बांसगांव की मुनमुन / भाग - 8 / दयानंद पाण्डेय
मुनक्का राय बेटों की इस बात से गदगद हो गए। अंततः चार लाख रुपए नगद, मोटरसाइकिल और तमाम घरेलू सामान, घड़ी, चेन, टीवी, फ्रि़ज और फ़र्नीचर सहित चीज़ें तय हो गईं। शादी की तारीख़ और तिलक की तारीख़ बेटों की राय से दो तीन दिन के गैप में ही रखी गईं। ताकि समय ज़्यादा नष्ट न हो। और एक ही बार के आने में सब कुछ संपन्न हो जाए। अब दिक्क़त यह आई कि धीरज और तरुण ने जो दो-दो लाख रुपए देने को कहा था, घट कर एक-एक लाख रुपए पर आ गए। मुनक्का राय ने राहुल को बताया। राहुल थाईलैंड में ही अपने ससुर के पास गया। समस्या बताई। ससुर ने उसे आश्वस्त किया और कहा कि, 'ख़र्च-वर्च की चिंता मत करो। जो भी ख़र्च हो बताओ मंक सब दे दूंगा। बस यह ध्यान रखना कि शादी में कोई कमी न हो। पूरे धूम धाम से हो।' वह बोले, 'दो बेटियों की शादी कर चुका हूं। मान लेता हूं कि यह भी हमारी तीसरी बेटी है।'
'नहीं मैं एक-एक पाई बाद में वापस कर दूंगा।'
'मैं जानता हूं। पर इस की ज़रूरत नहीं है।' राहुल का ससुर दरअसल राहुल की इसी ख़ुद्दारी का क़ायल था। राहुल की सिंसियरिटी, उस की मेहनत और क़ाबिलियत पर उस के ससुर मोहित थे। वह सब से कहते भी थे कि, 'मैं बड़ा भाग्यशाली हूं जो ऐसा दामाद मिला।'
राहुल ने मुनमुन की शादी का सारा ख़र्च ओढ़ लिया। हवाला के जरिए पांच लाख रुपए बाबू जी को भेज दिया। और कहा कि, 'बाक़ी ख़र्च भी जो हो बताइएगा।'
कार्ड वार्ड भी छप गया। हलवाई वग़ैरह भी तय हो गए। मुनक्का राय कहते कि, 'पैसा हो तो कोई काम रुकता नहीं है।' तरुण तिलक के तीन दिन पहले सपरिवार आ गया। मुनमुन ने उस के पैर पकड़ लिए बोली, 'भइया एक बार लड़का देख आइए कि कैसा है? व्यवहार कैसा है? चाल-चलन कैसा है?'
'बाबू जी ने देखा है न?'
'कहां देखा है?' वह बोली, 'बाबू जी ने सिर्फ़ लड़के का घर और उस के पिता को देखा है। बाबू जी को उस के पिता ने जो बता दिया उन्हों ने वही मान लिया है। एक बार भी अपनी ओर से कुछ दरियाफ़्त नहीं किया।'
'लेकिन मुनमुन कार्ड छप कर बंट चुका है।' वह बोला, 'अब क्या किया जा सकता है?'
'क्यों बारात दरवाज़े से लौट जाती है जब कोई गड़बड़ होती है तो यहां तो सिर्फ़ कार्ड बंटा है।'
'अरे अब दिन भी कितने बचे हैं?'
'भइया आप लोग मेरी बलि मत चढ़ाइए।' वह फिर हाथ जोड़ कर बोली।
'मुनमुन अब कुछ नहीं हो सकता।' तरुण सख़्त हो कर बोला।
दूसरे दिन धीरज आया तो उस ने धीरज से भी पैर पकड़ कर चिरौरी की कि, 'भइया आप तो प्रशासन चलाते हैं। एक बार अपने होने वाले बहनोई को जा कर देख आइए। उस के बारे में कुछ पता करवा लीजिए!'
'क्या बेवक़ूफी की बात करती हो?' धीरज ने भी डपट दिया।
रमेश भइया से भी मुनमुन ने हाथ जोड़ा तो वह बोला, 'मैं जानता हूं उस परिवार को।'
'अपने होने वाले बहनोई को भी जानते हैं?'
'अब शादी हो रही है, उसे भी जान लेंगे।'
तिलक के दिन राहुल आया थाईलैंड से तो मुनमुन ने उस से भी कहा कि, 'भइया आप इतना पैसा ख़र्च कर रहे हैं मेरी शादी में, एक बार अपने होने वाले बहनोई के बारे में भी कुछ जांच पड़ताल कर लीजिए।'
'अब आज के दिन?'
'आदमी कपड़ा भी ख़रीदता है तो देख समझ कर और आप लोग मेरे होने वाले जीवन साथी को भी नहीं देखना समझना चाहते हैं?'
'आज तिलक चढ़ाने जा रहे हैं देख समझ लेंगे।' राहुल बोला, 'फिर बाबू जी ने तो देख समझ लिया ही है। वह कोई दुश्मन तो हैं नहीं तुम्हारे?'
'पर गिरधारी चाचा तो हैं न?'
'क्या?'
'उन की ससुराल के रिश्ते में हैं वह सब।'
'क्या?'
'हां।'
'तुम्हें कैसे पता?'
'बाबू जी की बातों से ही पता चला।'
'ओह तो बाबू जी यह सब जानते हैं न?' राहुल बोला, 'फिर घबराने की कोई बात नहीं।'
'बाबू जी ने तो अपने होने वाले दामाद को भी अभी तक नहीं देखा है कि लूला है कि लंगड़ा है। बस उस के बाप को देखा है और उस की फ़ोटो देखी है बस!'
‘चलो अगर तिलक में लूला-लंगड़ा, काना-अंधा या ऐसा वैसा दिखा तो शादी कैंसिल कर देंगे। बस!’ राहुल बोला, ‘तुम इतना शक क्यों कर रही हो बाबू जी के फ़ैसले पर?’ ‘इस लिए कि यह मेरी ज़िंदगी है, मेरे भविष्य का सवाल है। ज़माना बदल गया है। पर बाबू जी नहीं। वह अभी भी पुराने पैटर्न पर चल रहे हैं जब बाल विवाह का ज़माना था और लोग मां-बाप, घर दुआर देख कर शादी कर देते थे।’ ‘ओह इतनी सी बात?’ राहुल बोला, ‘बाबू जी पर इतना अविश्वास करना ठीक नहीं है। ख़ुशी-ख़ुशी शादी करो सब ठीक होगा।’ कह कर राहुल ने अपनी ओर से बात समाप्त करनी चाही। ‘आप लोग दीदी लोगों की शादी में तो इतने निश्ंिचत नहीं थे। एक-एक चीज़ खोद-खोद कर ठोंक पीट कर तय कर रहे थे।’
‘तब मुनमुन समय बहुत था।’ राहुल बोला, ‘तब की बात और थी। हम लोग तब कमज़ोर थे। आज नहीं हैं। आज कोई हम लोगों की तरफ़ सपने में भी आंख उठा कर नहीं देख सकता।’
‘इतना अहंकार ठीक नहीं है राहुल भइया!’ मुनमुन बोली, ‘रावण इसी में डूब गया था और बरबाद हो गया।’
‘क्या बेवक़ूफी की बात करती हो?’ राहुल बोला, ‘तुम्हारी शादी है शुभ-शुभ बोलो!’
‘शुभ-शुभ ही आगे भी रहे भइया इसी लिए तो कह रही हूं कि एक बार अपने होने वाले बहनोई को शादी के पहले ठीक से जांच पड़ताल लीजिए।’ मुनमुन बोली, ‘आखि़र मैं कोई दुश्मन तो हूं नहीं आप लोगों की जो इस तरह बिना जांचे-समझे हमें एक अनजाने खूंटे से बांध दे रहे हैं। आख़िर हमारी जिंदगी का सवाल है।’
‘बाबू जी पर तुम को भरोसा नहीं हैं?’ राहुल परेशान हो कर बोला।
‘पूरा भरोसा है। पर अब वह उतने शार्प नहीं रह गए। उमर हो गई है। दूसरे वह सिर्फ़ घर और लड़के के पिता को देखे हैं। लड़के को नहीं।’
‘क्यों बरिच्छा में तो देखे ही होंगे?’
‘कहां?’ मुनमुन अकुला कर बोली, ‘उस के छोटे भाई ने बरिच्छा लिया। वह तो इलाहाबाद से आया ही नहीं था, बरिच्छा में।’
‘क्यों?’
‘हां, बाबू जी सिर्फ़ फ़ोटो से ही काम चला रहे हैं।’
‘चलो अब आज तिलक तो कैंसिल हो नहीं सकती।’ राहुल बोला, ‘पर मैं कोशिश करूंगा कि उस को आज ठीक से देख-समझ लूं। कहीं कोई दिक्क़त हुई तो कैंसिल कर दूंगा यह शादी।’
‘सच राहुल भइया!’ वह राहुल के पैर पकड़ कर बैठ गई, ‘भूलिएगा नहीं।’
‘बिलकुल!’
धूमधाम से तिलक गई और चढ़ी। वापस आ कर सब लोगों ने तिलक में ख़ातिरदारी और इंतज़ाम की बड़ाई के पुल बांध दिए। फिर इस फ़िक्र में पड़ गए कि यहां इंतज़ाम में कोई कोर कसर न रह जाए! सारी बातें थीं पर नहीं कुछ था तो वह थी दुल्हे की बात। कोई दुल्हे के बारे में ज़िक्र भी नहीं कर रहा था, भूले से भी। सुबह से शाम हो गई। मुनमुन कान लगाए-लगाए थक गई। सभी इंतज़ाम में डूबे थे। अंततः मौक़ा देख कर मुनमुन ने फिर राहुल को पकड़ा। पूछा, ‘मेरा काम किया?’
‘कौन सा काम?’
‘दुल्हा देखा?’ वह खुसफुसाई।
‘हां, भई हां दुल्हा देखा!’ राहुल ज़रा ज़ोर से बोला।
‘धीरे से नहीं बोला जा रहा?’ मुनमुन फिर खुसफुसाई।
‘हां, भई देखा।’ राहुल भी मुनमुन की तरह खुसफुसाया।
घर में सब लोग यह सब देख कर खिलखिला कर हंस पड़े। मुनमुन लजा कर अपने कमरे में भाग गई। लेकिन थोड़ी देर बाद फिर से उस ने मौक़ा देख कर राहुल को पकड़ा और उस का हाथ पकड़ कर उसे छत पर ले गई। बोली, ‘मेरा मज़ाक उड़ाने का समय नहीं है यह। मेरी ज़िंदगी और मौत का सवाल है यह।’
‘अच्छा?’ राहुल ने आंख फैला कर मज़ा लेते हुए कहा।
‘तो तुम नहीं मानोगे? न बताओगे?’
‘देखो सच बात यह है कि तुम्हारा होने वाला दुल्हा एक आंख और एक पैर दोनों से लाचार है।’ राहुल मज़ा लेते हुए बोला, ‘इसी लिए मैं वहां सब के सामने कुछ बताने से हिचक रहा था। अब तुम पूछोगी कि फिर भी मेरी शादी क्यों उस से की जा रही है? तो मैं देखो बस इतनी सी बात कहूंगा कि यह बाबू जी का फ़ैसला है और हम भाइयों में से कोई भी बाबू जी का फ़ैसला चैलेंज करने की स्थिति में नहीं है। ठीक?’ राहुल ने बात ख़त्म करते हुए पूछा, ‘अब मैं जाऊं? बहुत से काम बाक़ी हैं।’
‘ओफ़्फ़ राहुल भइया यह मज़ाक का विषय नहीं है।’
‘तुम को अब मेरी बात पर भरोसा नहीं है तो मैं क्या कर सकता हूं?’ कह कर राहुल हंसता हुआ छत से सीढ़ियां उतरता भाग गया। और फिर जब तीसरी बार मुनमुन ने राहुल को पकड़ा तो राहुल ने सच बता दिया, ‘देखो मुनमुन तुम्हारा दुल्हा दिखने में औसत है। ठीक ठाक कह सकता हूं। अगर अमिताभ बच्चन नहीं है तो मुकरी या जगदीप या जानी लीवर जैसा भी नहीं है। क़द तुम से निकला हुआ ही है और रंग भी तुम्हारे जैसा ही है।’
‘और बात व्यवहार?’ मुदित होती हुई मुनमुन बोली।
‘अब तुम जो इतना पीछे पड़ी हो तो सच बताऊं मेरी बहन, ज़रा देर में किसी का बात व्यवहार कैसे कोई जान सकता है? और ऐसे मौक़े पर वैसे भी सभी लोग ज़रूरत से ज़्यादा फ़ार्मल हो जाते हैं। हैलो हाय और एक दूसरे के परिचय के अलावा कुछ ख़ास बात भी नहीं हुई।’
‘चलो राहुल भइया इतना बताने और पहले ख़ूब सताने के लिए शुक्रिया।’ वह हाथ जोड़ कर विनयवत बोली।
‘और हां, अगर ज़्यादा डिटेल जानना हो तो रमेश भइया से पूछ लो। उन्हों ने उस से ज़्यादा देर तक बात की। आखि़र उन के पुराने मुवक्किल का बेटा था। और फिर सच पूछो तो पूरे तिलक समारोह में उन्हीं का भौकाल भी था। वी.वी.आई.पी. वही थे। हर कोई जज साहब, जज साहब की ही धुन में था। धीरज भइया की कलफ़ लगी अफ़सरी भी उन की जज साहबियत के आगे नरम पड़ गई थी।’
‘रमेश भइया!’ मुनमुन ऐसे बोली गोया उस के मुंह में कोई कड़वी चीज़ आ गई हो, ‘मेरी औक़ात नहीं है उन से यह सब पूछने की।’
‘तो अब मेरी आधी-अधकचरी सूचनाओं से काम चलाओ।’
‘देखते हैं!’
पर दूसरे दिन कोहराम मच गया। पर गुपचुप। कुछ ऐसे कि ख़ामोश अदालत जारी है। घनश्याम राय का फ़ोन आया था। उन के मुताबिक़ किसी विवेक सिंह ने फ़ोन कर उन के बेटे राधेश्याम को धमकी दी थी कि, ‘बारात ले कर बांसगांव मत आना। नहीं पूरी बारात और तुम्हारे हाथ पांव तोड़ कर बांसगांव में गाड़ दूंगा। मुनमुन हमारी है और हमारी रहेगी।’ घनश्याम राय यह डिटेल देते हुए पूछ भी रहे थे कि, ‘यह विवेक सिंह कौन है?’
जानता तो हर कोई था कि विवेक सिंह कौन है पर सब ने अनभिज्ञता ज़ाहिर की। और कहा कि, ‘चिंता मत करें कोई सिरफिरा होगा और उस का पता करवा कर इंतज़ाम कर दिया जाएगा। आप ख़ुशी-ख़ुशी बारात ले कर आइए।’ यह आश्वासन धीरज ने अपनी ज़िम्मेदारी पर दिया। लेकिन घनश्याम राय ने कहा, ‘ऐसे नहीं आ पाएगी बारात।’
‘फिर?’
‘मैं पहले अपनी होने वाली बहू से सीधे बात करुंगा फिर कोई फ़ैसला लूंगा।’
‘सुनता था आप बड़े दबंग हैं, ब्लाक प्रमुख रहे हैं। पर आप तो कायरता की बात कर रहे हैं?’ धीरज ने कहा।
‘आप जो समझिए पर मैं लड़की से बात किए बिना कोई फ़ैसला नहीं ले सकता।’
‘रुकिए मैं अभी बात करवाता हूं।’
‘नहीं फ़ोन पर नहीं। मैं मिल कर आमने-सामने बात करूंगा। और आज ही।’
‘तो कब आना चाहेंगे?’
‘अभी दो-तीन घंटे में।’
‘आ जाइए!’ धीरज भी सख़्त हो गया।
फिर राहुल को बुलाया धीरज ने। राहुल के आते ही वह बऊरा गया। लग रहा था जैसे वह राहुल को ही मार डालेगा। राहुल ने कहा भी कि, ‘भइया मैं संभालता हूं।’
‘कोई ज़रूरत नहीं।’ धीरज ने सख़्ती से कहा, ‘तुम अभी मुनमुन को संभालो और समझाओ। अभी थोड़ी देर में घनश्याम राय आ रहे हैं वह ख़ुद मुनमुन से बात करेंगे। तब फ़ैसला करेंगे कि बारात आएगी कि नहीं।’ कह कर धीरज अम्मा के पास गया और कहा कि, ‘अम्मा समझाओ मुनमुन को कि अभी तो शादी कर ले। बाद में चाहे जो करे। इस तरह भरी सभा में हम लोगों की पगड़ी मत उछाले। सिर नीचा मत कराए।’ फिर धीरज ने पत्नी को भी समझाया कि, ‘वह भी मुनमुन को समझाए।’ और रमेश की पत्नी के पास भी गया कि, ‘भाभी आप भी समझाइए।’ इस के बाद उस ने एस.डी.एम. को फ़ोन कर के बुलवाया। एस.डी.एम. से अकेले में बात की और बताया कि, ‘विवेक सिंह नाम का लाखैरा शादी में अड़चन बन रहा है। उसे संजीदगी से बांसगांव की बजाय किसी और थाने की पुलिस से तुरंत गिरफ़्तार करवा कर, हाथ पैर तुड़वा कर हफ़्ते भर के लिए बुक करवा दो।’ उस ने जोड़ा, ‘हमारी इज़्ज़त का सवाल है।’
‘सर!’ कह कर एस.डी.एम. चला गया। और धीरज के कहे मुताबिक़ उस ने उसे दूसरे थाने की पुलिस द्वारा विवेक सिंह को आर्म्स एक्ट में अरेस्ट करवा कर अच्छे से पिटाई कुटाई करवा दी। और मामला क्या है इस की गंध भी नहीं लगने दी। आखि़र सीनियर के घर की इज़्ज़त का सवाल था।
इधर मुनमुन इस सब से बेख़बर थी। पर जब एक साथ अम्मा और भाभियां उसे समझाने लग गईं तो वह बेबस हो कर रो पड़ी। बाद में बहनों ने भी उसे समझाया। लेकिन मुनमुन ने जिस तरह पूरे मामले से अनभिज्ञता जताई और पूरी तरह निर्दोष दिखी तो धीरज को लगा कि दाल में कुछ काला है। और फ़ौरन उस को लगा कि हो न हो यह कहीं गिरधारी चाचा की लगाई आग न हो। उस ने फ़ौरन घनश्याम राय से कहा कि या तो वह कालर आई डी फ़ोन लगवा लें या फिर फ़ोन पर आने वाले काल्स को एक्सचेंज के थ्रू वाच करवा लें। ताकि शरारत करने वाले को दबोचा जा सके। घनश्याम राय ने बताया कि आलरेडी वह कालर आई डी फ़ोन लगाए हुए हैं और नंबर चेक कर लिया है। यह नंबर बांसगांव के ही एक पी.सी.ओ. का है। फिर उन्हों ने वह नंबर भी दे दिया। उस नंबर वाले पी.सी.ओ. पर भी धीरज ने जांच पड़ताल करवाई। कोई ठोस जानकारी नहीं मिल सकी कि किस ने फ़ोन किया था। धीरज का मन हुआ कि एक बार गिरधारी चाचा की भी शेख़ी वह निकलवा दे। करवा दे उन की भी इस बुढ़ौती में कुटाई। पर कहीं लेने के देने न पड़ जाएं और अपनी ही छिछालेदर हो जाए। सो वह ज़ब्त कर गया।
ख़ैर, घनश्याम राय बांसगांव आए। गुपचुप उन्हें मुनमुन से मिलवा भी दिया गया। दी गई ट्रेनिंग के मुताबिक़ वह पल्लू किए हुए उन से मिली। मिलते ही चरण स्पर्श किए। और हर सवाल का पूरी शिष्टता से सकारात्मक जवाब दिया और यह भी बताया पूरी ताक़त और विनम्रता से कि, ‘मैं किसी विवेक सिंह को नहीं जानती।’ घनश्याम राय पूरी तरह संतुष्ट हो कर बांसगांव से गए। हुई असुविधा के लिए क्षमा मांगी और कहा कि, ‘निश्चिंत रहिए किसी शरारती तत्व के बहकावे में अब हम नहीं आने वाले। बारात निश्चित समय से आएगी।’
धीरज ने झुक कर उन के चरण स्पर्श कर उन का शुक्रिया अदा किया। इतना सब घट गया पर मुनक्का राय को इस सब की ख़बर नहीं दी गई। जान-बूझ कर। कि कहीं यह सब जान सुन कर उन का स्वास्थ्य न बिगड़ जाए। अम्मा को भी धीरज ने समझा दिया कि, ‘बाबू जी को यह सब मत बताना नहीं कहीं उन की तबीयत बिगड़ गई तो मुश्किल हो जाएगी।’