो वह मुसकुराई। वकील की बेटी थी सो तुरंत जवाब दाखिल करने के बजाय तारीख़ें लेने लगी। तारीख़ों और आरोपों के ऐसे मकड़जाल में उसने घनश्याम राय को उलझाया कि वह हताश हो गए। मुनमुन कचहरी में घनश्याम राय और उस के बेटे राधेश्याम राय को ऐसे तरेर कर देखती कि दोनों भाग कर अपने वकील के पीछे छुप जाते। कि कहीं मुनमुन भरी कचहरी में पीट न दे। लेकिन मुनमुन का सारा जोश, सारी बहादुरी घर में आ कर दुबक जाती। अम्मा तो पहले ही कंकाल बन कर रह गई थीं, बाबू जी भी कंकाल बनने की राह पर चल पड़े थे। कंधा और कमर भी उन की थोड़ी-थोड़ी झुकने लगी थी। चेहरा पिचक गया था। एक तो मुनमुन की चिंता, दूसरे बेटों की उपेक्षा, तीसरे विपन्नता और बीमारी ने उन्हें झिंझोड़ कर रख दिया था। यह सब देख कर मुनमुन भी टूट जाती। इतना कि अब वह मीरा बनना चाहती थी। ख़ास कर तब और जब कोई अम्मा बाबू जी से पूछता, ‘जवान बेटी कब तक घर में बिठा कर रखेंगे?’

]वह मीरा बन कर नाचना चाहती है। मीरा के नाच में अपने तनाव, अपने घाव, अपने मनोभाव को धोना चाहती है। नहीं धुल पाता यह सब कुछ। वह अम्मा बाबू जी दोनों को ले कर अस्पताल जाती है। दोनों ही बीमार हैं। डाक्टर भर्ती कर लेते हैं। एक वार्ड में बाबू जी, एक वार्ड में अम्मा। वह चाहती है कि दोनों को एक ही वार्ड मिल जाता तो अच्छा था। डाक्टरों से कहती भी है। पर डाक्टर मना कर देते हैं कि पुरुष वार्ड में पुरुष, स्त्री वार्ड में स्त्री। अब उस के अम्मा बाबू जी पुरुष और स्त्री में तब्दील हैं। तो वह ख़ुद क्या है? वह सोचती है। सोचते-सोचते सुबकने लगती है। हार कर रीता दीदी को फ़ोन कर के सब कुछ बताती है। बताती है कि, ‘अकेले अब वह सब कुछ नहीं संभाल पा रही है। पैसे भी नहीं हैं अब।’

‘भइया लोगों को बताया?’ रीता ने पूछा।

‘मैं भइया लोगों को बताने वाली भी नहीं रीता दीदी। तुम्हें जाने कैसे बता दिया। और अब मेरे फ़ोन में पैसा भी ख़त्म होने वाला है। बात करते-करते कभी भी बात कट सकती है!’

‘ठीक है तुम रखो मैं मिलाती हूं।’ रीता बोली।

लेकिन फिर रीता का फ़ोन नहीं आया। मुनमुन ही अम्मा बाबू जी को ले कर वापस घर आती है। स्कूल के हेड मास्टर ने मदद की है। पैसे से भी और अस्पताल से आने में भी। घर आ कर बाबू जी पूछ रहे हैं आंख फैला कर मुनमुन से, ‘बेटी ऐसा कब तक चलेगा भला?’

‘जब तक चल सकेगा चलाऊंगी। पर अगर आप चाहते हैं कि अन्यायी और अत्याचारी के आगे झुक जाऊं, तो मैं हरगिज़ झुकूंगी नहीं। चाहे जो हो जाए!’ कह कर वह किचेन में चली गई। चाय बनाने।

बिजली चली गई है। वह किचेन से देख रही है आंगन में चांदनी उतर आई है। वह फुदक कर आंगन में आ जाती है, चांदनी में नहाने। ऐसे जैसे वह कोई मुनमुन नहीं गौरैया हो! उधर किचेन में भगोने में चाय उबल रही है और वह सोच रही है कि सुबह सूरज उगेगा तो वह क्या तब भी ऐसे ही नहाएगी सूरज की रोशनी में, जैसे चांदनी में अभी नहा रही है। उधर चांदनी में नहाती अपनी बिटिया को देख कर श्रीमती मुनक्का राय के मन में उस के बीते दिन, बचपन के दिन तैरने लगे हैं किसी सपने की तरह और वह गाना चाह रही हैं मेरे घर आई एक नन्हीं परी, चांदनी के हसीन रथ पे सवार! पर वह नहीं गा पातीं। न मन साथ देता है, न आवाज़! वह सो जाती हैं। किचेन में चाय फिर भी उबल रही है!

और यह देखिए सुबह का सूरज सचमुच मुनमुन के लिए खुशियों की कई किरन ले कर उगा। अख़बार में ख़बर छपी थी कि सभी शिक्षा मित्रों को ट्रेनिंग दे कर नियमित किया जाएगा। दोपहर तक डाकिया एक चिट्ठी दे गया। चिट्ठी क्या पी. सी. एस. परीक्षा का प्रवेश पत्र था। मुनमुन ने प्रवेश पत्र चहकते हुए अम्मा को दिखाया तो अम्मा भावुक हो गईं। बोली, ‘तो अब तुम भी अधिकारी बन जाओगी?’ और फिर जैसे उन का मन कांप उठा और बोलीं, ‘अपने भइया लोगों की तरह!’

मुनमुन अम्मा का डर समझ गई। अम्मा को अंकवार में भर कर बोली, ‘नहीं अम्मा, भइया लोगों की तरह नहीं, तुम्हारी बिटिया की तरह! पर अभी तो दिल्ली बहुत दूर है। देखो क्या होता है?’

पीसीएस की तैयारी तो आधी अधूरी पहले ही से थी, उस की। पर मुनक्का राय की सलाह मान कर मुनमुन ने स्कूल से छुट्टी ले ली। लंबी मेडिकल लीव। और तैयारी में लग गई। दिन-रात एक कर दिया। वह भूल गई बाक़ी सब कुछ। जैसे उस की ज़िंदगी में पीसीएस के इम्तहान के सिवाय कुछ रह ही नहीं गया था। बांसगांव के लोग तरस गए मुनमुन की एक झलक भर पाने के लिए। बांसगांव की धूल भरी सड़क जैसे उसकी राह देखती रहती। पर वह घर से निकलती ही नहीं थी। वह अंदर ही अंदर अपने को नए ढंग से रच रही थी। गोया खुद अपने ही गर्भ में हो। खुद ही मां हो, खुद ही भ्रूण। ऐसे जैसे सृजनकर्ता अपना सृजन खुद करे। बिखरे हुए को सृजन में संवरते -बनते अगर देखना हो तो तब मुनमुन को देखा जा सकता था। वह कबीर को गुनगुनाती, ‘खुद ही डंडी, खुद ही तराजू, खुद ही बैठा तोलता।’ वह अपने ही को तौल रही थी। एक नई आग और एक नई अग्नि परीक्षा से गुज़रती मुनमुन जानती थी कि अगर अब की वह नहीं उबरी तो फिर कभी नहीं उबर पाएगी। जीवन जीना है कि नरक जीना है सब कुछ इस परीक्षा परिणाम पर मुनःसर करता है, यह वह जानती थी। अम्मा कुछ टोकतीं तो मुनक्का रोकते हुए कहते, ‘मत रोको, सोना आग में तप रहा है, तपने दो!’

जाने यह संयोग था कि मुनमुन का प्रेम कि मुनमुन की इस तैयारी के समय मुनक्का राय और श्रीमती मुनक्का राय दोनों ही कभी बीमार नहीं पड़े। न कोई आर्थिक चिंता आई। हां, इधर राहुल का भेजा पैसा आया था सो मुनमुन को वेतन न मिलने के बावजूद घर खर्च में बाधा नहीं आई। बीच में दो बार मुनमुन के स्कूल के हेड मास्टर भी आए ‘बीमार’ मुनमुन को देखने। पर वह उन से भी नहीं मिली। मुनक्का राय से ही मिल कर वह लौट गए।

कहते हैं न कि जैसे सब का समय फिरता है वैसे मुनमुन के दिन भी फिरे। समय ज़रूर लगा। पर जो मुनक्का राय कहते थे कि, ‘सोना आग में तप रहा है, तपने दो!’ वह सोना सचमुच तप गया था। मुनमुन पीसीएस मेन में सेलेक्ट हो गई थी। अख़बारों की ख़बरों से बांसगांव ने जाना। पर अब की इस ख़बर पर आह भरने के लिए गिरधारी राय नहीं थे। न ही ललकार कर मुनमुन के नाम से चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी। मुनमुन ने तिवारी जी को इस मौके़ पर बहुत मिस किया। बधाई देने वाले, लड्डू खाने वाले लोग बहुत आए बांसगांव में उस के घर। पर मुनमुन के भाइयों का फ़ोन भी नहीं आया। न ही घनश्याम राय या राधेश्याम राय का फ़ोन। दीपक को फ़ोन कर के ज़रूर मुनमुन ने आशीर्वाद मांगा। दीपक ने दिल खोल कर आशीर्वाद दिया भी। हां, रीता आई और थाईलैंड से विनीता की बधाई भी फ़ोन पर। बहुत बाद में राहुल ने भी फ़ोन कर खुशी जताई।

ट्रेनिंग-व्रेनिंग पूरी होने के बाद मुनमुन अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक तहसील में एसडीएम तैनात हो गई है। बांसगांव से आते वक्त उस ने अम्मा, बाबू जी को अकेला नहीं छोड़ा। बाबू जी से बोली, ‘छोड़िए यह प्रेक्टिस का मोह और चलिए अपनी रानी बिटिया के साथ!‘

‘अब बेटी की कमाई का अन्न खाएंगे हम लोग?’ अम्मा बोलीं, ‘राम-राम, पाप न पड़ेगा!’

लेकिन मुनक्का राय चुप ही रहे। पर जब मुनमुन ने बहुत दबाव डाला तो वह धीरे से बोले, ‘तो क्या इस घर में ताला डाल दें?’

‘और क्या करेंगे?’ मुनमुन बोली, ‘अब मैं आप लोगों को इस तरह अकेला नहीं छोड़ सकती!‘ फिर उसने जोड़ा, ‘छुट्टियों में आते रहेंगे!’

‘फिर तो ठीक है!’ मुनक्का राय को जैसे राह मिल गई।

‘लेकिन!’ मुनमुन की अम्मा ने प्रतिवाद किया।

‘कुछ नहीं अब चलो!’ मुनक्का राय बोले, ‘इस का भी हम पर हक़ है। अभी तक हमारे कहने पर यह चली। अब समय आ गया है कि इस के कहे पर हम चलें।’ वह ज़रा रुके और पत्नी का हाथ थाम कर बोले, ‘चलो बेटी चलते हैं।’

मुकदमों की सारी फाइलें वग़ैरह उन्हों ने जूनियरों और मुंशी के सिपुर्द की। घर का बाहर वाला कमरा जूनियरों को चैंबर बनाने के लिए दे दिया। और अपनी नेम प्लेट दिखाते हुए जूनियरों से बोले, ‘यह नाम यहां और बांसगांव में बना रहना चाहिए। उतारना नहीं यह नेम प्लेट और न ही हमारे नाम पर बट्टा लगाना। और हां घर में दीया बत्ती करते रहना। मतलब लाइट जलाते रहना।’ जूनियरों ने हां में हां मिलाई।

बाक़ी घर में ताला लगाते हुए मुनक्का राय बांसगांव से विदा हुए सपत्नीक मुनमुन बेटी के साथ। और बोले, ‘देखते हैं आबोदाना अब कहां-कहां ले जाता है!’ फिर एक लंबी सांस ली। संयोग ही था कि पड़ोसी ज़िले में धीरज भी अब सीडीओ हो गया था। कभी कभार कमिश्नर की मीटिंग में धीरज, मुनमुन आमने-सामने पड़ जाते हैं तो मुनमुन झुक कर धीरज के चरण स्पर्श करती है। धीरज भी मुनमुन के सिर पर हाथ रख कर आशीष देता है। पर कोई संवाद नहीं होता दोनों के बीच। न सार्वजनिक रूप से न व्यक्तिगत रूप से।

ऐसी ही किसी मीटिंग के लिए एक दिन जब मुनमुन कलफ लगी साड़ी में गॉगल्स लगाए अपनी जीप से उतर रही थी तो वह बीएसए सामने पड़ गया, जिसने सुनीता के पति की शिकायत पर उस से जवाब तलब करने के लिए उस को बुलाया था। देखते ही वह चौंका और ज़रा अदब से बोला, ‘मैम आप !’और फिर जैसे उछलते हुए बोला, ‘आप तो बांसगांव वाली मुनमुन मैम हैं!’

‘हूं।’ वह गॉगल्स ज़रा ढीला करती बोली, ‘आप?’

‘अरे मैम मैं फला बीएसए।’ वह ज़रा अदब से बोला, ‘जब आप ....... !’

‘शिक्षा मित्र थी....!’

‘जी मैम, जी.... जी!’

‘तो?’ मुनमुन ने ज़रा तरेरा!

‘कुछ नहीं मैम, कुछ नहीं। प्रणाम!’ वह जैसे हकला पड़ा।

‘इट्स ओ.के.!’ कह कर मुनमुन बिलकुल अफ़सरी अंदाज़ में आगे निकली। तब तक धीरज अपनी कार से उतरता सामने पड़ गया। तो उसने हमेशा की तरह झुक कर चरण स्पर्श किया। और धीरज ने भी हमेशा की तरह उस के सिर पर हाथ रख कर आशीष दिया। निःशब्द! इस बीच मुनमुन ने कानूनी रूप से राधेश्याम को गुपचुप तलाक भी दे दिया। बड़ी खामोशी से। भाइयों को यह भी पता नहीं चला।

हां, राधेश्याम अब भी कभी कभार पी-पा कर बांसगांव आ जाता है। कभी मुनक्का राय के ताला लगे घर का दरवाज़ा पीटता है तो कभी पड़ोसियों के दरवाजे़ पीटता है। इस फेर में वह अकसर पिट जाता है। पर उसे इस का बहुत अफ़सोस नहीं होता। वह तो बुदबुदाता रहता है कि, ‘मुनमुन मेरी है!’ लोग उसे बताते भी हैं कि मुनमुन अब यहां नहीं रहती। अब वह भी अपने भाइयों की तरह अफ़सर हो गई है। राधेश्याम बहकते हुए लड़खड़ाती आवाज़ में कहता है, ‘तो क्या हुआ! है तो मेरी मुनमुन!’

मुनमुन भी कभी कभार अम्मा बाबू जी को ले कर बांसगांव आ जाती है। क्या करे वह बेबस हो जाती है। वह रहे कहीं भी पर उस के दिल में धड़कता तो बांसगांव ही है। बांसगांव की बेचैनी उसके मन से कभी जाती नहीं। कभी-कभी वह हेरती है उन तिवारी जी को बांसगांव के बस स्टैंड पर जो मुनमुन नाम से एक समय चनाजोर गरम बेचते थे। वह तिवारी जी, जो वह जानती है कि अब जीवित नहीं हैं। तो भी। करे भी तो क्या वह! सुख-दुख, मान-अपमान, सफलता-असफलता सब कुछ दिखाया इस बांसगांव ने। अल्हड़ जवानी भी बांसगांव की बांसुरी पर ही उसने गाई, सुनी और गुनी। और फिर जवानी बरबाद भी इसी बांसगांव के बरगद की छांव में हुई। उन दिनों वह गाती भी थी, ‘बरबाद कजरवा हो गइलैं !’तो भला कैसे भूल जाए इस आबाद और बरबाद बांसगांव को यह बांसगांव की मुनमुन। संभव ही नहीं जब तक वह जिएगी, जैसे भी जिएगी, बांसगांव तो उसके सीने में धड़केगा ही। लोग जब तब उस के बदले अंदाज़ या साहबी ठाट-बाट पर चकित होते हैं या उस से उस के संघर्ष पर बात करते हैं तो वह लोगों से कहती है, ‘स्थाई तो कुछ भी नहीं होता। सब कुछ बदलता रहता है। सुख हो,दुख हो या समय। बदलना तो सब को ही है।’ फिर वह जैसे बुदबुदाती है, ‘हां, यह बांसगांव नहीं बदलता तो क्या करें?’

‘उ तो सब ठीक है।’ एक पड़ोसिन कहती है, ‘मुनमुन बहिनी शादी कब कर रही हो?’

मुनमुन चुप लगा जाती है। जहां मुनमुन एस. डी. एम. है वहां भी अधिकरी कॉलोनी में उस की एक पड़ोसी औरत ने उसी के घर में उसी से ठीक मुनक्का राय के सामने पूछ लिया है, ‘दीदी आप ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’ वह मुनमुन के विवाह और तलाक के बारे में नहीं जानती। यहां कोई भी नहीं जानता। मुनमुन जनाना भी नहीं चाहती। पर वह औरत अपना सवाल फिर दुहराती है कि, ‘दीदी आप ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’

‘इन्हीं से पूछिए !’ मुनमुन धीरे से बाबू जी को इंगित करते हुए कहती है।

मुनक्का राय ने कोई जवाब देने के बजाय छड़ी उठा ली है। और टहलने निकल गए हैं। रास्ते में सोच रहे हैं कि क्या मुनमुन अब अपना वर भी खुद ही नहीं ढूंढ सकती? कि वह ही फिर से ढूंढना शुरू करें। मुनमुन के लिए कोई उपयुक्त वर। क्या अख़बारों में विज्ञापन दे दें? या इंटरनेट पर? घर लौटते वक्त वह सोचते हैं कि आज वह इस बारे में मुनमुन से स्पष्ट बात करेंगे। वह अपने आप से ही बुदबुदाते भी हैं, ‘चाहे जो हो शादी तो करनी ही है मुनमुन बिटिया की!’

समाप्त।