बारहखम्भा / भाग-9 / अज्ञेय
सुबह का वक्त हो, कन्धे पर मुलायम रोएँदार तौलिया हो, पाँवों में हलकी नेपाली ऊनी चप्पलें हों और मुँह में सुगन्धित टूथ-ब्रश हो-ऐसे में जिन्दगी को देखने का सारा तौर-तरीका ही बदला हुआ-सा प्रतीत होता है। सुबह की खुनकी, तौलिए का नरम स्पर्श, अंगों की अलसाई खुमारी पता नहीं कैसे चिन्तना में प्रवेश कर जाती है और रात की अनिद्रा में सोचे गये तमाम गम्भीर विचार और ऊँचे मनसूबे हल्के और निस्सार मालूम देने लगते हैं; सारे आदर्श और सिद्धान्त खयाली पुलाव लगते हैं।
अपने फ्लैट के छत पर टहलते हुए हेम भी यही अनुभव कर रहा था। उसके शयन-कक्ष की छत काफी नीची है, रात को कुछ घुटन-सी थी और शायद एक खिड़की भी बन्द रह गयी थी। इस कारण केतकी के जाने के बाद भी उसे देर तक नींद नहीं आयी थी। अपने कार्यक्रम-विहीन मन को उसने मनोवांछित दिशाओं में भटकने के लिए छोड़ दिया था और उसका मन खूब चक्कर लगाता रहा। आदर्शों के हिम-शिखरों से लेकर प्रणय की क्यारियों तक में उसका चित्त घूमता रहा। कभी मोटर बेच कर सादा जीवन बिताने का विचार, कभी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने का निश्चय, कभी अपने वर्ग की निरर्थकता पर चिन्तन और अन्त में श्यामा या केतकी दो में से किसी एक को जीवन-संगिनी चुनने का प्रश्न! इनमें से अन्तिम विचार पर तो उसे मन-ही-मन हँसी भी आयी। केतकी को अभी वह जानता ही क्या है? कुल 28-30 दिनों का परिचय, कुछ पत्र-व्यवहार और कल केतकी का आकस्मिक निर्णय कि वह सेठ मदनराम को छोड़ देगी।
जो इतने आकस्मिक निर्णय कर सकती है, वही क्या उन निर्णयों को उतने ही आकस्मिक रूप से छोड़ नहीं सकती? पके बाँस को झुकाने में समय लगता है, पर एक बार झुका लेने पर वह अपने आकार पर अटल रहता है। कच्चे बाँस का क्या, अभी झुका लो, दबाव हटने पर फिर ज्यों-का-त्यों।
उसका मन इस समय क्रीड़ाशील था। क्षण-भर के लिए उसने अपने भविष्य की कल्पना की, अगर केतकी उसकी जीवन-संगिनी होती तो -
उसके एक दक्षिण भारतीय मित्र हैं जो केन्द्रीय सेक्रेटेरियट के एक उच्चपदाधिकारी हैं। वह रोज सुबह उठ कर इसी भाँति अपने फ्लैट के छज्जे पर पत्नी के साथ रहा करते हैं। विवाह काफी प्रौढ़ आयु में पिछले ही वर्ष हुआ है पर एक ही वर्ष में वार्तालाप के सारे विषय समाप्त हो गये हैं। अब वे टहलते हुए दूधवाले की प्रतीक्षा किया करते हैं और उसके आते ही इस लम्बे, घबरा देने वाले मौन से सहसा मुक्ति पा कर पहले पत्नी कहती है - “दूधवाला आ गया,” फिर वह स्वर में विस्मय भर कर कहते हैं - “अच्छा दूधवाला आ गया!” और फिर धूप निकलने तक दोनों चुपचाप टहलते रहते हैं।
अगर केतकी होती तो, वह कहती - “दूधवाला आ गया!” और हेम-हेम केतकी का मन रखने के लिए और भी जोर दे कर कहता - “हाँ जी, दूधवाला आ गया!” और सादा जीवन बिताते, मोटर बेच देते, केतकी कहीं अध्यापिका होती और उनके जीवन में सिर्फ एक विस्मयकारी तत्त्व आया करता - दूधवाला!
हेम को हँसी आ गयी। कैसे अपरिपक्व किशोरों, या आदर्शवादी उपन्यासों के कागजी नायकों की भाँति वह कल सोच रहा था।
फिर उसका मन श्यामा की ओर मुड़ गया। श्यामा कल चली गयी इस पर उसे चिन्ता थी, दुःख था, पर कहीं-न-कहीं दबी हुई प्रसन्नता थी। इसलिए नहीं कि वह चली गयी, इसलिए कि उसके चले जाने से उसे एक आधार मिल गया जिस पर वह श्यामा से हल्की-सी लड़ाई मोल ले सकता है। बौद्धिक तर्कों, लादी हुई तटस्थता और अन्यमनस्कता में वह अपने को चाहे जितना छिपाये पर उसके मन में कहीं कुछ है जो निरन्तर श्यामा से लड़ता रहना चाहता है। श्यामा से जो सहज मिलता है उसे अस्वीकार कर वह केवल वही ग्रहण करना चाहता है जिसके लिए श्यामा को पराजित करना पड़े। शायद इसके पीछे वही आदिम गुफावासी का संस्कार था जो मादा को पराजित कर बन्दी बना लाता था और तब उससे प्रणय की अभिव्यक्ति करता था। आज सभ्यता के करोड़ों वर्ष बाद भी वह रस्म पूरी होनी ही चाहिए।
अभी बहुत तड़का था पर उसने सोचा कि आज की सुबह का एक नया अनुभव रहे। श्यामा के यहाँ चला जाय, उसे जगाया जाय, उसी के यहाँ चाय पी जाय - या चाय वही बनावे और श्यामा को चाय पिलावे - हाँ, एक बात और, चाय के प्याले पर मशीन और मानव, रेडियो, और सौन्दर्य-शास्त्र, कला और तन्दुरुस्ती, दिल्ली का समाजिक जीवन, चाय का फ्लेवर, गरज कि दुनिया के तमाम विषयों पर बात की जाय, केवल इतना न पूछा जाय कि 'तुम कल क्यों लौट आयी थीं' और न इसकी कोई सफाई दी जाय कि केतकी क्यों आयी थी।
इकेरस के पास पंख थे, हेम के पास कार। उसने कार निकाली और एक मार्निंग गाउन बदन पर डाल कर चल पड़ा।
उसने सामने का शीशा उठा दिया। ताजी हवा उसका कालर फहराती हुई उसको सिहरा गयी। इतना हल्का, इतना शीतल पर इतना रसमय था उन झकोरों का स्पर्श जितनी श्यामा की वे काँपती हुई अँगुलियाँ जिन्होंने उस दिन उसका हाथ अपने हाथ में ले कर गीले स्वरों में कहा था - “हेम, तुम चुप क्यों हो?”
एक उमंग की लहर जैसे ठंडे फेन के छींटों से नहला गयी। वह सिहर उठा।
कार स्वयं चालित-सी श्यामा के क्वार्टर के सामने आ लगी। बाहर के छोटे-से अहाते का फाटक अभी बन्द था। श्यामा को जगाये या नहीं? जगाना चाहिए, श्यामा को विस्मय का एक हल्का-सा आघात पहुँचाने में भी उसकी विजय ही है। आहिस्ते से फाटक खोल कर निःशब्द गति से यह आगे बढ़ा। बाहर के कमरे की खिड़की खुली थी। जालीदार पर्दे के पीछे कोई छाया हिल रही थी। शायद श्यामा जाग गयी है। वह और आगे बढ़ा, श्यामा खिड़की की ओर पीठ किये हुए, बड़े गौर से पता नहीं क्या देख रही थी। हेम को कुतूहल हुआ, दायीं ओर की खिड़की के समीप जा कर उसने देखा।
उस कमरे में कुर्सियाँ हटा कर पलंग डाल दिया गया था जिस पर कोई सो रहा था। सोने वाले का चेहरा नहीं दीख पड़ रहा था, पर चादर खिसक जाने से उसके बड़े बेडौल मर्दाने पाँव दीख रहे थे। श्यामा क्षण-भर सोने वाले की ओर गौर से देखती रही, फिर उठी और आहिस्ते से चादर खींच कर उसने पाँव ढँक दिये।
हेम मुड़ा, चुपचाप सर झुकाये हुए उसने अहाता पार किया, कार पर बैठ कर आहिस्ते से दरवाजा बन्द किया और कार स्टार्ट कर दी...
श्यामा काफी पहले सो कर उठ गयी थी। उसने हीटर पर बेड टी के लिए केतली चढ़ा दी थी और कमरे में बैठी हुई शून्य दृष्टि से कभी सोये हुए डी.पी. की ओर, कभी हीटर के दहकते हुए लाल तारों की ओर, और कभी गरम होते हुए पानी की ओर देख रही थी।
रात को जो-कुछ हो गया, उसके लिए वह कतई तैयार नहीं थी। जो कुछ उसने किया वह भी शायद हो ही गया। केतकी को वहाँ देख कर उसे पहले आश्चर्य हुआ, केवल आश्चर्य, और कुछ भी नहीं। पर जब उसने आँख में आँसू भर कर हेम से कहा - “आई हैव बीन डाइंग टु मीट यू!” तो श्यामा को लगा कि उसे इस अवसर पर वहाँ नहीं रहना चाहिए, वह केतकी और हेम के बीच अनावश्यक है, और वह मुड़ कर दूसरी ओर चली गयी।
उसी समय उसने अनुभव किया कि उसके मन में एक अजीब-सी भावना जाग रही है - क्रोध, वंचित अधिकार और ईर्ष्या की अदम्य भावना, ऐसी भावना जिसे वह वर्षों से माँजती आ रही है। श्यामा जिस वर्ग का जीवन बिता रही है, मूलतया उस वर्ग की नहीं है। वह निम्न मध्यवर्ग में पैदा हुई, पली, विकसित हुई। खुल कर क्रोध करना, ईर्ष्या करना और आधिपत्य जमाना यह सभी वह अपेक्षाकृत कम परिष्कृत, पर अधिक सशक्त स्तर पर कर चुकी है। इस समय श्यामा के मन का वही स्तर जाग उठा था।
हट आने पर भी वह वापस नहीं आयी थी। नीले काँटे के झाड़ के पास चुपचाप खड़ी रही। वह सोचती थी कि केतकी को छोड़ कर हेम आएगा। श्यामा को बुलाने के लिए न सही, कम-से-कम जाती हुई श्यामा को देखकर, झल्लाकर, चिन्तित होकर लौट जाने के लिए - पर जब हेम केतकी के पास अन्दर चला गया तो श्यामा ने अपने को बहुत अपमानित अनुभव किया। वह तेजी से मुड़ी। उसे लगा कि जैसा फिट उसे उस दिन सिनेमाघर में आया था वैसा ही कहीं अब न आये, पर जैसे-तैसे उसने अपने को सँभाला और ताँगा कर लिया और किसी तरह अन्दर उबलते हुए आवेग को दबा कर बैठ गयी।
अपने क्वार्टर के निकट पहुँच कर उसने देखा कि बाहर की बत्ती जल रही है और बाहर के सहन में कोई चुपचाप बैठा है। उसने समीप जा कर देखा - डी.पी.!
वह स्तब्ध रह गयी। दिबू - डी.पी., (देवीप्रसाद) को वह दिवू कहती आयी है - यहाँ कैसे? इसके पहले कि वह अभिवादन भी कर सके, दिवू ने बैठे-ही-बैठे अलसाये और भारी स्वरों में कहा, “बड़ी देर तक घूमती हो श्यामा! पाँव का शनि अभी उतरा नहीं तुम्हारा!”
श्यामा कुछ आतंकित और कुछ उल्लसित स्वरों में बोली, “आप... तुम कब आये?”
ज्ञात हुआ कि डी.पी. सरकारी काम से दो रोज के लिए आया है, सामान कहीं पटक कर दिन-भर सेक्रेटेरियट का चक्कर लगाता रहा, फिर श्यामा के यहाँ आया, उसे न पाकर अपने एक सम्बन्धी से मिलने पुरानी दिल्ली चला गया और इस समय फिर आया है।
“खाना खा चुके?” श्यामा ने पूछा।
“हाँ!”
फिर वह चुप रही, सहसा ध्यान आया कि वे लोग अभी तक सहन में खड़े हैं -”चलो अन्दर चल कर बातें की जायें!”
डी.पी. चुपचाप उठा और अन्दर जा कर बैठ गया। श्यामा कपड़े बदलने साइड रूम में चली गयी। लौट कर आयी और चुपचाप सामने की कुर्सी पर बैठ गयी। दिवू कितना गम्भीर, कितना परिपक्व, लेकिन कितना थका हुआ-सा लगने लगा है। चेहरे की अभिव्यक्ति प्रौढ़ हो गयी है, होठों पर हँसी नहीं रहती।
डी.पी. से उसके परिचय का भी एक इतिहास है। वह आयु में श्यामा से बड़ा है; पर एक समय था जब वह उसका घनिष्टतम मित्र रहा है। उसने श्यामा की विचित्र परिस्थितियों में मुक्त सहायता की है। उसके कैरियर-निर्माण में सहयोग दिया है, प्रार्थना-पत्र दिलवाये हैं, सिफारिशें की हैं, साड़ियाँ खरीदी हैं, पोशाकें सिलवायी हैं, उसे उच्चवर्गीय और अफसर वर्ग में परिचित कराया है... संक्षेप में आज जो श्यामा है वह दिवू की बनायी हुई है।
लेकिन इस सहानुभूति और ममता के बाद उसने डी.पी. के लिए क्या किया है? उसका जमा-जमाया परिवार बिगाड़ दिया था। दिवू की पत्नी ने श्यामा का नाम लेकर विष खा लिया था और श्यामा उसी परिस्थिति में उसे छोड़कर यहाँ चली आयी थी। उसके बाद धीरे-धीरे उसने अपने व्यक्तित्व के चारों ओर एक दीवार खड़ी कर ली थी कि वह दिवू के जीवन की और दिवू उसके जीवन की एक विस्मृत कथा बन जाय, पर उसके मन में गहरे, बहुत गहरे पर कोई गाँठ पड़ गयी थी, और रमानाथ ने तन के माध्यम से और हेम ने मन के माध्यम से जब कभी उसे छूने का प्रयास किया तभी वह सिमट-सकुच कर अन्तर्मुखी हो गयी और तन-मन से उस गाँठ को चारों ओर से बचा कर प्रतिवाद करने लगी। श्यामा के व्यवहार की इसी विशृंखलता को हेम समझ नहीं पाता था।
सहसा कमरे के मौन को तोड़ते हुए डी.पी. ने कहा, “अच्छा, चला जाय!”
“क्यों?”
“तुम्हें देखने आया था सो देख लिया।”
“बस?”
“बस!” और डी.पी. उठ खड़ा हुआ।
“नहीं!” कुछ काँपते हुए से स्वरों में श्यामा बोली। उसने डी.पी. को बिठा लिया, स्वयं जा कर और भी समीप बैठ गयी और स्वर में अत्यधिक ममता और अपनापन भर कर बोली, “रेशम अब तो बाकायदा पढ़ने लगी होगी?”
“हाँ, कान्वेंट में भर्ती करा दिया है।”
रेशम डी.पी. की एकमात्र सन्तान, रश्मि का घरेलू नाम था, जिसे उसकी पत्नी छोड़ गयी थी। उसकी देख-रेख सदैव श्यामा ने ही की थी। रेशम का जिक्र आते ही जैसे दोनों के बीच का व्यवधान टूट गया। लगा जैसे पिछले दो वर्षों से उनके सम्बन्धों का कोई सूत्र खो गया था, जो रेशम के जिक्र से उन्हें फिर मिल गया। और फिर श्यामा ने जो घरेलू बातों का सिलसिला बाँधा तो पूरा एक घंटा बीत गया। इस एक घंटे में श्यामा आगे नहीं बढ़ी, वह पीछे ही लौटती गयी, वर्षों पीछे; और उसे यह लगा कि उसका पिछले तीन वर्ष का जीवन, यह नौकरी, यह स्वाधीनता, यह आरोपित बौद्धिकता और यह रमानाथ, यह हेम - ये सभी एक कच्ची पतली-सी पर्त हैं - पतली, बहुत पतली। सच है यह दिवू, रेशम, उसकी मृत माँ और वह कृतज्ञतापूर्ण सहज स्नेह और एक भयमिश्रित आदर जो उसके मन मं- दिवू के लिए है और जो इस समय उसके मन में छलका पड़ रहा है।
उसने देखा दिवू के बाल कनपटी के पास सफेद हो चले हैं, आँखों के नीचे रेखाएँ आ गयी हैं और प्रौढ़ विधुरता का एक फीकापन उस पर छाया हुआ है। लगता है जैसे उसने अपने मन को पूर्णतया मार लिया है। उसके मन में अजब-सी ममता उमड़ आयी और उसने मन-ही-मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह अब दिवू को कहीं नहीं जाने देगी।
फिर तो श्यामा ने दिवू के मना करते-करते दूध गरम किया, थोड़ी ओवल्टीन उसमें डाल दी, उसका कोट उतार कर टाँग दिया, अपनी एक सादी, बिना किनारे की धोती उसे पहनने को दी और बाहर के कमरे में उसके लिए बिस्तर डलवा दिये। इस सब में उसे एक ऐसे आन्तरिक सन्तोष का अनुभव हो रहा था जिसके लिए वह जाने कब से भूखी-प्यासी थी। लगता था जैसे वह अभी तक लहरों में डूब-उतरा रही हो - निराधार, और अब वह लौट कर घाट के उन्हीं ठोस पत्थरों पर पहुँच गयी हो जहाँ से वह धार में कूदी थी।
सोते समय उसने पूछा - “बेड टी लेते हो न?”
“नहीं, उसके बाद से तो सुविधा ही नहीं रही।”
“कल तुम्हें बेड टी पहुँचाऊँगी,” श्यामा बड़े उत्साह से बोली। जब श्यामा जाने लगी तो डी.पी. ने धीमे से कहा, “श्यामा!”
“क्या!” वह बड़े स्नेह से समीप आ कर बोली।
“कुछ नहीं!” थोड़ी देर तक दिवू उसे निर्निमेष दृष्टि से देखता रहा फिर बोला, “श्यामा, दिल्ली तुम्हें व्यापी नहीं। वैसी ही हो!” श्यामा कुछ बोली नहीं। सिरहाने बेड-स्विच लटकाती हुई बोली, “रेशम को मैं अपने पास रखूँगी। समझे! और चली गयी।”
रात को श्यामा बड़ी निश्चिन्तता से सोयी। लगता था जैसे किसी के दो विशाल पंख उसे ढके हुए उसकी रक्षा कर रहे हैं, अब वह अरक्षिता नहीं रही। सुबह अपने आप उसकी नींद जल्दी खुल गयी। उसने नौकर को नहीं जगाया। खुद हीटर उठाया, केतली में पानी चढ़ाया और चुपचाप बैठ कर देखने लगी - कभी हीटर को, कभी दिवू को। दिवू थके हुए बड़े से शिशु की तरह सो रहा था - शान्त। उसके पाँवों से चादर खिसक गयी थी। वह चुपचाप उठी और उसने चादर ठीक कर दी।
इतने में कुछ आहट हुई। उसने मुड़ कर देखा! कोई आगन्तुक लौटा जा रहा था। जब तक वह खिड़की के पास पहुँचे कि हेम ने फाटक खोला और बैठते ही कार स्टार्ट कर दी।
हेम को ज्ञात नहीं कि उसने दिन-भर क्या किया। ऐसा लगा कि वह जड़-निर्जीव शिलाखंड है, या किसी प्रवाल द्वीप का अवशेष अंश है, जो डूब गया है और समुद्र की हरी और खारी गहराइयों में निश्चेष्ट पड़ा है और धाराएँ, ज्वार तथा तूफान आते हैं और उस पर से बहते हुए चले जाते हैं। पर उसे डूबे हुए अभी इतने दिन नहीं हुए कि उसमें काई लग जाय, पर वह डूब गया है और अथाह जल उस पर से बहा चला जा रहा है।
और वह पूरा दिन भी उस पर से बहता चला गया। उसने केवल एक काम किया। अपना इस्तीफा पेश कर दिया। पर इसलिए नहीं कि इस्तीफा देने का कोई अर्थ है, केवल इसलिए कि कुछ ऐसी शाकिंग - स्तब्ध कर देने वाली - बात कर वह अपने को विश्वास दिलाना चाहता था कि वह जीवित है। ठीक जैसे कभी-कभी एक स्थिति में बहुत देर तक बैठे रहने से रक्त का संचार रुक जाता है, पाँव सुन्न पड़ जाता है और तब हम अपना पाँव झटक कर, उसमें चिकोटी काट कर विश्वास दिलाते हैं कि हमारा पाँव जीवित है, उसमें प्राणों का स्पन्दन शेष है। उसी प्रकार हेम का यह त्याग-पत्र भी न किसी के प्रति आक्रोश था, न सरकारी नौकरी के प्रति कोई सैद्धान्तिक उपेक्षा-भाव, यह केवल अपने डिगते हुए आत्म-विश्वास को फिर कर्म की कसौटी पर कसने का प्रयास-भाव था।
पर जब वह लौटने लगा तो सहसा सोचने लगा - उसके इस काम का कुछ अर्थ भी है? यही क्या, उसके पूरे जीवन की जो वर्तमान गतिविधि है उसका कोई अर्थ है? कितना विशृंखल, कितना निरर्थक है उसका जीवन! उतना ही विशृंखल और निरर्थक, जितना कि एक दर्जन स्रष्टाओं द्वारा किया गया एक क्रीड़ा-प्रयोग जिसके पीछे कोई निश्चित योजना न हो, कोई निश्चित नियति भी न हो। तो क्या हमारा जीवन हमसे कुछ ज्यादा बड़ी, ज्यादा शक्तिशाली सत्ताओं की निरर्थक क्रीड़ा-मात्र है। जिनको ग्रीक चिन्तकों और नाटककारों ने देवताओं के नाम से पुकारा है क्या वे ही देवता हमारी जिन्दगी को मनमाने ढंग से बनाया-बिगाड़ा करते हैं। उसके पीछे कोई निश्चित अर्थ, कोई निश्चित योजना भी नहीं!
और फिर हमारे इस निरर्थक अस्तित्व की पृष्ठभूमि में हमारे सामाजिक रागात्मक सम्बन्धों का मूल्य ही क्या? जो खुद क्रीड़ा का साधन-मात्र है उसके लिए श्यामा क्या, केतकी क्या? और उसकी अपनी जीवन की गतिविधि भी क्या? अगर कई गोलियाँ एक कतार में रख दी जायें और पहली गोली को कोई थोड़ी-सी ठोकर दे दे तो वह दूसरे से टकराती है। दूसरी तीसरे से और इस तरह सभी अपने स्थान से थोड़ा ही खिसक कर रह जाती हैं, केवल अन्तिम गोली काफी दूर तक लुढ़कती चली जाती है। पर क्या उसे गति कहा जा सकता है। और क्या ऐसी ही नहीं है उसके जीवन की यह गति!
कार की गति अपने आप धीमी हो गयी थी। उसके होठों पर कुछ पंक्तियाँ आयीं -
'ऐ कोन वनेर हरिण छिल आमार मने
के तारे बाँधल अकारणे!'
फिर उसे आभास हुआ कि उसकी पीड़ा इन पंक्तियों से भी ज्यादा गहरी है। लेकिन शायद उसके बयान भी अकारण हैं, बिलकुल अकारण!
कार पहुँचने पर जंगबहादुर ने सूचित किया कि कुन्तल दो बार आकर लौट गयी है और एक पत्र रख गयी है। हेम ने देखा, पत्र केतकी का था :
प्रिय हेम जी,
मैं कल के सारे उबाल और आवेश के बावजूद आज बम्बई जा रही हूँ। मैंने देखा कि तुम्हें सामने पाकर मुझमें कुछ और उत्साह रहता है, तुम्हारे पीछे और शायद तुम्हारे रहते भी सीमा के अन्दर सर पटक लूँ, पर सीमा तोड़ नहीं सकती।
कल रात को काफी भटकी। पर जिस शयनगृह में अनिच्छा से ही सही, इतने दिन बीते उसके अलावा कहीं अब ठौर नहीं। इसे संस्कार कहूँ, या नियति, या कायरता। मन का रिश्ता बड़ी चीज होती है लेकिन तन का समर्पण उससे ज्यादा शक्तिशाली, उसे वापस नहीं लिया जा सकता।
मैंने कुन्तल को भेजा था। तुम मिले नहीं। सेठ जी हफ्ते-भर बाद आएँगे। मैं तीसरे पहर जा रही हूँ। तुमसे चेहरा लगा कर बात नहीं करूँगी। मैं पराजित होकर भाग रही हूँ यही समझना।
केतकी
पुनश्चः तुम्हारे स्नेह, या शायद सहानुभूति के लिए कितनी कृतज्ञ हूँ, पर शायद उसके योग्य नहीं थी। हाँ, सेठजी से मैंने क्षमा माँगी नहीं, उनसे क्षमा मिल गयी। उनके लिए मेरा विद्रोह भी उतना ही मूल्यहीन है जितना मेरा समर्पण!
केतकी
हेम ने उड़ते हुए मन से पत्र पढ़ लिया। इन अक्षरों की उसे कुछ विशेष व्यंजना नहीं लग रही थी। उसका मन थका हुआ था, पराजित था। कैसा अजब था वह दिन? कहाँ से शुरू हुआ था और बारह घंटों में ही हेम के जीवन को कहाँ खींच लाया था। वह चुप था और ऊपर से ऐसा ही लग रहा था जिसके लिए कहा गया हैः 'बाहर घाव न दीसई, भीतर चकना-चूर।' हेम ने केतकी के तमाम पत्रों के बंडल में उसे भी रख दिया और बिल्कुल भावनाशून्य मन से काउच पर लेट रहा। बाहर बत्तियाँ जल गयी थीं। यद्यपि अभी पूरी तरह रात नहीं हुई थी। उसने लाइट आन कर दी और केवल समय काटने के लिए एक पुस्तक उठा ली - लारेन्स की पतली-सी कविता-पुस्तक; और पढ़ने लगा :
'एंड इफ टुनाइट माई सोल मे फाइंड हर पीस
इन स्लीप एंड सिंक इन गुड ओब्लिवियन,
एंड इन द मॉर्निंग वेक लाइक ए न्यू आपेंड फ्लावर
देन आई हैव बीन डिप्ड अगेन इन गॉड एंड न्यू क्रीएटेड!'
(और आज अगर मेरी आत्मा को चैन की नींद आ जाय और वह विस्मृति में डूब जाय और सुबह मैं ताजे , अँगड़ाई लेते हुए फूल की तरह जागूँ तो मैं समझूँगा कि मैं किसी अज्ञात सत्ता (किसी ईश्वर) में डूबकर फिर नये सिरे से निर्मित होकर प्रगट हुआ हूँ!)
लेकिन कौन होगा वह ईश्वर - वह परोक्ष, जिसमें डूब कर उसे नया व्यक्तित्व मिलेगा? हर-एक का अपना ईश्वर होता है, जो उसी की पीड़ा, उसी की चिन्तना और उसी की अनूभूति के अनुरूप अभिव्यक्त होता है पर उसकी पीड़ा, उसकी चिन्तना, उसका जीवन क्या केवल छलना नहीं रहा है? तब फिर वह किसके प्रति अर्पित हो, कौन-सी है वह आस्था?
और प्रथम बार उसने अनुभव किया कि उसके मन में आदि-जिज्ञासा जगी है - एक जिज्ञासा... अनुत्तर, अनिमेष! और वह देवताओं के विरुद्ध, नियति के विरुद्ध खड़ा है तन कर, अपराजेय चुनौती देता हुआ।
वह खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया। बाहर धुँधले और उदास अन्धकार में लिपटी हुई दिल्ली का विस्तार था। सड़कें, मकान और भीड़, शासक और शासित, सभ्यता और व्यापार, सेनाएँ और राजदूत... और इन सबके ऊपर है हेम, एक अटूट जिज्ञासा की तरह - जो इनमें से हर एक व्यक्ति की नियति और सारे समूह की गति को जान कर रहेगा। और जब ज्ञान और दुःख उसे मुक्त कर देंगे तब वह स्वतः प्रेरित व्यक्ति की भाँति अपने को अर्पित करेगा - उस विराट् अग्नि के प्रति जो ज्ञान है, उस विराट् आस्था के प्रति जो कर्म में प्रतिफलित होती है, उस विराट् समवेदना के प्रति जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सामाजिक अर्थ दे देती है।
और उसका मन पता नहीं किसके प्रति श्रद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसने आज बहुत कुछ खोया था, और बहुत कुछ पाया था।