बांसगांव की मुनमुन / भाग - 5 / दयानंद पाण्डेय
'हम सोचे कि जज साहब हैं, तरुण हैं और अब तो राहुल भी है।' दबी जबान में धीरज बोला।
'और वह सब सोचते हैं कि तुम हो।' अम्मा बोलीं, 'बाबू एक राजा था। उस ने सोचा कि वह दूध से भरा एक तालाब बनवाए। तालाब खुदवाया और प्रजा से कहा कि फला दिन सुबह-सुबह राज्य की सारी प्रजा एक-एक लोटा दूध इस तालाब में डालेगी। यह अनिवार्य कर दिया। प्रजा तुम्हीं लोगों जैसी थी। एक आदमी ने सोचा कि सब लोग दूध डालेंगे ही तालाब में हम अगर एक लोटा पानी ही डाल देंगे तो कौन जान पाएगा? उस ने पानी डाल दिया। राजा ने दिन में देखा पूरा तालाब पानी से भर गया था। दूध का कहीं नामोनिशान नहीं था। तो बाबू तुम्हारे बाबू जी अपने परिवार के वही राजा हैं। सोचते थे कि सब बेटे लायक़ हो गए हैं थोड़ा-थोड़ा भी देंगे तो बुढ़ापा सुखी-सुखी गुज़र जाएगा। पर जब उन की आंख खुली तो उन्हों ने देखा कि उन के तालाब में तो पानी भी नहीं था। यह कैसा तालाब खोदा है तुम्हारे बाबू जी ने बेटा मैं आज तक नहीं समझ पाई।' कह कर अम्मा रोने लगीं।
धीरज ने फ़ोन रख दिया था। शाम को जब कचहरी से मुनक्का राय लौटे तो चाय पानी के बाद पत्नी ने बताया कि, 'धीरज का फ़ोन आया था। मुनमुन की नौकरी से बहुत नाराज़ है।' पर मुनक्का राय ने पत्नी की बात को अनसुना कर दिया। प्रत्यक्ष रूप से मुनक्का राय ने मुनमुन को शिक्षा मित्र की नौकरी दिलवा कर गिरधारी को पटकनी भले दे दी थी पर अप्रत्यक्ष रूप से घर में एक निश्चित आमदनी का स्रोत भी खोला था। यह भी एक निर्मम सच था। सच यह भी था कि मुनमुन राय छोटी हो कर भी, लड़की हो कर भी उन के बुढ़ापे की लाठी बन गई थी। धीरे-धीरे मुनमुन राय का भी इस आर्थिक वास्तविकता से वास्ता पड़ने लगा। शिक्षा मित्र के वेतन को मुनमुन पहले जेब ख़र्च के रूप में उड़ाने लगी। फिर कभी-कभी मिठाई और फल लाने लगी घर में। बाद में सब्ज़ी भी लाने लगी कभी-कभी। फिर नियमित। और अब सब्ज़ी ही नहीं साबुन-सर्फ़ और बाबू जी की दवाई भी लाने लगी। पहले के दिनों में वह सोचती कि कैसे ख़र्च करे वह यह पैसा। अब के दिनों में वह सोचती कि कैसे ख़र्च चलाए वह इन पैसों से।
फ़र्क़ आ गया था मुनमुन राय के ख़र्च में, सोच में और चाल में। बांसगांव की सड़क यह दर्ज कर रही थी। किसी ज़मीन की खसरा, खतियौनी, चौहद्दी और रक़बा की तरह। वह अब गा रही थी, 'ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे!' वह अब जी भी रही थी और मर भी रही थी। उसे लग रहा था कि बाबू जी और अम्मा की तरह वह भी अब बूढ़ी हो रही है। बाबू जी और अम्मा का आर्थिक संघर्ष उस का संघर्ष बन चुका था। उस की शेख़ी भरी शोख़ी को संघर्ष का सर्प जैसे डस रहा था। एक दिन रात में खाना खाने के बाद वह बाबू जी के पास आ कर बैठ गई। बोली, 'बाबू जी मैं एल.एल.बी. कर लूं?' बाबू जी हंसते हुए बोले, 'तुम एल.एल.बी. कर के क्या करोगी?'
'आप का हाथ बंटाऊंगी!'
'तो शिक्षा मित्र की नौकरी छोड़ दोगी?' पूछते हुए मुनक्का राय डर गए।
'नहीं-नहीं।' वह बोली, 'मैं इवनिंग क्लास ज्वाइन करना चाहती हूं। और क्लास में जाऊंगी कम, घर में ज़्यादा पढ़ूंगी। और जो कुछ फंसेगा तो आप तो हैं ही बताने के लिए।'
'वो तो है। पर शहर जाना और फिर रात में आना। यह सब मुश्किल है। फिर यह बांसगांव है। लोग क्या कहेंगे?'
'लोगों का तो काम है कहना!' वह ठनक कर फ़िल्मी गाने पर आ गई, 'कुछ तो लोग कहेंगे!'
'यह तुम बाप से बात कर रही हो या फ़िल्मी डायलाग मार रही हो।'
'आप से बात कर रही हूं।' वह बोली, 'फ़िल्मी गाने का भाव डाल रही हूं और आप को बता रही हूं कि किसी के कुछ कहने सुनने का मुझ पर फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला।'
'ठीक है।' मुनक्का राय बोले, 'बेटी तुम्हें जो करना हो करो।' पर अब बांसगांव में वकालत का कोई भविष्य नहीं है। मुक़दमे घटते जा रहे हैं और वकील बढ़ते जा रहे हैं। वह बोले, 'फिर यहां कोई महिला वकील नहीं है। महिलाओं के लिए शायद बांसगांव की आबोहवा भी ठीक नहीं है।'
'महिलाओं के लिए तो सारे समाज की आबोहवा ठीक नहीं है। बांसगांव भी उस का एक हिस्सा है।' मुनमुन बोली।
मुनक्का राय बेटी की यह बात सुन कर उसे टुकटुक देखते रह गए। मुनमुन जो पहले ब्यूटीफुल थी, अब बोल्ड भी हो रही थी। राहुल का वह दोस्त जिसका नाम विवेक सिंह था, जिस की बाइक पर वह अकसर देखी जाती थी उसे बोल्ड एंड ब्यूटीफुल कहने भी लगा था। वह ख़ुश हो जाती।
संयोग ही था कि विवेक का बड़ा भाई भी थाईलैंड में था। विवेक और मुनमुन की दोस्ती की ख़बर जब उस तक पहुंची तो उस का माथा ठनका। उस ने राहुल से बात की और कहा कि, 'भई अपनी बहन को समझाओ, मैं भी अपने भाई को समझाता हूं। नहीं, जो कहीं ऊंच-नीच हो गई तो दोनों परिवारों की बदनामी होगी।' राहुल विवेक के भाई की बात सुन कर बौखला गया। उस ने पहला फ़ोन विवेक को ही किया और जितना भला-बुरा उस को कह सकता था कह गया। और बोला, 'मेरी ही बहन मिली थी तुम्हें दोस्ती करने के लिए। बाइक पर बिठा कर घुमाने के लिए? क्यों मेरी पीठ में छुरा घोंप रहे हो?'
'बात तो सुनो!' विवेक ने कुछ कहने की कोशिश की।
'मुझे अब कुछ नहीं सुनना।' राहुल बोला, 'जो सुनना था तुम्हारे भइया से सुन चुका हूं। दोस्ती तुम्हारी मुझ से थी। मैं अब वहां नहीं हूं, सो तुम्हें मेरे घर जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। और आगे से जो तुम मेरे घर गए और मेरी बहन से मिले तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा। अभी तक तुम ने मेरी दोस्ती देखी है, अब दुश्मनी देखना। वहीं आ कर तुम्हें काट डालूंगा।' कह कर राहुल ने फ़ोन काट दिया।बांसगांव अपने घर पर फ़ोन मिलाया तो पता चला कि फ़ोन नान पेमेंट में कट चुका था। पड़ोस के फ़ोन पर फ़ोन कर के अम्मा को बुलवाया और पूछा कि, ' कब से फ़ोन कटा है?'
'बिल नहीं जमा होगा तो कट गया होगा।' अम्मा डिटेल में नहीं गईं। फिर राहुल ने संक्षेप में मुनमुन-विवेक कथा बताते हुए अम्मा से बता दिया कि, 'मुनमुन से कह दो कि अपनी आदतें सुधार ले। नहीं वहीं आ कर काट डालूंगा। कह दो कि बाप भाई की इज़्ज़त का खयाल रखे।' उस ने यह भी बताया कि, 'विवेक को ख़ूब हड़का दिया है। भरसक तो वह आएगा नहीं। और जो आए भी तो उसे दरवाज़े से कुत्ते की तरह दुत्कार कर भगा देना।' अम्मा कुछ कहने के बजाय, 'हूं-हां' करती रहीं। क्यों कि पड़ोसी के घर में थीं। बात फैलने और बदनामी का डर था।
मुनक्का राय जब कचहरी से शाम को वापस आए तो मुनमुन की अम्मा ने राहुल के फ़ोन का ज़िक्र कर के सारा वाक़या बताया तो मुनक्का के होश उड़ गए। बोले, 'बात थाईलैंड तक पहुंच गई और हमें पता तक नहीं।' फिर अचानक पूछा कि, 'फ़ोन तो काम नहीं कर रहा फिर कैसे बात हुई?'
'पड़ोसी गुप्ता जी के फ़ोन पर फ़ोन आया था।' पत्नी ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
'फिर तो वह सब भी जान गए होंगे।' वह माथा सहलाते हुए बोले, 'और अब मुसल्लम बांसगांव जान जाएगा!'
'जान जाएगा?' पत्नी ने कहा, 'जान चुका है। आखि़र बात थाईलैंड तक अगर पहुंची है तो बिना किसी के जाने तो पहुंची नहीं।'
'हां, हमीं लोगों की आंख पर पट्टी बंध गई है। बेटी के दुलार में हम लोग अन्हरा गए हैं।' फिर वह भड़के, 'कहां है वह?'
'अभी आई नहीं है पढ़ा कर।'
'अंधेरा हो गया है और अभी तक आई नहीं है।'
थोड़ी देर बाद मुनमुन आई तो घर में कोहराम मच गया। मुनमुन किसी आरोप को मानने को तैयार नहीं थी और मुनक्का राय उस की किसी दलील को सुनने को तैयार नहीं थे। अंततः उन्हों ने किसी न्यायाधीश की तरह निर्णय सुना दिया, 'कोई बहस, कोई जिरह, कोई गवाही नहीं। सारा मामला यहीं समाप्त। अब तुम को कल से घर से बाहर नहीं जाना है। पढ़ाने भी नहीं।'
उस रात मुनक्का राय के घर चूल्हा नहीं जला। पानी पी कर ही सब सो गए। दूसरे दिन मुनक्का राय कचहरी भी नहीं गए। उन का ब्लड प्रेशर, शुगर और अस्थिमा तीनों ही बढ़ कर उन्हें तबाह किए हुए थे। और मुनमुन सारे गिले शिकवे भूल कर उनकी सेवा में लग गई थी। मुनक्का राय की एक समस्या यह भी थी कि इतनी सारी बीमारियों के बावजूद वह एलोपैथिक दवा भूल कर भी नहीं लेते थे। भले मर जाएं पर आयुर्वेदिक दवाओं पर ही उन्हें यक़ीन था। आयुर्वेदिक दवाओं के साथ दो तीन दिक्क़तें थीं। एक तो फौरी तौर पर आराम नहीं देती थीं। दूसरे, जल्दी मिलती नहीं थीं हर जगह। तीसरे, अपेक्षाकृत मंहगी थीं। फिर भी आयुर्वेदिक दवाओं की तासीर और मुनमुन की अनथक सेवा ने मुनक्का राय को हफ़्ते भर में फिट कर दिया। वह कचहरी जाने लायक़ हो गए। इधर वह कचहरी गए, उधर मुनमुन पढ़ाने गई। जाते समय अम्मा ने रोका भी कि, 'तुम्हारे बाबू जी ने मना किया है तो कुछ सोच कर ही मना किया होगा।'
'कुछ नहीं अम्मा वह गुस्से में थे सो मना कर दिया। ऐसी कोई बात नहीं है।' वह बोली, 'वह बात अब ख़त्म हो चुकी है।' और निकल गई। वह जानती थी कि शिक्षा मित्र की नौकरी छोड़ने का मतलब था रूटीन ख़र्चों की तंगी। भाई लोग अफ़सर, जज भले हो गए थे पर घर के ख़र्च की, अम्मा-बाबू जी के स्वास्थ्य की सुधि किसी को नहीं थी। सभी अपनों-अपनों में सिमट कर रह गए थे। वह तो गांव से बटाई पर दिए खेत से अनाज मिल जाता था। खाने के लिए रख कर बाकी अनाज बिक जाता था। कुछ उस से, कुछ बाबू जी की प्रैक्टिस और कुछ शिक्षा मित्र की उस की तनख़्वाह से घर ख़र्च जैसे तैसे चल जाता था। बाबू जी तो पैदल ही कचहरी जाते थे पर उस का गांव बांसगांव से पंद्रह किलोमीटर दूर था। सीधी सवारी नहीं थी। दो बार सवारी बदलनी होती थी। थोड़ा पैदल भी चलना पड़ता था। कभी कभार रिक्शा भी। तो कनवेंस का ख़र्च भी था। और इस सब से भी बड़ी बात थी कि वह ख़ाली नहीं थी अपनी तमाम समवयस्क लड़कियों की तरह। जो शादी के इंतज़ार में घर में पड़ी-पड़ी खटिया तोड़ रहीं थीं। ख़र्च चलाना भले थोड़ा मुश्किल था पर अपने ख़र्चों के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता था, इसी से वह ख़ुश थी। बस उस को थोड़ा यह अपराधबोध ज़रूर होता था कि इस दौड़-धूप और आपाधापी में वह विवेक के क़रीब पहुंच गई थी। पहले तो यों ही, फिर भावनात्मक और अब देह भी जीने लगी थी वह। यह सब कब अचानक हो गया वह समझ ही नहीं पाई। पर आज रास्ते में न आते, न जाते विवेक नहीं दिखा तो उसे खटका भी और अखरा भी।
शाम को घर आई तो उस ने नोट किया कि बाबू जी का कचहरी का काला कोट तो खूंटी पर टंगा है पर वह नहीं हैं। फिर भी उस ने अम्मा से कुछ पूछा नहीं। न ही अम्मा ने उस से कुछ कहा-सुना। थोड़ी देर बाद बाबू जी भी आ गए। वह बाबू जी के पास चाय ले कर गई। उन्हों ने चाय पी ली पर मुनमुन से कुछ कहा नहीं। ज़िंदगी रूटीन पर आ गई। पर सचमुच में नहीं।
राहुल ने उधर विवेक-मुनमुन कथा रमेश, धीरज और तरुण तीनों बड़े भाइयों को फ़ोन कर के परोस दी थी। तीनों ही बौखलाए। पर घर का फ़ोन कटा होने के कारण भड़ास निकाल नहीं पाए। पड़ोस में किसी ने राहुल की तरह फ़ोन किया नहीं। तय हुआ कि कोई बांसगांव जा कर मामले को रफ़ा-दफ़ा करे। रमेश और धीरज को लगा कि जजी और अफ़सरी के रुतबे में बांसगांव में जा कर किसी से तू-तू, मैं-मैं करना ठीक नहीं है। प्रोटोकाल भी टूटता है सो अलग। बदनामी होगी अलग से। अंततः तय हुआ कि तरुण जाए और समझा-बुझा कर मामला शांत करा दे। तरुण गया भी। पर वह किसी से उलझा नहीं। मुनमुन को ही जितना डांट-डपट सकता था डांटा-डपटा। बाबू जी की तरह उस ने भी आदेश दिया कि, 'घर से बाहर जाना बंद करो नहीं टांगें तोड़ दूंगा।' साथ ही यह भी कहा कि, 'शिक्षा मित्र की नौकरी ने तुम्हारा दिमाग ख़राब कर रखा है। यह भी बंद करो। कोई ज़रूरत नहीं है इस नौकरी की। यह हम सभी का फ़ैसला है।'
'पर बाबू हम लोगों का ख़र्चा वर्चा भी सोचते हो कभी तुम लोग?' अम्मा ने पूछा।
'तो आप ही लोगों ने इस को पुलका रखा है। सिर चढ़ा रखा है।' तरुण भड़का, 'इस की तनख़्वाह है कितनी? और क्या इस की तनख़्वाह से ही आज तक घर चला है?'
'पहले तो नहीं पर अभी तो थोड़ी बहुत मदद कर ही रही है।' अम्मा ने शांत स्वर में ही कहा।
तरुण चुप हो गया। शाम को उस ने बाबू जी से भी इस बाबत विचार-विमर्श किया। पर बाबू जी हूं-हां के अलावा कुछ बोले ही नहीं। तरुण बांसगांव से वापस लौट गया। लौट कर दोनों भाइयों को पूरी रिपोर्ट दी। दोनों भाइयों ने भी हूं-हां में ही बात कर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली। राहुल ने भी तरुण को फ़ोन कर के सारा हाल चाल लिया। तरुण ने राहुल को साफ़ बता दिया कि, 'मुनमुन जो भी कुछ कर रही है या बिगड़ रही है वह बाबू जी और अम्मा की शह पर ही। उन लोगों ने उसे सिर चढ़ा रखा है। और इस से भी ज़्यादा शिक्षा मित्र की नौकरी ने उस का दिमाग़ ख़राब कर रखा है। इतना ही नहीं अम्मा का तो मानना है कि मुनमुन ही घर ख़र्च चला रही है।'
'यह तो हद है!' राहुल ने कहा और फ़ोन रख दिया। उस ने इस पूरे मसले पर थाईलैंड में विनीता से राय मशविरा किया। और तय हुआ कि रीता को रिक्वेस्ट कर के बांसगांव भेजा जाए। वही जा कर मुनमुन को समझाए। राहुल ने रीता को फ़ोन कर के सारी समस्या बताई और कहा कि, 'तुम्हीं जा कर समझाती मुनमुन को तो शायद वह मान जाती।' रीता ने अपनी ढेर सारी पारिवारिक समस्याएं और प्राथमिकताएं बताईं और कहा कि, 'मेरा अभी तो जाना मुश्किल है।' ज़रा रुक कर उस ने राहुल से कहा कि, 'भाभी लोगों को क्यों नहीं भेजते?'
'रीता तुम भी!' राहुल बोला, 'भइया लोगों के पास समय नहीं है बहन के लिए और तुम भाभी लोगों की बात कर रही हो। अरे भाभी लोगों को यह सब जानने के बाद ख़ुद ही बात संभालनी चाहिए थी पर किसी ने सांस तक नहीं ली। मैं इतनी दूर हूं और इसी लिए तुम पर यह ज़िम्मेदारी डाल रहा हूं।'
'चलो अभी तुरंत नहीं पर जल्दी ही जाऊंगी बांसगांव।' रीता बोली।
'ठीक है।' राहुल आश्वस्त हो गया।
कुछ दिन बाद रीता गई बांसगांव। अम्मा, बाबू जी की दशा देख कर वह विचलित हो गई। मां तो सूख कर कांटा हो गई थी। लग रही थी जैसे हैंगर पर टांग दी गई हो। मुनमुन भी बीमार थी। डाक्टरों ने उसे टी.बी. बताया था। अब ऐसे में वह मुनमुन को कैसे तो और क्या समझाती? आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास वाली गति हो गई उस की। फिर भी मौक़ा देख कर उस ने अम्मा, बाबू जी मुनमुन तीनों की उपस्थिति में मुनमुन विवेक कथा का ज़िक्र किया। और मुनमुन को सलाह दी कि, 'परिवार की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ है। इस पर बट्टा मत लगाओ।'
'मैं तो समझी थी कि तुम हम लोगों का हालचाल लेने आई हो रीता दीदी।' मुनमुन बोली, 'पर अब पता लग रहा है कि तुम तो दूत बन कर आई हो।'
'नहीं, नहीं मुनमुन ऐसी बात नहीं है।'
'अरे दूत बनना ही है तो विभीषण की तरह राम की बनो, विदुर और कृष्ण की तरह पांडवों की बनो।' मुनमुन बोली, 'दूत बनना ही है तो उन भाइयों के पास जाओ जो जज और अफ़सर बने बैठे हैं। उन्हें घर की विपन्नता, दरिद्रता और मुश्किलों के बारे में बताओ। बताओ कि उन के बूढ़े मां-बाप और छोटी बहन बीमारी, भूख और असुविधाओं के बीच कैसे तिल-तिल कर रोज़-रोज़ जी और मर रहे हैं। बताओ कि उन की फूल सी छोटी बहन मां-बाप के साथ ही बूढ़ी हो रही है।'
रीता के पास मुनमुन के इन सवालों का कोई जवाब नहीं था। पर मुनमुन सुलग रही थी, 'पूरा बांसगांव क्या जवार जानता था कि यह घर जज और अफ़सरों का घर है। समृद्धि जैसे यहां सलमे-सितारे टांक रही है। पर यह ऊपरी और दिखावे की, घर के बाहर दरवाज़े और दुआर की बातें हैं। घर के भीतर आंगन और दालान की बातंे नहीं हैं। आंगन, दालान और कमरे में बूढ़े मां बाप सिसक रहे हैं। किसी से कुछ कहते नहीं। ब्लड प्रेशर, शुगर और अस्थमा है बाबू जी को। बिना दवाइयों के भी कभी-कभी कैसे दिन गुज़ारते हैं जानती हो? मां के कपड़े लत्ते देख रही हो?' वह बोलते-बोलते बाबू जी का कचहरी वाला काला कोट खूंटी पर से उतार कर ला कर दिखाती हुई बोली, 'यह फटा और गंदा कोट पहन कर जब बाबू जी इजलास में मुंसिफ़ मजिस्ट्रेट से किसी बात पर बड़े नाज़ से कहते हैं कि हुज़ूर हमारा बेटा भी न्यायाधीश है तो लोग हंसते हैं। पर क्या उस न्यायाधीश को भी चिंता है कि उस का बाप फटी कोट पहन कर कचहरी जा रहा है।' वह बोली, 'एस.डी.एम. मिलता है तो बाबू जी बड़े ताव से बताते हैं कि मेरा बेटा भी ए.डी.एम. है तो वह सुन कर चौंकता है और इनका हुलिया देख कर मुसकुरा कर चल देता है। बैंक में जाते हैं तो बताते हैं कि मेरा भी बेटा बैंक में मैनेजर है। सब काम तो कर देते हैं पर एक फीकी मुससकुराहट भी छोड़ देते हैं। लोगों से बताते फिरते हैं कि मेरा एक बेटा थाईलैंड में भी है। एन.आर.आई है। पर वही लोग जब देखते हैं कि उन्हीं की एक बेटी शिक्षा मित्र भी है तो लोग घर की हक़ीक़त का भी अंदाज़ा लगा लेते हैं।' वह बोली, ' रीता दीदी अब जब दूत बन ही गई हो तो जा कर भइया लोगों को यह सब भी बताओ। और जो मेरी बात पर यक़ीन न हो तो बांसगांव तुम्हारा भी जाना पहचाना है। दो चार गलियों, घरों में जाओ और देखो तो व्यंग्य भरी नज़रें तुम्हें भी देखती मुसकुराती न मिलें तो हमें बताना।'
रीता ने बढ़ कर मुनमुन को सीने से लगा लिया और फफक कर रो पड़ी। सब को समझा बुझा कर रीता दो दिन बाद बांसगांव से लौट गई। फिर जब राहुल का फ़ोन आया तो रीता ने घर की विपन्नता और समस्याओं का पिटारा खोल दिया। और साफ़ बता दिया कि, 'दोष भइया तुम्हीं लोगों का है। जिस मां बाप के चार-चार सफल, संपन्न और सुव्यवस्थित बेटे हों, जिन की अफ़सरी और जजी के क़िस्से पूरा जवार जानता हो वह ऐसी स्थिति में जो जी रहा है तो तुम लोगों को धिक्कार है।'
'अरे मैं पूछ रहा हूं कि मुनमुन को कुछ समझाया कि नहीं।' इन सारी बातों को अनसुनी करते हुए राहुल बोला।
'समझाया मुनमुन को भी।' रीता बोली, 'पता है तुम्हें मुनमुन को भी टी.बी. हो गई है। बाबू जी की दवाइयों का ख़र्च पहले से था, अब यह ख़र्च भी है।'
'पहले यह बताओ कि मुनमुन मानी कि नहीं?' राहुल अपनी ही बात दुहराता रहा।
'मैं अम्मा बाबू जी और मुनमुन की मुश्किलें बता रही हूं और तुम अपना ही रिकार्ड बजाए जा रहे हो।' रीता बोली, 'तुम चारो भाई मिल कर अम्मा बाबू जी के ख़र्च का जिम्मा लो। और हो सके तो मुनमुन की शादी तय कर दो। जब तक शादी नहीं तय होती तब तक मुनमुन को बांसगांव से कोई भइया अपने पास बुला लें और उस की टी.बी. का इलाज करवा दें। मेरी राय में सारी समस्या का इलाज यही है। मुनमुन को सुधारना भी ऐसे ही हो सकता है। बल्कि अच्छा तो यह होता कि अब अम्मा बाबू जी को भी कोई अपने पास ही रखता। वह लोग भी अब अकेले रहने लायक़ नहीं रह गए हैं।'
'तो भइया लोगों को यही बात समझाओ!' राहुल बोला, 'मैं तो इतनी दूर हूं कि क्या बताऊं?'
'देखो तुम ने पूछा तो तुम्हें बता दिया। भइया लोग पूछेंगे तो उन्हें भी बता दूंगी। अपने आप बताने नहीं जाऊंगी।' रीता ने साफ़-साफ़ बता दिया। फिर राहुल ने भइया लोगों से इस पूरे मामले पर डिसकस किया। पर हर कोई बस खयाली पुलाव पकाता मिला। और मुनमुन को या अम्मा बाबू जी को भी कोई अपने पास ले जाने को सहमत नहीं दिखा। सब की अपनी-अपनी दिक्क़तें थीं। राहुल हार गया।
उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? उस की बीवी उस से कहती, 'तुम पागल हो गए हो।' सुन कर वह खौल जाता। वह कहती, 'तुम्हारे भइया लोग वहीं हैं, वह कुछ नहीं कर रहे तो तुम क्यों जान दिए पड़े हो? ख़ामख़ा ख़ून जलाते हो और फ़ोन पर पैसा बरबाद करते हो।'
पर राहुल बीवी की बातों में नहीं आया। विनीता दीदी के पास गया। और कहा कि, 'आप ही भइया लोगों को समझाइए।'
'भइया लोग भाभी लोगों की राय से चलते हैं, वह लोग नहीं समझेंगे।' वह बोली, 'बदनामी ज़्यादा फैले उस से बेहतर है उस की शादी कर दो।'
'शादी के लिए तो भइया लोगों से बात कर सकती हैं आप?'
'हां, पहले तुम करो फिर मैं भी करती हूं।'
मुनमुन की शादी करने की बात पर सभी सहमत दिखे। पर दुविधा फिर खड़ी हुई कि तय कौन करे और फिर ख़र्च वर्च भी आड़े आए। अंततः तय हुआ कि चारो भाई चंदा कर लें। इस में भी रमेश ने हाथ बटोर लिए यह कह कर कि मेरा बेटा इंजीनियरिंग करने जा रहा है उस के एडमिशन वग़ैरह में ही वह परेशान है। धीरज ने कहा कि दो लाख रुपए वह दे देगा। तरुण ने भी कहा कि दो लाख रुपए वह भी दे देगा। बाक़ी ख़र्च की बात आई तो राहुल ने कहा, 'जो भी लगेगा मैं दे दूंगा पर आप लोग वहां हैं शादी तो पहले तय करिए।' लेकिन कोई खुल कर तैयार नहीं हुआ। राहुल ने हार कर बाबू जी से ही कहा कि, 'आप शादी तय करिए। बाक़ी ज़िम्मा हमारा।'