बारहखम्भा / भूमिका / अज्ञेय

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मुखपृष्ठ पर 'बारहखम्भा' को एक 'उपन्यास-प्रयोग' कहा गया है। एक हद तक तो उसकी प्रयोगधर्मिता मुखपृष्ठ से ही स्पष्ट हो जाएगी जहाँ उन लेखकों के नाम भी दिये गये हैं जिन्होंने इस (उस समय तक अनूठे) सहकारी अनुष्ठान में भाग लिया। लेकिन सहकारिता का प्रयोग इतने तक सीमित नहीं था कि उपन्यास का एक-एक अंश एक-एक व्यक्ति लिखेगा। प्रयोग में अनिवार्यतया यह जिज्ञासा भी शामिल थी कि पूरा उपन्यास यदि एक कलाकृति है तो उसमें योग देने वाले प्रत्येक लेखक के सामने यह प्रश्न भी रहेगा ही कि जहाँ से वह कथासूत्र उठाता है वहाँ तक की कथा का आभ्यन्तर तर्क क्या बनता है, संरचना के उतने अंश की कलात्मक माँग होती भी है; या कहीं से भी आगे कहानी को मनमानी दिशा में ले जाया जा सकता है? 'मनमानी' तो वह हर हालत में होती ही है -लेकिन कलाकार का कला-विवेकी मन जो मानता है वह कहाँ तक उसके विकल्पों को मर्यादित करता है?

समस्या को रूपायित करने के लिए हम एक दूसरे क्षेत्र का उदाहरण ले सकते हैं। एक अधूरा बना हुआ मकान सामने पा कर कोई स्थपति क्या उसमें जैसे-तैसे कमरे और मंजिलें जोड़ता हुआ चल सकता है? क्या किसी भी चरण में एक 'दिया हुआ' नक्शा उसे एक साथ ही दिशा-संकेत भी नहीं देता और उपलब्ध विकल्पों की सीमा भी नहीं बाँध देता? रचनात्मक प्रतिभा के लिए विकल्प तो निश्चय ही और हर चरण में रहते हैं, लेकिन उनके स्वरूप का निर्धारण पहले का रचा हुआ भी होता है और पहले के रचनाकारों की भविष्य-कल्पना भी हुआ करती है।

प्रयोग की योजना बनाते समय यह माना गया था कि उपन्यास-रचना का यह पक्ष प्रयोग में भाग लेने वाले सभी उपन्यासकारों के लिए तो रोचक होगा ही, पाठकों के लिए भी लगातार दिलचस्पी का कारण बना रहेगा। और प्रयोग पूरा हो जाने के बाद उपन्यास लिखना चाहने वाले दूसरे लेखक भी प्रयोग को दिलचस्पी के साथ पढ़ेंगे और उपन्यास की विधा को, उसके शिल्प को और समग्र रूप-रचना की सभी समस्याओं को समझने के लिए उपयोगी पाएँगे। ऐसा समझा गया था कि यह प्रयोग आलोचक के लिए भी उपयोगी होगा - न केवल उपन्यास-विधा के सैद्धान्तिक विवेचन में बल्कि - और शायद उससे अधिक - प्रयोग में भाग लेने वाले उपन्यासकारों की विशेष प्रवृत्तियों को समझने में भी।

मूल योजना में उपन्यास बारह किस्तों में लिखा जाने वाला था - बारह इसलिए कि प्रतिमास एक किस्त प्रकाशित करते हुए एक वर्ष में योजना पूरी हो जाती। इसीलिए उसका नाम भी 'बारहखम्भा' सोच लिया गया था। मूल योजना में जिन लेखकों ने उसमें भाग लेना स्वीकार किया था, प्रयोग के चलते उनमें से कुछ उससे अलग हो गये। प्रतिमास एक अध्याय छपता रहे, इसकी जिम्मेदारी प्रयोग के संयोजक से अधिक मासिक-पत्र (प्रतीक) के सम्पादक पर आ गयी थी और इसलिए बीच में एक बार पहले अध्याय के लेखक को फिर एक अध्याय लिखना पड़ा। इसके बावजूद 'बारहखम्भा' का बारहवाँ खम्भा यथाक्रम खड़ा नहीं हुआ क्योंकि प्रतीक का प्रकाशन ही स्थगित हो गया।

प्रयोग सफल हुआ या कि असफल? अधूरे उपन्यास के आधार पर भी इस प्रश्न का उत्तर खोजा जा सकता था; और उत्तर दिया भी गया। पाठकों की अटूट दिलचस्पी तो एक कसौटी थी ही; दूसरी कसौटी यह रही कि उसके बाद ऐसे प्रयोग और भी हुए। तीसरी कसौटी इसे भी माना जा सकता है कि उस अधूरे प्रयोग के दसियों और बीसियों बरस बाद प्रतीक की पुरानी फाइलों के पाठकों की ओर से यह माँग उठती रही कि बारहवीं किस्त भी पूरी करके उपन्यास को पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया जाए। ऐसा ही आग्रह कारण बना कि बारहवीं किस्त भी उसी व्यक्ति को लिखनी पड़ी जिसने पहला अध्याय लिखा था। यों तो यह युक्तिसंगत भी है कि जिसने संरचना की नींव डाली थी वही उसे पूरा भी करे; लेकिन यहाँ इस युक्ति को 'आवश्यकता का तर्क' मान लेना ही उचित होगा - मूल योजना ऐसी नहीं थी। अब बारह किस्तों अथवा अध्यायों में पूरा किया गया यह उपन्यास पाठकों के सामने है। पहला, छठा और बारहवाँ अध्याय एक ही व्यक्ति द्वारा लिखा गया; इस प्रकार प्रयोग में केवल दस व्यक्तियों ने भाग लिया। अब पूरे उपन्यास को सामने रखकर पाठक चाहे तो एक बार फिर प्रयोग की सफलता-असफलता का प्रश्न उठा सकता है। उसमें उसकी रुचि न हो तो वह रचनाकारों की नाम-सूची एक तरफ रख कर उपन्यास को केवल उपन्यास की नजर से ही देख सकता है।

प्रयोग की सफलताओं में इसे नहीं गिनाऊँगा कि बारह किस्तें पूरी तो हुईं - वैसा तो उसे असफल मानते हुए भी किया जा सकता था! न ही आज यह बात विशेष महत्त्व की जान पड़ती है कि वैसे प्रयोग और भी हुए - वैसा भी असफलता के बावजूद हो सकता है। बल्कि अब भी कोई पत्रिका ऐसा प्रयोग कर सकती है। एक बिल्कुल ही असम्बद्ध क्षेत्र से फिर एक उदाहरण लें (यद्यपि प्रयोग को एक क्रीड़ा मानकर हम सीधा सम्बन्ध भी जोड़ सकते हैं, और मैं तो उन लोगों में से हूँ जो क्रीड़ा अथवा लीलाभाव को साहित्य-रचना का ही नहीं, संस्कृति के विकास का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं।) कह सकते हैं कि जैसे क्रिकेट में 'वेस्टइण्डीज बनाम शेष दुनिया' के आयोजन में असल सवाल यह नहीं रह जाता है कि टीम में किन-किन को सम्मिलित किया जाएगा, उसी तरह आज भी ऐसा एक सहप्रयोग हो सकता है जिसका मुख्य आकर्षण यही होगा कि कौन-कौन उसमें सम्मिलित हो सकते हैं या हो रहे हैं।

लेकिन सफलता की जो दूसरी कसौटियाँ हैं वे सर्वकालिक हैं। उपन्यास बना कि नहीं बना? प्रत्येक अध्याय का उसमें क्या योग रहा? वह लगातार आगे बढ़ता रहा या नहीं? उपन्यास का आगे बढ़ना क्या केवल घटनाओं में घटना जुड़ते चले जाना ही है या कि इसके अलावा कोई अमूर्त संरचना भी होती है जो आगे बढ़ती है? उस दृष्टि से क्या बारहों अध्याय प्रवाह में योग दते हैं या कोई अध्याय केवल भँवर पैदा करता है? धारा को समग्रता में देखने पर भँवर ऐसे भी हो सकते हैं जो गति का ही एक रूप हों - लेकिन ऐसे भी हो सकते हैं कि धारा से कट जायें और गति का मिथ्या आभास देते रहें।

किस्तों की रचना के दौरान कम-से-कम एक बार ऐसी जिच की अवस्था आयी भी थी। आरम्भ में जो योजना बनी थी उसके अनुसार छठी किस्त चन्द्रगुप्त विद्यालंकार द्वारा लिखी जाने को थी। क्रम लेखकों से पूछकर उनकी सुविधा को ध्यान में रखते हुए ही बनाया गया था और छठी किस्त के लिए चन्द्रगुप्त जी की स्वीकृति थी। लेकिन ठीक समय पर उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की - बल्कि लिखने से इनकार किया। इसीलिए योजना को चालू रखने के लिए एक आपातिक व्यवस्था की गयी और छठा अध्याय भी अज्ञेय द्वारा लिखा गया।

चन्द्रगुप्त जी ने जिन कारणों से असमर्थता प्रकट की थी वे उस समय अप्रासंगिक नहीं थे और शायद पूरे उपन्यास के एक प्रयोग के रूप में मूल्यांकन में आज भी उनकी प्रासंगिकता है। उस समय चन्द्रगुप्त जी ने उपन्यास की तब तक की प्रगति पर अपना असन्तोष प्रकट करते हुए यह मन्तव्य दिया था कि जिस वर्ग के जीवन का चित्र सहभागी लेखक खींच रहे हैं उसकी यथार्थता से वे परिचित नहीं हैं, फलतः वर्णन अस्वाभाविक हो गया है। उस चरण में आ कर स्थिति का सुधार असम्भव मान कर उन्होंने राय दी थी कि धारावाहिक उपन्यास के प्रयोग को बन्द कर दिया जाए - प्रयोग को असफल मान लिया जाए।

चन्द्रगुप्त जी की आलोचना से बहुत दूर तक सहमत होते हुए भी प्रतीक सम्पादक ने योजना को आगे बढ़ाया, क्योंकि प्रयोग का उद्देश्य केवल इतना तो नहीं था कि एक ऐसा उपन्यास बन जाए जिसकी घटनाओं की यथार्थता पर पाठक की प्रतीति हो सके। उद्देश्यों में यह भी तो था कि देखा जाए, परिस्थिति को कौन, कैसे सँभालता है, कैसे किसी स्पष्ट होते हुए लक्ष्य की ओर ले जाता है। जैसा उस समय प्रतीक सम्पादक ने छठी किस्त के आरम्भ में दी गयी टिप्पणी में लिखा था:

"इस प्रकार के साझे के खेल में टीम के सदस्यों को पूरा अवसर मिलना चाहिए; कोई गिरता-पड़ता भी चले तो दूसरों को सँभालना चाहिए। खेल में खिलाड़ियों को भी रस मिलता है और खेल देखने वालों को भी - और उन्हें खिलाड़ियों की हार में भी रस मिलता है। खेल में एक पक्ष तो हारेगा ही, इसलिए वह न खेले, इस तर्क को किस टीम ने माना और किस दर्शक ने उसका अनुमोदन किया? यह भी जान पड़ता है कि इस प्रकार के प्रयोगों से लेखकों की विशेष रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ और गुण-दोष भी किसी हद तक प्रकट होते हैं, हिन्दी के औपन्यासिक कृतित्व की अवस्था का प्रतिबिम्बन होता है। यह भी उसका एक महत्त्व है और इस दृष्टि से प्रयोग के एक पहलू की असफलता एक दूसरे पहलू की सफलता है।"

इस प्रकार उपन्यास आगे बढ़ता रहा। बारहवीं किस्त उसी क्रम में यथासमय प्रकाशित नहीं हुई तो उसके कारण दूसरे थे, जिनका उल्लेख हो चुका है। बीच की अवधि में पाठकों के जो भी पत्र आते रहे थे वे इस बात का स्पष्ट संकेत करते थे कि वह समुदाय बड़ी दिलचस्पी से प्रयोग का अनुसरण कर रहा है।

अब बारहवीं किस्त समेत पूरा उपन्यास पाठकों के सामने है। सम्पादक का यह विश्वास अब भी बना हुआ है कि यह उपन्यास (और यह प्रयोग) पाठकों के लिए अत्यन्त रोचक होगा; और इतना ही नहीं, उपन्यास की विधा के सभी अध्येताओं के लिए (इनमें उपन्यास-लेखक भी शामिल हैं) अत्यन्त उपयोगी होगा। दूसरे शब्दों में, सम्पादक की राय में प्रयोग सफल, रोचक और उपयोगी सिद्ध हुआ। रही उपन्यास की सफलता की बात; अगर प्रयोग की इस त्रिविध सफलता को स्वीकार कर लिया जाए और उसके साथ ही उपन्यास अन्त तक पठनीय रहे - पाठक की उत्कंठा को बनाये रखता चले - तो उसे उपन्यास की भी सफलता मान लेना चाहिए। कथावस्तु की सामाजिक मूल्यवत्ता का निर्धारण इससे अलग विषय है। हो सकता है कि चन्द्रगुप्त जी द्वारा उठाई गयी आपत्ति आज भी सही जान पड़े। दूसरी ओर यह भी अपने आपमें एक रोचक और उपयोगी जानकारी हो सकती है कि छठे दशक के आरम्भ के उपन्यासकार उस सामाजिक यथार्थ के बारे में कितना कम जानते थे जिसके बारे में वे लिख रहे थे! और इन उपन्यासकारों में वे भी थे जो अपने को सामाजिक यथार्थवादी आदि भी कहते थे और वे भी थे जिन पर परवर्ती आलोचकों ने रोमांटिक अथवा कलावादी इत्यादि होने का आरोप लगाया।

इस रोचक प्रयोग को पाठकों, आलोचकों और उपन्यास-विधा के इतिहासकारों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता है।

- सच्चिदानन्द वात्स्यायन