बारहखम्भा / भाग-10 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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कछार से पानी उतर जाए, वह सूख कर चटकने लगे और तब अचानक फिर लहर थपेड़ा मार कर उस पर से बह जाए, उसके रोम-रोम को सिक्त कर जाए, तब...?

जंगबहादुर ने भीतर घुस कर कहा, “शा'ब, तार आया है।”

इधर आठ दिन से हेमचन्द्र का मन एक अद्भुत सूनेपन से भर गया था। प्रौढ़ व्यक्ति अपने को जिन सहारों से बहला कर अपनी अपूर्तियों को पूरा करने का प्रयत्न कर रहा था, आज वे सारे सहारे ऐसे टूट गये थे जैसे बालक ने जो हँसते-हँसते मेज पर से काँच का गिलास गिरा दिया हो, वह धरती पर टुकड़े-टुकड़े हो कर बिखरा गया हो। केतकी गयी। श्यामा का कोई अपराध नहीं देखा था, किन्तु वह इतने दिन से नहीं आयी। और उस भोर उसके पास एक पुरुष सोया हुआ था। हेम का मन सिहर उठा। उदासीन स्वर में कहा, “ले आओ।”

दस्तखत किया। तार खोला। खोल कर पढ़ा। पढ़ कर चिन्ता में पड़ गया। पैंडोरा के बक्स से भी अधिक आश्चर्यजनक वस्तु थी उसमें। जैसे-जैसे वह सोचता उसे लगता कि बगदाद के चोर ने अचानक सुराही खोल दी थी, जिसमें से एक विराट् दानव निकल कर आकाश के नक्षत्रों को अपने कठोर अट्टहास से कम्पित कर रहा था। किन्तु यह दानव कल्पना का मूर्ख स्वत्व नहीं जो पुनः उसमें समा जाता। वह स्वयं हेम से दासत्व चाहता था।

हेम उठ कर कमरे में घूमने लगा। क्या यह सत्य है? आज सारा जीवन फिर आँखों के सामने घूम रहा है। कौन कह रहा है कि जीवन की सबसे बड़ी कठोरता यह है कि हेम तरुण नहीं, वह अब प्रौढ़ है। स्त्री उसको अब भी आकर्षित करती है। किन्तु क्या वह अपने दृष्टिकोण में स्वयं विकृत नहीं हो गया है, कि उसमें वही बचपन है जो आज तक किसी गाम्भीर्य में बदल जाना चाहिए था। उसने आतंकवाद, चित्रकला, व्यापार और क्या-क्या नहीं किया? कुछ हो जाने की तृष्णा का छोटा पशु अब धीरे-धीरे रेसकोर्स का घोड़ा बन कर निरन्तर दौड़ता चला जा रहा है। क्यों?

आज हेम विवाहित होता तो क्या वह ऐसा ही स्वप्नद्रष्टा होता? जिसने समाज के सम्बन्धों को बालू की तरह उठा-उठा कर मुट्ठी से छोड़ दिया, वह दृढ़ नींवों की गरिमा क्या जाने? उसने मानवीय सौजन्य को आज तक केवल एक कृत्रिम मुस्कराहट ही तो दी है? और जो कुछ वह हो जाना चाहता है, उसके लिए तितिक्षा भी नहीं, कर्म का तो पगचिह्न भी नहीं। निष्क्रियता! हेम निष्क्रिय! श्यामा, एक ढलते यौवन का आन्तरिक हाहाकार कि हाय आज तक मुझे प्रेमी नहीं मिला जो यों हो, जो यों हो... छिः अपने को महान समझना सबसे बड़ी लघुता है... और हेम के अवचेतन में से इस समय कोई हँसा... मेगैलोमेनिया!

और उसके मस्तिष्क में एक नयी हलचल हुई। सरकारी नौकरियाँ! सब ही करते हैं। डाँटते हैं, बनावट उनकी नाक की नोक में ऐसे चुभती है जैसे जूते की कील, जघन्य प्राणी! अपने ही हाहाकार में, अपनी ही विवशता में डूबते-छटपटाते हुए ये लोग, ये भी क्या कोई मनुष्य हैं? पेट... पेट के लिए जिन्होंने अपना ईमान बेच दिया, जैसी रोटी खाते हैं, वैसा ही न सोचेंगे ये आडम्बर के प्राणी, जैसे इनके चमड़े के भीतर खून नहीं, भरा है भुस... वह साफ भुस भी नहीं कि जिसे खाकर भैंस दूध दे सके...

हेम हँसा। और अब यह तार!

दबी हुई वासना की चाँदनी भी समाज के सामने आते समय प्रचंड धूप की भाँति चिलचिला सकती है कि अपनी ही कल्पना का पन्थी उस चमकती बालू पर पाँव रखने से डरने लगे... यह तो हेम ने कभी नहीं सोचा था!

दिल्ली! दसवीं बार बसी यह दिल्ली भी कुतुबनुमे की उत्तर दशा की भाँति एक यन्त्रणा की ही ओर इंगित कर रही है। और यह मध्यवर्गीय उच्छृंखलता, आर्थिक आधारों में धोबी के खूँटे से बँधी, उस आजाद कुत्ते को आदर्श बना रही है, जिसे धोबी की लड़की गोदी में उठा कर चुमकारती है, और उन हसरत-भरी आँखों से उसे देखती है, जिस आदर्श को झकझोरती अदम्यता से नये फराऊन ने पुराने फराऊन के बनाये पिरैमिड को भी नहीं देखा होगा।

सारा जीवन ऐसा हो गया है जैसे कोई बड़ी प्राप्ति की छलना में सिगरेट पी कर यह समझ रहा है कि वह कुछ पी रहा है। एक छोर पर आग लगी हुई है, दूसरे को वह फेफड़ों तक खींच रहा है, शायद सिगरेट की कालिख की काजर पारने... और... जो इतने दिन से प्रतीक्षा थी वह आज... इतने दिन से जो दिल किनारे से लगा बैठा था...

हेम मुस्कराया। लहर आयी तो है, पर बरसाती गन्दगी लिये, तूफान और हलचल भरी, ऐसी जिसमें से कछुए सिर निकाल कर देख लेते हैं, और जो स्वयं साँप-सी फुफकारती है। इसकी तो यौवन की गमगमाहट भी एक उष्ण उच्छ्वास से भरी तड़फड़ाहट है...

हेम इसी लहर की प्रतीक्षा कर रहा था? दृष्टि रुकी। लहर छोटी हुई और सिकुड़ी और सामने के गुलाबी कागज के टाइप किये चिपके सफेद कागज की चिप्पियों पर निस्तब्ध हो गयी।

“मैं तुमसे भीख माँगती हूँ। मेरी रक्षा करो। तुरन्त चले आओ। सेठजी आ गये हैं। मेरा दम घुट रहा है। कुन्तल मुझसे नाराज है। मैं अकेली हूँ, नारी हूँ, साहस बटोरती हूँ, चले आओ, नहीं तो शायद बम्बई का समुद्र ही मेरा पता दे सकेगा। केतकी।”

तार है? पूरा पत्र! तारघर में शायद रिपोर्ट भी होगी कि एक स्त्री आत्महत्या करना चाहती है! पर क्या यह सत्य है! सब वर्गों में प्रजनन करने वाला प्राणी स्त्री होता है, मध्यवर्गीय घुटन में वह नारी कहलाता है। और नारी दीप लिये आँचल में जाती है, दीप को बुझने से बचाती है और साथ में उसे यह डर भी तो बना रहता है कि कहीं उसके दीप से स्वयं उसमें ही आग न लग जाए!

हेम चाहता है हँस ले, जी भर कर हँस ले। उसके उपचेतन का बर्बर जो समर्पण चाहता था, यौन-तृष्णाओं का चरण-स्पर्श चाहता था, आज वह ऐसे सामने आ गया है जैसे सर्प की मणि हेम ने उठा ली है और सर्प अपने स्वत्व को उसके हाथ में जाते देखकर उसे दनादन डँसे जा रहा है, पर हेम पर असर नहीं होता; आज सारा विष उसका रक्त बनता चला जा रहा है, उसकी धमनियों में बजता हुआ, एक मादक स्फुरण भरता चला जा रहा है। उन्निद्र नहीं, भास्वर; भास्वर नहीं दीप्ति! दीप्ति! दीपक की! आहन्त! अन्धकार! वीतराग का वीभत्स स्वप्न! माया! गंगा के फेनिल बुद्बुद-सा ग्राहारूढ़ समुद्र की ओर लालायित प्रयाण! हेम जाएगा!

जाएगा? क्या कहेगा सेठ? क्या वह दूसरे की स्त्री को भगा कर लाएगा? क्या यह उचित है? हेम को उस कहार की याद आयी जो जीवा काछी की बहू को भगा ले गया था। तब हेम ने स्कूल से लौटते समय बचपन में देखा था कि जीवा को पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी क्योंकि उसने कहार और अपनी स्त्री की गर्दनों को गँडासे से काट दिया था।

वह सिहर उठा। तो क्या वह न जाए?

हेम बैठ गया। वह सोच में डूब गया। बहुत देर बाद उसने सिर उठाया। इस समय उसके मुख पर मुस्कराहट थी। उद्वेग थम गया था।

वह जाएगा। केतकी को समझाएगा कि जीवन केवल मनमानी उच्छृंखलता नहीं है। यदि वह सेठ के साथ नहीं रहना चाहती तो न रहे, वह समाज के लिए कुछ उपयोगी काम कर सकती है, केवल यौन समस्याओं की तृप्ति ही तो जीवन की सबसे बड़ी गुत्थी नहीं है!

पर मन में किसी ने कहा : कायर! तुम्हारा अपना जीवन क्या है? होटल का खाना, अस्पताल की मौत।

वह मुस्कराया।

“जंगबहादुर!” हेम ने धीमे से आवाज दी।

“शा'ब!” पहाड़ी ने देखा। उसकी छोटी आँखें अब प्रश्नवाचक चिह्न बन गयीं थीं।

हेम ने कहा : “सामान बाँधो! हम कल बम्बई जायेंगे।”

और हेम धीरे से बुदबुदाया - “छुट्टी भी तो लेनी है।” और फिर कहा, “नहीं, अब इस्तीफा देना है...”

इस विचार से वह प्रसन्न हो उठा।

श्यामा अनमनी-सी खड़ी रही। “कहाँ गये हैं?”

जंगबहादुर ने अपनी आँखें उठा कर कहा : “बम्बई गया है।”

बम्बई! श्यामा को आश्चर्य हुआ। वह तो पूछने आयी थी कि उसने इस्तीफा क्यों दिया? और रमानाथ से बातों में उसे पता चला था कि केतकी बम्बई गयी है। फिर पूछा : “कब गये हैं?”

“कल,” पहाड़ी ने उत्तर दिया। उसके बड़े-बड़े दाँत बाहर निकल रहे थे।

श्यामा को ऐसे लगा जैसे चक्कर आया। वह कुर्सी पकड़ कर बैठ गयी और उसके बाद जंगबहादुर थर्रा गया। बीबीजी के दाँत भिंच गये, मुट्ठियाँ बँध गयीं। सारा शरीर अकड़ गया।

पहाड़ी का गोल चेहरा अठपहलू हो गया। बीबीजी तो मर गयी! वह बाहर भागा। डॉक्टर नौरंगलाल पास ही रहते थे। पहाड़ी ने घबरा कर कहा, “चलिए डॉक्टर शा'ब!”

डॉक्टर उस समय किसी चोरबाजारी के पैसे से बीमार जेब वाले का इलाज करने का नुस्खा लिख रहे थे। सुनते ही बात ऐसे उड़ा दी जैसे कान पर मक्खी बैठ गयी हो। जंगबहादुर खड़ा रहा।

आधा घंटे बाद जब नौरंगलाल जंगबहादुर के साथ भीतर घुसे, कुर्सी पर कोई नहीं था। श्यामा चली गयी थी। जंगबहादुर ने आश्चर्य से ऐसा गोल मुँह फाड़ दिया जैसे अब्बंगा करके भीतर से लोहे का गोला निकालने वाला हो।

देवीप्रसाद ने बत्ती बुझा दी और श्यामा को हल्का शाल उढ़ाते हुए कहा, “अब कैसी तबियत है?”

“ठीक हूँ,” श्यामा ने धीमे से कहा।

“ठीक होतीं तो ऐसे बोलतीं?” दिवू ने कहा; “सिर का दर्द कैसा है?”

“कम है,” श्यामा ने मुँह दूसरी ओर कर लिया। अब उसे लगा - वह सह नहीं सकेगी। वह रोने लगी। देवीप्रसाद सिरहाने बैठ कर उसके बालों पर हाथ फेरने लगा।

“रोओ नहीं।” उसने धीरे से कहा। श्यामा सिसकती रही।

“रोने से जी हल्का हो जाएगा,” देवीप्रसाद ने उसी स्नेह से कहा, “रोना बहुत अच्छी चीज है।”

श्यामा के मन पर दवंगरा गिरा। एक पुरुष जो कहता है कि हृदय को बहा देना अच्छा है। हेम होता तो शायद कहता - नारी का आँसू... एक छलना, स्त्री की विषमता का प्रपंच...

देवीप्रसाद ने अपने रूमाल से उसकी आँखों को पोंछ दिया।

“नहीं रोऊँगी।” श्यामा ने धीमे-से कहा।

“क्या हुआ यह?” देवीप्रसाद ने पूछा।

श्यामा झेंपी। उसे कहते हुए झिझक हुई कि उसे हिस्टीरिया है। पढ़े-लिखों में आम जानकारी है कि अतृप्त सेक्स के कारण स्त्री को फिट आने लगते हैं। कैसे कहे वह? यह तो कोई साधारण बात नहीं।

“हो जाता है,” श्यामा ने कहा, “मैं सोऊँगी।”

“सिर का दर्द बाकी है?”

“थोड़ा है।”

“मैं बाम लगा देता हूँ।”

“नहीं, तुम सो जाओ। व्यर्थ क्यों जागते हो?”

पर देवीप्रसाद की उँगली और अँगूठे के बीच में उसका माथा समा गया। बाम की चिरमिराहट लगी, फिर एक ठंडक; श्यामा को नींद आ गयी।

जाने कब उसकी आँख खुली। देखा - दिवू सिरहाने बैठा-बैठा ऊँघ गया था और सामने की मेज पर उसका माथा टिक गया था। चाँदनी की फुही ने उसके मुँह पर एक करुणा फैला दी थी। श्यामा देखती रही। क्यों नहीं सोया यह? क्या यह डी.पी. बदला है? नहीं? कब तक आखिर? कोई बोला नहीं...

अखंड ममता... दुर्दमनीय स्नेह...

श्यामा ने उसे जगाया नहीं। देखती रही। उसे ऐसा लगा जैसे कोई सिंह उसके प्रभाव में आ कर पालतू-सा सो गया था। यही है वह व्यक्ति जिसने जीवन में केवल उसका उपकार करना जाना है! कभी प्रतिकार नहीं चाहा! बाप की मौत के बाद जनमी, माँ की दुतकारी, पराई स्त्री के दूध पर पली भिखारिन को इसी ने तो इस दर्जे तक पहुँचाया है! इसमें न रमानाथ की लोलुपता है, न हेम की स्पर्धा का अहं। केवल आस्तिकवाद का करुण समर्पण है यह। आया था, केवल देख कर चले जाने को - ठहरने भी नहीं। केवल यह देखने को कि जो दीपक उसने स्नेह डाल कर जलाया है, उसकी शिखा अभी तक आलोक फैला रही है न? यह नहीं कि उस आलोक से इसने अपने मन के अन्धकार को भी कभी हटाने का प्रयत्न किया हो।

श्यामा का ममत्व कुलबुलाया। एक लड़की है, रेशम। आठ-नौ दिन से अकेली होगी। जब डी.पी. को यहीं अच्छी सर्विस मिलने की सम्भावना है तभी तो उसने आग्रह से दिल्ली में रोक लिया है। रेशम कॉन्वेंट में है। पिता को उसका ध्यान रखने का समय भी नहीं। श्यामा को डी.पी. ने इतनी सब सहायता दी। श्यामा ने रेशम के लिए क्या किया? कुछ नहीं।

और इसी दिवू की स्त्री ने श्यामा के कारण ही विष खा कर प्राण त्याग कर दिया, किन्तु दिवू! शमी की भाँति भीतर जल जाएगा, पर बाहर? वही हरियाली, वे ही पतले-पतले छोटे पत्ते। निर्विकार!

श्यामा ने देखा। स्वयं बरसात की नदी की भाँति फुंकार रही थी। जो उसमें आता है उसे वह भँवर में डाल कर मोहान्ध कर देती है। दिवू शान्त पर्वत है। उसने सब-कुछ स्नेह से स्वीकार कर लिया है। जो कुछ किया है वह उसकी सहृदयता है, उस पर किसी का थोपा अधिकार नहीं है।

इस समय वह इतना टेढ़ा हो गया है कि अकड़ा-सा है, नींद ने बच्चे की तरह सुला दिया है।

श्यामा को लगा, वह बहुत हल्की थी। हल्की!! तो क्या केतकी उससे श्रेष्ठ थी! और श्यामा को एक विचार आया जिससे उसका रोम-रोम थर्रा गया।

उसका यौवन ढल रहा था। वह उनतीस की हो चुकी थी। केतकी की मादकता निःसन्देह उसमें नहीं थी। उसे एक भय हुआ। पुराने रईस की आती दरिद्रता और ढलती जवानी में नारी की विचलित अवस्था प्रायः अलग नहीं होती। और हेम... पुरुष प्रौढ़ भी हो, तरुणी चाहता है... स्त्री अपने लिए आसरा खोजती है, छाया चाहती है...

श्यामा ने देवीप्रसाद का हाथ पकड़ कर जगाया, “सोते क्यों नहीं? रात-भर ऐसे बैठे रहोगे तो तन में सुबह दर्द नहीं होगा?”

“ओह!” दिवू ने कहा, “श्यामा!” तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो! मेरे लिए तुम सो भी नहीं सकती...”

वह उठ खड़ा हुआ... वह चला गया... श्यामा तकिये में मुँह छिपा कर फफक-फफक कर रोने लगी...

दिवू लौट आया। पास बैठ गया। कहा : “तुम्हें बहुत दुःख है?”

श्यामा ने उसकी गोद में अपना मुँह छिपा लिया।

मंजु का रुदन बढ़ चला। बालिका का क्रन्दन सुन कर उसके पिता भीतर के कमरे से निकल आये। बम्बई के व्यापार की उलझनों को फाड़ कर वह रुदन उनके कान में पड़ा। वह चुपचाप देखते रहे। उन्होंने बालिका को पुचकारा नहीं। नौकरानी जमना से कहा था, पर वह पास नहीं है। कुन्तल शायद पढ़ रही है। और बच्ची की माँ सैर करने गयी है!

सेठ को क्रोध आने लगा। किन्तु वह बोला कुछ नहीं। उसका मौन बच्ची के लिए सान्त्वना नहीं बना। वह और गला फाड़ कर रोने लगी।

सेठ पूर्ववत् ही खड़ा रहा : मर अभागी! तेरी माँ ही तुझे अपनी ममता न दे सकी, तो तू क्या इस संसार में रहने योग्य है?

सामने का पर्दा हटा। कुन्तल नहा कर बाल काढ़ती हुई दिखाई दी।

“अरे, बेबी रो रही है?” कुन्तल ने कहा; “जीजी कहाँ है?”

“सैर करने गयी है।” सेठ ने विष-भरे स्वर से कहा। और फिर जैसे वह सह नहीं सका, गुर्राया - “इसीलिए मैंने घर बसाया था? आवारा औरत! सब औरतें ऐसी ही होती हैं?”

“जीजाजी!” कुन्तल ने दृढ़ता से कहा।

“तो तुम्हारी बहन ठीक है?” सेठ ने घूरा।

“नहीं,” कुन्तल ने कहा, “यह आपकी गलती है। आप ही ने उन्हें अपने स्नेह से छूट दी है, आप ही ने उन्हें इतनी स्वतन्त्रता दी है। जो स्त्री अपने बच्चे को नहीं सँभाल सकती, उसका जीना न जीना संसार में बराबर है।”

सेठ चार कदम चल कर मेज के पास जा खड़ा हुआ। इज्जतदार! वैभव का स्वामी! और अपने पारिवारिक जीवन में इतना निरीह!

“आज उसे आने दो,” सेठ ने मुड़ कर कहाः “मैं फैसला करके रहूँगा।”

इसी समय द्वार पर सुनाई दिया, “मैं फैसला करके ही आयी हूँ।”

कुन्तल ने देखा, हेम और केतकी खड़े थे। हेम सौम्य, शान्त। केतकी वासना से दमदमाती। कुन्तल का होठ घृणा से मुड़ गया। सेठ अपनी मेज के पास मौन खड़ा रहा, जैसे धरती के भीतर ज्वालामुखी फूटने से पहले एक अज्ञात हलहल हो रही थी।

“कुन्तल!” सेठ ने कहा, “देखती हो?”

कुन्तल ने सिर झुका लिया।

“मैं जाना चाहती हूँ।” केतकी ने कहा : “मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती,” कह तो गयी, पर लगा लड़खड़ा कर गिर न जाय, उसने हेम के कन्धे पर सिर टेक दिया।

“निर्लज्ज!” सेठ ने फूत्कार किया।

कुन्तल ने घृणा से भौं संकुचित करके कहा, “जीजी! क्या तुम्हें कोई हया नहीं, जो पराये पुरुष के कन्धे पर सिर धर कर अपने पति को छोड़ने की बात कह रही हो!”

“कुन्तल! तू पढ़ी-लिखी हो कर, पिताजी के उपदेशों को सुनकर, यह क्या कह रही है?” केतकी ने आश्चर्य से कहा।

“मैं हिन्दू हूँ जीजी, और शर्म की बात कह रही हूँ। मेरे लिए आज से तुम मर गयीं।”

केतकी ने व्यंग्य से मुख विकृत करके कहा, “तो मेरी जगह तू ही न अपने जीजाजी की मदद कर!”

अप्रत्याशित रूप से कुन्तल ने कहा, “तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करूँगी और अवश्य करूँगी।”

हेम चुप खड़ा था। केतकी ने फिर कहा, “बाँदी!”

विद्रूप उसके होठों पर कुलबुलाया। वे दोनों मुड़े। सहसा सेठ ने कठोर स्वर से कहा, “ठहरो!”

और मुड़ कर देखने के साथ ही देखा - सेठ तपे हुए लोहे की तरह गम्भीर खड़ा था। उसके नेत्रों में भयानक अपमान की ज्वाला थी। उसके बगल की मेज की दराज खुली थी और उसके हाथ में पिस्तौल थी, जिसकी नली सामने उठी हुई थी और वह मशीन की भाँति कह रहा था, “सब-कुछ सुनता रहा हूँ, किन्तु यह साँपिन मुझे इतना निरीह समझती है! जाते हो तो दोनों जाओ...”

केतकी भयातुर-सी चिल्लायी। कब गोली चली, कब कुन्तल ने झपट कर सेठ का हाथ पकड़ा, सब एक झटके में बीत गया। गोली हेम के कन्धे में लगी और वह सिर के बल जा गिरा। खून फूट निकला। कुन्तल ने पिस्तौल छीन कर उसे पोंछा और दूर फेंक दिया। रामसिंह और जमना जब भाग कर आये तो देख कर जीभ तालू से सट गयी और आँखें फटी-की-फटी रह गयीं।

जमना चीख पड़ी, “हाय राम! यह क्या हुआ?”

किन्तु कुन्तल ने गम्भीर स्वर से कहा, “कुछ नहीं जमना! यह बदमाश घर में आ गया था। शायद जीजी ने उसे गोली मार दी। हम और जीजा जी तब ही भाग कर आये हैं।”

हेम मूर्छित हो गया था। सचमुच केतकी भाग गयी थी।

“तो बीबीजी कहाँ हैं?” रामसिंह ने पूछा।

सेठ ने निर्विकार स्वर से कहा, “वह शायद एक अपने दूसरे दोस्त के साथ भाग गयी।”

कुन्तल ने शर्म से सिर झुका लिया। रामसिंह हेम को उठाने लगा।

रात हो गयी थी। लखनऊ के मध्यवर्ग में डूबते सामन्ती वर्गों की रंगीन-दोनों की सम्मिलित ऐयाशी, और टुटपुंजिये वर्ग की क्रान्ति की बातें, हजरतगंज के कॉफी हाउस से निकल कर चाय की प्यालियों में तूफान पैदा करतीं और उसी माहौल में अल्ताफ जैसे कवियों का पोषण होता है। अल्ताफ का जीवन एक ओर क्रान्ति की कविता था, किन्तु तृष्णा थी उच्च-वर्ग में सम्मानित होने की। इस समय उसके माथे पर खिंची रेखाओं में एक परेशानी थी। सामने केतकी बैठी थी उदास, आँखों में हिन्द महासागर की नीलिमा लिये, जिनमें एक विद्रोह था, एक निर्वासन की विभीषिका थी, जिस सब पर भय और वीभत्सता थी, ऐसे जैसे गुलामों को सुल्तान बर्तानिया के जहाज अन्दमान पहुँचाने जा रहे थे।

“तुम...” अल्ताफ ने कहा, “लखनऊ में? ...कब आयीं?”

केतकी चुप बैठी रही, जैसे वह सकपका गयी थी। हठात् वह उठी और उसने अल्ताफ का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त करुण स्वर में उसने बोला, “अल्ताफ!”

अल्ताफ समझा नहीं, वह दिल में चौंका भी। कहा : “केतकी!!”

उसे केतकी के स्पर्श से वासना का निर्झर झरता हुआ दिखाई दिया। उसने उसे बाहुओं में भर लिया। केतकी रो दी। सम्भवतः इस समय ममता, आश्रय और भय सबके बादल टकरा कर पिघल उठे थे और भी सम्भवतः कुन्तल का विद्रूप, सेठ की बर्बरता और सबसे अधिक सम्भाव्य आज दूर से अच्छी लगने वाली पुत्री मंजु को न छू सकने की परवशता उसे कचोट उठे थे। आज वह अकेली रह गयी थी। - क्यों? अपने ही हाहाकार के कारण। उसने अपने हाथ से अपने घर में आग लगायी है। अल्ताफ बेबस-सा खड़ा रहा।

“रोती हो?” उसने पूछा।

तब केतकी ने सुनाया - वह अपने जीवन से बहुत असन्तुष्ट थी, बहुत! सेठ से उसे घृणा हो गयी थी। हेम को उसने समर्पण किया - चाहा कि उससे बँध जाए। पर तब वह साहस न कर सकी। वह बम्बई चली गयी। जुहू की सैर और चौपाटी की सतरंगियत भी उसके सूनेपन को न ढँक सकी। उसने कभी इतनी फुर्सत भी न पायी कि वह अपनी घुटन से मुक्त हो सके और उसी मजबूरी में उसने आत्महत्या का डर दे कर हेम को बुलाया। वह इस्तीफा दे कर आ गया और फिर इन दोनों ने तय किया - वे साथ-साथ रहेंगे। पर अन्तिम क्षण में सेठ अचानक ही क्रूर पशु बन बैठा। सदियों के संस्कारों में पली कुन्तल उसके विरुद्ध हो गयी। सेठ ने गोली चलायी - हेम शायद मर गया... मैं भागी, मुझे मालूम था कि वह जानवर मुझे भी मार डालेगा... बम्बई में दो दिन भटकती रही - उस तरफ डर से गयी भी नहीं। फिर जब कुछ भी नहीं सूझा तो सोचा समुद्र में डूब जाऊँ। पर फिर मुझे तुम्हारी याद आयी। याद आया, तुम शायर हो, तुम तरक्कीपसन्द हो, तुम औरत की आजादी चाहते हो, तुम सरमायादारों के चंगुल से मुझे बचा सकते हो... मैं चली आयी... आज तुम्हारे सिवाय मुझे इस दुनिया में कोई सहारा नहीं है...

अल्ताफ ने केतकी को छोड़ दिया और सामने की कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट सुलगा ली। वह गम्भीर चिन्ता में डूब गया था। दोनों एक-दूसरे की ओर घूरते रहे। घड़ी ने रात के बारह बजाए। अल्ताफ चौंक उठा। उसने धीरे से कहा, “तो तुम हेम के साथ भाग रही थीं? और जब उसके गोली लगी तब उसके मरने से पहले भाग आयीं?”

उसके मुख पर न घृणा थी, न भय, न ईर्ष्या, न विद्रूप। वह एक वैज्ञानिक की तरह फूल का 'डिसेक्शन' करके उसके अलग-अलग टुकड़े निकाल कर रख रहा था।

केतकी का मुख सफेद हो गया, जैसे उस पर कहीं भी रक्त नहीं था।

“अल्ताफ!” वह फुसफुसायी, मानो वह दिल्ली की उस मुहब्बती रात की याद दिला रही थी। उस समय अल्ताफ का मुख एक पैशाचिक नम्रता से भर गया था कि वह अत्यन्त करुण और अत्यन्त निर्दय दिखाई दिया।

“इसीलिए,” अल्ताफ ने रहस्य-भरे ढंग से सिर हिलाकर कहा, “इसीलिए तुमसे डरता हूँ। तुम्हें आदत है। तुम्हें आदत है...” और एकाएक उसने पलट कर कहा, “तुम्हारी बुर्जुआ जेहनियत, तुम्हारा पतबरतापन, औरत, खोखली नींवें, उससे भी खोखली आजादी...” वह हँसा। कहा, “तुम किससे डरती हो? बदनामी से? - बेवकूफ! नदी में तैरना औरत का, बुर्जुआ औरत का काम है, क्यों? क्योंकि वह नाव है, उसे भीगना ही होगा, वह अभी 'मीडियम' है, ब्रेवो... आओ... खुल कर खेलो... लोग दाँतों तले उँगली दबा लेंगे...”

“अल्ताफ!” केतकी चिल्ला उठी, “तुम कुत्ते हो!”

“चेखुश!” अल्ताफ ने सिर झुका कर कहा, “मैं जिस नस्ल का नर हूँ आप उसी नस्ल की मादा हैं। जैसा मैं अपनी नस्ल का सच्चा हूँ, आप अपनी नस्ल की मुझसे ज्यादा सच्ची हैं, क्योंकि आपके पास मुझसे कहीं ज्यादा हौसला है, क्योंकि आप अभी 'कोका कोला' हैं...”

वह हँसा। क्योंकि अपनी समझ में उसने अमरीकनों पर व्यंग्य किया था।

ऐसे मध्यवर्गीय प्रगतिशील जो अपने सहयोग से क्रान्ति के साथ रह कर गद्दारी करते हैं, समाज में हैं और अल्ताफ की भाँति ही हँसते भी हैं।

“मेरी राय में,” उसने सिगरेट फेंक कर कहा, “आज रात मेरे पास सो रहो, कल कहीं और...” और उसने केतकी को भेद-भरी दृष्टि से देखा।

केतकी उठी और कमरे के बाहर हो गयी। अल्ताफ ने झाँक कर देखा, अन्धकार में वह अमीनाबाद की तरफ मुड़ चुकी थी।

अल्ताफ ने निजात की साँस ली - बाप रे! बाल-बाल बचा!

हेम का मन रेल से भी तेज भाग रहा था। पंजाब मेल अपनी अनवरत गति से भागता चला जा रहा था। आज तक जो यन्त्र उसे पराजित कर रहा था, उसे आज पहली बार यह अनुभव हुआ कि यन्त्र उसकी मुक्ति है। वह कहाँ आ कर फँस गया था जहाँ से यह यन्त्र उसे शीघ्र-से-शीघ्र दूर किये दे रहा था, ले जा रहा था उस ओर जहाँ फिर यह कालिमा उसके माथे पर नहीं लग सकेगी। वह फिर पहले की भाँति सुख की साँस ले सकेगा। मानव की विजय! उसकी पीढ़ियों के संचित ज्ञान की परिणति। प्रत्येक युग में एक नयी रचना बन कर परिणत होती है। पहले वह काव्य-प्रमुख थी, द्विविधा दार्शनिकता थी, और अन्त में उसका विज्ञान। आज मनुष्य बहुत आगे प्रगति कर गया है। अब उसका विज्ञान ही उसके दर्शन का आधार बनता जा रहा है क्योंकि उसका कोई ज्ञान और चिन्तन अब विज्ञान और व्यवहार के बिना उसको सन्तोष नहीं देता। मशीन मनुष्य की जीवन-यात्रा की अनेक मंजिलों का संचित काव्य है। किन्तु पूँजीवादी समाज में जैसे काव्य का अपमान और दुरुपयोग हो रहा है, वैसे ही मशीन का दुरुपयोग और मनुष्य का अपमान भी अवश्यम्भावी है।

वह अपने ऊपर चौंक उठा। यन्त्रणा के सत्य ने उसे आज क्या सोचने को विवश कर दिया है।

डब्बे में और भी लोग हैं। सामने एक पंजाबी ठेकेदार हैं, उनका रूप असुन्दर है, स्थूल है, परन्तु उनकी स्त्री सुन्दरी है और अपने चारों ओर उसने अपने ही संकोचों का पर्दा खींच रखा है। ऊपर की बर्थ पर एक अधेड़ व्यक्ति है। हेम किसी से बात नहीं करना चाहता। किसी से नहीं। सेकंड क्लास का गौरव फर्स्ट क्लास से इस मामले में कम नहीं होता, क्योंकि वहाँ की भाँति ही यहाँ भी कोई आपस में सहज ढंग से बात नहीं करना चाहता।

इस स्त्री को देख कर हेम को सहसा ही केतकी की याद हो आयी। वह सिहर उठा, उसके मन ने विद्रोह किया। विद्रोह! एक-एक करके हेम को याद आने लगा।

अब? वह दिल्ली जा कर क्या करेगा? क्यों जा रहा है वह? जंगबहादुर को छोड़ देने को जा सकते हो, अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। हेम तो नौकरी से इस्तीफा दे चुका है। दिल्ली में लोगों में एक लहर तो दौड़ी होगी कि आखिर हेम ने ऐसा क्यों किया?

मोटर वह जा कर बेच देगा। और मोटर के साथ ही सेठ सामने आ गया। उसने क्या अनुचित किया? हेम ऐसी परिस्थिति में अपने पौरुष का ऐसा अपमान देख कर चुप रह सकता था? सेठ के पास पैसा है, सरकार ने उसे पिस्तौल का लाइसेन्स दिया है। किन्तु इसके बाद की कथा बहुत गन्दी है। कुन्तल ने केतकी को गोली चलाने वाला बताया, कहा कि वह तब ही भाग गयी थी। हेम ने सेठ का नाम लिया। सेठ ने पुलिस के दाँतों में चाँदी की कीलें ठोंकीं और उसके बाद उन दोनों ने परस्पर विवाह का ऐलान कर दिया। कुन्तल और सेठ! क्या हो गया कुन्तल को? क्या उसने केतकी के पाप की लाज को इतना अधिक जघन्य माना?

हेम इस समस्या का कोई उत्तर नहीं दे सका। खिड़की के बाहर पेड़, पौधे, खेत, पानी के ताल-सब भागते चले जा रहे थे। कोई नहीं भाग रहा है, हेम ने सोचा। अपनी महागति का उद्वेग ही इस समय अपने सापेक्ष रूपों को भी अपनी ही अतिरंजित कल्पना में रँगे दे रहा है।

हेम निराश हो गया। बम्बई का विराट कोलाहल, समुद्र का हाहाकार, सब आकाश की धुलती लालिमा के समान अन्धकार में विसर्जित हो गये, और हेम अस्पताल, भीड़, कोलाहल सब छोड़ कर राजधानी लौट चला। जब वह चला था तब उसके हृदय की लहर उद्दाम वेग से हरहराती फूटती-सी उमड़ी थी। यह चट्टान से टकरायी थी और अब फेन-सी छितरा कर उसी अपार जल-राशि में मिल कर अपने समस्त संयमों के व्यवधानों को लय कर देना चाहती थी।

रामसिंह ने केतकी की बुराई भी की थी कि वह ऐसे ही डोलती रहती थी। उसने साथ ही हेम को भी बिजार कहा था, जो हलवाइयों की सजी-सजाई थाली में मुँह डालने वाला था।

कितना गन्दा था वह सब? सब कुछ है इस संसार में। सब विषम है, क्योंकि व्यवस्था का अभिशाप है। कैसी भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की छटपटाहट हो। ये जो बर्बरयुगीन मानव की स्वार्थसिद्धि के केन्द्र हैं अभी तक उपचेतन के संस्कार बन कर उपस्थित हैं, वे भी इस कठोर सत्य को नहीं भुला सकते। मनुष्य का कल्याण व्यक्ति के सत्य में तभी हो सकता है जब वह एक समाजव्यापी सत्य के रूप में पहले ही से परिणत हो चुका हो।

हेम फिर चौंका। आज वह कुछ नयी-सी बात क्यों सोच रहा है?

और फिर उसने अपने जीवन के विषय में सोचा। उसे अपने ऊपर हँसी आयी। ऐसा वह डॉनक्विग्जोट क्यों बन गया कि चल दिया विंडमिल से लड़ने - क्योंकि केतकी ने बुलाया था? केतकी मुसीबत में थी। उसकी रक्षा करने, उसे समझाने ही तो वह गया था! क्या वह जाना उचित नहीं था? एक नारी बुलाये और वह नहीं जाए। किन्तु हेम इस तर्क को स्वयं स्वीकार नहीं कर सका। यह झूठ है, यह झूठ है। इतनी स्त्रियाँ धन के लिए जवानी बेचती हैं, इतनी विधवाएँ आकुल मन से भीतर-ही-भीतर रिस-रिस कर मर रही हैं, एकान्तवादी हेम को कभी किसी का ध्यान आया? वह तो कुछ हो जाने के असह्य संकल्प में कस्तूरीमृग की भाँति आप ही भागा चला जा रहा था! हेम ने कब सोचा कि दुनिया में दारिद्र्य है, विवशता है, रुदन है। उसने इस समस्त समाज, ब्रह्मांड को, अपने व्यक्ति या अहं के माध्यम से सेाचा है, कि जब वह नहीं रहेगा तो कुछ भी उसके लिए नहीं रहेगा, क्योंकि जो 'मैं' सब-कुछ का अनुभव कर रहा है, वह उस समय अवशिष्ट नहीं होगा। उसका अपना जीवन एक ग्रन्थ है। उसकी भूमिका समाज का अतीत है, परिशिष्ट में क्या जुड़ेगा इसकी उसे चिन्ता ही कब हुई? और हेम को अपने इस सीमित अहं के गतिरोध का आभास हुआ क्योंकि यह समाज की धारागति के साथ न था, सबसे अलग था, धारा में पड़े पत्थर-सा। उसने आम खाया है यह भूल कर कि जिन हाथों ने वे आम लगाये थे वे आने वालों के खाने के लिए थे। पर अब क्योंकि हेम अपने लगाये पेड़ के आम खा नहीं सकेगा इसलिए वह कोई पेड़ क्यों लगाएगा? उसका फल... केतकी!

क्या वह अतृप्त दबी हुई वासना ही नहीं थी जो हेम को केतकी के आह्वान पर खींच ले गयी थी? क्योंकि... क्योंकि... श्यामा के पास एक पुरुष उस रात-भर सोया था, क्या उसी का प्रतिकार नहीं हुआ था हेम के सभ्य मन में? ...कि श्यामा जी! तुम किसी को हृदय दे कर रात को किसी और के साथ सो सकती हो, तो हेम भी किसी की स्त्री को ला सकता है... कितना बर्बर किन्तु कितना गहरा उतरा हुआ विचार, ऊपर से नारी के प्रति संवेदना, उसका कष्टों से उद्धार...

हेम को लगा उसका सिर फट जाएगा।

शाम बीत गयी और रात आ गयी। गाड़ी रुकी। हेम निकल कर ताँगे में बैठा।

उसे घर के भीतर घुसते देख कर जंगबहादुर चौंक उठा। साहब के माथे पर पट्टी थी, और कोट की बाँह झूल रही थी। इसका मतलब है इधर भी पट्टी है। ठीक है, हाथ फूल भी रहा है। साहब घायल हो गया?

हेम ने देखा। सहजात स्नेह से पहली बार उस नौकर को देखा जिसे आज तक मर्यादा की अँगूठा-निशानी जैसी स्याह पुतलियों से वह देखा-अनदेखा सा काम में नियोजित किया करता था।

जंगबहादुर उस दृष्टि की आत्मीयता को कुछ देर अविश्वास से देखता रहा। फिर चाय बनाने लगा। हेम आराम से पलंग पर लेट गया, वैसे ही, बिना कपड़े बदले। चाय के नशीले तत्त्व से वह पहले अपने भीतर स्फूर्ति चाहता था।

जंगबहादुर के हाथ से ले कर वह धीरे-धीरे पहला प्याला पी गया। उसे कुछ ताजगी आ गयी। दूसरा पी रहा था कि जंगबहादुर ने कहा, “शा'ब! वह बीबी आया था।”

“कौन?” हेम ने सिर उठाकर पूछा।

“श्यामा बीबी।”

“हूँ।” हेम ने सिर हिलाया। परन्तु जंगबहादुर को अभी कुछ और कहना था।

“अच्छा।” हेम ने कहा।

जंगबहादुर को साहस मिला। बोला, “बीबी पूछता था, आप कहाँ गया है। हमने बोल दिया - बम्बई। वह गिर गया...”

“गिर गया?” हेम ने चौंक कर पूछा।

“हाँ, शा'ब! बेहोश हो गया। हम समझा नहीं शा'ब, हम डाक्टर को बुलाया। बीबी तब तक चला गया था।

जंगबहादुर तो कह कर चला गया, पर हेम को लगा वह इसे सह नहीं सकेगा। क्या होती है यह स्त्री? क्या एक के अतिरिक्त, वह किसी और का भी स्नेह चाहती है? क्यों आयी थी वह? और श्यामा? स्पर्धा! ईर्ष्या उसकी धमनियों में है। प्रेम का सौदा नहीं चाहती, पहले मोनोपोली चाहती है और चाहती है ब्लैकमार्केट करना।

चाँदनी में वह प्रेम करती है। एकान्त में, किन्तु सबके सामने? उसे सहज स्नेह नहीं, आडम्बर का गौरव चाहिए। हेम शायद उसी से चिढ़ कर श्यामा को नीचा दिखाने केतकी के पास चला गया था।

हेम उठ खड़ा हुआ। मोटर खराब पड़ी थी। जंगबहादुर ताँगा ले आया पहाड़गंज को। हेम बाहर जा कर ताँगे में बैठ गया।

उसके चले जाने के लगभग दस मिनट बाद एक और ताँगा आया। उसमें से उतरकर रमानाथ ने पूछा, “सा'ब हैं?”

“पहाड़गंज गया है।” जंगबहादुर ने कहा।

“मोड़ लो,” रमानाथ ने कहा।

ताँगा मुड़ने से एक साइकिल वाला उतर पड़ा। वह था फ्लूटिस्ट सुधीर।

“अरे आप यहाँ?” रमानाथ ने कहा।

“जी हाँ, जरा काम था।” सुधीर ने बाल हिलाये।

“ऐसा?” रमानाथ ने व्यावहारिक मुस्कराहट का चक्र फेंका। सुधीर भी उसी रेडियो घर के दूसरे श्रीकृष्ण थे। उन्होंने उस चक्र को तो स्वीकार कर लिया। पर दूसरा चक्र मारा, “अभी कनॉट सर्कस था। वहाँ आप नहीं थे?”

“जी, मैं सुबह का निकला हूँ। इधर कई दिन से हेम जी को नहीं देखा था, सो रास्ते से ही ताँगा ले कर इधर आ निकला।”

“उन्होंने इस्तीफा दिया था न?”

“जी हाँ।”

“तभी।” फ्लूटिस्ट ने कहा, “मुझे आपकी तलाश में ताँगे में ही केतकी जी मिली थीं।”

“वह यहाँ कहाँ, वह तो बम्बई हैं।”

“जी हाँ, बड़ी बदहवास थीं। चेहरा सफेद पड़ गया था। आपके यहाँ शायद किसी ने बता दिया कि आप हैं नहीं।”

“ठीक ही है।”

“मुझसे भी पूछा था। हेम जी का जिक्र आया तो कहा, वह तो मर गये, और रोने लगीं।”

“वाह!” रमानाथ ने कहा, “सुधीर जी, आप तो फ्लूटिस्ट से फ्लूकिस्ट होते जा रहे हैं।”

सुधीर भी हँसा। बोलाः “नहीं, सच है।”

“फिर केतकी जी गयीं कहाँ?”

“कह नहीं सकता!”

“ऐसा!” रमानाथ ने फिर आश्चर्य प्रकट किया।

रेशमी फ्राक पहने हुई रेशम का हाथ पकड़ कर देवीप्रसाद ने कहा, “नमस्ते करो बेटा!”

बच्ची ने सामने बैठे मुर्गी की दुमदार चिकनाई वाली टोपी पहनने वाले, मैदे की-सी आँखों के सज्जन को नमस्कार किया।

“शाबाश, जीती रहो बेटी,” एम.पी. महोदय बोले। उन्होंने श्यामा की ओर एक तिरछी नजर से देखा जो इस समय मुस्करा रही थी।

“जी हाँ,” श्यामा ने कहा, “आपने अगर इस वक्त मदद न की होती तो इन्हें सर्विस नहीं ही मिलती।”

रेशम चली गयी।

“सरकारी काम ऐसे ही होते हैं।” एम.पी. ने कहा। उनके मुख पर एक घिसे रुपये की-सी चिकनाई थी। कल तक श्यामा को इन जैसे लोगों से घृणा थी। पर सत्ता इन्हीं के हाथ में थी और अब उसने अनुभव किया था कि जो इनको बनाये नहीं रखता, वह वास्तव में मूर्ख है। समाज में जब ऐसे ही लोगों का बोलबाला है तो थोड़ा-सा समझौता कर लेने में हर्ज भी क्या है? हजारों-लाखों आदमियों के शासक आज ये चिकने-चुपड़े घासलेट के पकवान ही हैं। ये संस्कृति के बारे में भी राय देते हैं, और अशिक्षित हो कर कविता-पुस्तकों की भूमिका लिखने का भी दुःसाहस करते हैं। दिन-रात भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिहाद करते हैं, पर इनके सगे-सम्बन्धी पक्के चोरबाजारी होते हैं। इतने जघन्य हैं ये लोग जितने ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रारम्भिक लोलुप व्यापारी भी नहीं थे।

देवीप्रसाद में ऐसे विचार थे ही नहीं। वह सिर्फ ऊँची नौकरी चाहता था। जब अंग्रेज थे तब भी सरकारी नौकर था, अब अंग्रेजों के मुलम्मे वाले बर्तन खटकते हैं तो उनके सुर पर भी गाना उसे आता है। वह जिन्दगी को बड़े ठोस व्यापारी के दृष्टिकोण से देखता है। वह देशभक्त है क्योंकि वह हुकूमतपरस्त है। पब्लिक सर्विस कमीशन के अतिरिक्त भी सरकारी रुपया खाने वाली ढोल की पोल की कई नौकरियाँ हैं जिनमें सिफारिश की जरूरत है और उनमें से वह एक पा गया है।

श्यामा ने नौकरी छोड़ दी है। अब उसका वह बहाव रुक गया है। वह अब प्रशान्त हो गयी है। माथे पर लाल बिन्दी लगी है, और उसमें एक सन्तोष-सा आ गया है।

मोतीराम चाय बना लाया था। एम.पी. के लिए एक कोकाकोला की बोतल थी।

हेम ने देखा। वह बाहर ही रुक गया। उसने देखा आज एक नहीं, श्यामा के पास दो पुरुष हैं, और एक लड़की भी है। जाए या न जाए, अभी वह निश्चय ही कर रहा था कि किसी ने पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रखा।

मुड़कर देखा - रमानाथ था।

“कब आये?” रमानाथ ने कहा, “अरे! चोट!” उसे याद आयी फ्लूटिस्ट सुधीर की बात कि केतकी ने कहा था कि हेम मर गया। उसे आश्चर्य हुआ। तो कोई किस्सा है जरूर जिससे केतकी का भी सम्बन्ध है।

“आओ न भीतर,” रमानाथ ने कहा। हेम को जाना पड़ा। श्यामा ने देखा तो मुस्करा कर कहा, “आइए! अरे! यह पट्टी कैसी?”

देवीप्रसाद ने आँखें उठा कर अधिकार-भरी दृष्टि से हेम को देखा। हेम बैठ गया। रमानाथ ने कहा, “हेम! जानते हो न? देवीप्रसाद जी मेरे पुराने दोस्त हैं। और डी.पी. भइया! हेम भी मेरे बड़े अच्छे मेहरबान हैं।”

एम.पी. चुप थे। हेम ने तो उन्हें देखा ही नहीं। वह इस उपेक्षा से कुढ़ गये थे। वह जमाने लद गये थे जब होली पर लोग उनकी चालाकियों से तंग आ कर उन्हें जूतों की माला पहनाते थे। अब तो वह फूलों के हार पहनते थे, नेता थे, रमानाथ ने उनसे मुस्कराहट का आदान-प्रदान कर लिया।

हेम का मौन अब कुछ उबाने लगा। श्यामा इस समय एम.पी. और देवीप्रसाद की बातचीत में दिलचस्पी ले रही थी। हेम उसकी इस उपेक्षा से चिढ़ गया।

इसी समय रेशम भीतर आयी और श्यामा से बोली, “देखो ममी! मोतीराम हमको चाकलेट ला कर नहीं देता।”

श्यामा ने हँस कर कहा, “शैतान कहीं की! तू दिन-रात न मुझे चैन लेने देती है, न डैडी को ही...”

इतनी बड़ी लड़की की माँ बनने का सौभाग्य श्यामा को इस बीच में कैसे हो गया और डैडी कौन हैं? हेम कुछ सकते की-सी हालत में पड़ गया पर अब कुछ समझ में आया। क्या श्यामा का विवाह हो गया? किससे?

“क्यों? देखिए न,” श्यामा ने देवीप्रसाद की ओर देखा। हेम को लगा वह कटे वृक्ष की भाँति धरती पर लुढ़क जाएगा। केवल एक ही भाव उसके विवेक में शेष था - श्यामा ने विवाह कर लिया है। देवीप्रसाद से? कौन है यह? इसने इसका हृदय किस प्रकार जीत लिया? इस पुरुष में तो कोई भी विशेषता दिखाई नहीं देती।

हेम का हृदय भीतर-ही-भीतर एक बड़ी हीनतत्व की भावना-भरी निराशा से भर गया।

रमानाथ की आँखों में कुटिलता थी। श्यामा कभी-कभी उसकी ओर देख कर मुस्करा देती, किन्तु जैसे हेम वहाँ था ही नहीं। आज जैसे वह श्यामा के पास नहीं आया था, वह रमानाथ के साथ आया था और इसीलिए उससे कोई विशेष बात भी नहीं कर रहा है।

कल तक यह स्त्री उससे प्रेम की भीख माँगती थी, और आज ऐसे बैठी है जैसे इसके जीवन के सारे रास्ते वहाँ खत्म हो गये हैं जहाँ डी.पी. का पुरुषत्व सिपाही-सा चौराहे की गति का संचालन कर रहा है।

हेम में कटुता की तिक्तता उसके कंठ तक उभर आयी पर वह विवश था। और वह कर भी क्या सकता है?

एम.पी. की तीरन्दाज आँखें अपनी सफेदी की कौड़ी चितपट्ट करती काम की बातों में उलझी हुई थीं। और देवीप्रसाद इस समय जिस सहज अधिकर से बैठा था, वह तो हेम में सौ-सौ बर्छियों-सा छिदा। श्यामा विनम्र और तृप्त है। कल तक बादलों में तड़पती नंगी बिजली-सी हुमस रही थी और आज दीपक की शान्त शिखा-सी।

हेम को विस्मय हुआ। विवाह में यह करामात भी है! छल ने विवशता में अपनी कलुषित प्रवृत्तियों से समझौता कर लिया है कि वह अब उसे पहचानने से भी इनकार कर रही है! वह उठ खड़ा हुआ।

“क्या हुआ?” रमानाथ ने कहा।

“तबियत खराब है,” हेम ने मुश्किल से उत्तर दिया और द्वार की ओर बढ़ा, पर तभी वह रुक गया।

द्वार पर बिखरे बाल, लाल आँखें, धूल-धूसरित, विपन्न केतकी हाथ फैलाये खड़ी थी।

“भाग्य ने भेजा है मुझे,” उसने कहा, “अचानक जंगबहादुर राह पर मिला, उसी ने मुझे यहाँ भेजा है, मैं आ गयी हूँ हेम... मैं आ गयी हूँ...”

वह बढ़ी और उसके पाँव पकड़ कर लोट गयी, निर्लज्ज, निस्संकोच।

और सबने आश्चर्य से देखा कि हेम उससे पाँव छुड़ा कर पीछे हट गया, पर वह न आगे आ सका, न पीछे ही... जैसे वह पत्थर हो गया था...