बारहखम्भा / भाग-11 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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हेम पत्थर हो गया। स्तब्ध, सन्न और आहत।

उसने धरती पर लोटी सर्वथा समर्पित केतकी की ओर देखा और फिर जैसे उसके चारों ओर का वातावरण उतप्त हो उठा। उसकी बुद्धि की गति मोहित हो गयी।

श्यामा ने उसकी उपेक्षा की थी - उस श्यामा ने जो अपने समर्पण के लिए उसका स्वीकार प्राप्त करने को इतनी उत्सुक थी - जिसकी गति और मति ने उसे अपनी सीमा मान लिया था - जिसके लिए संसार मानो सिमट कर उसी में केन्द्रित हो गया था - उसी श्यामा ने...

और अब केतकी उसका मूर्तिमान तिरस्कार बनकर उसके चरणों से लिपटने चली है। एकान्त होता तो बात दूसरी थी। इस प्रकार पतित समर्पण प्रसन्न तो कदाचित् उसे उस समय भी नहीं करता, पर एकान्त में वह उसे सहन कर सकता था। यहाँ, इतने परिचितों के सामने, और विशेषतः श्यामा के सामने! हाँ, केतकी ने उसके चरणों में लोट कर उसका अपमान किया है। अपमान इसलिए है कि केतकी को वह कुछ अपनी समझने लगा है और श्यामा उनके सम्बन्ध के विषय में सब कुछ जानती है। श्यामा के ऊपर इस घटना की क्या प्रतिक्रिया हुई है, इसके ऊपर उसने क्या टिप्पणी की है, यह जानने के लिए दृष्टि ने श्यामा से मिलना चाहा, पर पलकें उठी नहीं।

तिरस्कार का निराकरण है उसे स्वीकार कर नम्रतापूर्वक सिर पर धारण करना। स्वीकृति उसके दंश का शमन कर देती है, तिरस्कार की गर्मी नीचे उतर आती है। श्यामा द्वारा उपेक्षित न होता तो सम्भव है हेम की मति गतिवान होती; वह हँस कर केतकी का स्वागत करता। मुस्करा कर कहता - केतकी, यह क्या? तुम्हारे इस भीषण समर्पण से मुझे भय लगता है। मेरी रक्षा करो।

पर हेम तो साधारण व्यक्ति नहीं था, वह विचारवान था। उसे मनुष्य की प्रगति में आस्था थी। नवीन वैज्ञानिक ज्ञान ने जिन विचारकों को प्रभावित किया था वे उसके जीवन-दर्शन के रचयिता थे। वह साथी के सहारे नहीं, सिद्धान्तों के सहारे जीता था। उसका जीवन जल-प्रपात की भाँति निर्द्वन्द्व, स्वच्छन्द, कूलों को धोता हुआ नहीं बहता था। हेम अपनी जीवन-धारा को रोक कर खड़ा हो जाता था; ठहरता था, सोचता था, समझता था, अपने जीवन-दर्शन की पोथी को देख कर निश्चय करता था कि सिद्धान्त क्या कहता है? जब सिद्धान्त की स्वीकृति मिल जाती थी तो वह आगे बढ़ता था।

वह व्यक्ति था - समस्त संसार से पृथक् एक व्यक्ति था। उसके व्यक्तित्व का रुझान समाज से संयोग में नहीं, उसके विरोध में था। उसका अस्तित्व उसके व्यक्तित्व की इस विलगता में था। उसके व्यक्तित्व की सीमा मन्द पड़ी नहीं और हेम समाप्त हुआ नहीं। श्यामा ने उसे आकर्षित किया। केतकी ने उसे आकर्षित किया - युगों के पुराने पाशविक राग ने नवजात सिद्धान्त को परास्त किया। हेम ने अपने को छला। जीवन-धारा में प्रपात डालने का बहाना बना और हेम त्यागपत्र दे बम्बई चला गया। वह श्यामा से बदला ले रहा था। वह केतकी की सहायता कर रहा था। वह प्रगतिशील नारी के पति-बन्धन खंडित कर मुक्ति को आकार दे रहा था।

हेम केतकी को जानता था। उसके प्रणय-पत्र उसके पास थे। वह समझने लगा था कि वह केतकी को पहचानता भी है। पर सेठ को चुनौती देने वाली केतकी और इस केतकी में अन्तर था। वह उस केतकी को चाहता था जो चुनौती दे सकती थी, जो सामाजिक तूफानों के मध्य अपनी रीढ़ को सीधी और मस्तक को ऊँचा रख सकती थी -जिस केतकी में गहराई थी, दृढ़ता थी - जो काँपने वाली नहीं थी, जलती मशाल हाथ में ले कर जो अन्धकार को चीर देने वाली थी।

हेम को झटका लगा। यह केतकी भिन्न थी। निरीह, निराश्रय, हतभाग्य और टूटी हुई। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि प्रगति-पथगामिनी केतकी इतनी दुर्बल हो सकती है, इतनी छिछली और इतनी कातर हो सकती है। वह केतकी को समानता से पाना चाहता था, वह दासी नहीं चाहता था।

हेम तो दृढ़ है, चट्टान है। वह रबर के साथ मैत्री कैसे करेगा? और फिर जो आज रबर है उसे कल रुई बन जाने से कौन रोक सकता है - चट्टान और रुई! रुई ने चट्टान के चरण छू कर उसका अपमान किया है। हेम ने अनुभव किया कि वह आपादमस्तक तिरस्कृत खड़ा है। उसका अस्तित्व झन्ना उठा। कमरे के वायुमंडल में लपटें दौड़ गयीं।

एम.पी. ने केतकी को लोटे देखा। डी.पी. ने केतकी को लोटे देखा। डी.पी. की समझ में कुछ न आया। उन्होंने श्यामा की ओर देखा। श्यामा ने रमानाथ की ओर। और रमानाथ की दृष्टि ने हेम से प्रश्न किया - तुम्हारी तो मृत्यु हो गयी थी; यह मामला क्या है? ...पर हेम की दृष्टि में इस प्रश्न को स्वीकार करने की क्षमता इस समय नहीं थी।

एम.पी. ने केतकी को लोटे देखा। एक क्षण वह अडिग रहे। पर दूसरे क्षण उनका पुरुष जाग उठा। उन्होंने बदला लेते हुए कहा - “कापुरुष!” और केतकी को उठाने के लिए उस पर झुक गये।

हेम के लिए यह असह्य था। जैसे दहकते लाल तवे पर डाली गयी जल की बूँदें तवे पर ठहरना चाह कर भी नहीं ठहर पातीं, उछाल कर दूर फेंक दी जाती हैं, उसी प्रकार हेम उस कमरे से बाहर निकल गया। उसके अस्तित्व की समस्त शक्ति जा कर उसके पैरों में केन्द्रित हो गयी; वह चल पड़ा दूर, इस स्थान से दूर, इस काल से बहुत दूर, इस घटना से बहुत दूर। उसका मस्तिष्क सुन्न था। वह सोच नहीं सकता था। उसके शरीर में केवल एक ही अंग क्रियाशील था और वे थे उसके चरण। वे स्ट्रेचर-वाहकों की भाँति रोगी को विश्राम-गृह की ओर लिए जा रहे थे।

केतकी ने एम.पी. के हाथों को अपनी ओर बढ़ते देखा। उसने उसकी दृष्टि को भी पकड़ा। उसमें करुणा थी, सहानुभूति थी। उसने उनकी नासिका को देखा, वह तनिक चढ़ी हुई थी और नासिका के नीचे थे उनके ओठ जो विजय के गर्व से मुस्करा उठे थे।

केतकी में बिजली-सी दौड़ गयी। कोई उसे करुणा दे, उस पर नाक चढ़ाये, उस पर विजय का गर्व करे - यह उसे असह्य है। और यह भद्दा पुरुष! वह तत्काल उठ बैठी। एक दृष्टि स्थिर बैठी श्यामा की ओर फेंकी और हेम के पीछे कमरे से बाहर चल दी।

एम.पी. ने अपने हाथों को समेट लिया। वह अपने से सन्तुष्ट जान पड़ते थे। उनका काम कुछ करना नहीं है। उनका काम है जन-जन में सोयी उस शक्ति को जगा देना जो राष्ट्रों को उन्नति के पथ पर आगे ले जाने वाली है। इस नारी में उन्होंने उस शक्ति का संचार कर दिया था। हाँ, यह निश्चित था कि वह उसकी कृतज्ञता नहीं प्राप्त कर सके थे।

उन्होंने श्यामा और फिर डी.पी. की ओर देखा। बोले, “यह है हमारा देश; और ये हैं हमारे देश के सुशिक्षित नर-नारी। जीवन के मोटे-मोटे शिष्टाचार लोग भूल गये हैं। इस जनता को ले कर हमें देश का शासन चलाना है। देश को आगे बढ़ाना है। संसार के समृद्धिशाली देशों में भारत माता के झंडे को ऊँचा रखना है। यह तो भगवान ने कुशल की कि इस प्राचीन भूमि में कुछ नेता उत्पन्न हो गये, नहीं तो...”

श्यामा ने एक निरर्थक मुस्कान से एम.पी. के कथन का समर्थन किया।

डी.पी. ने कहा, “जीवन की कला बड़ी संयमसाध्य कला है। जो संयम के बन्धन से छूटा वह उखड़ गया, उसे जमने में समय लगता है।”

एम.पी. ने कहा, “इन उखड़े हुए लोगों को जमाना ही हमारा कर्तव्य है।”

रमानाथ ने कहा, “श्यामा जी, जान पड़ता है कि मुझे भी जाना ही चाहिए। डी.पी. भाई, मैं फिर उपस्थित हूँगा। अभी तो आप यहीं हैं।”

डी.पी. ने एम.पी. की ओर संकेत करके कहा - “आपकी कृपा है।”

रमानाथ ने सोचा : हेम मर गये। केतकी उसे खोजती उसके घर पर पहुँची और फिर उनके पीछे-पीछे श्यामा के यहाँ। यहाँ उसने उसकी ओर देखा तक नहीं। हेम को पाया और उसके पैरों पर गिर पड़ी। क्या रहस्य है इसमें? हेम के हाथ में चोट है। उसमें पीड़ा है। यह चोट हेम को कैसे आयी? और केतकी! केतकी जैसी प्रबुद्ध नारी सबके सम्मुख हेम के चरणों पर लोट गयी। इसमें रहस्य है, निश्चय ही कोई गहरा रहस्य है।

श्यामा के क्वार्टर से वह तेजी से चला। दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ायी पर हेम दिखाई नहीं पड़ा। एक नारी सड़क के मोड़ पर उसे दिखाई दी। उसे सन्तोष हुआ : केतकी ही तो है। वह बड़ी तेजी से जा रही थी। उसकी चाल में एक विचित्र अटपटापन था। ऐसा लगता था जैसे कि मोटर की अभ्यासिनी होकर वह पैरों का उपयोग भूल गयी हो, और इस समय उसके पैर पुनः अपने कर्तव्य को सँभाल लेने की चेष्टा कर रहे हों।

रमानाथ ने केतकी को पहचान लिया, पर एकाएक उसे अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ। मोटर-विहीन केतकी की कल्पना उसके लिए दुष्कर थी। उसने आँखों को मला। कुछ मिनट पहले की घटनाओं का स्मरण किया और निश्चय कर लिया कि वह केतकी ही है। पर अब केतकी मोड़ पर घूम कर उसकी दृष्टि से ओझल हो चुकी थी।

रमानाथ लपका। उसने पुकारना चाहा : केतकी जी! पर स्वर उसका कंठ त्यागने से पूर्व ही हतप्राण हो गया।

रमानाथ पाँच-सात डग दौड़ा। पर एक बालक की उपस्थिति ने उसकी गति कुंठित कर दी। निश्चय ही केतकी किसी कठिनाई में है। वह उसके पास आयी थी। वह उसकी सहायता कर सकता है। वह गाती अच्छा है। उसने उसे रेडियो पर प्रोग्राम दिलाया था। वह इतना तेज चला कि पन्द्रह-बीस डग में ही पसीने-पसीने हो गया। मोड़ पर पहुँच कर उसने पाया कि ताँगे की सहायता के बिना केतकी को पाना असम्भव है। वह एक ताँगे में बैठ गया।

ताँगा बगल में रुका तो केतकी चौंकी। रमानाथ की वाणी उसने नहीं सुनी। वह रुकी। ताँगे में देखा तो रमानाथ को पाया। उसकी पहले इच्छा हुई कि वह भागे। रमानाथ से बहुत दूर भाग जाए। पर फिर ठहर गयी। नहीं, वह भागेगी नहीं। किसी से क्यों भागेगी! वह अकेली एक ओर, और सारा संसार एक ओर। वह बड़ी दृढ़ता के साथ खड़ी हो गयी।

रमानाथ ने कहा, “केतकी जी!”

“कहिए।”

“मैं रमानाथ हूँ।” रमानाथ को परिचय देने की आवश्यकता अनुभव हुई।

“जी!”

“आप!”

“कहिए!”

“आप मेरे यहाँ गयी थीं। क्षमा कीजिए, मैं घर पर था नहीं।”

केतकी दृढ़तापूर्वक मुस्करायी। बोली, “जी नहीं, मैं तो आपके यहाँ नहीं गयी। किसी ने आपको गलत सूचना दी है।”

“सम्भव है। उस व्यक्ति ने मुझसे यह भी कहा था कि हेम मर गये हैं।”

“हेम बाबू को तो अभी आपने अपनी आँखों से जीवित देखा है।”

“जी।”

“हेम बाबू की मृत्यु का समाचार जितना सत्य है, उतना ही सत्य मेरी आपके घर जाने की सूचना है।”

उलझती पहेली में रमानाथ और भी अधिक उलझ गया। बोला, “सम्भव है कोई गलतफहमी हो गयी हो। आइए, ताँगे में आ जाइए।”

केतकी ने कहा, “धन्यवाद, आप चलिए, मैं...”

रमानाथ ने कहा, “आइए, आप जहाँ कहिएगा, वहीं छोड़ दूँगा।”

केतकी ने साहस बटोरा, कहना चाहा कि वह ताँगे में नहीं जाएगी। अब जब वह धरती पर उतर आयी है तो धरती पर ही चलेगी। पर वह कह न पायी।

“आइए!” रमानाथ ने कहा।

और केतकी ताँगे में बैठ गयी। ताँगा चल निकला। रमानाथ ने केतकी को निकट से देखा तो पाया कि उसमें बड़ा परिवर्तन आ गया है। उसकी उत्फुल्लता तिरोहित हो गयी है और चिन्ता की रेखाएँ उभर आयी हैं।

उसने पूछा, “कहिए, कुशल से तो रहीं?”

“आपकी दया।”

“आपके पति?”

केतकी को एक धक्का लगा। आपके पति! मैंने उसको त्याग दिया है, पर संसार की दृष्टि में तो अब भी मैं उनकी ही पत्नी हूँ और वे मेरे पति हैं।

एक बार उसके मन में उठा कि वह सब बातें रमानाथ को ब्यौरेवार स्पष्ट समझा दे कि वे अब मेरे पति नहीं हैं। मेरा पति कोई नहीं है। मैं पतिहीना हूँ। पर वह बात उसके मुँह से निकली नहीं। उसने कहा, “हाँ, वे अच्छी तरह हैं, उनका स्वास्थ्य भी अब पहले से अच्छा है। हाँ, व्यापारिक व्यस्तता तो...”

रमानाथ को विश्वास नहीं हुआ। वह अनेक प्रश्न पूछना चाहता था। पर केतकी की मुद्रा दृढ़ थी। वह बोलना नहीं चाहती थी। रमानाथ को अनुभव हुआ कि वह उसके किसी भी प्रश्न का उत्तर देना अस्वीकार कर सकती है।

वे मौन रहे आये। ताँगा चलता गया। मोटरों के भोंपुओं और साइकिलों की घंटियों की ध्वनियाँ सघन होती गयीं। विस्थापितों की दुकानों की लम्बी पंक्तियों के बीच में ताँगा खींचता हुआ घोड़ा आगे बढ़ता गया और कनॉट सर्कस के बाहरी गोले में घूम गया।

“बस, मैं यहीं उतरूँगी।”

रमानाथ को बोलने का अवकाश न मिला। ताँगेवाले ने ताँगा रोक लिया। केतकी उतर गयी।

केतकी कनॉट सर्कस के भीतर चली गयी। जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गयी, रमानाथ उसकी ओर देखता रहा।

हेम के कन्धे की पट्टी, केतकी और हेम के चरण!

केतकी जब हेम के घर पहुँची तो हेम पलंग पर लेटा हुआ था। उसने सोच लिया था कि केतकी सरलता से उसे छोड़ेगी नहीं। वह अवश्य घर पर भी आएगी। और वह कब चाहता है कि केतकी उसे छोड़े। वह तो चाहता है कि वह छुड़ा-छुड़ा कर भागे और केतकी दौड़-दौड़ कर उसे पकड़ने का प्रयत्न करे। पर आज श्यामा के घर पर वह घटना ठीक नहीं हुई। नहीं, केतकी को कोई अधिकार मुझे इस प्रकार अपमानित करने का नहीं था। तभी उसे पग-ध्वनि सुनाई दी। यह पग-ध्वनि उसकी पहचानी हुई थी। उसके भीतर एक उल्लास उठा पर ओठ बिचक गये। ध्वनि निकट आती गयी। हेम ने करवट ले ली।

मुँह फेरे-फेरे उसने पूछा, “जंगबहादुर, कौन आया है?”

केतकी उसके पलंग के निकट जा कर खड़ी हो गयी। बोली, “जंगबहादुर यहाँ नहीं है। मैं केतकी आयी हूँ।”

“केतकी?”

“हाँ हेम, मैं केतकी ही हूँ।”

और एक कुर्सी खींच कर वह पलंग के निकट बैठ गयी। उसने हेम का हाथ अपने हाथों में लेना चाहा। पर हेम ने उसे धीरे से सरका लिया।

केतकी कुछ तन कर बैठ गयी। पूछा, “हेम, कुछ याद है तुम्हें?”

“कुछ नहीं, मुझे बहुत-कुछ याद है। तुमने मेरे कन्धे पर शीश टेका। सामने एक भद्दा-सा पुरुष चीखा। पर जोर से ध्वनि हुई। वातावरण थर्रा गया और मुझे लगा कि संसार का अन्त आ गया है। मेरे पैरों के नीचे से उतनी आलीशान अट्टालिका निकल गयी। कुछ घंटे पश्चात् मुझे ज्ञात हुआ कि मैं गुंडा हूँ। तुमने मुझे गोली मार दी है और पकड़ी न जा सको इसलिए भाग गयी हो।”

“हेम, हेम, तुम यह क्या कर रहे हो?”

“मैं वही कह रहा हूँ, जो मैंने सुना है। यही कथा कुन्तल ने मजिस्ट्रेट के सामने कही है। तुमने मुझे गोली मारी। उसकी आवाज सुनी तो कुन्तल और तुम्हारे पति दौड़ कर आये।”

“मेरे पति!” केतकी गम्भीर हो गयी, “हाँ हेम, कदाचित् तुम ठीक कहते हो। वे ही मेरे पति हैं। यद्यपि मैं उनके पास लौट कर कभी नहीं जाऊँगी।”

“तुम्हें अब लौट कर जाने की आवश्यकता नहीं है। कुन्तल ने तुम्हारा स्थान ले लिया है।”

“कुन्तल ने!”

“हाँ, कुन्तल ने। उसने तुम्हारे पाप की अग्नि में अपनी आहुति दी है।” हेम ने व्यंग्य किया।

पर केतकी गम्भीर रही। वह विचारमग्न हो गयी। कुन्तल ने अपने जीजा से विवाह कर लिया! इतनी जल्दी! क्या हो गया उस लड़की को? और कुन्तल की बाल खोले मूर्ति उसके सामने आ गयी। कुन्तल को उसने बचपन से खिलाया है। उसकी शिक्षा-दीक्षा की पूरी देख-रेख रखी है। पुराने संस्कारों के दलदल में फँसकर वह अपने जीवन को घोंट न डाले, इसकी ओर उसने यथासम्भव ध्यान रखा है। और उसी कुन्तल ने उसे धिक्कारा था, उसने कहा था, “जीजी, क्या तुममें कोई हया नहीं है जो पराये पुरुष के कन्धे पर सिर रख कर अपने पति को छोड़ने की बात कर रही हो? और तब मैं तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करूँगी, अवश्य करूँगी!” तो कुन्तल ने मेरे पाप का प्रायश्चित किया है? उसने अपने भीतर ठठा कर हँसना चाहा। कहना चाहा कि मूढ़ता की बलि इसी प्रकार चढ़ती है। पर ठठा कर हँस नहीं सकी। और कुन्तल को निरी मूढ़ता की मूर्ति भी नहीं मान सकी। उसके भीतर एक अँधेरे से कोने में एक हल्का सन्तोष उदय हुआ। कुन्तल ने अपने जीजा से विवाह कर लिया है तो मंजु की देख-भाल ठीक से हो सकेगी। कुन्तल के प्रति कृतज्ञता की भावना उसके मन में उभरने को हुई, पर उसने बलपूर्वक उसे दबा लिया।

वह परपुरुष उसके सामने पलंग पर लेटा हुआ था जिसके कन्धे पर उसने सिर टेका था। उसी को मृत्यु-मुख में छोड़ कर भाग आयी थी। यह कायरता थी। क्या वह हेम से केवल आश्रय-मात्र चाहती थी? उसे उस सम्मिलित जीवन में देना कुछ नहीं था? और जब प्रदान का प्रथम अवसर आया तो वह भयभीत हो गयी। खरगोश की भाँति कुत्तों का भौंकना सुन कर भाग निकली। वह इतनी दुर्बल है! केतकी दुर्बल है, इसमें सन्देह नहीं। उसे लगा कि वह गिर जाएगी। उसने कुर्सी के हत्थों को बलपूर्वक पकड़ लिया।

कमरा एक बार तेजी से घूमा, फिर रुक गया। दूसरी बार फिर उसने घूमने का प्रयत्न किया। पर केतकी अपने को सँभाल लायी थी। उसने हेम की ओर देखा। अर्द्धनिमीलित नेत्र, व्यथित चेहरा। उसे लगा कि हेम अपने आपको शान्त बनाये रखने का घोर प्रयत्न कर रहा है। और तब उसने हेम की चिबुक और नासिका को देखा। उसमें उसको वही निश्चलता, वही दृढ़ता अनुभव हुई जो उसने हेम की भुजाओं में अनुभव की थी। वह अब तक अपने को हेम का समकक्ष समझ रही थी, पर अब वह गिरी, और अपने भीतर तेजी से बहुत नीचे गिरी।

उसने हेम के साथ विश्वासघात किया है। उसने हेम को केतकी की लड़ाई लड़ने का आह्वान दिया। जब हेम ने उसे स्वीकारा तो केतकी ने हेम को मोर्चे की सबसे अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया और जिस समय हेम विपक्षी के आक्रमण का समस्त भार अपने ऊपर झेल रहा था उस समय वह मुँह छुपा कर वहाँ से भाग निकली - और भागी भी ऐसी कि बिल्कुल बेदम हो कर। घर-घर आश्रय खोजती फिरी। वह कायर है, महा कायर है। हाँ, उसने हेम के साथ विश्वासघात किया है। और हेम का व्यवहार उसकी समझ में कुछ-कुछ आने लगा है। वह अपराधिनी है। वह अपराधिनी है हेम की।

वह हेम के पास ठहरी क्यों नहीं? ठहरती तो क्या हो जाता? वह बन्दिनी बनती। पुलिस, थाना और कचहरी। उसे फाँसी कैसे होती, हेम तो मरे नहीं हैं। तो उसे कारावास का दण्ड मिलता और एक बहुत बड़ा स्कैण्डल खड़ा हो जाता। वह भागी तो एक स्कैण्डल बच गया। केतकी को अचानक अनुभव हुआ कि और तो और वह स्कैण्डल से भी डरती है। वह महा डरपोक है, दुर्बल है, कायर है।

पर अपने इस धिक्कार का उसने ही विरोध किया। वह इतनी कायर नहीं है कि अपनी भूलों के लिए हेम से क्षमा न माँग सके। उसने कुर्सी के हत्थों को छोड़ा। तन कर बैठी। शरीर में और फिर मन में एक दृढ़ता का अनुभव किया। हेम के पलंग की ओर तनिक झुकी, उसके अधमुँदे नेत्रों को देखा। उसने अनुभव किया कि हेम अपने इन अधमुँदे नेत्रों से उसके प्रत्येक मनोभाव को पढ़ता रहा है पर अब उसे इसकी चिन्ता नहीं थी। वह हेम से भयभीत नहीं हो सकती। उसने हेम के ललाट को हाथ से छू कर कहा “हेम, तुम मुझे क्षमा करो।”

हेम ने उत्तर नहीं दिया। उसने पुकारा, “जंगबहादुर!”

“जी!” जंगबहादुर कमरे में उपस्थित हो गया।

“ताँगा ले आओ, और जहाँ यह बीबीजी कहें वहीं इन्हें पहुँचा आओ।”

लगभग डेढ़ बजे हेम की आँख खुली और उसने करवट ली। सामने पाया कि कुर्सी पर केतकी बैठी हुई उसकी ओर एकटक निहार रही है। निकट ही उसके छोटी मेज पर गर्म पानी की बोतल है, तौलिया है। छोटी-छोटी गद्दियाँ हैं। उसे नींद आज अच्छी आयी है। तो यह केतकी यहाँ बैठी उसे सेंकती रही है। उसके नयनों में नींद का नाम भी नहीं दिखाई देता। उसे अपनी दृष्टि पर विश्वास नहीं हुआ। उसने आँखों को मला। केतकी वहाँ से अन्तर्धान नहीं हुई। वह और भी स्थूल और स्पष्ट हो गयी।

उसे झटका-सा लगा। उसने केतकी की ओर से आँखें हटा लीं और पुकारा, “जंगबहादुर!”

केतकी ने कहा, “जंगबहादुर अभी सोया है, कहिए।”

हेम ने पुकारा, “जंगबहादुर!”

केतकी जैसे जागी। वह हेम का तात्पर्य समझ गयी। बोली, “तो आप यह जानना चाहते हैं कि मैं यहाँ कैसे हूँ? जंगबहादुर मुझे कहीं छोड़ कर क्यों नहीं आया?”

हेम कुछ बोला नहीं।

“जंगबहादुर ने आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। वह ताँगा ले आया। मैं ताँगे में बैठ भी गयी और फिर वह घूम-फिर कर जंगबहादुर की कोठरी के सम्मुख आ कर खड़ा हो गया। उसकी समझ में नहीं आया। कहा, 'बीबी जी?' मैंने उससे कहा, 'जंगबहादुर, मैं कुछ दिन तुम्हारी कोठरी में रहना चाहती हूँ। क्या तुम...?' और हेम, तुम्हारा यह जंगबहादुर हीरा है। वह प्रसन्न हुआ और उसने शीघ्र अपना सामान समेट कर एक ओर को कर लिया। मैं अब जंगबहादुर के यहाँ ठहरी हुई हूँ। वह बहुत अच्छा मनुष्य है। ऐसा नौकर तुम्हारे पास है इसके लिए तुम्हें बधाई है। वह अभी तक मेरी सहायता करता रहा है। अभी-अभी सोने गया है। आज तुम्हें पीड़ा कुछ अधिक जान पड़ती है। तुम सोने का प्रयत्न करो।”

हेम ने सुना कि केतकी जंगबहादुर के यहाँ ठहरी है। उसे एक आघात लगा। उसने ध्यानपूर्वक केतकी को देखा। कंठ को सँभाल कर गम्भीरता से बोला, “तो आप जंगबहादुर के यहाँ ठहरी हैं?”

“हाँ!”

हेम विचार में डूब गया।

केतकी ने कहा, “आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए। जो हो गया वह हो गया। गलती सब मेरी है। मुझमें बहुत दुर्बलताएँ हैं। उनके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे।”

हेम ने सोचा, दुर्बलताएँ हैं। बोला, “तुम्हारी दुर्बलताओं के लिए मैं तुम्हें क्षमा करूँ -यह किस अधिकार से?”

“पीड़ा के अधिकार से। हेम, तुमने मेरे लिए कितना कष्ट उठाया है, जीवन को अव्यवस्थित किया, नौकरी छोड़ी और मौत को छूने के लिए आगे बढ़ गये। हेम, मैं अपना उत्तरदायित्व अनुभव करती हूँ। अपने काँटों में तुम्हें घसीटने का मुझे कोई अधिकार नहीं था।”

और अब हेम को लग रहा था कि केतकी वास्तव में कुछ है। वह जंगबहादुर के साथ यहाँ से चली क्यों गयी? उसने हठपूर्वक क्यों नहीं कहा कि मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। वह बलात् इस घर में क्यों नहीं रही?

पर हेम केतकी के विषय में इतनी रुचि क्यों ले? क्या उसने केतकी को ले कर जो कुछ सहन किया है, वह पर्याप्त नहीं है? पर क्या? हाँ! उसने जो कुछ सहा है उससे क्या केतकी का मूल्य बढ़ा नहीं है?

उसके विचारों में एक कुटिलता आयी। उसने पूछा, “तो आप अब जंगबहादुर के यहाँ रहेंगी! अपने पति के पास लौट कर नहीं जायेंगी?”

केतकी तिलमिला उठी। उसने अपने को सँभाला।

“आप विश्राम कीजिए।”

“आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।”

केतकी को लगा कि यह हेम उसे चुनौती दे रहा है। समझता है कि मैं उसके इस प्रश्न के सामने नहीं पड़ सकती। बोली, “देती हूँ आपके प्रश्न का उत्तर। मैं जंगबहादुर की कोठरी में केवल उस समय तक रहूँगी जब तक कि आप स्वस्थ नहीं हो जाते। और रही पति के पास लौटने की बात, वह तो मैं सोच नहीं सकती। आपको खतरे में डाल कर जो स्वतन्त्रता मैंने प्राप्त की है, उसे मैं सहज ही नहीं बहा दूँगी।”

हेम में केतकी के प्रति एक सन्तोष का भाव जागा। उसने कहा, “तो आपका प्रोग्राम यह है। पहले मेरी तीमारदारी और फिर... हुँ! पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी तीमारदारी की मुझे विशेष आवश्यकता नहीं है। वह एक भौतिक आघात है, शरीर के पंचभूत उसे स्वयं ठीक कर लेंगे।”

केतकी ने कहा, “हेम बाबू, यह आघात आपके शरीर पर ही नहीं है। मेरे सारे जीवन पर है। मेरे सामाजिक अस्तित्व पर है। और वहाँ वह केवल भौतिक नहीं है। वह भौतिक तलों को छेदता हुआ उसकी गहराई में उतर गया है। वह मुझे पीड़ा देता है। उसमें तीखी कसक है, मुझे उसका उपचार करना है। क्या उसका उपचार करने में आप मेरी सहायता नहीं करेंगे? क्या आप इस बीमारी में मुझे अपनी सेवा करने का अवसर नहीं देंगे? आपने मुझे बहुत कुछ दिया है, क्या मेरी यह प्रार्थना अस्वीकार करेंगे?”

“केतकी!”

“हेम बाबू, आप मुझे अपनी सेवा करने का अवसर दीजिए। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि जिस दिन आपको मेरी आवश्यकता नहीं होगी, उस दिन मैं स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी।”

“केतकी!”

“आप करवट ले लीजिए। आपके कन्धे के पिछले भाग को सेंकना है। हाँ, शाबाश! दैट्स लाइक अ गुड ब्वाय।”