बारहखम्भा / भाग-1 / अज्ञेय
हेमचन्द्र ने कुछ प्रत्यक्ष विस्मय और कुछ अप्रत्यक्ष उदासीनता के साथ मुड़ते हुए कहा, “तुम लौट आयीं?”
श्यामा ने कुछ मान-भरे स्वर में कहा, “मैं अकेली नहीं जा सकती, तुम मुझे पहुँचा कर आओ।”
हेमचन्द्र ने बड़ी विवशता से दोनों हाथ उठाये और गिर जाने दिये। बोला, “श्यामा जी, मैं एक बार क्या दस बार पहुँचा आता, पर आप देख तो रही हैं कि गाड़ी चल नहीं रही है” - और उसने एक स्थिर दृष्टि से सामने रुकी हुई गाड़ी की ओर देखा।
श्यामा ने भी स्थिर दृष्टि से एक लम्बे क्षण तक हेमचन्द्र की ओर देखा। फिर बोली, “जब चल नहीं रही है, तो तय है कि भाग नहीं जाएगी। क्या आप इसे छोड़ कर मुझे ताँगे में नहीं पहुँचा आ सकते?”
“हाँ, सो तो सकता हूँ” - हेमचन्द्र ने कुछ सोचते-से, और कुछ आहत से स्वर में कहा; मानो कहना चाहता हो कि हाँ, यह सम्भावना तो जरूर है, पर बुद्धिमानी शायद नहीं है; बहरहाल ऐसी उल्टी बात के अलावा और स्त्री-बुद्धि सोच क्या सकती है! फिर सँभल कर बोला, “अच्छा, चलिए मैं पहुँचा आता हूँ।”
अब की बार श्यामा ने रुखाई से कहा, “अब रहने दीजिए, हेम बाबू, जैसे इतने दिन बिना किसी के पहुँचाये पहुँचती रही हूँ, वैसे ही आज भी पहुँच जाऊँगी। यह स्त्री का दुर्भाग्य है कि वह पुरुष का सहारा आवश्यक मानती है, नहीं तो वह भी कोई सहारा है!”
“तो आप लड़ कर ही रहेंगी? कह तो रहा हूँ, चलिए पहुँचा आता हूँ - ऐ, ताँगा!” हेमचन्द्र ने हाथ के इशारे से ताँगा बुलाया।
ताँगा पास आते ही श्यामा उसमें सवार हो गयी। बैठने से पहले ही, ताँगे पर पाँव रख कर सवार होने के लिए हाथ बढ़ाते-बढ़ाते ही बोली, “चलो पहाड़गंज - “
हेमचन्द्र भौंचक-सा देखता रहा। ताँगेवाले ने आदेश पक्का करने के हेतु पूछा, “चलूँ बाबूजी?”
श्यामा ने फिर कहा, “चलो-चलो - “
ताँगा चलने लगा।
तब हेमचन्द्र ने हाथ जोड़ कर कहा, “नमस्कार, श्यामा जी - “
क्षण-भर श्यामा ने कोई उत्तर नहीं दिया। लगा, वह उपेक्षा करके बढ़ जाएगी। फिर उसने मानो इरादा बदलते दोनों हाथ उठा कर उनकी उँगलियों की अगली पोरें छुआते हुए एक विमुख-सा नमस्कार किया; और ताँगा आगे निकल गया।
हेमचन्द्र थोड़ी देर ताँगे की ओर देखता रहा। फिर उसने कन्धे कुछ सिकोड़ कर हथेलियाँ बाहर की ओर घुमायीं, मानो कह रहा हो, मर्जी आपकी। और फिर गाड़ी पर हाथ रख कर खड़ा हो गया।
थोड़ी देर बाद उसने गाड़ी को दो-चार बार हिलाया, फिर सवार हो कर उसे स्टार्ट करने की कोशिश की, लेकिन दो-तीन बार के यत्न पर भी जब सेल्फस्टार्टर केवल घर्र-घर्र करके रह गया, तब वह फिर उतर कर असहाय-सा चारों ओर देखने लगा।
एकाएक उसे अपने अत्यन्त अकेलेपन का तीखा बोध हो आया। यों उस समय सड़क अभी चल रही थी; घंटा-भर पहले, जब पहली बार मोटर बारहखम्बा रोड के सिरे पर कनॉट सर्कस में प्रवेश करते-न-करते रुक गयी थी, तब उसने सोचा था कि शायद पेट्रोल समाप्त होने से रुकी है और उसे यह याद करके तसल्ली भी हुई थी कि बिल्कुल पेट्रोल पम्प के आगे ही आ कर रुकी है - क्योंकि बारहखम्बा रोड पर ही तनिक आगे बायें हाथ को पम्प उसे दीख रहा था। गाड़ी को ठेल कर वहाँ पहुँचा कर पेट्रोल उसने डलवा लिया था, और बड़े इत्मीनान से फिर स्टार्ट करने बैठ गया था। पर गाड़ी नहीं चली; पम्पवाले से मदद माँग कर उसने दो आदमियों से गाड़ी ठिलवायी भी पर उससे भी लाभ न हुआ; दोनों आदमी थोड़ी देर बाद भुनभुनाते हुए लौट गये कि 'अजी साहब... ऐसे नहीं चलने की...'
तभी उसने पास बैठी हुई श्यामा से कहा था, “श्यामा, गाड़ी तो यहीं अटक गयी; तुम ताँगा ले कर घर लौट जाओ।”
“और तुम?”
“मैं गाड़ी का कुछ करूँगा - शायद थोड़ी देर में चल पड़ेगी - उसके पेट्रोल सिस्टम में कुछ दोष है। जब-तब ऐसे ही तंग किया करती है।”
“और जब मैं घूमने आयी तभी उसे रुकना सूझा! मेरी तकदीर - “
श्यामा की उदासी को कुछ हल्का करने की नीयत से हेमचन्द्र ने कहा, “तुम से ईर्ष्या है न उसे - स्त्री-जाति का गुण है।”
लेकिन श्यामा ने और बिगड़कर कहा, “रहने दीजिए - रास्ते में ला कर मुझे उतार दिया और ऊपर से स्त्री-जाति की बुराई करने लगे।” पर फिर सँभल कर दूसरे दिन मिलने की बात तय करके वह चली गयी - ताँगा कुछ आगे से ले लेगी यह कह कर।
उस वक्त भी हेमचन्द्र को कुछ अकेलेपन का बोध हुआ था, पर इतना विकट नहीं। श्यामा अकेली है, सरकारी नौकरी करती है, 'इंडिपेंडेंट वुमन' है और इससे उसकी तबियत में भी एक विशेष प्रकार की अहंता है, पर यों वह खुश-तबियत है और उसके साथ बिताया हुआ समय बड़ा रोचक होता है - हेमचन्द्र के दिनों में वे घंटे चमक उठते हैं। श्यामा के चले जाने से कुछ सूनापन होना तो स्वाभाविक था। पर उस बार इतना अधिक नहीं हुआ था। हो सकता है कि इसका कारण यह रहा हो कि तब लोग अधिक आ-जा रहे थे, यह भी हो सकता है कि तब वह नाराज हो कर नहीं गयी थी और अब की बार तो कुछ नाराज हो कर गयी है। पर नहीं, वह सहायक कारण रहा हो भले ही, असली कारण वह नहीं हो सकता। हेमचन्द्र ने स्वयं अपने से पूछा, 'तब कारण क्या हो सकता है?' और स्वयं ही उत्तर दिया, 'दुनिया में उस आदमी से ज्यादा अकेला आदमी कौन होगा जिसके पास मोटर है पर चलती नहीं...'
और जब श्यामा लौट कर फिर मान कर के दुबारा चली गयी, तब एकाएक उसे लगा कि हाँ, यही सम्पूर्ण सत्य है। बल्कि इतना ही नहीं, इसमें ज्ञान का कोई गम्भीरतर रत्न उसने पा लिया है। सहसा आदमी, अकेलापन, मोटर, सब उसकी दृष्टि में प्रतीक हो गये और पूरे वाक्य का एक नया प्रतीकार्थ उसके सामने आ गया। इस यान्त्रिक सभ्यता में मानव और यन्त्र का सहकार बहुत अच्छा है, लेकिन तभी जब तक यन्त्र मानव का वशंवद है, जब वैसा नहीं रहता तब मानव कितना अतिरिक्त असहाय हो जाता है क्योंकि यन्त्र के बिना रह सकने की क्षमता वह पहले ही खो चुका है... मोटर वाला आदमी - यन्त्र का गुलाम मानव... और जब यन्त्र नहीं चलता तो -
हेमचन्द्र ने मोटर की ओर नयी दृष्टि से देखा। क्या सचमुच वह इस बेडौल यन्त्र का गुलाम हो गया है, इस... इस छकड़े का! मोटर के प्रति यह अवज्ञा करके उसे कुछ शान्ति मिली, पर प्रश्न फिर उभर कर आया - 'क्या मैं सचमुच छकड़े का गुलाम हो गया हूँ?'
प्रश्न ने एक नयी विचार-माला शुरू कर दी। यह गाड़ी उसने कोई छः महीने पहले सैकेंड हैंड खरीदी थी। यों गाड़ी खरीदने की उसकी हैसियत नहीं थी, जब उसने खरीदी थी तब बहुतों को अचम्भा हुआ था कि आखिर कैसे, और गाड़ी के साथ जो 'स्टाइल' रहता है उसे वह कैसे किस बूते पर सँभालेगा? लेकिन असल में गाड़ी, वह भी सैकेंड हैंड, और सैकेंड हैंड तो मुहावरा है, हो सकता है वह पहले चार-छः बार हाथ बदल चुकी हो - खरीदना कोई मुश्किल बात नहीं है, असल बोझ होता है बाद की खातिर का, और स्टाइल का; और जो गाड़ी खुद चलाता है, खुद धोता-पोंछता है, खुद ही छोटी-मोटी मरम्मत कर लेता है - और यह नहीं सोचता कि गाड़ी है तो अमुक सामाजिक स्तर में घुसना चाहिए और रहना चाहिए, क्लब जाना चाहिए, वगैरह-उसके लिए स्टाइल कोई माने नहीं रखता। लोग उससे फिजूल ईर्ष्या करते थे और उस पर बोलियाँ कसते रहते थे; हैसियत की बात का सीधा-सा जवाब यह है कि उसकी हैसियत के लोग महीने में पान-सिगरेट पर जितना खर्च करते हैं, उतने में मोटर 'मेंटेन' की जा सकती है और वह पान-सिगरेट की लत से मुक्त है। किसी सिगरेट पीने वाले से तो कोई नहीं पूछता कि तुम्हारी सिगरेट पीने की हैसियत भी है? बल्कि उसके लिए तो बड़ी हैसियत चाहिए, क्योंकि सिगरेट पीना तो सचमुच पैसा फूँकना है, मोटर तो काम आती है और आमदनी करने में भी सहायक होती है।
ठीक है। सिगरेट लत है, मोटर लत नहीं है। लेकिन -
'लेकिन' पर उसका मन अटक गया। फिर उसने जोर करके अपने से पूछ ही तो डाला : 'लेकिन क्या उसने भी मोटर शौक के लिए नहीं ली थी, इसलिए क्या वह भी मूलतः लत ही नहीं है?'
अपना ही प्रश्न उसे चुभा। पर वह उसे और गहरे चुभाता ही गया। छः महीने पहले उसने मोटर खरीदी थी। लगभग तभी श्यामा से उसका परिचय हुआ था। लड़कियों के सम्पर्क में वह पहले न आया हो, यह बात नहीं थी; पर श्यामा लड़कियों में कुछ भिन्न थी : लड़की नहीं, स्त्री थी, और वह भी स्वाधीन, आत्म-निर्भर स्त्री-और आत्म-निर्भरता चरित्र को कितना बदल देती है वह देख कर ही समझा जा सकता है।
श्यामा वैसी स्त्री है जिसे मोटर आदमी की पर्सनैलिटी का अवश्यक अंग मालूम होती है, यह कहना सरासर अन्याय होगा। बल्कि हेमचन्द्र के अलावा उसके जितने मित्र थे सब मोटरहीन थे; और हेमचन्द्र को भी लगता था कि वे किसी हद तक श्यामा के पद से नीचे हैं, उसके मुखापेक्षी हैं, उस पर निर्भर हैं। इस भावना को वह ठीक-ठीक नहीं समझ पाता था। यह बात नहीं थी कि वास्तव में ये हीन-पदस्थ हों या निःसाधन हों, शायद वह केवल मानसिक परिपक्वता, उनके परस्पर आध्यात्मिक सम्बन्ध की बात थी कि श्यामा बड़ी है और वे छोटे हैं। लेकिन श्यामा से परिचय होने के बाद हेमचन्द्र ने ही स्वयं अनुभव किया कि मोटर पर्सनैलिटी का अंग न हो, पर्सनैलिटी का आनुषंगिक अवश्य हो सकती है, उसे नया विस्तार दे सकती है, अभिव्यक्ति की नयी दिशाएँ खोल सकती है। और वह अपने से नहीं छिपाएगा कि इस नये विस्तार का श्यामा से कुछ सम्बन्ध अवश्य था। श्यामा से ही एक दिन बात हुई थी कि किसी छुट्टी के दिन मथुरा देखने चला जाय; ठहरा यही था कि सुबह की गाड़ी से जायेंगे और रात की गाड़ी से लौट आएँगे, पर इस बीच उसने एक दिन जा कर मोटर खरीद ही डाली, एक-दो दिन में उसे देख-भाल कर, चेक करके छोटे-मोटे नुक्स ठीक कर दिये और जाने के दिन सवेरे ही गाड़ी ले कर श्यामा के क्वार्टर पर पहुँच गया। श्यामा ने पूछा, “गाड़ी किसकी ले आये?” तो वह लखनवी विनय से बोला, “जी, आप ही की है...”
और उनकी मैत्री के बढ़ने में गाड़ी सहायक भी हुई थी, क्योंकि यह उसी के कारण सम्भव हुआ था कि दोनों बराबर मिल सकें और मुक्त भाव में मिल सकें। साधारणतया नयी दिल्ली में मिलने का मतलब है किसी भड़कीले चाय-घर में भीड़-भड़क्के में बैठ कर जाजबैण्ड के पीठ-संगीत के साथ उखड़ी-उखड़ी बात करना, या जब तब किसी के ड्राइंग रूम में उससे भी अधिक गलघोंटू भीड़ में उससे भी अधिक उखड़ी बात कर लेना। पर गाड़ी के सहारे वे दोनों भीड़ों से अलग घूम-घाम सके थे, और एक-दूसरे को अधिक पहचान सके थे। और गाड़ी के बिना शायद यह सम्भव न होता-या इतने समय में सम्भव न होता।
हेमचन्द्र ने फिर गाड़ी की ओर देखा। तो क्या वह प्रकारान्तर से स्वीकार कर रहा है कि वह गाड़ी का गुलाम है? उसे अपने पर झल्लाहट हो आयी। नहीं, वह इस फिसलन पर नहीं रपटेगा; अगर वह असावधानी से मोटर पर इतना निर्भर करने लग गया है तो उससे जैसे भी होगा, मुक्ति पाएगा। निश्चयपूर्वक वह फिर गाड़ी की ओर बढ़ा; उसे फिर स्टार्ट करेगा, अब की बार न हुई तो वह उसे वहीं छोड़ कर ताँगा ले कर पहले श्यामा के घर जाएगा, उसे सिनेमा के लिए निमन्त्रित करेगा, रात के शो के लिए, और फिर ताँगे में - या पैदल भी - उसे घर पहुँचा कर जाएगा। तब तक गाड़ी बेशक यहीं पड़ी रहे। आखिर बारहखम्भे का एक बड़ा चौराहा है, पेट्रोल पम्प के पास है; कौन जानेगा कि लावारिस खड़ी है?
गाड़ी पर सवार हो कर उसने सेल्फ दबाया; दूसरी-तीसरी बार घर-घराकर इंजन स्टार्ट हुआ और थोड़ा-सा चल कर बन्द हो गया। इससे उसे आशा बँधी, उसने दो-एक बार फिर प्रयत्न किया - फिर सहसा इंजन स्टार्ट हुआ और ठीक से रेस करने लगा। हेमचन्द्र ने एक खिसियानी-सी मुस्कराहट के साथ क्लच दबाया, गाड़ी गियर में डाली, और चल पड़ा।
लेकिन गाड़ी को सड़क पर सीधा करते-करते ही उसकी गति अनिश्चय से धीमी हो गयी। कहाँ जाए? पर उसने नये निश्चय से एक्सेलेरेटर दबाया, गाड़ी फायर स्टेशन के सामने से मुड़ी और उसी रास्ते पर दौड़ पड़ी जिधर श्यामा का ताँगा गया था। श्यामा अब तक तो घर पहुँच गई होगी - और अभी उसने सो जाने की तैयारी थोड़े ही कर ली होगी?
छकड़ा ही सही, दौड़ती मोटर का एक अपना मजा है... स्पीड का नशा - लत-नहीं, आन्तरिक उल्लास, अनुशासित यन्त्र से मिलने वाली स्फूर्ति...
रास्ते में उसे कहीं श्यामा का ताँगा नहीं दीखा। निश्चय ही वह इतनी देर में घर पहुँच गयी होगी। हेमचन्द्र ने मोटर की गति और तेज कर दी। पर क्वार्टर के बाहर से ही उसने देखा, उसमें बिल्कुल अँधेरा है। तब क्या श्यामा आ कर इतनी जल्दी सो भी गयी? या कि -
उसे बारहखम्भे में छोड़ कर आते समय का श्यामा का क्रोध उसे स्मरण हो आया। सम्भव है कि वह क्रोध-भरी यहाँ लौटी हो, और लौट कर क्वार्टर में आ कर उसका क्रोध सहसा बदल कर करुणा बन गया हो - अपने ऊपर करुणा - क्योंकि सिर्फ मोटरवाले ही तो अकेले नहीं होते, बगैर मोटर वाले भी उतने ही अकेले हो सकते हैं, बल्कि अधिक अगर वे स्त्री हों... हेमचन्द्र को हल्का-सा ध्यान हुआ कि इस वाक्य का व्याकरण ठीक नहीं बैठा है शायद, पर श्यामा भी उसी की भाँति अकेली हो सकती है यह विचार उसे इस समय नया-सा लगा और वह उसी में व्याकरण की चिन्ता भूल गया। कहीं श्यामा आ कर खीझ कर रोने तो नहीं बैठ गयी? वह लपक कर मोटर से उतरा, बरामदा पार करके किवाड़ खटखटाने को ही था कि उसने देखा, उसमें बड़ा-सा ताला लगा है।
तो श्यामा नहीं लौटी! रास्ते में भी नहीं मिली। शायद दूसरे रास्ते से आ रही हो; हेमचन्द्र उतर कर क्वार्टर के सामने टहलने लगा। थोड़ी ही देर में वह इससे ऊब गया; किसी भी रास्ते से श्यामा लौट रही हो, इतनी देर तो नहीं लग सकती... वह फिर कार में जा बैठा; क्षण-भर सोचता रहा कि क्या करे, फिर उसने मोटर स्टार्ट कर दी और एक ओर को चल पड़ा।
अकेले सिनेमा जाने में कोई सेन्स नहीं है। लेकिन श्यामा तो न मालूम कहाँ गयी - क्या गुस्से में अभी यों ही ताँगे में भटक रही होगी? खुली हवा शान्तिकर तो होती है... पर घर भी अभी लौटने की उसकी इच्छा नहीं; देर तो हो गयी है पर एक बार सिनेमा जाने की बात सोच लेने पर फिर कोरे वापस आना रुचता नहीं, पिटे हुए कुत्ते की-सी बात लगती है, टाँगों में दुम छुपाये लौट आना और दुबक रहना।
वह फिर बारहखम्भे में आ गया था। कनॉट सर्कस का चक्कर काटता हुआ वह पश्चिम की ओर एक तिमंजिले मकान के नीचे रुक गया। क्यों? उसे स्वयं कुछ अचम्भा भी हुआ। पर वह गाड़ी से उतरा, और धीरे-धीरे जीना चढ़ने लगा। निचली दोनों मंजिलों में अँधेरा था - स्वाभाविक ही था, क्योंकि नीचे दूकानें हैं, दुमंजिले पर कोई दफ्तर है शायद, पिछवाड़े में कोई रहता भी है - पर तिमंजिले में रोशनी थी, और वहाँ से कुछ आवाजें भी आ रही थीं, अस्पष्ट किन्तु सौहार्द-भरी, प्रसन्न, खुली...
रमानाथ रेडियो-आर्टिस्ट है। रेडियो-आर्टिस्ट के आज कोई माने नहीं है, जो एक बार रेडियो पर गा आता है वह अपने को रेडियो-आर्टिस्ट कहता है और दिल्ली में खास कर ऐसी आर्टिस्टाओं की तो भरमार है - हेमचन्द्र ने कहीं एक-आध साइनबोर्ड भी देखे, 'मिस अमुका, रेडियो-आर्टिस्ट' - पर रमानाथ वास्तव में आर्टिस्ट है और बाकायदा नौकरी करता है। खुश-तबियत, मिलनसार आदमी है, पढ़ा-लिखा भी है, और हँसने-हँसाने में भी कमाल रखता है; पॉलिटिक्स में भी थोड़ा-बहुत दखल रखता है, जेल हो आया है, अखबारनवीसी भी करता रहा है, अब रेडियो-आर्टिस्टों की यूनियन बनाने में संलग्न है।
यह सब तो ठीक है, लेकिन हेमचन्द्र इस वक्त उसके यहाँ क्यों जा रहा है? उससे कोई घनिष्ट परिचय तो है नहीं; चार-छः बार मिला है, बस। तब? लेकिन थोड़ी-सी हँसी-दिल्लगी, कुछ मन बहलाव के लिए कहीं जाने में क्या हर्ज है? फॉर्मेलिटी काहे की - और रमानाथ तो कोई फॉर्मल है भी नहीं। पर क्या वह कहेगा कि मैं मन बहलाने चला आया? कह भी दे तो क्या हर्ज है? यह तो कॉम्प्लिमेंट ही है कि तुम्हारे यहाँ इसलिए आया हूँ कि मन लग जाय। और -
और क्या?
और यही कि रमानाथ से उसका परिचय श्यामा ने ही कराया था : श्यामा गाती है और गाने के सिलसिले में ही उसका रमानाथ से पुराना परिचय था। तब क्या यहाँ आने में यह भी कारण है - श्यामा से यह सूक्ष्म-सा सिलसिला? हुँह, मुझे क्या; श्यामा ऐंठ कर चली गयी है तो चली गयी है, कल तक ठीक हो जाएगी, मेरा कोई दोष थोड़े ही था? ऐसे तुनकना तो स्त्री-स्वभाव का एक अंग है... रमानाथ के यहाँ कुछ मन लगेगा, वहाँ और भी लोग आते-जाते रहते हैं, रेडियो-आर्टिस्ट, गवैये, बजैये, तरह-तरह के कलावन्त-कभी छोटे-मोटे अभिनेता, नर्तक-नर्तकी भी आ जाते हैं, और कई तरह के एमेच्योर पॉलिटिशियन, जेबी रेवोल्यूशनरी, वगैरह...
तीसरी मंजिल। सामने ही दरवाजा था, भीतर से तीन-चार आवाजें आ रही थीं-हँसी की। कोई शायद शेर कह रहा है-सहसा हेमचन्द्र ठिठक गया। फिर वह दबे पाँव दरवाजे से आगे बढ़ कर खिड़की पर गया। खिड़की बन्द थी, परदा खिंचा था, पर उसमें भीतर का दृश्य झीना-सा देखा जा सकता था। सोफे पर रमानाथ से कुछ हट कर एक लड़की बैठी थी, चेहरा नहीं दीखता था पर यों भी हेमचन्द्र की परिचिता नहीं जान पड़ती थी; दूसरी ओर एक कुरसी पर काली अचकन पहने कोई शायर थे - यही शेर कह रहे थे - जिस पर सब की हँसी छूट रही थी; उनके बगल में एक और कुरसी पर एक युवक, जिसे हेमचन्द्र ने रमानाथ के साथ ही पहले-पहल देखा है, रेडियो में ही नौकर है शायद संगीत-विभाग में - हाँ, फ्लूटिस्ट है - और उसके बाद एक और कुर्सी पर, खिड़की से लगभग ठीक सामने श्यामा।
तो दिल-बहलाव की जरूरत अकेले उसे ही नहीं है, श्यामा को भी है! ठीक है, यहाँ से अब वह श्यामा को फिर लिवा ले जा सकता है; चाहे सिनेमा भी जा सकता है, नहीं तो मोटर में उसके घर तो पहुँचा ही दे सकता है - इस प्रकार श्यामा के मनमुटाव का मार्जन भी हो जाएगा, और श्यामा यह भी एप्रीशियेट करेगी कि वह उसे ढूँढ़ता हुआ यहाँ तक आया है...
हेमचन्द्र सीधा हो कर दरवाजे की ओर लौट आया। दाहिना हाथ उठा कर उसने तर्जनी और मध्यमा को मोड़ कर उनके जोड़ उभारे कि किवाड़ खटखटा सके। पर फिर उसका हाथ धीरे-धीरे नीचे गिर गया, वह मुड़ा और जीना उतर गया। गाड़ी में बैठ कर उसने मोटर स्टार्ट करके इंजन को खाहमखाह बड़े जोर से रेस किया, फिर क्लच छोड़ कर गाड़ी दौड़ा दी। कनॉट सर्कस - क्वींसवे - सिन्धिया हाउस, विंडसर प्लेस-सेंट्रलविस्टा - किधर जाएगा वह? किधर भी आगे, दूर खुले में कहीं, जहाँ गाड़ी तेज दौड़ सके, और तेज, और तेज, पुच्छल तारे की तरह, कटी पतंग की तरह, उल्का की तरह; नहीं, किसी की तरह नहीं, सिर्फ बेतहाशा दौड़ती मोटर की तरह, जिसका चालक हेमचन्द्र है, जो पेडल दबा कर इंजन को और गैस दे रहा है, और स्पीड, और गैस... यन्त्र बहुत अच्छा है, मानव का वशंवद यन्त्र; मानव की बलवती आकांक्षा का एक मूर्त प्रतीक...।