बाबर की ममता / प्रथम दृश्य / देवेंद्रनाथ शर्मा
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |
पात्र परिचय
बाबर: मुगल साम्राज्यय का संस्थाापक, हुमायूँ का पिता
माहम: बाबर की पत्नीय, हुमायूँ की माता
हुमायूँ: बाबर का पुत्र
मुर्तजा: हकीम
अबू बका: एक वयोवृद्ध धर्मात्मास
सेनापति, दास-दासी आदि।
प्रथम दृश्य
[स्थान - आगरा का चारबाग। चारों ओर तरह-तरह के फूलों के पौधे और बेलें लगी हुई हैं। बाग के बीच में बाबर का अत्ययन्तआ सुन्द र विशाल राजभवन। इसी राजभवन के एक कमरे में बाबर का पुत्र हुमायूँ बीमार पड़ा है। बीमारी धीरे-धीरे बिगड़ती जाती है और उसके साथ हुमायूँ के जीवन की आशा भी क्षीण पड़ती जाती है। बाबर इस समय आगरे से बाहर धौलपुर में है। हुमायूँ की बीमारी की खबर मिलते ही वह आगरे लौट पड़ता है।
दोपहर का समय है। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है और वातावरण से उदासी टपक रही है। बाग के भीतर घुसते ही वहाँ के सन्नानटे से बाबर स्तऔब्धस हो जाता है। उसके आते ही राजभवन में कुछ हलचल होती है। वह सीधे उस कमरे में पहुँचता है जहाँ हुमायूँ पड़ा हुआ है। माहम बेगम - हुमायूँ की माँ - उसके पलंग के पास बैठी है और चिन्ताह से उसका चेहरा उतरा हुआ है। बाबर को आया देखकर वह चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो जाती है। बाबर एक बार उसकी ओर देखता है और फिर हुमायूँ के बिस्तपर के नजदीक जाकर खड़ा हो शान्त। भाव से उसे एकटक देखता रहता है।]
बाबर: [हुमायूँ के सिर पर धीरे से हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में] बेटे! बेटे! [हुमायूँ आँखें बन्दह किए निश्चेचष्ट पड़ा है, कोई उत्तर नहीं देता। बाबर उसकी ओर जरा ध्याआन से देखकर माहम को बगल के कमरे में चलने को इशारा करता है। माहम उसके पीछे-पीछे जाती है।] [माहम से] ऐसी हालत कब से है?
माहम: [निराशा भरे स्वहर में] सात दिनों से।
बाबर: हकीम साहब क्या कहते हैं?
माहम: कुछ साफ कहते नहीं, लेकिन ऐसा लगता है, जैसे भीतर-भीतर वह भी घबराये ही हुए हैं।
बाबर: अभी वह हैं कहाँ?
माहम: थोड़ी ही देर हुई, दवा देकर खाना खाने गए हैं। सुबह से यहीं बैठे थे। मेरे जानते उनकी अक्लह कुछ काम नहीं कर रही है।
बाबर: [गंभीर स्वहर में] अच्छाे। हम आते हैं।
[बाबर बाहर जाने लगता है। माहम घुटने टेककर उसके पैर पकड़ लेती है। उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं।]
माहम: [दीन स्वर में] जहाँपनाह! मेरे सरताज! आपके कई लड़के हैं, लेकिन मेरा... मेरा यह एक हुमायूँ ही है। चार औलादों में एक यही बच रहा है। मैं अपनी इन्हींन बदनसीब आँखों से, एक के बाद दूसरे को, मौत के मुँह में जाते देखती रही हूँ और सीने पर पत्थ।र रखकर सब बर्दाश्ता करती गयी हूँ, लेकिन आज... अब नहीं...यह आखिरी औलाद... यह कलेजे का टुकड़ा... ! नहीं...नहीं, माँ का दिल इससे ज्या दा तंग...नहीं हो सकता... ! मैं अपनी इन बदनसीब आँखों को फोड़ लूँगी, लेकिन हुमायूँ की मौत नहीं देख सकती... नहीं देख सकती! [सिसकने लगती है।]
बाबर: [प्रेम से उठाकर सिर पर हाथ फेरते हुए] माहम! मलका! घबराओ मत!
माहम: [रोते हुए] सरताज! मैं न घबराऊँ तो और कौन घबराये? काश! आपको एक औरत—एक माँ—का दिल मिला होता! मुझे यह धन-दौलत कुछ नहीं चाहिए लेकिन मेरा बेटा... या खुदा! मेरा यह बेटा मुझसे न छीन! एक माँ का दिल तोड़कर—उसकी दुनिया उजाड़कर—तुझे क्याे मिल जाएगा? मेरे सरताज! मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। जैसे-भी हो, मेरे बेटे को बचाइए। आपको बादशाहत प्या री है, लेकिन मुझे...मुझे मेरा बेटा प्याीरा है। मेरे सरताज!
बाबर: [कोमल, गंभीर स्वहर में] माहम! तुम्हाारा कहना सही है। बादशाहत प्याैरी जरूर है, अगर वह प्याजरी नहीं रहती तो हम मादरे-वतन फरगना को छोड़कर पहाड़ों, नदियों, जंगलों और रेगिस्तानों की खाक नहीं छानते फिरते; महीने की आधी से ज्याफदा रातें, खुले आसमान के नीचे, घोड़े की पीठ पर, जागते हुए नहीं गुजारते। लेकिन नहीं, औलाद उस बादशाहत से भी कहीं ज्याीदा प्यानरी चीज है। बादशाह भी इन्सागन होता है। हमें औलादों की कमी नहीं है लेकिन हुमायूँ... ! [लंबी साँस लेता है] हुमायूँ हमारी आँखों की रोशनी, दिल की उम्मीनद और जिन्दमगी का सहारा है। मलका! मायूस न हो! हुमायूँ के लिए हम एक बार मौत से भी लड़ेंगे। हकीम को बुलवाओ। हम एक बार खुद उनसे बातें करना चाहते हैं।
[दोनों हुमायूँ के कमरे में आते हैं। वह उसी भाँति निश्चे।ष्ट पड़ा है। बाबर उसकी बगल में बैठ जाता है। माहम बाँदी को हकीम को बुलवाने के लिए इशारा करती है। जब तक वह बाहर निकलती है तब तक दरबान हकीम के आने की इत्तला करता है।]
दरबान: [दरबारी ढंग से सलाम कर] जहाँपनाह की खिदमत में हकीम साहब हाजिर हैं।
बाबर: आने दो। [दरबान बाहर जाता है।]
[क्षण भर बाद हकीम का प्रवेश। हकीम आकर दरबारी ढंग से झुककर सलाम करता है। बाबर धीरे से सिर हिला देता है।]
बाबर: आइए, तशरीफ रखिए। [हकीम एक तिपाई पर बैठ जाता है।]
हकीम: [कुछ आश्चेर्य से] आलमपनाह! अभी कदमरंजा फरमा रहे हैं?
बाबर: हाँ, हम आ ही रहे हैं। आप आ गए, अच्छाज हुआ। हम अभी आपको बुलवा रहे थे?
हकीम: ताबेदार चंद ही लमहे पहले यहाँ से गया है और खुद ही दौड़ा चला आ रहा है। इसी बीच आलमपनाह को इसे याद करने की तकलीफ गवारा करनी पड़ी, इसके लिए बंदा माफी चाहता है।
बाबर: हकीम साहब!
हकीम: आलमपनाह!
बाबर: शाहजादे की बीमारी के मुतल्लिक आपका क्या खयाल है?
हकीम: [गंभीर आवाज में] आलमपनाह! बुखार बहुत तेज है। उसकी वजह से हमेशा बेहोशी रह रही है। साथ ही और भी शिकायतें हैं। अपनी लियाकत के मुताबिक जो कुछ भी मुमकिन है, खादिम कर रहा है; लेकिन अभी तक... [रुक जाता है।]
बाबर: हालत में पहले से कोई फर्क नहीं है?
हकीम: जी नहीं, मैं तो शाहजादे की बीमारी को अपना इन्तिहाँ समझ रहा हूँ। यह पहला मौका है कि ताबेदार की दवा अब तक कारगर नहीं हुई। जो एक-से-एक मुश्किल बीमारियों को चुटकियाँ बजाते चंगा करता रहा है, उसको अपनी इस नाकामयाबी पर जितनी शर्म है उसकी इन्तिहा नहीं। मेरा तो दिल रंज से बैठा जा रहा है।
बाबर: बीमारी के आसार कैसे हैं?
हकीम: [जरा रुककर] आलमपनाह! ताबेदार क्या बताए? जब दवा काम नहीं कर रही है तब तो खुदा की...।
बाबर: [बात काटकर] गोया कि आप भी मायूस ही हैं। ठीक है, इससे ज्यातदा आप कर भी क्या सकते हैं? दवा बीमारी की होती है, मौत की नहीं।
हकीम: आलमपनाह! अभी वैसी मायूसी की बात नहीं है। खुदा की मेहरबानी हुई तो शाहजादा जल्दय ही चंगे हो जाएँगे।
बाबर: हकीम साहब! जब तक कोई बात एकदम इधर या उधर नहीं हो जाती, तब तक इन्साान उम्मीाद छोड़ता ही कहाँ है, लेकिन रंग-ढंग भी तो कोई चीज़ है।
हकीम: आलमपनाह!
माहम: [घबराहट भरी आवाज में] हकीम साहब! मेरे बच्चेत को किसी तरह अच्छा कर दीजिए। मैं आपको मुँहमाँगा इनाम दूँगी और जिन्दजगी भर एहसान मानूँगी।
हकीम: मलका का दिया हुआ ही तो ताबेदार खाता है। शाहजादा की सेहत और मलका की खुशी से बढ़कर भी कोई इनाम हो सकता है? मलका इतमीनान रखें। मेरा दिल कहता है कि शाहजादा जरूर चंगे होंगे। माँ का दिल बच्चे की मामूली बीमारी से भी घबरा जाता है, यह तो खैर...। मैं मलका को फिर यकीन दिलाता हूँ कि शाहजादा जरूर अच्छे होंगे। आप घबराएँ नहीं।
माहम: हकीम साहब! मैं चाहती तो हूँ कि न घबराऊँ, पर दिल जो नहीं मानता। [हुमायूँ के चेहरे की ओर बताकर] हमेशा गुलाब-सा खिला रहने वाला यह चेहरा कैसा मुरझा गया है, कितना सूख गया है? बुखार से बदन तवा हो रहा है, होठ काले पड़ गये हैं, आँखें हमेशा बन्द,, दवा कोई काम नहीं करती। ऐसी हालत, यह बेहोशी देखकर भी कैसे न घबराऊँ? मेरा तो कलेजा टूक-टूक हो रहा है, रोआँ-रोआँ रो रहा है।
हकीम: [अफसोस की आवाज में] क्याघ मैं इतना भी नहीं समझता? मलका का दिल माँ का दिल है और माँ की मुहब्ब[त तो दुनिया में बे-मिसाल है, एकदम-बे-मिसाल। शाहजादे की ऐसी हालत से मलका का कलेजा कैसे टूक-टूक न होगा, लेकिन करना क्याम है? हमारी सारी कोशिशें एक ओर, मालिक की मर्जी एक ओर।
बाबर: [उठकर धीरे-धीरे टहलने लगता है] हकीम साहब!
हकीम: [उठकर] आलमपनाह!
बाबर: मलका की दिली हालत का ठीक अन्दा जा न तो आप लगा सकते हैं और न हम, क्यों कि हम मर्द हैं। मलका की बात तो छोड़िए, हमारी ही जिन आँखों ने बचपन से आज तक हजारों-लाखों आदमियों को तड़प-तड़प कर दम तोड़ते देखा है और कभी नहीं पसीजी हैं, वे ही आज एक, सिर्फ एक इन्साोन की मौत के अंदेशे से भर आती हैं। यह है औलाद की मुहब्ब त!
हकीम: आलमपनाह की खिदमत में ही ताबेदार की दाढ़ी सुफेद हो गई। मुर्त्तजा आलमपनाह के दिल के दोनों पहलुओं से अच्छीक तरह वाकिफ है जो सख्ती और मुलामियत दोनों में नायाब है। एक ओर जिस हाथ में तलवार आने पर लड़ाई के मैदान में दुश्मखनों पर बिजलियाँ गिरती हैं, वही हाथ जब कलम पकड़ता है तो उससे शायरी की वे फुलझड़ियाँ झड़ती हैं जिनसे दिल का कोना-कोना जगमगा जाता है। मुझे यकीन है कि आलमपनाह की तलवार और कलम दोनों की बे-मिसाल खूबी जब तक यह दुनिया कायम है, तब तक कायम रहेगी!
बाबर: [टहलते हुए गंभीर स्वरर में] हकीम साहब! हमने होश सँभाला नहीं कि लड़ाई के जूए में हार और जीत के पासे फेंकना शुरू किया। हमारी जिन्दगी की पूरी कहानी हार और जीत इन्हीं दो लफ्जों में कही जा सकती है, लेकिन न तो हमें कभी हार से मायूसी हुई और न जीत से गरूर! हमने समरकंद जीता, काबुल जीता, कंधार जीता और आखिर में हिन्दुतस्तारन को जीतकर एक बड़ी-सी सल्तंनत भी कायम की। लेकिन सच कहते हैं, दौलत के लालच से नहीं, बल्कि नाम के लिए, अपने बाजुओं की ताकत का जोर आजमाने के लिए। हम इसलिए लड़ते हैं कि लड़ने में जिन्दीगी का लुत्फ आता है। सर को हथेली लेकर मौत से खेलने में क्याल मजा है, इसे हम जानते हैं।
हकीम: आलमपनाह जो फर्मा रहे हैं उसे ताबेदार जमाने से जानता है और समरकंद से लेकर पानीपत तक के मैदान उसके जीते-जागते सबूत हैं।
बाबर: हम वही कह रहे थे। पानीपत की लड़ाई के बाद लाखों क्या करोड़ों की दौलत हाथ में आई। लेकिन हमने छदाम भी अपने पास नहीं रखा। हमने अशर्फियों को ठीकरी की तरह लुटाया। रिश्तेकमदों की बात छोड़िए, जिनसे मामूली जान-पहचान भी थी, उन्हेंद भी हमने सौगात भेजी। फरगना, खुरासान, फारस तक के दोस्तोंि को भी हम न भूले। हेरात, मक्काल और मदीना के भी फकीरों के सामने हमने अपनी भेंट हाजिर की और काबुल के हर आदमी, मर्द-औरत, बूढ़ा-जवान, अमीर-गरीब को भी इस फतह का तोहफा मिला। हमारा वह ढंग देखकर लोगों ने हमें कलंदर कहना शुरू किया! कितना मीठा था वह नाम!
हकीम: आलमपनाह की दरियादिली का वह नजारा आज भी ताबेदार की आँखों के सामने नाच रहा है। किस बादशाह ने सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात को इस बेतकल्लुनफी की नजर से देखा होगा? आज भी, क्यात दोस्ता, क्याच दुश्महन, हर शख्स्, आलमपनाह की उस बुलंदी को याद कर दंग रह जाता है।
बाबर: हकीम साहब! आज हम फिर एक बार कलंदर होने को तैयार हैं और आज नाम के लिए नहीं, बल्कि अपने बेटे की जिन्दबगी के लिए। अपने इस लख्तेर-जिगर की जान बचाने के लिए हम अपनी तमाम सल्तेनत लुटाने को तैयार हैं। हम फिर वही खानाबदोश की जिन्दयगी बिताएँगे या अपनी तलवार का जोर आजमाएँगे। लेकिन जैसे भी हो, हुमायूँ को अच्छाद करना होगा।
हकीम: आलमपनाह की ख्वासहिश पूरी होगी।
बाबर: पूरी होगी... ! [रुककर कुछ सोचता हुआ] हजारों आदमियों की जान लेने की ताकत हम में थी लेकिन आज एक आदमी की जान बचाने की ताकत हम में नहीं है। कैसी लाचारी है? [थोड़े आवेश में] किसी इन्साकन को वह चीज लेने का क्याे हक है जिसे वह दे नहीं सकता। बादशाहत! बादशाहत! यही बादशाहत है जिसके लिए बचपन से लेकर आज तक हम एक दिन भी चैन की नींद नहीं सो सके। और उसका नतीजा! [लम्बील साँस लेकर] सारी दौलत, सारी सल्तवनत सामने पड़ी है और बादशाह का बेटा दम तोड़ रहा है। कोई तरीका, कोई हिकमत कारगर नहीं हो पाती। यही एक जगह है, जहाँ बादशाह और फकीर में कोई अन्तीर नहीं रह जाता। हमसे वह कंगाल सौ गुना अच्छा जो चैन की नींद तो सोता है, बेफिक्री से जिन्दहगी बिताता है।
हकीम: आलमपनाह! इन्सािन कितना भी बड़ा क्योंु न हो वह अल्ला ह से छोटा ही रहेगा, उस मालिक के सामने इस नाचीज की हस्तीत ही क्यान है? लेकिन इसीलिए बादशाहत को हिकारत की नजर से नहीं देखा जा सकता! शाहंशाहे- हिन्दु स्ताडन ने जो किया है वह दुनिया के तारीख में लासानी है। इतने कम दिनों में राजपूतों से लोहा लेकर इतनी बड़ी सल्तननत कायम करना कुछ ऐसा-वैसा काम नहीं था। यह आलमपनाह के ही लायक था।
[बाबर हुमायूँ के पलंग के पास रुकता है। हुमायूँ की आँखें पहले ही जैसी बंद हैं। बाबर धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरता है और बड़ी करुण दृष्टि से उसे देखता है। फिर कमरे में टहलने लगता है।]
बाबर: हकीम साहब! वे बीती बातें हैं। आज हुमायूँ की जिन्द गी का सवाल है।
हकीम: आलमपनाह! दवा देने का वक्तं हो गया है। इजाजत हो तो...।
बाबर: [शान्त़ स्ववर में] दीजिए, जरूर दीजिए। लेकिन इस बेहोशी की हालत में दवा हलक के नीचे उतरेगी कैसे?
हकीम: जीभ पर रख देने से वह आप ही धीरे-धीरे हलक के नीचे उतर जाएगी।
[हकीम शीशी से दवा निकालता है, एक-दो चीजों के साथ खरल में मिलाता है। फिर हुमायूँ का मुँह खोलकर उसकी जीभ पर दवा रख देता है। हाथ हटाने पर हुमायूँ का मुँह बंद हो जाता है।]
दरबान: [झुक कर अदब से] जनाब अबू बका साहब तशरीफ लाए हैं।
बाबर: मौलाना अबू बका? अच्छाअ मलका, तुम थोड़ी देर के लिए बगल के कमरे में जाकर आराम करो, जब तक हम मौलाना से मिल लें [माहम धीरे से चली जाती है।] [दरबान से] उन्हेंग अन्द र आने दो।
[दरबान बाहर जाता है और उसके साथ अबू बका का प्रवेश। अबू बका की आकृति सौम्यन, रंग गोरा, दाढ़ी सफेद और गति में गंभीरता है। वह आकर दरबारी ढंग से सलाम करता है। बाबर हाथ उठाकर सलाम का जवाब देता है।]
बाबर: [एक पीठिका की ओर बैठने का इशारा करते हुए] आइए, तशरीफ रखिए। इस वक्त कैसे तकलीफ की?
अबू बका: [बैठता हुआ] शाहजादे की हालत जानने के लिए हाजिर हुआ।
बाबर: [सूखी हँसी हँसकर टूटी आवाज में] शाहजादे की हालत? हमारी हिकमत और ताकत का इम्तिहान हो चुका। अब खुदा मालिक है।
अबू बका: [गंभीर स्वैर में] अपनी लंबी जिन्दजगी में आज पहली बार मैं शाहंशाहे-हिन्दु स्ताेन के चेहरे पर मायूसी देख रहा हूँ और आवाज में भारीपन। एक-से-एक मुश्किल मुसीबतों में जिसके चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी, जो आफतों में हमेशा मुस्कु राता रहा उसकी ऐसी हालत देखकर ताज्जु ब हो रहा है।
बाबर: आप जैसे आलिम का ताज्जुेब करना वाजिब है। हमें अपने ऊपर खुद ताज्जुखब है फिर भी हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं कि आज हम जिन्देगी की वह कमजोरी महसूस कर रहे हैं जो बिल्कुेल नई है। शायद यह उम्र का तकाजा है। सुनते थे कि गिरती उम्र में औलाद की मुहब्बित कई गुनी बढ़ जाती है। आज हम उसकी सचाई के कायल हैं।
अबू बका: जहाँपनाह! औलाद की मुहब्ब त इन्सामन के दिल की कमजोरी नहीं, बल्कि उसका असली और सच्चा पहलू है। दुनिया इसी ममता पर टिकी है! फिर भी, घबराने से क्याग होगा? और क्याी सचमुच ही शाहजादे की जिन्दैगी से मायूस होने का मौका आ गया है? मुर्तजा! तुम क्याय सोचते हो?
हकीम: बड़े भाई! मैं क्या सोचूँ? मेरा सोचना और न सोचना तो दवा पर मुनहसर है और दवा कारगर नहीं हो रही है।
अबू बका: तो तुम क्याि समझते हो कि दुनिया की तमाम बीमारियों की दवा तुम्हाोरे इन अर्कों, सफूफों और रूहों में ही महदूद है? कभी उस पर भी खयाल किया है कि जो इन दवाओं को ताकत बख्शरता है? अगर उसकी नजर है तो तुम्हासरे अर्क और सफूफ आबेहयात हैं; नहीं तो महज मिट्टी या गर्द, बस। तुम भले ही उम्मीअद हार बैठे हो लेकिन मैं मायूस नहीं हूँ।
हकीम: बड़े भाई! मुर्तजा की ताकत तो अर्कों ओर सफूफों तक ही खत्मा है।
अबू बका: हुक्मी हो तो जहाँपनाह की खिदमत में मैं एक दवा अर्ज करूँ?
बाबर: यह भी पूछने की बात है? खुशी से फरमाइए।
अबू बका: मेरे उस्ता द, जिनकी बात के खिलाफ आज तक मैंने कुछ होते नहीं देखा और जिन्हें जहाँपनाह भी अच्छीह तरह जानते हैं, कहा करते थे कि ऐसे मौके पर सबसे अजीज चीज खुदाताला को भेंट करने पर अकसर दम तोड़ते हुए मरीज को भी भला-चंगा होते हुए देखा गया है।
बाबर: [खुशी से] सच?
अबू बका: मुझे उस्ता द की बात का पूरा यकीन है।
बाबर: और हमें आप जैसे आलिम, पाकदिल और खुशसखुन की बात का। किसी दूसरी चीज की कौन कहे, हम खुद अपनी जिन्दलगी खुदा के सामने हाजिर करते हैं।
अबू बका: और हकीम : [एक साथ घबराकर] आलमपनाह यह क्यास कह रहे हैं!
बाबर: [दृढ़ आवाज में] वही जो कहना चाहिए। क्यों , इसमें ताज्जुहब की क्या बात है?
अबू बका: ताज्जुवब की बात नहीं है? एक छोटी-सी बात के लिए शाहंशाहे-हिन्दुास्ता न अपनी जिन्द गी...।
बाबर: [बात काटकर] मौलाना! आप शाहजादे की जिन्दसगी को एक छोटी-सी बात समझते हैं? जिसे आप शाहंशाहे-हिन्दुटस्ता न कहते हैं उसके दिल की एक-एक धड़कन हुमायूँ की जिन्दभगी की मिन्न त की आवाज है। आज आपके सामने शाहंशाहे-हिन्दुनस्तासन नहीं, एक इन्साान — मामूली इन्सान खड़ा है, और जिन्दहगी से उसके बेटे की जिन्दागी कहीं बेशकीमत है।
अबू बका: जहाँपनाह!
बाबर: आप जो कहिएगा उसे हम समझ रहे हैं। अगर आप यह सोचते हैं कि हुमायूँ के नहीं रहने पर हम जिन्दा रह सकेंगे तो आप धोखे में हैं।
अबू बका: मगर जहाँपनाह जो काम अपनी जान से करना चाहते हैं वह दूसरी चीज से भी तो हो सकता है। आगरे की फतह के बाद जो हीरा जहाँपनाह के हाथ में आया वह दुनिया की किसी भी चीज से बेशकीमत है।
बाबर: हमारी जिन्द गी से भी?
अबू बका: जहाँपनाह! मेरे कहने का मतलब कुछ दूसरा है। मैं अर्ज करना चाहता हूँ कि क्योंब नहीं उसे ही खुदा को भेंट किया जाए?
हकीम: ताबेदार भी बड़े भाई की बात की हर सूरत से ताईद करता है।
बाबर: [एकाएक हुमायूँ के चेहरे की ओर देखकर घबराई हुई आवाज में] वह देखिए हकीम साहब! शाहजादे के चेहरे पर सफेदी छा रही है। आँख डरावनी लग रही है। [आवेश में] नहीं, नहीं अब ज्याादा सोचने का वक्तह नहीं है। हमारे जीते-जी हुमायूँ को कुछ नहीं हो सकता। हम उसे बचाएँगे, जरूर बचाएँगे। हीरे और पत्थ र से काम नहीं चलेगा। खुदाताला की खिदमत में हम खुद अपनी जान हाजिर करते हैं।
[बाबर तेजी से गम्भीनरतापूर्वक हुमायूँ के पलंग की चारों ओर घूमने लगता है।]
अबू बका: [और हकीम घबराकर] आलमपनाह! आलमपनाह! यह क्याा कर रहे हैं? खुदा के लिए...।
बाबर: [कठोर स्वकर में] खामोश! शाहंशाहे-हिन्दु स्ता न का हुक्म है कि आप खामोश रहिए। हम जो कर रहे हैं उसमें खलल न डालिए। [तीन बार पलंग की परिक्रमा कर हुमायूँ के सिरहाने जमीन पर घुटने टेक कर बैठ जाता है। हाथ जोड़कर आँखें बन्दा कर लेता है और मुँह कुछ ऊपर उठाए हुए शांत गम्भीरर स्व र में कहता है।] या खुदा! परवरदिगार! तेरी मेहरबानी से मैंने एक-से-एक मुश्किलों पर फतह हासिल की है। मैं हर गाढ़े वक्त पर तुझे पुकारता रहा हूँ और तू मेरी मदद करता रहा है। आज एक बार फिर इस मौके पर तेरी उस मेहरबानी की भीख माँगता हूँ। अपने बेटे की जान के बदले मैं अपनी जान हाजिर करता हूँ। तू मुझे बुला ले, लेकिन उसे अच्छाा कर दे...।
हकीम: [आश्चकर्य और प्रसन्नलता से] आलमपनाह! शाहजादा ने आँखें खोल दीं। आज सात रोज के बाद...।
बाबर: [प्रसन्नाता से] हमारी आवाज अल्ला्हताला तक पहुँच गई... पहुँच गई! अल्लााहो...अकबर...।
[बाबर धीरे-धीरे उठकर हुमायूँ के सिर पर हाथ फेरता है।]
हुमायूँ: [अत्यरन्त धीमी आवाज में] पा...नी...।
[हकीम कोने में रखी एक सोने की सुराही से पानी डालकर हुमायूँ के मुँह में दो चम्माच पानी देता है।]
बाबर: [एक-दो बार जोर से सिर हिलाता है जैसे कोई तकलीफ हो।] हकीम साहब! हमारे सर में जोर का चक्कमर और दर्द मालूम हो रहा है। एक अजीब बेचैनी मालूम हो रही है।
हकीम: [चिन्तित स्वमर में] आलमपनाह आराम करें। रास्ते की थकावट और दिमागी फिक्र से चक्करर मालूम हो रहा है। मैं अभी एक दवा देता हूँ, थोड़ी देर में तकलीफ जाती रहेगी।
बाबर: अच्छीअ बात है।
[हकीम एक खुराक दवा देता है। बाबर बगल के कमरे में चला जाता है। अबू बका और हकीम एक दूसरे को आश्चुर्य और चिन्ताब-मिश्रित मुद्रा से देखते हैं।]
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |