बांसगांव की मुनमुन / भाग - 6 / दयानंद पाण्डेय

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मुनक्का राय ने मुनमुन की शादी खोजनी शुरू की। जो ही उन्हें शादी की तलाश में इधर-उधर जाते देखता तो कहता कि 'आप के चार-चार बेटे वह भी इतने अच्छे ओहदों पर हैं और आप की यह उमर! काहें इतनी दौड़ धूप कर रहे हैं वकील साहब?' वह एक थकी सी हंसी परोसते हुए कहते, 'बेटों के पास टाइम कहां है? सब व्यस्त हैं अपने-अपने काम में।' इधर मुनक्का राय ने शादी खोजनी शुरू की उधर गिरधारी राय सक्रिय हो गए। उन को लगा कि यही मौक़ा है मुनक्का की शेख़ी की हवा निकालने का। मुनमुन विवेक कथा की सुगबुगाहट उन के तक भी पहुंच चुकी थी। मुनक्का राय इधर शादी देख कर लौटते, उधर गिरधारी राय चोखा चटनी लगा कर मुनमुन विवेक कथा परोसवा देते किसी न किसी माध्यम से। अव्वल तो लड़की के भाई जज, अफ़सर हैं सुनते ही लोग दहेज के लिए ढाका भर मुंह फैला देते। तिस पर मुनमुन विवेक कथा मिल जाती। बात बिगड़ जाती। मुनक्का राय परेशान हो गए। बल्कि तार-तार हो गए।

बुढ़ौती में पैदा यह बेटी उन्हें सुख भी दे रही थी और दुख भी। वह व्यथित थे बेटों के असहयोग से। बीमारी और आर्थिक लाचारी से। एक बार राहुल का फ़ोन आया तो उस ने शादी की रिपोर्ट पूछी। 'रिपोर्ट' शब्द से ही वह भड़क गए। बोले, 'यह कोई प्रशासनिक या अदालती कार्य तो है नहीं कि तुम को रिपोर्ट पेश करूं?' वह बोले, 'शादी ब्याह का मामला है। परचून का सामान तो ख़रीदना नहीं है कि दुकान पर गए और तौलवा कर लेते आए। बूढ़ा आदमी हूं, पैसा कौड़ी है नहीं। कोई संग साथ है नहीं। किसी को कहीं ले भी जाऊं तो किराया भाड़ा लगता है। अपना ही आना जाना दूभर है। बीमारी है, बूढ़ी हड्डियां हैं और तुम हो कि रिपोर्ट पूछ रहे हो?'

'बाबू जी अभी आप का मूड ठीक नहीं है बाद में बात करता हूं।' कह कर राहुल ने फ़ोन काट दिया। बाबू जी की कठिनाई भी उस ने समझी। हवाला के ज़रिए पचीस हज़ार रुपए दूसरे ही दिन उस ने बाबू जी के पास भेज दिया। साथ ही मामा, मौसा, फूफा जैसे कुछ रिश्तेदारों को फ़ोन कर के रिक्वेस्ट किया कि, 'मुनमुन की शादी खोजने में बाबू जी को सपोर्ट करें।' लोग मान भी गए।

लेकिन शादी का जो बाज़ार सजा था उस में मुनमुन फिट नहीं हो पा रही थी। इंजीनियर लड़के को इंजीनियर लड़की ही चाहिए थी। डाक्टर को डाक्टर चाहिए थी। कोई एम.सी.ए. लड़की मांग रहा था तो कोई एम.बी.ए.। इंगलिश मीडियम तो चाहिए ही चाहिए थी। और मुनमुन में यह सब कुछ भी नहीं था। दहेज भी विकराल था। जैसे कोई क्षितिज और पृथ्वी के बीच की दूरी नाप रहा हो, ऐसा था दहेज का पैरामीटर। मुनक्का राय कहते 'जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा तास दुगुन कपि रूप दिखावा/सोरह योजन मुख ते थयऊ तुरत पवनसुत बत्तीस भयऊ।' वह कहते, 'हे गोस्वामी जी आप ने सोरह योजन की सुरसा के आगे पवन सुत को तुरत बत्तीस का बना दिया पर अब मैं इस दहेज की सुरसा के आगे कहां से दुगुन रूप दिखाऊं? और कहां से लाऊं इंगलिश मीडियम, इंजीनियर, डाक्टर, एम.सी.ए., एम.बी.ए.?'

यहां तो शिक्षा मित्र थी। और शिक्षा मित्र सुनते ही लोग बिदक जाते। कहते, 'भाई अफ़सर, जज, बैंक मैनेजर, एन.आर.आई. और बहन शिक्षा मित्र!' कई लोग तो शिक्षा मित्र भी नहीं जानते थे। जब वह बताते तो कहते, 'तो कोई प्राइमरी स्कूल का मास्टर या क्लर्क फ्लर्क ही क्यों नहीं ढूंढते?' और जोड़ते, 'माथा फोड़ लेने भर से तो ललाट चौड़ा नहीं न हो जाएगा?' अब लोग मैच चाहते थे। जैसे साड़ी पर ब्लाऊज, जैसे सूट पर टाई, जैसे सोने पर सुहागा। मुनमुन के लिए सुहाग ढूंढना अब मुनक्का राय के लिए कठिन होता जा रहा था। उन्हें याद आ रहे थे अमीर ख़ुसरो और वह गुनगुना रहे थे बहुत कठिन है डगर पनघट की, कैसे मैं भर लाऊं मधुआ से मटकी, बहुत कठिन है डगर पनघट की!

कठिन डगर ही थी उन के ससुराल की भी। उन के बड़े साले का निधन हो गया है। वह पत्नी और मुनमुन को साथ लिए जा रहे हैं और भुनभुना रहे हैं कि, ' इन को भी इसी समय जाना था!' वह पहले दो बार डोली में ससुराल गए थे। शादी और गौने में। तब सवारी के नाम पर बैलगाड़ी, डोली, घोड़ा और साइकिल का ज़माना था। कहीं-कहीं जीप और बस भी दीखती थी। दो-आबे में बसी उन की ससुराल में जाना तब भी कठिन था और अब भी। कुआनो और सरयू के बीच उन की ससुराल का गांव दो पाटों के बीच फंसा दिखता। ऐसे कि कबीर याद आ जाते, 'चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।' यही हाल उन के बड़े साले का भी हुआ था। दो छोटे भाइयों के बीच वह पिस कर रह गए थे। मुनक्का राय के ससुर कलकत्ते में मारवाड़ियों की नौकरी में थे। मारवाड़ियों की तरह उन्हों ने भी ख़ूब पैसा कमाया। ख़ूब खेत ख़रीदे। घर बनवाया। बाग़ लगवाया, कुएं खुदवाए। घर की समृद्धि के लिए वह सारे जतन किए जो वह कर सकते थे। पर एक काम जो मूल काम था, बच्चों को पढ़ाना लिखाना, वह उन्हों ने ठीक से नहीं किया। बड़ा बेटा राम निहोर राय तो थोड़ा बहुत मिडिल तक पढ़ लिख गया और बाद में कलकत्ते जा कर पिता के काम में लग गया। हालां कि पिता जितना पैसा तो नहीं पीट पाया लेकिन घर संभाल लिया। बाक़ी दोनों भाई में से मझला राम किशोर राय प्राइमरी के बाद स्कूल नहीं गया तो सब से छोटा वाला राम अजोर राय दर्जा एक के बाद ही स्कूल नहीं गया।

मुनमुन राय के नाना को किसी ने तब के दिनों में समझा दिया था कि बच्चों को बहुत पढ़ाना लिखाना नहीं चाहिए। बहुत पढ़ लिख लेने से वह ख़ुद तो आगे बढ़ जाते हैं पर माता पिता की सेवा नहीं करते। माता पिता की बात नहीं सुनते। इस लिए भी वह बेटों की पढ़ाई के प्रति बहुत उत्सुक नहीं थे। अब अलग बात है कि जो बड़ा बेटा थोड़ा बहुत पढ़ लिख गया था, उसी ने न सिर्फ़ उन की विरासत संभाली बल्कि उन की सेवा टहल भी अंतिम समय में ही क्या ज़िंदगी भर की। बाक़ी दोनों बेटे तो जब तब लड़ते-झगड़ते उन के जी का जंजाल बन गए थे। बात-बात पर लाठी भाला निकाल लेते। इस के उलट बड़ा बेटा राम निहोर राय विवेकवान और धैर्यवान दोनों ही था। भाइयों को हरदम समझा-बुझा कर रखता। बस एक दिक्क़त थी राम निहोर राय की कि उस की कोई संतान नहीं थी। यह दुख बड़ा था पर कभी राम निहोर राय ने किसी पर यह दुख ज़ाहिर नहीं किया।

हां, मझले भाई राम किशोर राय ने ज़रूर उन की इस कमज़ोर नस का फ़ायदा उठाया। अपने बड़े बेटे को बचपन में ही उसे कलकत्ता ले जा कर उन्हें सौंप कर भावुक बना दिया और कहा कि, 'आज से यह मेरा नहीं, आप का बेटा हुआ। प्रकृति और भगवान से तो मैं कुछ कह-कर नहीं सकता पर अपने तईं तो कर ही सकता हूं।' और बेटा उन की गोद में डाल कर उन के क़दमों में लेट गया। राम निहोर भाव-विभोर हो गए। राम किशोर राय के बेटे को छाती से लगा कर रो पड़े। फफक-फफक कर रोते रहे। फिर तो वह राम किशोर राय के हाथों जैसे बिक से गए। सरयू-कुआनो में पानी बहता रहा और राम किशोर, राम निहोर का लगातार भावनात्मक दोहन करता रहा। उधर राम किशोर का बेटा बड़ा हो गया और अपने को सन आफ़ राम निहोर राय लिखने लगा। राम अजोर को जब यह बात एक रिश्तेदार के मार्फ़त पता चली तो चौंकना लाजमी था। क्यों कि राम किशोर राय के दो बेटे थे और राम अजोर राय के एक। राम निहोर राय के चूंकि संतान नहीं थी सो सारी जायदाद आधी-आधी इन्हीं दोनों में बंटनी थी। तो इस तरह राम अजोर राय का बेटा राम किशोर के बेटों से दोगुनी जायदाद का मालिक होता था। लेकिन राम किशोर राय की इस शकुनि चाल में राम अजोर के बेटे का भी हिस्सा उन्हीं दोनों के बराबर हो जाता। राम अजोर राय ने इस की बड़ी काट सोची पर कोई हल नहीं निकला।

चूंकि राम निहोर राय का यह भावनात्मक मामला था सो सीधे उन से बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी राम अजोर राय की। फिर भी वह देख रहे थे कि राम निहोर भइया सारा विवेक, सारा धैर्य ताक पर रख कर तराज़ू का एक पलड़ा पूरा का पूरा राम किशोर की ओर झुकाए पड़े थे। हालां कि वह सारा उपक्रम कुछ ऐसे करते गोया दोनों भाई उन के लिए बराबर थे। दोनों के परिवारों का वह पूरा-पूरा ख़याल रखते। कलकत्ते से जब आते तो कपड़े लत्ते दोनों परिवारों के लिए लाते। और जो कहते हैं संयुक्त परिवार उस की भावना को भी वह पूरा मान देते। तो भी उन का पक्षपात देखने वालों को दिख जाता। कुछ रिश्तेदार तो उन्हें इस के मद्देनज़र धर्मराज युधिष्ठिर तक कहने लग गए थे। बतर्ज़ अश्वत्थामा मरो नरो वा कुंजरो! पर उन के तराज़ू का पलड़ा राम किशोर की ओर गिरा रहा तो गिरा रहा। पिता मुनीश्वर राय ने कई बार संकेतों में राम निहोर को समझाया लेकिन वह सब कुछ समझ कर भी कुछ नहीं समझना चाहते थे।

पिता के निधन के बाद तीनों भाइयों में जायदाद का बंटवारा हो गया। लेकिन राम निहोर के हिस्से की खेती-बारी, घर-दुआर पर व्यावहारिक कब्जा राम किशोर का ही बना रहा। क्यों कि राम निहोर ख़ुद तो कलकत्ता में ही रहते थे। गरमियों की छुट्टी में ही कुछ दिनों के लिए आते थे। जब शादी ब्याह का समय होता था। वह जब आते तो राम किशोर राय उन के लिए पलक पांवड़े बिछाए मिलते। राम निहोर भी भावुक हो कर इतना मेहरबान हो जाते राम किशोर पर कि सोचते क्या पाएं, क्या दे दें। राम अजोर और उन का परिवार यह सब देख कर अकुलाहट से भर जाता। एक ही घर था, रसोई भले अलग हो गई थी पर आंगन एक था, दालान, ओसारा, दुआर एक था। तो किसी से कुछ छुपता नहीं था। बाद के दिनों में यह खपरैल का घर भी धसकने लगा। और देखिए राम किशोर का नया घर बनने लगा। ज़ाहिर है पैसा राम निहोर का ही ख़र्च हो रहा था। कुछ दिन में राम किशोर का पक्का घर बन कर तैयार हो गया। घर भोज यानी गृह प्रवेश के बाद राम किशोर का परिवार नए पक्के मकान में चला गया।

पर राम अजोर?

नाम भले राम अजोर था, उन के आंगन में अजोर यानी उजाला नहीं हुआ। उसी टुटहे धसकते घर में रह गए। बाद में एक-एक कमरा कर के दो कमरा बना कर आगे पीछे झोपड़ी डाल कर लाज बचाई और धसकते घर से जान छुड़ाई। फिर धीरे-धीरे कर के कई सालों में पूरा मकान बनवाया। अब तक राम निहोर राय भी रिटायर हो कर गांव आ चुके थे। पत्नी का निधन हो चुका था। अब वह नितांत अकेले थे और पूजा पाठ में रम गए थे। गांव के मंदिर में उन का समय पुजारी जी के साथ ज़्यादा गुज़रने लगा था। वह देख रहे थे कि राम किशोर तथा उन के परिवार की उन के प्रति भावुकता और समर्पण समाप्त हो चला था। उन की सारी जायदाद, सारी कमाई, ग्रेच्युटी, फंड सब का सब राम किशोर के हवाले हो चुका था। परिवार की उपेक्षा से वह पीड़ित हो कर मंदिर, पुजारी और पूजा-पाठ में समय बिता रहे थे कि तभी एक वज्रपात और हो गया उन के ऊपर।

उम्र के इस पड़ाव पर चर्म रोग ने उन की देह पर दस्तक दे दिया। वह राम किशोर के परिवार में अब वी.आई.पी. से अचानक अछूत हो गए। उन की थाली, लोटा, गिलास, कटोरी, बिस्तर, चारपाई सब अलग कर दिया गया। एक कमरे में वह अछूत की तरह रख दिए गए। अपने ही पैसे से बनवाए घर में वह बेगाने और शरणार्थी हो गए। सब को शरण देने वाले राम निहोर खुद अनाथ हो कर, शरणागत हो गए थे। राम किशोर की यह अभद्रता, अमानवीयता देख कर वह अवाक थे। वह चाहते थे अपने इस चर्म रोग की दवा करना पर अब पैसा उन के हाथ में नहीं था। कुछ लोगों ने उन्हें बताया कि अगर तुरंत इलाज शुरू कर दिया जाए तो यह रोग ठीक हो सकता है। और जो नहीं भी ठीक हो तो कम से कम देह में और फैलने से रुक सकता है। नहीं यह पूरी देह में फैल सकता है। लेकिन राम किशोर के कान पर जूं नहीं रेंगा। और अब तो राम किशोर का जो बड़ा लड़का राकेश अपने को सन आफ़ राम निहोर राय लिखता था, वह भी खुल कर राम निहोर राय की मुख़ालफत करने लगा। अभद्र टिप्पणियां करने लगा। निरवंसिया, निःसंतान, नपुंसक न जाने क्या-क्या बोलने लगा। न सिर्फ़ अप्रिय संबोधनों से उन्हें नवाज़ता राकेश बल्कि अपने छोटे भाई मुकेश के साथ मिल कर उन्हें जब-तब मारने पीटने भी लगा। राम निहोर जब कभी राम किशोर से रोते हुए गुहार लगाते कि, 'बताओ इस तरह लात मार खाने के लिए बूढ़ा हुआ हूं? सारी जायदाद, सारी कमाई इसी दिन के लिए सौंपी थी तुम्हें?'

'क्या करूं अब यह लड़के हमारी भी नहीं सुनते।' राम किशोर कहते, 'ज़्यादा तू तड़ाक करूंगा तो ससुरे हमें भी मारेंगे।'

हालां कि राम निहोर ही क्या सारा गांव जानता था कि राम किशोर के बेटे जो कुछ भी कर रहे हैं उन्हीं की शह पर कर रहे हैं। बाद के दिनों में तो राम निहोर भरपेट भोजन के लिए भी तरसने लगे। गांव में अगर कोई उन पर तरस खा कर कुछ खाने के लिए दे देता तो राम किशोर के बेटे उसे जा कर गरिया आते। अपमान और उपेक्षा से अंततः राम निहोर टूट गए। एक रात नींद से उठ कर राम किशोर के पास गए। जगाया और छोटे भाई के पैर पकड़ कर फूट-फूट कर रो पड़े। लेकिन राम किशोर नहीं पिघला। आखि़र राम निहोर ने कहा, 'हमें मार क्यों नहीं डालते? इस नरक भरे जीवन से तो अच्छा है कि हमें मार डालते।'

'आप अपने हिस्से का खेत-बारी हमारे बड़े बेटे के नाम लिख दीजिए!'

'अरे वह तो उस का हई है। मेरे मर जाने के बाद स्वतः उस का हो जाएगा।'

'कैसे हो जाएगा?'

'अपने सारे सर्टिफ़िकेटस में वह मुझे अपना पिता ही लिखता है। तो वह मेरा बेटा साबित हो जाएगा। अपने आप मेरा वारिस हो जाएगा।'

'इतना नादान समझते हैं?' राम किशोर बोला, 'ब्लाक के कुटुंब रजिस्टर में वह मेरा बेटा दर्ज है। सर्टिफ़िकेट में लिखा कोई काम नहीं आएगा।'

'ठीक है लिखवा लो पर मेरी सांसत बंद कर दो।'

'ठीक है।' राम किशोर बोला, 'जाइए सो जाइए।'

दूसरे दिन से राम निहोर की दशा में सचमुच सुधार आ गया। अछूत तो वह बने रहे पर भोजन-पानी, बोली बर्ताव में राम किशोर और उस के परिवार में फ़र्क़ आ गया। राम निहोर लेकिन मन ही मन व्यथित थे। यह सोच-सोच कर कि क्या वह इतने पापी हैं जो इस स्वार्थी भाई से चिपके पड़े हैं? जिस भाई के लिए सारी कमाई, सारा जीवन न्यौछावर कर दिया वही इतना नीच और स्वार्थी निकला? फिर उन्हों ने सोचा कि अगर वह खेती बारी लिख भी देते हैं तो क्या गारंटी है कि वह फिर उन के साथ दुर्व्यवहार नहीं करेगा? वह सोचते रहे पर कोई स्पष्ट फ़ैसला नहीं ले पा रहे थे।

पर हफ़्ते-दस दिन की आवभगत के बाद ही राम किशोर और उस के लड़कों का दबाव बढ़ गया कि जल्दी से जल्दी बैनामा लिख दें। वह आज कल पर टालते रहे। अंततः राम किशोर के बेटों ने उन्हें कमरे में बंद कर पीटना शुरू कर दिया। पीट कर दबाव बनाना शुरू किया। अंततः उन्हों ने घुटने टेक दिए। गए रजिस्ट्री आफ़िस। लिखत पढ़त की कार्रवाई शुरू हुई। ऐन समय पर वह बोले, 'बैनामा नहीं लिखूंगा। बैनामा की जगह वसीयत लिखूंगा।' वापसी में बीच रास्ते में उन की ख़ूब पिटाई हुई। राम किशोर के बड़े बेटे ने एक जगह उन का गला दबा कर मारने की कोशिश की। हाथ पैर जोड़ कर राम निहोर ने जान बचाई। बोले, 'छोड़ दो मुझे! बैनामा ही लिख दूंगा।'

हताश मन घर आए। बेमन से खाना खाया। सो गए। पर नींद कहां थी आंखों में? आधी रात को जब सारा गांव सो रहा था, वह उठे और घर-गांव छोड़ गए। सुबह उठने पर जब राम किशोर को पता चला कि राम निहोर भइया ग़ायब हैं तो उस का माथा ठनका। परेशान हुआ। पर परेशानी किसी पर ज़ाहिर नहीं की। तो भी गांव में गुपचुप ख़बर फैल गई राम निहोर घर छोड़ कर रातों-रात ग़ायब हो गए हैं। दो तीन दिन बीत जाने पर भी जब राम निहोर का पता नहीं चला तो राम किशोर ने बेटों को भेज कर सारी रिश्तेदारियों में छनवा मारा। पर राम निहोर नहीं मिले। पुलिस में उन की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज हो गई। वह तब भी नहीं मिले।

कोई पंद्रह दिन बाद राम निहोर मिले बनारस में। गंगा नदी में डूबते हुए जल पुलिस को। नाव से वह बीच नदी में कूद पड़े। हाय तौबा हुई, शोर मचा। जल पुलिस दौड़ी और गोताख़ोर जवानों ने उन्हें बचा लिया। पुलिस वाले घाट पर लाए। भीड़ बटुर गई। एक आदमी ने उन्हें पहचान लिया। कलकत्ता में वह राम निहोर के साथ नौकरी कर चुका था। और उस का गांव भी राम निहोर के गांव के पास ही था। राम निहोर के पास जब वह गया तो राम निहोर ने उसे पहचानते हुए भी पहचानने से इंकार कर दिया। लेकिन राम निहोर के उस जानने वाले ने न हार मानी न राम निहोर को छोड़ कर गया। अनुनय-विनय कर उस ने राम निहोर को विश्वास में लिया। राम निहोर पिघले और उस के गले लिपट कर रो पड़े। बोले, 'इस बुढ़ौती में आत्महत्या कोई ख़ुशी से तो कर नहीं रहा था। पर क्या करूं? इस अभागे को गंगा मइया ने भी अपनी गोदी में लेने से इंकार कर दिया।' उन्हों ने जैसे पूछा, 'निःसंतान होना क्या इतना बड़ा पाप है? पर इस में मेरा क्या दोष?'

राम निहोर के उस साथी ने उन्हें मन दिया और विश्वास भी। बहुत समझाया-बुझाया। पर राम निहोर अपने घर या गांव लौटने को किसी क़ीमत पर तैयार नहीं हुए। हार कर वह उन्हें अपने घर ले आया। कोई पंद्रह-बीस दिन उस साथी के घर रहने के बाद राम निहोर थोड़ा संयत हुए और अपनी एक बहन के घर जाने की इच्छा जताई। साथी ने बहन के घर राम निहोर को पहुंचा दिया। बहन भाई को देखते ही मूसलाधार रोई। राम निहोर भी रोए और फूट-फूट रोए। सारी व्यथा-कथा आदि से अंत तक बताई और कहा कि अब अपने घर और गांव वह नहीं जाएंगे। बहन ने मान लिया और कहा कि, 'ऐसे पापियों के पास जाने की ज़रूरत भी नहीं है। यहीं रहिए और जैसे हम रहते, खाते-पीते हैं, आप भी रहिए, खाइए-पीजिए।'

राम निहोर गदगद हो गए। पर कुछ दिन बाद बहन ने छोटे भाई राम अजोर के बेटे जगदीश को संदेश भेज कर अपने घर बुलवाया। वह आया तो राम निहोर को देखते ही, 'बड़का बाबू जी, बड़का बाबू जी' कहते हुए उन से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगा। राम निहोर भी फफक पड़े। जगदीश दो दिन रह कर बड़का बाबू जी की सारी कथा, अंतर्कथा, पीड़ा-व्यथा-अपमान-उपेक्षा और लांछन की सारी उपकथाएं सुन गया। और बोला, 'बड़का बाबू जी, आप यह अब सारा कुछ भूल जाइए। और हमारे साथ चलिए। हमारी तरफ़ रहिए। मैं आप की अपनी ताक़त भर सेवा करूंगा। मुझे आप से कुछ नहीं चाहिए। जो खाऊंगा, खिलाऊंगा पर इज़्ज़त आप की और मान आप का जाने नहीं दूंगा। और जो आप की इज़्ज़त और सम्मान की ओर कोई फूटी आंख भी देखेगा तो उस की आंखें फोड़ दूंगा।'

बड़ी मुश्किल से राम निहोर राय गांव आने को तैयार हुए। आए। और पूरे गांव में राम निहोर की वापसी की ख़ुशी फैल गई। साथ ही राम किशोर और उन के परिवार की थू-थू भी। जगदीश जिस विश्वास से राम निहोर को ले आया था उसी निष्ठा से उन की सेवा में भी लग गया। उस ने उन के चर्म रोग की भी परवाह नहीं की। न उन के लिए बर्तन अलग किया, न बिस्तर चारपाई। उन के लिए नया एक जोड़ी धोती कुर्ता, अंगोछा, बंडी और जांघियां भी ख़रीद दिया। राम निहोर यह प्यार और सम्मान पा कर पुलकित हो गए। पुलकित भी हुए और शर्मिंदा भी। कि जिस भाई को उन्हों ने अपनी कमाई और जायदाद का शतांश भी नहीं दिया उसी भाई का बेटा निःस्वार्थ उन की सेवा कर रहा था। जगदीश के पिता राम अजोर ने भी बड़े भाई को सहज मन से लिया। राम निहोर के जीवन में अब सुख ही सुख था। वह फिर से गांव के मंदिर और पुजारी जी के साथ पूजा-पाठ में रम गए। एक दिन भरी दुपहरिया में राम निहोर ने छोटे भाई राम अजोर और जगदीश को साथ बिठाया और कहा कि, 'अपनी सारी खेती बारी जगदीश के नाम लिखना चाहता हूं।'

'नहीं बड़का बाबू जी ऐसा मत करिए।' जगदीश बोला।

'क्यों?' राम निहोर बोले, 'क्यों नहीं करूं?'

'इस लिए कि यह उचित नहीं है।' जगदीश बोला, 'आप को लिखना ही है तो दोनों भाइयों को आधा-आधा लिखिए। यही न्यायोचित होगा।'

'नहीं यह तो अन्याय होगा।' राम निहोर बोले, 'राम किशोर और उन के बेटों ने जो मेरे साथ किया है वह मैं अगले सात क्या सौ जनम में नहीं भूल पाऊंगा। मैं तो उन्हें एक धूल नहीं देने वाला हूं चाहे जो हो जाए।'

'चलिए फिर कभी ठंडे दिमाग़ से इस फ़ैसले पर सोचिएगा। अभी आप परेशान हैं।' राम अजोर ने भी कहा।

'फै़सला हो चुका है। अब कुछ सोचना-समझना नहीं है।'

'पर लोग क्या कहेंगे बड़का बाबू जी!' जगदीश बोला, 'लोग तो यही कहेंगे कि हम ने आप को फुसला लिया।'

'मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं। कि तुम हमें फुसला लोगे। अरे फुसला तो उन सभों ने लिया था।' वह बोले, 'फिर यह फै़सला तो मेरा अपना है। तुम ने तो मुझ से कुछ कहा नहीं।'

'फिर भी लोक लाज है। लोग हम को बेईमान कहेंगे।'

'कैसे बेईमान कहेंगे?' राम निहोर बोले, 'जीवन भर की कमाई उन सबों को सौंप दिया। मकान बनवा दिया। अब खेती बारी तुम्हें दे रहा हूं। हिसाब बराबर।'

'पर आप का खेत भी तो अभी वही लोग जोत बो रहे हैं। उन्हीं का क़ब्ज़ा है।'

'खेत पहले बैनामा कर दूं फिर क़ब्ज़ा भी ले लूंगा।' वह बोले, 'अभी वह सब जोते-बोए हैं। काट लेने दो फिर अगली बार से तुम जोतना बोना।'

और सचमुच राम निहोर ने अपने हिस्से की सारी खेती बारी जगदीश के नाम लिख दिया। और फसल कट जाने के बाद खेत भी राम किशोर से ले लिया। लेकिन अभी तक राम किशोर या किसी अन्य को यह नहीं मालूम था कि राम निहोर ने सब कुछ जगदीश के नाम लिख दिया है। हां, यह अंदाज़ा ज़रूर लगा लिया कि अब राम निहोर भइया खेत बारी जगदीश के नाम लिख सकते हैं। इस को रोकने की तजवीज़ में ही वह एक वकील से मिले कि इस को कैसे रोका जाए। वकील ने बताया कि अगर पुश्तैनी जायदाद है यानी पैतृक है तो मुक़दमा कर के रोका जा सकता है। खसरा, खतौनी तथा ज़रूरी काग़ज़ात मंगवाए। तब पता चला कि राम निहोर ने तो बैनामा कर दिया है। राम किशोर धक से रह गए। वकील ने कहा कि फिर भी मुक़दमा हो सकता है अगर दाखि़ल ख़ारिज न हुआ हो। मालूम किया गया तो पता चला कि दाखि़ल ख़ारिज नहीं हुआ है। फिर तो ढेर सारी मनगढ़ंत बातें जोड़ कर दाखि़ल ख़ारिज रोकने के लिए मुक़दमा कर दिया राम किशोर ने। अब राम किशोर और राम अजोर जानी दुश्मन हो गए। दोनों के घरों के बीच छत बराबर बाउंड्री खड़ी हो गई। बात-बात पर लाठी भाला उन के बेटों के बीच निकलने लगा।