बारहखम्भा / भाग-12 / अज्ञेय
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हेम ने आँखें खोलीं। आँखें खोलने से पहले जैसे उसने अनुभव किया - बल्कि अपने को याद दिलाया - कि वह जाग गया है और अब आँखें खोलेगा; जाग गया तो आँखें खोलेगा ही - इनमें खास बात क्या है? पर नहीं, कुछ खास बात है। पलंग के पास ही कुर्सी पर केतकी बैठी होगी : उसकी आँखें उनींदे से लाल होंगी, पर उसे जागा देखते ही वह अपने को सभी ओर से नियन्त्रित करके, स्वर में ममता भर कर पूछेगी - जाग गये? तबियत कैसी है? चाय लोगे? ...पता नहीं स्त्रियाँ कैसे यह कर लेती हैं - मानो हर स्त्री एक दूसरी पर्सेनेलिटी भी रिजर्व में रखती है और तुरन्त ओढ़ लेती है।
पर हेम के आँखें खोलने की कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
उसने धीरे-धीरे गर्दन मोड़ी। कमरे में कोई नहीं था। केतकी कहीं इधर-उधर गई होगी, अभी आ जाएगी, यह सोच कर उसने फिर आँखें मूँद लीं। थोड़ी देर और पड़े रहने में कोई बुराई नहीं है - आराम तो है ही, और उसे अब कौन-सा नौकरी पर जाना है कि उठ कर तैयार हो!
केतकी, हो सकता है, खुद नहाने-धोने गयी हो - शायद यही सोच कर कि उसके जागने से पहले तरोताजा हो कर चली आये। स्त्रियों के लिए फ्रेश दीखने का भी तो महत्त्व है - फिर केतकी जैसी स्त्री... इधर तो न जाने कहाँ-कहाँ धक्के खाती रही है...
हेम को एकाएक लगा कि सब तरफ बड़ा सन्नाटा है। केतकी कहीं होती तो कोई आवाज तो आती - और नहीं तो पानी टपकने की आवाज ही होती। केतकी तो जब-तब गुनगुनाती भी है - पर उसकी नींद के कारण इस समय शायद चुप हो।
नहीं। एकाएक उसे ध्यान हुआ, केतकी तो उसके घर में नहीं, जंगबहादुर के क्वार्टर में रहती है। अभिमानिनी तो है, हाथ-मुँह धोने भी उधर ही गयी होगी - घर की कोई सुविधा अपने इस्तेमाल में न लाएगी!
हेम को कुछ अजब-सा लगा। वह उठ बैठा और उसने जोर से पुकारा, “जंगबहादुर!”
कोई उत्तर नहीं मिला। फिर उसने दुबारा जोर से आवाज दी, “जंगबहादुर!!” दोबारा कोई उत्तर नहीं मिला। केतकी को पुकारे? नहीं, केतकी को नहीं पुकारेगा। पर केतकी होती तो अपने आप उत्तर देती, या आ ही जाती।
कोई नहीं है। हेम को एकाएक घबराहट-सी हुई। वह उठा और लपक कर सीढ़ियाँ उतर कर घूम कर जंगबहादुर के क्वार्टर तक गया। किवाड़ बन्द थे, ताला लगा था।
जंगबहादुर के क्वार्टर में ताला! न जंगबहादुर, न केतकी! कहाँ चले गये दोनों?
हेम ने अपने को यह भी नहीं समझाया कि घबराने की कोई बात नहीं है; थोड़ी देर में पता लग जाएगा। वह बदहवास-सा वापस दौड़ा। सिर झुकाये ही सीढ़ियों पर तेजी से चढ़ा कि एकाएक उसका सिर चौखट से टकरा गया। उसे चक्कर आ गया, पर वह उसी झोंक में बढ़ता गया कि गिरने से पहले पलंग तक पहुँच जाए - पलंग पर ही गिरे - चक्कर तो दो मिनट में ठीक हो जाएगा। पलंग तक पहुँच कर वह आगे लुढ़का; पट्टी बँधे कन्धे के बल ही वह बिछौने पर गिरा - और एक चीख उसके मुँह से निकल गयी। बेहोश होते-होते उसने जाना कि वह बेहोश हो रहा है : अच्छा ही हुआ कि पलंग तक पहुँच गया था, अच्छा ही है कि बेहोशी में यह दर्द तो दब जाए।
बम्बई में गोली लगी थी - किसने फायर किया था? सेठ ने? केतकी ने? जंगबहादुर...
अच्छी चीज है बेहोशी...
पैरों की आहट सुन कर हेम ने जोर से दाँत भींच लिये कि फिर कराह न उठे। एक पदचाप केतकी की है - दूसरी?
जिस ढंग से उसने पलंग के पास की कुर्सी पर बैग रखा उसमें हेम ने जान लिया कि डॉक्टर है, पर उसका परिचित नहीं था। केतकी ने माथे पर नीले पड़ते ददोरे पर बहुत हल्का हाथ रखा और कहा, “डॉक्टर साहब आये हैं। सब ठीक हो जाएगा।”
मैं कोई बच्चा हूँ? - सब ठीक हो जाएगा - हुँह! हेम ने डॉक्टर की ओर उन्मुख हो कर कहना शुरू किया, “चोट ठीक हो रही है - मैं एकाएक उठा था तो...” पर उसने वाक्य पूरा नहीं किया - जान गया कि वह कराहने से ही पूरा होगा, और केतकी के सामने नहीं कराहेगा, नहीं कराहेगा!
थोड़ा रुक कर, पूरी संकल्प शक्ति लगा कर उसने कहा, “जंगबहादुर कहाँ है?”
केतकी क्षण-भर उस पर आँखें टिकाये रही। सवाल पर कोई आश्चर्य उसने प्रकट नहीं किया। सधे हुए स्वर से बोली, “अभी बुला देती हूँ।” तनिक रुक कर उसने जोड़ा, “डॉक्टर साहब देख लें तब...”
डॉक्टर ने कहा, “देखिए, आपको एकदम बेड रेस्ट की जरूरत है। अभी बिल्कुल आराम कीजिए। दर्द के लिए मैं एक इंजेक्शन भी दे रहा हूँ।” फिर उसने कन्धे की ओर इशारा करते हुए कहा, “मालूम होता है, घाव पर फिर चोट लगी है। पर अभी पट्टी नहीं खोलनी होगी - कल...”
डॉक्टर की नजर केतकी की ओर मुड़ी और अनकहे प्रश्न के जवाब में केतकी ने कहा, “पट्टी तो दो दिन में खुलने वाली थी। कल सवेरे डॉक्टर आने वाले थे - उन्हें आज ही देख जाने को कह दूँगी।”
डॉक्टर ने सहमति का सिर हिलाया था। इंजेक्शन लगाया और थोड़ी देर हेम की बाँह को सहलाते रहे। “थोड़ा सो लीजिये...”
बैग उठा कर वह दरवाजे की ओर मुड़े। केतकी पीछे-पीछे गयी। बाहर उनकी कुछ बात होती रही; हेम ने चाहा कि सुन सके, चाहा कि न सुन सकने पर खीझे, पर नींद का एक बादल उसके मस्तिष्क पर छाने लगा था, वह...
रमानाथ केतकी के बारे में और कुछ नहीं जान पाया था। रेडियो स्टेशन में उसने युक्ति से पता लगाना चाहा था - केतकी के गाने का जिक्र किया था, उसके स्वर की तारीफ की थी, संकेत किया था कि बहुत दिनों से उसका कोई प्रोग्राम नहीं हुआ - पर तरह-तरह की टिप्पणी के बावजूद ठोस जानकारी कुछ नहीं मिली थी। बम्बई की घटनाओं की बात लोग जानते थे; हेम को गोली लगने की बात भी और सेठ मदनराम के अपनी साली के साथ विवाह की बात भी; पर केतकी दिल्ली में ही है यह कोई नहीं जानता था, कहाँ है यह भी किसी को नहीं पता था। किसी ने उसे देखा नहीं था - सिवाय सुधीर के, जिससे एक बार रमानाथ की बात हो चुकी थी। उससे फिर पूछे, या केतकी की चर्चा वह स्वयं उठाये, इसमें रमानाथ को अपनी हेठी लग रही थी। सुधीर से वह पूछेगा नहीं, सुधीर ही जिक्र छेड़े तो... पर अगर उसने भी नया कुछ नहीं सुना होगा तो वह जिक्र भी क्यों छेड़ेगा? - पर हाँ! रमानाथ को एकाएक कुछ याद आया, उसे अपने पर आश्चर्य हुआ कि उसका ध्यान इधर पहले क्यों नहीं गया! केतकी लखनऊ भी तो गयी थी - अल्ताफ से मिली थी - अल्ताफ को तो आज-कल दिल्ली में ही होना चाहिए। अभी तक सम्पर्क नहीं हुआ, पर आ तो गया होगा... क्यों न शाम को फिर एक बैठक रखी जाय - उसी दिन नहीं तो अगले तीन-चार दिन के भीतर-और इस बीच सबको खबर करवा दी जाय, सबका पता भी ले लिया जाय... यह तो वह सुधीर से कह भी सकता है - उसी के द्वारा वह अल्ताफ के लिए न्यौता भिजवा देगा। श्यामा और डी.पी. (देवीप्रसाद) आ ही जायेंगे। उनके साथ ही शायद एम.पी. साहब भी आ जायेंगे - बिन बुलाये! रमानाथ मन-ही-मन थोड़ा मुस्कराया। डी.पी. इन एम.पी. साहब को खुश रखते हैं - या कि असल में तो खुश रखने का काम श्यामा का है - वह डी.पी. के लिए उन्हें खुश रखती है और एम.पी. साहब - वह तो सबको खुश रखते हैं - उनकी जनसेवा इसी में है! रमानाथ फिर मुस्करा दिया। जनता के सेवक! फिर एकाएक उसकी आँखों के आगे वह दृश्य तैर गया - श्यामा के घर पर हेम के पैरों पड़ती केतकी, चौंक कर पीछे हटते हुए हेम बाबू, और ललक कर आगे बढ़ते जनता के सेवक। रमानाथ का मुँह कड़ुवा हो आया। उसने सिर को झटक कर वह चित्र मिटा देना चाहा; पर उस स्थान पर जो दूसरा चित्र आ गया वह भी कुछ कम कष्टकर नहीं था। ताँगे से उतर कर कनॉट सर्कस के भीतर जाती हुई केतकी, और उसके वे शब्द - “हेम बाबू की मृत्यु का समाचार जितना सत्य है, उतनी ही सत्य मेरी आपके घर जाने की सूचना है।” कैसी दुधारी तलवार चलाती है यह औरत - औरतें सभी दुजिब्भी होती हैं, पर केतकी को शायद सेठानी होने का गरूर भी है जो पीछे मुड़ कर देखती भी नहीं कि किस पर वार का क्या असर हुआ!
लेकिन सत्य-सत्य क्या है? इस रहस्य की जड़ में क्या है? वहाँ तक तो पहुँचना ही होगा...
रमानाथ ने पैड अपनी ओर खींचा और तीन स्लिप निकाल कर बड़े अनौपचारिक निमन्त्रण की दो-दो चार-चार पंक्तियाँ लिख डालीं। सुधीर के हाथ वह इन्हें भिजवा देगा -न होगा तो आते-जाते श्यामा के यहाँ कहता भी आएगा।
पर हेम बाबू के यहाँ? असल मुद्दा तो वही है - केतकी कहाँ रहती है यह पता नहीं है तो हेम के यहाँ ही पता लेना ठीक होगा, दोनों के लिए निमन्त्रण वहीं भेजना चाहिए - पर पता नहीं है तो निमन्त्रण भेजना भी क्या ठीक है? वह खुद जा सकता है - पर हेम बाबू के यहाँ जाने की बात आज रमानाथ को खुद ऐसी अटपटी लगी कि उसने अपने आपको ही मुँह बिचका दिया।
नहीं - दूसरा रास्ता ही ठीक है - पहले अल्ताफ से पूछा जाय, उसी से कुछ सुराग मिलेगा...
व्यवहार के ढर्रे कितनी जल्दी बन जाते हैं! चार दिन भी नहीं हुए होंगे, पर हेम को लगता है कि जीवन न जाने कब से ऐसा ही बीतता आया है। सवेरे मुँह-हाथ धो कर वह चाय पीता है : पानी भी केतकी लाती है, चाय भी वही देती है, अपनी ओर से कुछ बोलती नहीं, कुछ पूछा जाय तो जवाब दे देती है। और वह अपनी ओर से कुछ पूछना नहीं चाहता, इसलिए जवाब देने का अवसर भी नहीं आता। जंगबहादुर की बात वह पूछ सकता है, लेकिन वह पूछना ऐसा झूठा बहाना होगा कि साफ पकड़ा जाएगा - और वह केतकी के सामने बहाना भी क्यों बनाये? चुपचाप केतकी उसे दवा देती है, चुपचाप माथे की पट्टी बदलती है - माथे वाली पट्टी वह बदल सकती है, कन्धे की डॉक्टर ही बदलते हैं और शायद इसीलिए डॉक्टर के आने के वक्त से घंटा-भर पहले उसे वह दवा दी जाती है जिससे वह दिनभर ऊँघता रहता है - दर्द दबाने और नींद लाने की कोई दवा... डॉक्टर के चले जाने के बाद केतकी भी चली जाती है - बाहर जंगबहादुर को कुछ समझाते हुए उसका स्वर हेम को सुनाई देता है, यद्यपि वह यह नहीं जान पाता कि क्या हिदायतें दी जा रही हैं। तीसरे पहर वह जागता है और लगभग जागने के साथ ही सीढ़ी पर केतकी की पदचाप सुनता है। कभी यह भी सन्देह हो आता है कि पदचाप से ही वह जागा, या कि जागने का पता लगते ही केतकी भीतर आयी - तब तक वह क्या बाहर बैठी थी? पर यह भी वह पूछेगा नहीं - कुछ नहीं पूछेगा वह! क्यों नहीं पूछेगा? केतकी से उसे क्या गिला है - और है तो किस अधिकार से है? केतकी ने कभी कहा था, पीड़ा के अधिकार से - पर पीड़ा से कोई अधिकार बनता है तो क्या केतकी का अधिकार उसके अधिकार से बड़ा नहीं है? हेम का पीड़ा का अधिकार - पीड़ा का एक दम्भ भी होता है, एक अहंकार भी होता है - क्या वह उसी में डूबा हुआ है? और क्या यह कुछ न पूछना उस सचाई से कतराना ही नहीं है जो पूछने पर जवाब में सामने आ सकती है?
केतकी आ कर पूछती है, “दिन कैसा बीता?” ...”सोये?” ...”दर्द तो नहीं हुआ?” बँधे-बँधाये प्रश्न हैं, सधे हुए उत्तर हैं - अत्यन्त संक्षिप्त, बल्कि कुछ का जवाब तो सिर हिलाने से ही हो जाता है... फिर केतकी उसके सिरहाने की ओर से आ कर उसके माथे पर हल्का हाथ रखती है, फिर धीरे-धीरे माथा सहलाती है, और फिर उठ कर उधर से ही दूसरे कमरे में चली जाती है। उसने लक्ष्य किया है कि केतकी ने कभी सामने से आ कर हाथ नहीं बढ़ाया; वह उँगलियों की छुअन-भर अपने माथे पर पाता है, न हाथ उसे दीखता है न उस समय केतकी ही दीखती है; उस जवाब को भी वह अपने सामने नहीं आने देता और इसलिए 'क्यों' के उठते ही वह करवट लेता है और तब केतकी कहती है, “मैं चाय लाती हूँ” - और सारे प्रश्न पीछे हट जाते हैं और ढर्रा सब पर हावी हो जाता है...
केतकी ने दूसरे कमरे से ला कर कुर्सी उसके पलंग के पास रखी है और उस पर बैठ गयी है। थोड़ी देर उसे निहारती रही है। वह कुछ बोला नहीं; आँखें भी उसने अधमुँदी रखी हैं - कोई चाहे तो उन्हें खुली मान ले, चाहे तो मुँदी।
थोड़ी देर बाद केतकी ने पूछा, “तुम्हारा बात करने का मन न हो तो कुछ पढ़ कर सुनाऊँ?”
क्यों ऐसा निहोरे-भरा स्वर? हेम ने बिना कुछ कहे सिर हिला दिया।
“गा कर भी सुना सकती, पर मेरा गाना न जाने तुम्हें कैसा लगेगा।”
स्वर में एक दबी हुई थरथराहट। केतकी उसके लिए क्यों गाना चाहे? और गाना ही चाहे तो क्यों परवाह करे कि उसे कैसा लगेगा? उसने नजर उठायी-दोनों की आँखें मिलीं : कहा तो हेम ने वही जो कहने जा रहा था, पर स्वर में एक उदास नरमी आ गयी थी। “तुम्हारा गाने का मन हो तो गाओ।”
केतकी ने क्षण-भर के लिए आँखें बन्द कर लीं। फिर उठी, पलंग के पास ही तिपाही पर पड़ी दवा की शीशियों को निरुद्देश्य भाव से उठाते-रखते बोली, “कल या परसों सब पट्टियाँ-बट्टियाँ खोल दी जायेंगी - घाव भर गये हैं और अब कोई अंदेशा नहीं है।”
हेम ने सिर हिला दिया।
“एक-दो दिन और मैं हल्का ड्रेसिंग कर दूँगी - अब तो तुम स्वयं भी कर सकोगे। हाँ, अभी उतावली मत करना - थोड़ा सब्र से ही काम करना...”
हेम ने फिर सिर हिलाया। फिर उसे लगा कि कुछ कहना चाहिए। उसने केतकी की ओर उन्मुख होकर कहना शुरू किया, “केतकी, मैं तुम्हारा...”
केतकी ने जल्दी से उसे टोकते हुए कहा, “मैंने शहर में एक कमरा देख लिया है। कल या परसों में वहाँ चली जाऊँगी। इतने दिन तुमने मुझे शरण दी, इसे मैं नहीं भूलूँगी।”
“मैंने क्या किया? उसके लिए तो तुम्हें जंगबहादुर को शुक्रिया अदा करना चाहिए।” थोड़ा रुक कर हेम ने जोड़ा, “और हाँ, मैंने आज जंगबहादुर से बात कर ली है; वह कल एक महीने की छुट्टी पर घर चला जाएगा - तुम उस क्वार्टर में आराम से रह सकती हो।”
एक लम्बी चुप के बाद केतकी ने कहा, “जंगबहादुर की सारी ड्यूटीज भी क्या मैं सँभाल सकती हूँ? कुछ काम सीख जाऊँगी - “
“नहीं-नहीं, कोई ड्यूटी करने की कोई जरूरत नहीं है। यह इन्तजाम तो तुम्हें काम से बचाने के लिए किया गया है। अब अपनी देख-भाल मैं खुद कर लूँगा।”
एक रूखी मुस्कान केतकी के चेहरे पर उभरी और दब गयी। उसके मुँह फेर लेने से पहले इतना हेम ने देख लिया। वह कुछ कहने ही जा रहा था कि बाहर आहट हुई और फिर दरवाजे पर दस्तक पड़ी।
“हेम बाबू! हेम बाबू हैं?”
स्वर रमानाथ का था।
केतकी मुड़ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गयी। हेम द्वार की ओर बढ़ा।
रमानाथ कुतूहल से भरा हुआ आया था और सोचे हुए था कि प्रश्नों की झड़ी लगा देगा। समय उसके पास बहुत अधिक नहीं था, पर हेम बाबू से बहुत कुछ जल्दी ही जान लिया जा सकेगा, ऐसा भरोसा उसे था। जानने के लिए सब कुछ कहलाना थोड़े ही होता है - आधी बात तो जो नहीं कहा गया उसी के अनुमान से जानी जाती है! जितना कहा उतना फैक्ट, जो नहीं कहा वह उस फैक्ट की असलियत - इस नुस्खे से चलते हुए ही रमानाथ अपने समाज में जहाँ है वहाँ पहुँचा है - सभी मानते हैं कि उसे सब पता रहता है, समझते हैं कि उसकी दूर-दूर तक पहुँच है...
पर हेम की गम्भीर, आत्मस्थ मुद्रा के आगे उसके सवालों की धार कुन्द हो गयी। पट्टी-वट्टी अब नहीं थी, पर स्वास्थ्य के बारे में तो पूछा जा ही सकता था, हल्का-सा शालीन उलाहना भी दिया जा सकता था - “हेम बाबू, आपने कुछ बताया ही नहीं - बुलवा ही भेजते...”, “हेम बाबू, यह तो ठीक है कि हम किसी लायक नहीं हैं, फिर काम की भी मजबूरियाँ रहती हैं, पर आपने तो हमें बिल्कुल गैर समझ लिया...”
हेम बाबू ने तो इस पर भी प्रोटेस्ट नहीं किया! “क्या बताऊँ, रमानाथ जी -मजबूरियाँ तो सभी में रहती हैं - किसी को जितना कम कष्ट दिया जाय उतना अच्छा। फिर मैं तो ठीक हूँ - थोड़ा कष्ट हुआ था - अब तो आप देख रहे हैं, बिल्कुल चंगा हूँ...”
“बीच-बीच में तो तरह-तरह की बातें सुनी थीं। उस दिन केतकी जी...”
साथ के कमरे से ट्रे लेकर आती हुई केतकी ने कहा, “केतकी आपको नमस्कार करती है, रमानाथ जी! उस दिन की केतकी की बात छोड़िए; अभी...”
हेम ने कहा, “लीजिए, केतकी जी चाय ले आयी हैं तो इतनी देर तो आपको और रुकना ही होगा।”
रमानाथ के मुँह से निकला, “ऐं?” फिर एकाएक अपने को सँभालते हुए उसने कहा, “नमस्कार, नमस्कार, केतकी जी! मैं यही कहने जा रहा था कि उस दिन के बाद आपके भी दर्शन नहीं हुए - कहीं चली गयी थीं क्या? हम तो...”
“दर्शन ही तो हैं। जब हो गये तभी बहुत।” केतकी ने नजर उठाये बिना कहा, “चाय मैं ढाल दूँ या आप स्वयं लेंगे?”
ट्रे में दो ही प्याले थे। हेम ने कहा, “मैं बाद में लूँगी - आप लोग लें।”
हेम चुप हो गया। हाथ बढ़ा कर उसने ट्रे को थोड़ा घुमाया और चाय ढालने लगा। रमानाथ ने कुछ चकित भाव से केतकी की ओर देखा, पर कुछ पूछ नहीं सका।
थोड़ी देर सब चुप रहे। केतकी दो कदम पीछे हट कर चौखटे से सट कर खड़ी हो गयी थी। चाय की हल्की चुस्की की आवाज बीच-बीच में सुनाई पड़ जाती थी।
रमानाथ ने आने का प्रयोजन कहा। तीसरे दिन उसके यहाँ छोटा-सा जलसा है -एकदम इनफार्मल - केवल बन्धुजन रहेंगे। हेम बाबू अवश्य आएँ - “और केतकी जी, आप भी! आपके लिए तो अल्ताफ साहब का खास आग्रह था - “
हेम ने केतकी की ओर देखा। केतकी ने सम स्वर से पूछा, “वह यहाँ हैं?”
“जी हाँ। बल्कि एक तरह से वह इस जलसे का निमित्त हैं। उन्हें बम्बई से एक पुरस्कार मिला है - पुरस्कार क्या, सम्मान करने का एक बहाना है - उसी की बधाई के लिए जलसा है। तो आप आएँगी न? और हेम बाबू, आप...”
हेम ने कहा, “देखिए - हो सका तो - यों तो ठीक हूँ, पर अभी घूमना शुरू नहीं किया न...”
“तो इसी से शुरू कीजिएगा न! चाहे थोड़ी देर बैठ कर लौट आइएगा - सबको अच्छा लगेगा...” रमानाथ मुड़ा तो चौखटे से सटी केतकी वहाँ नहीं थी। वह उठ खड़ा हुआ। “अच्छा, अभी चलता हूँ। केतकी जी को मेरा नमस्कार कह दीजिएगा - उन्हें भी जरूर लाइएगा - वह अभी तो यहीं हैं न?”
हेम क्षण-भर रमानाथ की ओर देखता रहा। फिर कुछ सोचते से स्वर में बोला, “अभी तो यहीं हैं - उधर क्वार्टर में ठहरी हैं - “
रमानाथ ने फिर कुछ पूछने को मुँह उठाया, पर हेम के चेहरे की ओर देख कर उसने केवल कहा, “अच्छा, अभी चलता हूँ। राह देखता रहूँगा।”
उसकी पदचाप डूब गयी तो हेम ने धीरे-धीरे बढ़ कर किवाड़ बन्द कर दिये और फिर आ कर पलंग पर बैठ गया। कोहनियाँ घुटनों पर टेक कर ठोड़ी हथेलियों पर टिकाये वह एक सूनी नजर से चाय के प्यालों को देखने लगा।
थोड़ी देर बाद केतकी आयी तो हेम की मुद्रा देख कर पल-भर ठिठकी। फिर दबे-पाँव बढ़ कर ट्रे उठाने लगी।
“रहने दो - मैं सँभाल लूँगा...”
“इतना काम तो मेहमान भी कर लेते हैं! और मैंने तो ड्यूटी भी सँभाली है...”
“फिर वही बेकार बात! कोई ड्यूटी-ऊटी तुम्हारी नहीं है। वह इन्तजाम तो तुम्हें काम से बचाने के लिए ही किया गया है - फिलहाल कुछ सुभीते से रह सकोगी। अपनी देख-भाल अब मैं खुद कर लूँगा - अब तो बिल्कुल ठीक भी हूँ।”
वही उदास मुस्कान फिर केतकी के चेहरे पर दिखी - कुछ अधिक उदास ही। हेम को याद आया कि यही बात हो रही थी जब रमानाथ के आने से व्याघात हुआ। तब केतकी ने मुँह फेर लिया था; अब की बार वह एकटक उसकी ओर देखती रही।
“कहो-कुछ कहने को हो न, कह डालो...” हेम का स्वर प्रोत्साहन का नहीं था, पर नितान्त रूखा भी नहीं था।
“जाने दीजिए। आपकी कृपा है, मुझे स्वीकार है।”
“नहीं। तुम कुछ और कहने जा रही थीं। कह डालो। कृपा की बात से वह ज्यादा सालने वाली थोड़े ही होगी!”
केतकी ने लम्बी साँस भर कर गोता लगाने के भाव से कहा, “घर में जगह दी होती तो बात भी थी। नौकर की कोठरी ही तो है।” वह क्षण-भर रुकी, फिर बोली, “ठीक तो है। मेरी जो जगह है वह तुमने मुझे बता दी। मुझे यह नौकरी मंजूर है।”
केतकी के स्वर में कुछ व्यंग्य रहा होता तो बात हेम को कम चुभती। पर इस दास्य-भाव को वह कैसे झेले, उसकी समझ में नहीं आया। अपने ही पर चोट करते हुए बोला, “नौकरी! नौकरी तो अब मेरी भी नहीं है। बेकार बैठा हूँ। एक बेरोजगार आदमी की एक सेठानी नौकरानी!”
बेबसी का वार था - पर शायद वार करने का यही तरीका ठीक था - जितनी चोट दूसरे पर हो, उतनी ही अपने पर पड़ती जान पड़े। केतकी ने ट्रे पर झुके-झुके बात की थी, अब सीधी खड़ी हो गयी। उसकी थरथराती आवाज से हेम चौंक गया। “आप किसका अपमान करना चाहते हैं, हेम बाबू? केतकी का, या अपना? मेरा, तो वह भी मुझे मंजूर है। नौकरानी ही हूँ मैं। मैंने दो-तीन और नौकरियाँ भी ठीक कर ली हैं संगीत और आर्ट सिखाने की...”
“और मैं नाकारा हूँ। यही तो मैं कह रहा हूँ...”
“नाकारे नहीं हैं। आप कई काम कर सकते हैं - करते रहे हैं। आपने खुद मुझे बताया है।” केतकी थोड़ा रुकी। “किसी को कोई सीख देने वाली मैं कौन होती हूँ, मुझे तो खुद कुछ नहीं आता - पर मुझे लगता है कि आपसे मुझे जो सीखने को मिला वह शायद आपके भी काम का हो सकता है...”
हेम को थोड़ा कुतूहल हो आया। अब तक जैसे वह वही कह रहा था जो उसे कहना चाहिए, जो कोई उससे कहला रहा था, अब एकाएक सहज स्वर में उसने पूछा, “वह क्या - मुझसे क्या सीखा तुमने?”
“अपना मामूलीपन। जो मैं हूँ वही होने की अपनी लाचारीः सिर झुका कर उसका स्वीकार। नहीं तो दूसरों के लिए कुछ करने का पाखंड हर किसी को व्याप ले सकता है। मैं भी तो बड़ी सोशलिस्ट बनती थी।”
फिर एक मौन दोनों के बीच छा गया। थोड़ी देर बाद केतकी उसी बात को आगे बढ़ाती हुई बोली, “पापा ने भी कभी नहीं टोका। पर उनका खुद का जीवन बिल्कुल दूसरी तरह का था। शायद सोचते रहे हों, सिखाना क्या, टोकना क्या। अपने आप देख कर जो सीखा जाय वही सीखा जाता है।” वह फिर थोड़ी देर रुकी। फिर उसने जोड़ दिया, “अपने आप देख कर - या मार खा कर। मैंने मार खा कर ही सीखा - अब थोड़ा देख कर सीखना भी सीख रही हूँ। आप से।”
अब तक केतकी खड़ी ही थी। अब बैठ गयी। उसने सिर झुका लिया। हेम उसकी छाती का उठना-गिरना देखता रहा - मानो वह हाँफ गयी हो। फिर वह धीरे-धीरे उठा तो केतकी ने तपाक से उठते हुए पूछा, “कुछ चाहिए - मैं ले आऊँ...”
हेम ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया, बोला नहीं। वह धीरे-धीरे कमरे में टहलने लगा। टहलता रहा। केतकी वैसे ही सिर झुकाये बैठी रही। अन्त में एक बार हेम उसके पीछे तनिक ठिठका तो बोली, “बस, अब बैठ जाइए-थक जायेंगे।”
हेम ने वहीं पीछे खड़े-खड़े कहा, “नहीं। अब बैठे थक रहा हूँ। और अभी तो तुम्हारी बातों ने दहला दिया है...”
केतकी ने कहा, “मेरी? मैं कुछ गलत कह गयी होऊँ तो माफी चाहती हूँ। जो मेरा पद है उसका पूरा अभ्यास होते थोड़ी देर लगेगी - चूक हो जाती है।”
हेम तिलमिला गया। “मेरा वह मतलब नहीं था - तुम जानती हो कि नहीं था। तुमने जो कुछ कहा उससे मुझे इतना तो दीखता है कि मुझे शर्म आनी चाहिए - पर ठीक किस बात की शर्म, यह अभी नहीं देख पाया - साफ-साफ नहीं देख पाया हूँ।”
“शर्म तो मुझे आनी चाहिए - आती रही है - और मुझे तो लगता है कि अब जानती हूँ कि किस-किस बात पर... आपको क्यों? और मेरे सामने तो बिल्कुल नहीं। मैंने आपको बम्बई बुला कर कितनी बड़ी ज्यादती की थी - और आप तो चले भी आये! - उसके बाद भी, मैंने क्या किया? मैं क्षमा के भी योग्य नहीं हूँ, हेम बाबू! मैं तो इस नौकर के पद के योग्य भी नहीं हूँ जो आपने...”
हेम ने सामने आ कर कहा, “देखो, केतकी, एक तो यह बाबू-बाबू छोड़ो। और आप नहीं, तुम। समझीं? इतना समझ गयीं तो आगे बोलूँ।”
केतकी ने सिर हिला दिया - “समझी।” फिर धीरे से कहा, “आगे बोलिए।”
“फिर वही बात?”
“बोलो।”
“बम्बई मैं आया था - हाँ, मैं ही आया था। चाहूँ तो उसका श्रेय ले सकता हूँ कि तुम्हारे बुलाने पर दौड़ा आया। पर भीतर तो जानता हूँ कि वह धोखा होगा। दौड़ कर वहाँ आया था कि भाग कर यहाँ से गया था, यही मैं साफ-साफ नहीं जानता। तुम तो भला जानोगी कहाँ से - तुम मुझे जानती ही कितना हो?”
“जितना आप - तुम मुझे, उससे कुछ अधिक ही जानती हूँगी। औरतें बड़ी काइयाँ होती हैं - बहुत-कुछ यों ही जान लेती हैं।”
“चलो वह भी सही। पर बहस का मुद्दा वह नहीं है। मेरे बम्बई जाने के बाद जो कुछ हुआ उसमें मैंने क्या किया? वह सब तो हुआ ही - अपने आप होता गया। जो सिर आ पड़ी झेल ली - और वह भी कैसे...”
“अपने आप होता गया तो - अपराध भी कैसे हुआ? जो किया वही तो अपराध हो सकता है - अपराध तो सब मेरे रहे। तुम बम्बई अपनी मर्जी से गये - और वह तो अपराध नहीं था। बल्कि उसमें भी अपराध मेरा था - तुम्हें उकसाने का।”
“न। बात कहीं पहुँचती नहीं है। सोचता बहुत रहा हूँ, पर...”
हेम फिर चक्कर काटने लगा। थोड़ी देर बाद केतकी ने शुरू किया, “हेम बाबू - “ और फिर रुककर कहा, “हेम, ऐसे कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काट कर क्या होगा? बात सिरे पहुँचेगी तब पहुँचेगी - उससे पहले यों अपने को पेर कर कुछ नहीं निकलेगा!”
उसने झुक कर ट्रे उठायी और मुड़ी, मानो वह बात पूरी हो गयी है। हेम ने कहना शुरू किया, “मैंने कहा न, रहने दो, मैं...” और फिर मानो उसने बात समाप्त करने का केतकी का फैसला स्वीकार कर लिया। जाती हुई केतकी की पीठ से पूछा, “रमानाथ की पार्टी में जाओगी?”
केतकी ने बिना मुड़े उत्तर दिया - “यह रखकर अभी आती हूँ...”
दो मिनट बाद लौट कर वह फिर वहीं दरवाजे के चौखटे से सट कर खड़ी हो गयी। हेम बैठ गया था, उसने केतकी का आना नहीं जाना और उसके स्वर से कुछ चौंका।
“मेरा कुछ कहने का हक नहीं है - पर इजाजत हो तो कुछ कहूँ?”
हेम बोला नहीं; उसने केवल आँखें केतकी की ओर उठायीं।
“अभी दो-एक दिन में जब जरा शरीर और सँभल जाय - तब क्यों न एक यात्रा कर आएँ? हवा बदल जाएगी, कुछ विश्राम भी हो जाएगा, और मन भी...”
हाँ-ना का कोई संकेत दिये बिना हेम ने पूछा, “कहाँ की यात्रा?”
“कहीं की भी। तीर्थयात्रा। मन धोने की यात्रा। पर एक शर्त...”
कुछ सहमते हुए हेम ने पुछा, “पहले शर्त भी सुन लूँ...”
“कि मैं उसी पद पर रहूँगी जो मुझे मिला है - नौकरानी तुम्हारे साथ जाएगी।”
हेम ने कुछ चिड़चिड़ाकर कहा, “तीर्थयात्रा की और मन धोने की बात कहती हो, और बार-बार नोंचती भी जाती हो।” इशारे से केतकी को उसने रोक दिया, फिर अपने स्वर को भी सँभालकर बोला, “तीर्थ तो निर्विशेष करते हैं, वहाँ तो सभी नौकर हैं - नौकर के भी नौकर - 'मैं तो कूता राम का...' “
केतकी चुपचाप उसे देखती रही। काफी देर बाद उसने कहा, “कोई जल्दी नहीं है। सोच कर बता देना - मैं तैयारी कर दूँगी...”
तैयारी कर लूँगी नहीं, कर दूँगी। हेम ने लक्ष्य कर लिया। बोला, “सोचूँगा।” तनिक रुक कर, विषय बदलते हुए - और क्या, फिर आक्रामक होते हुए - “और वह पार्टी?”
“तुम जाओगे? यों तो किसी का भी जाना जरूरी नहीं है - पर कहोगे तो...”
“मैं क्यों कहूँगा? मैं तो सोचता हूँ कि नहीं जाऊँगा। मेरा कोई खास परिचय भी नहीं है। तुम्हें तो बड़े निहोरे से बुलाया है...”
“मेरा मन तो बिल्कुल नहीं है। वह दुनिया मेरी नहीं है। पहले भी नहीं थी - पर मैं बेवकूफ पहले समझी नहीं थी।”
“तुम्हें तो शायद जाना चाहिए।” कुछ रुक कर, थोड़ा सकुचाते हुए हेम ने जोड़ा, “नहीं जाओगी तो और बातें बनाएँगे...”
“अच्छा है, उन्हें बात करने का मौका मिल जाएगा! पर मेरे जाने से क्या रुक जायेंगे वो? और बातें मेरी अकेले की थोड़े ही होंगी...” कहते-कहते केतकी एकाएक चुप हो गयी। बातें हेम के बारे में भी होंगी, इसकी चिन्ता में वह हेम को नहीं डालना चाहती थी।
केतकी के प्रवेश पर क्षण-भर के लिए जो तनाव-भरी चुप्पी सब पर छा गयी उससे केतकी को आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह तो स्पष्ट संकेत था कि उसके आने से पहले उसी के बारे में बातें हो रही थीं। फिर रमानाथ ने तपाक से पूछा, “बड़ा अच्छा हुआ आप आ गयीं - आप हेम बाबू को नहीं लायीं?”
“हेम बाबू अपनी मर्जी के मालिक हैं - किसी के लाये थोड़े ही कहीं आते-जाते हैं।” कह कर केतकी ने एक बार सबकी ओर देखा और सबको एक संयुक्त नमस्कार कर लिया। रमानाथ ने कहा, “फिर अभी-अभी तो ठीक हुए हैं - अभी बाहर निकलना नहीं शुरू किया-”
केतकी ने लक्ष्य किया कि रमानाथ के पीछे-पीछे वह एम.पी. साहब भी उसकी ओर बढ़ आये हैं और बात करने को उत्सुक हैं। तभी वह बोले, “कहिए आप तो अच्छी तरह हैं न? उस दिन तो...”
“जी। आपकी कृपा है।” केतकी को 'उस दिन' की याद आयी : न वह उस स्मृति को ताजा करना चाहती है न इस आदमी से उलझना चाहती है। वह मुड़ कर श्यामा की ओर बढ़ी जो कुरसी पर बैठी एकटक उसकी ओर देख रही थी। नमस्कारों का फिर विनिमय हुआ, दोनों ने दोनों की कुशलक्षेम पूछी। श्यामा ने कहा, “आज फिर हमारी भेंट सहज स्थिति में हो रही है - पिछली कई बार तो हमेशा कुछ-न-कुछ-”
केतकी उन अवसरों को याद करना नहीं चाहती जिनकी ओर इशारा है। जल्दी से विषय बदलती हुई बोली, “आज तो अल्ताफ साहब के सम्मान की गोष्ठी है न? पहली बार भी हम उन्हीं के कारण मिले थे...” कहते-कहते उसे लगा, यों अल्ताफ को उभार कर सामने ले आना भी ठीक नहीं है। एक बार फिर विषय बदलते हुए उसने पूछा, “आज तो आपका गाना सुनने को मिलेगा न?”
श्यामा ने एक बार पीछे मुड़कर डी.पी. की ओर देखा और कुछ अनमने भाव से कहा, “मेरा गाना!” फिर बोली, “आज तो आपका ही गाना होना चाहिए - एक दिन तो मैंने रेडियो पर आपका गाया हुआ पन्त का गीत सुना था - बहुत अच्छा गाती हैं आप!”
“श्यामा जी, एक गाना होता है जो - गाना होता है। एक दूसरा होता है जो समाज को सुनाना होता है। मुझसे तो अलग-अलग कारणों से दोनों ही छूट गये।”
“आप तो, सुना है, संगीत सिखाती भी हैं - “
“हाँ, और संगीत सिखाने का मतलब ही है गीत का मर चुका होना - संगीतकार मर जाता है तो म्यूजिक मास्टर बनता है; और कवि मरता है तो साहित्य पढ़ाने लगता है।”
“बहुत कड़वी बात कह रही हैं आप, केतकी जी! ऐसे सोचने लगें तो सरकारी नौकरों को आप कहाँ रखेंगी पता नहीं। कौन मर कर सरकारी नौकर बनता है?” अपना ही सवाल श्यामा को मनोरंजक लगा। “यह भी चर्चा का एक अच्छा विषय हो सकता है - कौन मर कर सरकारी नौकर बनता है!”
केतकी ने भी शामिल होते हुए कुछ शरारत से पूछा, “या कौन मर कर एम.पी.?”
श्यामा ने जल्दी से मुड़ कर एम.पी. की ओर देखा और लगभग फुसफुसाते स्वर से बोली, “श्-श्-श्! हमारे बड़े मेहरबान हैं एम.पी. साहब और सेंस आफ ह्यूमर उन्हें छू भी नहीं गया है!”
डी.पी. उठ कर उनकी ओर आ रहे थे। केतकी ने कहा, “हमारे देश की राजनीति के भीतर ह्यूमर खोजना हो तो उसे बाहर से देखिए। सारी राजनीति एक मजाक है।”
डी.पी. ने आखिरी बात सुन ली थी। बोले, “हाँ, मगर किसके साथ मजाक? यह सोचने लगें तो ह्यूमर बना नहीं रह सकता - बाहर रह कर तो और ज्यादा तकलीफ होगी।”
केतकी ज्यादा उलझना नहीं चाहती। एक साथ ही बात स्वीकारती और बदलती हुई बोली, “और इसलिए शायर की मौत ही सेफ सब्जेक्ट है। सवाल को कैसे रखा जाय -कौन प्रेत हो कर कवि बनता है - या कि कवि प्रेत हो कर कौन बनता है?”
श्यामा जोर से हँसी। अल्ताफ ने मौका देख कर आगे बढ़ते हुए कहा, “अरे-अरे, किस कवि की जान ले रही हैं आप, श्यामा जी!”
“केतकी जी ने मसला यह उठाया है कि शायर मर कर क्या बनता है, और कौन मर कर शायर बनता है?”
अल्ताफ ने मानो केतकी को पहले-पहल देखा - “ओह! केतकी जी हैं! नमस्कार!”
केतकी ने बन्दगी करते हुए कहा, “आदाब अर्ज है, शायर साहब! और आपको बधाई भी दे लूँ - यह तो हमारी खुशकिस्मती है कि आपको बधाई दे कर हम अपने को धन्य कर सकते हैं।”
केतकी के स्वर के ठंडे और पैने विनय से चौंकते हुए डी.पी. ने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा, मानो किसी नयी केतकी को देख रहे हों। अल्ताफ ने भी उसे लक्ष्य किया, पर एकाएक उसकी काट न सोच पाया। बोला, “बधाई की कोई बात भी हो, केतकी जी! वह तो रमानाथ ने नाहक एक छोटी-सी बात को इतना तूल दे दिया। खैर, दोस्तों से मिलने का कोई बहाना मिल जाय, उनकी किरपा हासिल हो जाय - अच्छा ही है।” इतनी बात मानो सबके लिए कही गयी थी। अब वह केतकी की ओर मुखातिब हो कर बोला, “तुम कब आयी, केतकी? बम्बई से, कि लखनऊ से, कि कहाँ से?”
श्यामा जी और डी.पी. दोनों ने कुछ कुतूहल से पहले अल्ताफ की ओर और फिर केतकी की ओर देखा। बात केवल 'तुम' सम्बोधन की नहीं थी; अल्ताफ के स्वर में भी एक अप्रकट अवज्ञा थी, मानो वह दूसरों से छिपा कर केतकी को सुई चुभोना चाह रहा हो। केतकी कैसे उत्तर देगी?
केतकी ने कहा, “जब बला आती है तो यह नहीं पूछा जाता है कि कहाँ से आयी। लोग अपना...”
अल्ताफ ने जल्दी से कहा, “अब तो कुछ दिन रहोगी न? कहाँ ठहरी हो?”
“आप आश्वस्त रहें, शायर साहब! मैं जल्दी ही जा रही हूँ।”
श्यामा ने कुछ आश्चर्य दिखाते हुए पूछा, “कहाँ, केतकी जी?”
केतकी ने कुछ थके हुए स्वर में उत्तर दिया, “मेरा कोई ठिकाना थोड़े ही है! मन शान्त नहीं है इसलिए सोचती हूँ तीर्थों का एक चक्कर लगा आऊँ - इस देश में वही तो सनातन नुस्खा है शान्ति का!”
“चे-खूब!” अल्ताफ ने एक ढीठ मुस्कराहट के साथ कहा, “केतकी जी, आपने वह पुरानी कहावत तो सुनी होगी, नौ सौ...”
इस प्रकट बदतमीजी पर श्यामा और डी.पी. बड़े असमंजस में पड़ कर मुड़ रहे थे, पर केतकी के अविचलित स्वर से ठिठक गये।
“सुनी है, शायर साहब! उसका बुरा भी नहीं मानती। पुरानी कहावत है - कुछ तो सचाई उसमें होगी ही। इतना जरूर है कि नये जमाने की तरक्की-पसन्द बिल्लियाँ हज पहले ही कर आती हैं, फिर इत्मीनान से चूहों का शिकार खेलती हैं - कोई उँगली नहीं उठा सकता। अच्छा, अल्ताफ साहब, आज आपको बधाई के साथ-साथ एक खिताब भी दिया जाय तो कैसा रहे?”
“खिताब?”
“हाँ। 'हाजी साहब।' तरक्की-पसन्दी तो अपने आप में एक जियारत है।” केतकी ने सबकी ओर मुड़ते हुए कहा, “कोई ताईद भी कर दे तो मैं तालियाँ बजाऊँ कि रेजोल्यूशन पास हो गया।”
श्यामा एक मुस्कान दबा कर आगे बढ़ गयी। एम.पी. साहब ने 'रेजोल्यूशन' शब्द सुना और जोर से बोले, “भई, यह पीछे-पीछे की राजनीति क्या हो रही है? हम भी तो सुनें कि क्या रेजोल्यूशन है...।”
उत्तर केतकी ने दिया, “आज-कल तो सभी राजनीति पीठ-पीछे की राजनीति है। पर आप चिन्तित न हों - यह नान-पोलिटिकल बात है - शायरी से भला पालिटिक्स का क्या वास्ता?”
रमानाथ कुछ समय के लिए अदृश्य हो गया था। अब वह और सुधीर एक-एक बड़ी तश्तरी उठाए हुए आये और रमानाथ ने कहा, “लीजिए थोड़ा नाश्ता हो जाय - फिर अपनी मजलिस जमेगी।...”
बातचीत थोड़ी देर के लिए बन्द हो गयी। केवल नमकीन चबाये जाने की चुरमुराहट सुनाई देती रही। केतकी ने तश्तरी में से कुछ लेकर मुँह में डालते हुए कहा, “रमानाथ जी, मैं अब चलूँगी - बस आपकी बात रखने आयी थी, मुझे जल्दी जाना है...।”
केतकी ने एक-साथ ही सबको नमस्कार करते इजाजत ले ली। रमानाथ उसे छोड़ने बाहर तक आया।
“आपका जाना अच्छा नहीं लग रहा है, केतकी जी! आपकी अनुपस्थिति सबको - “
“अच्छा लगेगा, रमानाथ जी, अच्छा लगेगा! कुछ लोगों की गैरहाजिरी ही उनकी शिरकत होती है। इधर मुझे अपने आपको पहचानने में बहुत से लोगों ने बड़ी मदद की है। अच्छा, नमस्कार!”
रमानाथ अचकचाया-सा ताकता रह गया और केतकी फुर्ती से चली गयी।
किवाड़ उढ़के हुए थे। केतकी ठिठकी; भीतर से कुछ स्वर उसे सुनाई दिया था। कौन आया होगा? फिर वह चौंक कर तेजी से आगे बढ़ी - एक स्वर उसने पहचाना था। फिर वह जड़ होती-सी रुक गयी, एक हाथ घुटने पर रख कर मानो उसने अपने को सँभाला, और फिर दरवाजे पर दस्तक दी। फिर वह धीरे-धीरे किवाड़ ठेल कर भीतर प्रविष्ट हुई।
“केतकी!”
पलंग की बाहीं पर बैठा हुआ हेम खड़ा हो गया। सामने कुर्सी पर कुन्तल बैठी थी। केतकी को देख कर वह उठी नहीं; उसका केवल एक हाथ उठा और उधर बढ़ा और एक शब्द सुनाई दिया, “जीजी!”
किवाड़ के पास ही ठिठकी केतकी बारी-बारी से दोनों को देखती रही। क्या कहे, किससे पूछे, वह कुछ तय नहीं कर पा रही थी।
“अच्छा हुआ तुम वहाँ अधिक नहीं ठहरीं - तुम्हारी बहन देर से तुम्हारा इन्तजार कर रही है।”
अब भी केतकी बोली नहीं, उसने आँखें कुन्तल पर टिका दीं। आँखों में प्रश्न उभर आया था; बाकी चेहरे को वह बिलकुल भाव-रहित रखने का यत्न कर रही थी।
धीरे-धीरे कुन्तल खड़ी हुई। एक कदम केतकी की ओर बढ़ा कर उसने कहा, “जीजी, मैं तुमसे क्षमा माँगने आयी हूँ।”
“मुझसे! क्षमा!” केतकी का स्वर जैसे बड़ी दूर कहीं से आया हो। “केतकी तो - मर गयी न, अब उससे क्या क्षमा? केतकी तो प्रेत भी नहीं हुई होगी, बिल्कुल मर गयी होगी।”
हेम ने कहा, “बम्बई में तब जो कुछ जैसे हुआ वह कुन्तल ने मुझे बताया है। तुमने भी पूरी बात मुझे कभी नहीं बतायी थी...”
केतकी ने धीरे-धीरे कहा, “मेरे बताने को था क्या - और कब बताती? मैं तो अपराधिनी थी - हूँ - और मैं तो भाग गयी थी तुम्हें छोड़ कर...”
कुन्तल बोली, “जीजी, किसी के अपने को अपराधी कहने से कुछ नहीं होगा। हम सभी अपराधी रहे - जिन्होंने अपने को सही माना वे शायद अधिक अपराधी रहे। मैं नहीं जानती कि तुम मुझे क्षमा कर सकोगी कि नहीं - नहीं करोगी तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा - पर मैं माँग रही हूँ सच्चे दिल से। जो हो गया है उसे मैं अनहुआ तो नहीं कर सकती -तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करने की मैंने जो कमीनी डींग हाँकी थी - उस बात को तो मैं वापस ले सकती हूँ!”
कुन्तल चुप हो गयी। केतकी भी चुप खड़ी रही। हेम ने बारी-बारी से दोनों की ओर देखा, फिर वह भी चुप रहा।
अन्त में कुन्तल ही फिर बोली, “मैंने उस दिन तुम्हारी ओर से सेठ जी से क्षमा माँगी थी। आज मैंने उनकी ओर से हेम बाबू से क्षमा माँगी है। और तुमसे तो माँग ही रही हूँ।” वह थोड़ा रुकी : “हमारे समाज में नारी का यही मुख्य काम है - वह आजीवन क्षमा ही माँगती रहती है - सबकी ओर से सबसे क्षमा। यह मैं शिकायत नहीं कर रही - न नारी की ओर से कोई दावा कर रही हूँ।”
हेम ने केतकी से कहा - और उसके स्वर में नया कुछ था जिससे एकाएक केतकी का गला भर आया : “केतकी, मैंने तुम्हारी बहन से चाय-पानी को भी नहीं पूछा है - और अब तो भोजन का समय हो आया है।” फिर कुन्तल की ओर देख कर असहाय से स्वर में बोला, “मैं बिल्कुल अव्यावहारिक आदमी हूँ - बल्कि नाकारा ही हूँ - आपने तो इन सब घटनाओं से यह समझ ही लिया होगा।”
केतकी ने कहा, “कुन्तल, तुम्हारे साथ अब कॉलेज वाली बहसों में नहीं पड़ूँगी। पर तुम यही तो कह रही हो न कि लड़की पैदा हुई तो वहीं से उसका क्षमा माँगना शुरू हुआ - कि मैं लड़की क्यों पैदा हुई - पैदा ही क्यों हुई! नारी का यह रूप मुझे तो स्वीकार नहीं है। हाँ, जिससे जो अपराध हुआ उसे वह पहचाने, स्वीकार करे, वह ठीक है। पर तब कौन किससे कम अपराधी है?”
“लेकिन जीजी, उसके बाद भी सब क्षमा नहीं माँगते। कुछ अपने को अपराधी देखते हैं तो जज बनते हैं - फैसले देने चलते हैं। दूसरे...”
हेम ने कहा, “यह तो आपने मेरा चरित्र आँक दिया।”
कुन्तल मुस्कराने को हुई थी, पर उसने देखा, केतकी का चेहरा स्याह पड़ गया है। उसने अपने को रोक लिया। केतकी हेम की ओर मुड़ कर बोली, “मुझसे जो बहस थी, उसे आगे बढ़ाने के लिए कुन्तल को निमित्त बनाना जरूरी नहीं है। यह बहस है भी नहीं - हम सभी अपने-अपने जीवन की बात कर रहे हैं।”
हेम ने कहा, “हाँ, केतकी। मैं समझ रहा हूँ। वैसी बात करने की हिम्मत रोज-रोज नहीं आती। मुझे वह तुमने दी है तो अभी जो कह रहा हूँ कह लेने दो।”
“और मुझे-मुझे तुमने दी है। और - चुप रहने का धीरज भी दिया है।”
कुन्तल ने असमंजस प्रकट करते हुए कहा, “अब आप लोगों की इस बात में मैं कहाँ जा छिपूँ?”
हेम ने सँभलते हुए कहा, “केतकी, तुम्हारी बहन ठीक कहती है।” फिर कुन्तल की ओर मुड़ते हुए, “मैं क्षमा माँगता हूँ - लीजिए, मैं भी क्षमा माँगता हूँ। अपनी ओर से, केतकी की ओर से नहीं।”
केतकी ने भी प्रकृतिस्थ हो कर कहा, “चल, मुँह-हाथ तो धो ले - “ और एकाएक रुक गयी। फिर उसने हेम से पूछा, “क्वार्टर में ले जाऊँ - या - “
केतकी कुन्तल का हाथ पकड़ कर भीतर ले चली। कुन्तल ने कहा, “नहीं जीजी, मैं अब चलूँगी। सेठजी के रिश्तेदारों के यहाँ ठहरी हूँ। यहाँ इतने ही काम के लिए आयी थी - यानी मेरा काम था क्षमा माँगना - अब तुम क्षमा दो, न दो, तुम्हारी इच्छा - या मेरा भाग्य।”
“बड़ी आयी भाग्य की बात करने वाली!” कह कर केतकी रुकी। “पर शायद ठीक ही कहती हो। चलो तुम्हें पहुँचा आएँ - “ हेम से उसने कहा, “एक ताँगा बुला लिया जाय - कुन्तल को पहुँचाना होगा...”
“मैं चली जाऊँगी। पहुँचाने तुम दोनों में से किसका जाना कम गलत होगा, पता नहीं!”
केतकी एक फीकी हँसी हँस दी। कुन्तल ने कहा, “जीजी, तुम हो बड़ी निर्मोही - तुमने मंजु के बारे में पूछा तक नहीं - “
“मैंने कुछ भी पूछने का अधिकार खो दिया है। पर - “
“वह अच्छी तरह है। उसका पूरा ख्याल रखती हूँ। और - “ कुन्तल थोड़ा झिझकी, “और कोशिश करती हूँ कि तुम्हारी जो याद उसे बनी है वह कड़वी न होने पाये...”
केतकी ने भर्राये गले से कहा, “शायद तूने ठीक ही प्रायश्चित किया मेरा - मेरी शादी ही गलत थी; खैर, जो छूट गया सो छूट गया। अब तो मंजू भी तेरी बेटी है...”
दूसरे कमरे से हेम ने कहा, “ताँगा तो आ गया...”
कुन्तल के चले जाने के बाद केतकी पहले क्वार्टर की ओर गयी, फिर आ कर चुपचाप खड़ी हो गयी। हेम खोया-सा कुरसी पर बैठा, उसे मानो केतकी के आने का भी पता नहीं था। केतकी देर तक चुपचाप उसे देखती रही। अन्त में उसी ने मौन तोड़ा।
“अब?”
हेम चौंका। “अरे तुम कब से खड़ी हो?” वह उठने को हुआ, फिर बैठे-बैठे ही उसने पलंग की ओर इशारा किया। “बैठो। कैसी रही पार्टी?”
केतकी ने परिवर्तन लक्ष्य तो किया पर स्वीकार नहीं किया। खड़े-खड़े ही बोली, “पार्टी! अंग्रेजी में कहीं पढ़ा था कि शायरों-कलाकारों की पार्टियाँ ऐसी होती हैं जैसे जंगल के मैदान में कई शेर जुटे हों। मुझे तो लगा कि कई एक लोमड़ चौकन्ने हो कर पैंतरे कर रहे हैं।”
हेम एक अवश-सी हँसी हँसा। “तुम्हारी बहन क्या ऐसी पार्टियों में अक्सर जाती है?”
केतकी ने कुछ झुक कर कहा, “कौन, कुन्तल? सोशल तो बहुत है - पर क्या कुछ कहा उसने?”
“बता रही थी कि अल्ताफ साहब का जो सम्मान बम्बई में हुआ उसका इन्तजाम खुद उन्हीं ने किया था। ठीक उसी समय कुछ जरूरत थी उसकी।”
“ऐसा तो होता रहता है। बम्बई में तो पब्लिसिटी का खास महत्त्व है - और बड़े प्रोफेशनल ढंग से होती है।”
“वही बता रही थी - सेठ मदनराम का क्या फिल्म-व्यवसाय में भी कुछ हाथ है?”
“हाँ, शायद - कुछ कम्पनियों में साझा है। पर क्यों?”
“किसी फिल्म के लिए स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखने का काम अल्ताफ को मिला है। जब बात चल रही थी तब अल्ताफ ने शायरों से पब्लिसिटी करायी कि काम उन्हीं को मिल जाए। कामयाब भी हुए।” हेम रुक कर थोड़ी देर विचार में खोया रहा। केतकी भी चुपचाप प्रतीक्षा करती रही। फिर हेम बोला, “कुन्तल ने ही बताया कि फिर अल्ताफ सेठ मदनराम से मिलने भी गया था।”
केतकी के चेहरे पर उसे परेशानी दीखी, पर उसने कुछ कहा नहीं।
“सेठ ने मिलने से इनकार कर दिया। कहला दिया कि डायलॉग लिखता है तो डायरेक्टर के पास जाए - वहाँ क्यों आया है?”
“फिर?”
“फिर कुछ नहीं। डायलॉग लिखे जा रहे होंगे और क्या?”
एक लम्बी और भारी चुप धुन्ध की एक बाँह-सी उनके बीच फैल आयी। देर बाद हेम ने कहा, “नो कमेंट? क्या सोचने लग गयीं?”
केतकी ने धीरे-धीरे कहा, “सोच रही थी कि विधाता के इन्साफ करने के तरीके भी अजीब होते हैं और उसके लिए वह निमित्त और मौके भी ऐसे चुनता है कि हम सोच भी नहीं पाते,” वह कुछ रुकी। “पर उस लोमड़ टोली को वहीं छोड़ दें तो कैसा? मुझे तुमसे एक बात पूछनी थी - पूछ सकती हूँ?”
हेम ने बिना कुछ कहे उसकी ओर नजर उठायी तो केतकी बोली, “जंगबहादुर को वापस बुला लूँ?”
हेम ने सीधे जवाब न देते हुए एकटक उसकी ओर देखते हुए पूछा, “पता है तुम्हारे पास?”
“नहीं। तुम फार्म पर लिख दो तो मैं तार दे कर बुला लूँ - तुम्हारी अनुमति हो तो।”
हेम ने उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखते हुए दबे हुए विनोद के स्वर में कहा, “एवजी छुट्टी जाना चाहता है? तो हो गया नौकरी का तमाशा?”
“जी नहीं। साहब को दौरे पर भी तो सेवा की जरूरत होगी।”
“दौरे पर?”
“तुम भूल गये। मैंने प्रार्थना की थी न - चलो यात्रा कर आएँ। लम्बी यात्रा। उस बीच जंगबहादुर यह घर सँभालेगा।”
विनोद की वह झलक हेम के चेहरे से मिट गयी। धीरे-धीरे बोला, “पर निरुद्देश्य भटक कर क्या होगा?” उसका स्वर अनिश्चय का ही था, विरोध का नहीं।
“जी ही रहे हैं निरुद्देश्य तो यात्रा से एक लक्ष्य भी मिल सकता है। और यात्रा क्यों निरुद्देश्य है? मन धोना क्या छोटा उद्देश्य है?”
“अरे वह...” हेम के स्वर में अनिश्चय का भाव कुछ और बढ़ गया। फिर उसने कहा, “धोने लायक मन भी तो होना चाहिए। जिसका मन ही न हो...” एकाएक स्वर बदल कर वह बोला, “पुनि-पुनि चन्दन पुनि-पुनि पानी, पाधा सरिगे हम का जानी। मन ही नहीं होगा तो धुलेगा क्या?”
“वही स्थिति हो जाएगी तो भी अच्छी है।” केतकी ने हाथ बढ़ा कर हेम का हाथ पकड़ा और धीरे से बोली, “चलो, थोड़ा छत पर चलें। खुली हवा में अच्छा लगेगा।”
हेम खिंचता चला गया। उसे अच्छा भी लगा यों आदिष्ट होते चले जाना, और इस अच्छा लगने पर थोड़ा-सा विस्मय भी हुआ। बोला, “पर जंगबहादुर को आने में तीन-चार दिन तो लगेंगे ही।”
“लगें। दस लगें। तब तक सेवा में चूक नहीं होगी।”
हल्की-सी चाँदनी थी, पर दृश्य चाँदनी का नहीं था, बिजली की रोशनियों का था। केतकी थोड़ी देर देखती रही। फिर खोयी-सी बोली, “अजीब है तुम्हारी दिल्ली - है न? कोई सीधा रास्ता नहीं - हर रास्ते में चक्कर है।”
“अच्छी बात कही तुमने - पर दिल्ली नहीं, बारहखम्भा कहो - चक्कर इसी में है। यहाँ सीधा रास्ता वही चल सकता है जो चक्कर खाता चले। नहीं तो सीधा चलने का अहंकार पाला नहीं कि चकरघिन्नी खा गये - कब गिरे, कब खड़े हो गये, पता ही नहीं चलेगा। जिन्दगी का पूरा रूपक हो गया बारहखम्भा...”
केतकी ने हेम का हाथ छोड़ दिया।
“मुझे तो चौराहों वाले शहर अच्छे लगते हैं। वहाँ रास्ता चुनने की लाचारी है। चुनो, और तब चुनने का नतीजा भुगतो - कुछ बात तो बनती। यह क्या कि नतीजे तो भुगतो पर कर्म का अधिकार अपना न हो!”
“नहीं केतकी - ऐसा तो तभी दीखता है जब हम किसी जीवन को शुरू करते हैं -जीवन तो एक बिन्दु से शुरू नहीं होता - वह तो धारा की तरह आदिहीन बहता आया है। असल में रास्ता हम नहीं चुनते-रास्ता ही हमें चुनता है। और असल में कोई रास्ते सीधे नहीं हैं...”
केतकी ने तनिक आगे बढ़ कर बड़े हल्के स्पर्श से हेम का कन्धा सहलाया। फिर धीरे स्वर में बोली, “अभी दुखता है?”
हेम ने तत्काल उत्तर नहीं दिया। देर बाद ही बोला, “नहीं। कभी-कभी टीस उठती है...”
एकाएक केतकी ने उसकी बाँहें पकड़ीं; उसे लगा कि वह सिहर गयी है। छत पर ठंड है। उसने मुड़ कर कोमल स्वर से कहा, “चलें नीचे?”
“चलो।” केतकी का हाथ बाँह से फिसलता हुआ हेम की हथेली तक आया; केतकी ने उसकी उँगलियाँ पकड़ लीं और जैसे उसे खींचती हुई लायी थी वैसे ही खींचती हुई ले चली।
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