बारहखम्भा / भाग-3 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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केतकी ने अदब से कार का पिछला द्वार खोल कर कहा, “आइए।”

अल्ताफ ने स्वभाव के अनुसार कहना चाहा, 'पहले आप', पर फिर न जाने क्या सोच कर वह अन्दर जा बैठा। केतकी कार का पूरा चक्कर काटकर ड्राइवर के स्थान पर आकर बैठ गयी। तब अल्ताफ को जैसे किसी नयी बात का पता लगा हो, बोला, “आप ड्राइव करेंगी?”

“जी हाँ!” केतकी ने सेल्फ दबाते हुए कहा, “आपकी इच्छा है?”

“मेरी?”, अल्ताफ हँस पड़ा, “मुझे तो अलिफ के नाम बे भी नहीं आता!”

“सीखिएगा?”

“जहेकिस्मत। आप सिखाएँगी?”

“क्यों नहीं! शुरू कीजिए” - केतकी ने चक्के को घुमाते हुए मुस्कराकर कहा, “बड़ा अच्छा वक्त है। न भीड़ है न शोर।”

अल्ताफ ने सहसा केतकी की ओर ऐसे देखा जैसे उसे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था न अपने कानों पर। बोला, “क्या अभी, इतनी रात को!”

“जी हाँ, ड्राइविंग के लिए आधी रात से बढ़ कर अच्छा वक्त और कोई नहीं होता।”

कार तब तक नयी दिल्ली के धूमिल अन्धकार और निर्जन मौन पर प्रहार करती हुई कर्जन रोड हो कर इंडिया गेट की ओर तेजी से दौड़ने लगी थी। स्पीड पचास मील से कम न होगी। अल्ताफ को लगा जैसे वह उड़ा जा रहा है। उसने यह भी अनुभव किया कि कार बढ़िया है क्योंकि ड्राइविंग बड़ा स्मूथ था; पर तभी न जाने क्या सोच कर वह बोल उठा, “इंडिया गेट बहुत सुन्दर जगह है।”

शब्द मुँह से निकलने से पूर्व ही स्पीड कम होती जान पड़ी, फिर एकदम धीमी हो गयी। उस समय इंडिया गेट के पास अपूर्व शान्ति छा रही थी। धूमिल अन्धकार के आवरण में छिपा हुआ प्रशस्त मैदान; दूर एक कोने में मौन और मन्द छोटा-सा गोलाकार बाजार, विद्युत-द्वीपों के प्रतिबिम्ब से झिलमिल करते जलाशय और लॉन की रविश पर मौन मन्थर गति से चहल-कदमी करते हुए इक्के-दुक्के प्रेमी युगल! कार तब जार्ज की प्रतिमा के पास से इंडिया गेट में हो कर धीरे-धीरे राष्ट्रपति भवन को जाने वाली सड़क पर आयी। निरन्तर ऊपर उठते हुए विद्युत-दीप उस विस्तृत मौन के प्रहरी समान लगे। अल्ताफ ने दूर विशाल भवनों की ओर देखा जो अन्धकार में झिलमिलाते दीपस्तम्भों का काम कर रहे थे और धीरे-से कहा, “इन्सान ने कुदरत को पालतू बनाने की कितनी कोशिश की है।” केतकी ने कोई जवाब नहीं दिया, वह लौट कर गेट के पास आयी और बायीं ओर पार्किंग के लिए जो स्थान था वहीं ला कर गाड़ी रोक दी। फिर घूम कर अल्ताफ के द्वार के पास आयी, उसे खोला, कहा, “उतरिए। कुछ देर लॉन में बैठेंगे।”

“देर न हो जाएगी?”

“इस शान्त और इस मौन के सामने समय की कोई कीमत नहीं है, शायर साहब!”

अल्ताफ को लगा जैसे यह नारी उसे पराजित करने पर तुली हुई है। उसने धीरे से परन्तु दृढ़ता से कहा, “अभी तो कई दिन हूँ, फिर आ सकता हूँ।”

“पर मैं नहीं आ सकती।”

“बाहर जा रही हैं?”

“जी हाँ, कश्मीर जा रही हूँ। मेरे हजबैण्ड वहीं पर हैं।”

“आपके हजबैण्ड?”

“जी हाँ, मेरे!”

“वहीं रहते हैं?”

“जी नहीं। रहते तो दिल्ली में हैं।”

“तब शायद कवि हैं। घूमने गये हैं।”

केतकी हँसी। बोली, “कवि होते तो मैं यहाँ रहती? व्यापारी हैं। पीछे कुछ दिन बीमार रहे इसलिए आज-कल स्वास्थ्य सुधारने कश्मीर गये हुए हैं।”

अल्ताफ तब तक न जाने किस क्षण उतर कर बायीं ओर वाले लॉन में केतकी के साथ चहल-कदमी करने लगा था। उन दोनों के बीच जो फासला था वह हर कदम के बाद कम होता जाता था। अल्ताफ क्षण-क्षण में दृष्टि उठाता और केतकी को देख लेता, कोई विशेषता उसे दिखाई न देती, वही मुक्त भाव, वही मुक्त हँसी। चलते-चलते दूर अन्धकार में जहाँ उन्हें कोई नहीं देख सकता था, पर वे सब कुछ देख सकते थे, केतकी बैठ गयी। बैठ क्या गयी, उसने अपने आपको मुक्त भाव से भूमि से तादात्म्य भाव स्थापित करने दिया। अल्ताफ यन्त्रवत् अचकन सँभालता हुआ पास ही मानो गिर पड़ा। यह अच्छा था कि उस अन्धकार में वे एक दूसरे को ठीक-ठीक देख नहीं पा रहे थे। इसलिए समझने की कोशिश करने लगे थे। कुछ क्षण मौन रह कर केतकी बोली, “आज आपने देखा कि कैसे कुछ लोग बीसवीं सदी में भी मशीन की शक्ति से इनकार करते हैं। माना मनुष्य ने मशीन का आविष्कार किया है परन्तु उसकी उपयोगिता और उसकी शक्ति के कारण ही तो। अब यदि आप उससे कहें कि वह वायुयान को त्याग कर भैंसागाड़ी या बैलगाड़ी प्रयोग करने लगे तो क्या वह निरी मूर्खता नहीं होगी?”

“परले सिरे की मूर्खता, निहायत भद्दी मूर्खता, बेवकूफी” - अल्ताफ ने केतकी की हाँ-में-हाँ मिलायी, “भला बताइए तो, हमें नयी दुनिया तामीर करनी है और हम उसके लिए लौटें बाबा आदम के जमाने में! यानी फिर नये सिरे से शुरू करें! अब तक इन्सान ने जो तरक्की की है उस पर पानी फेर दें!”

फिर एक क्षण रुक कर एकदम बोला, “यह श्यामाजी कौन हैं?”

“मेरा तो कोई परिचय नहीं है। रमानाथ ने बताया था कि गाती हैं।”

“अच्छा।”

“स्वतन्त्र हैं, सरकारी नौकरी करती हैं। पहाड़गंज में सरकारी क्वार्टर में रहती हैं।”

“शादी तो क्या की होगी?”

“शादी को शायद बन्धन मानती हैं।”

“अजीब बात है फिर भी मशीन की मुखालफत करती थीं। मालूम होता है कि बुर्जुवा तहजीब की पैदायश हैं। खूब खेलना और फिर उस पर तमद्दुन का भड़कीला परदा डाल कर मासूम बच्चों की तरह बातें करना उन्हें खूब आता है।” अल्ताफ ने फिर एक क्षण रुक कर कहा, “फिर भी पढ़ी-लिखी जान पड़ती हैं।”

“खाक पढ़ी हैं। सोसायटी में घूमती है। पिकअप कर लिया है।”

अल्ताफ मुस्कराया, “आज कल बहुत से लोग इसी तरह आलिम बनते हैं। खास तौर पर बुर्जुवा। कैपिटलिस्ट सोसायटी की यह एक खसूसियत है।” फिर चारों तरफ देख कर बोला, “चलें, सन्नाटा छा गया है।”

“डर लगता है?”

“सन्नाटे से?” अल्ताफ हँसा, “लगता भी है और नहीं भी।”

“कैसे?”

“सन्नाटा कैपिटलिस्ट सोसायटी की पनाहगाह है। अधयातम (अध्यात्म) का ढोंग यहीं तो चलता है। पर हम ठहरे कशमकश में यकीन करने वाले। यहाँ रम जायें तो क्लास-स्ट्रगल कैसे हो!”

“आप बिल्कुल ठीक कहते हैं।”

“पर केतकी जी! जब ख्यालात को बाँधना होता है तो अक्सर मुझे भी ऐसा लगता है कि जैसे मेरे चारों तरफ सन्नाटा होता!”

“ठीक कहा आपने; मेरा भी कभी-कभी एकान्त में गाने को जी करता है।”

अल्ताफ हँस कर बोला, “यूँ कहिए न, अपना गाना आप ही सुनने को जी करता है।”

“जी हाँ”, कह कर केतकी बहुत चाह कर भी हँस न सकी; एक दीर्घ निःश्वास खींच कर रह गयी। फिर बहुत देर तक कोई नहीं बोला। मौन ने जैसे उन्हें ग्रस लिया। समस्त वातावरण मौन था। प्रकृति, भवन, विद्युत-दीप, इंडिया गेट, जार्ज पंचम की प्रतिमा; जो कुछ दिखाई देता था, यहाँ तक कि आकाश और उसके प्रहरी मेघ-सब मौन थे। पर केतकी और अल्ताफ का अन्तरमन! वह तब जैसे रौरव नाद से काँप रहा था। बाहर का समस्त स्वर जैसे सिमट कर उनके अन्तस् में समा गया था। सहसा उससे पराजित हो कर केतकी बोल उठी, “चलिए आपको छोड़ आऊँ। बारह बज चुके हैं!”

“बारह!” - अल्ताफ चौंक पड़ा, “यानी...”

“रात बीत रही है।”

“इतनी जल्दी!”

फिर शीघ्रता से उठता हुआ गुनगुना उठा, “इधर आँख झपकी उधर ढल गयी वह, जवानी भी थी धूप एक दोपहर की!”

“क्या-क्या?” केतकी ने ठिठक कर पूछा, “क्या फरमाया आपने? जोर से कहिए - “

अल्ताफ हँसा, “कुछ नहीं, ऐसे ही एक बुर्जुवा शायर का कलाम याद आ गया था।”

“फिर भी।”

अल्ताफ ने शेर दोहरा दिया। केतकी मुस्करायी। बोली, “जी हाँ, वह रात क्या जो एक कहानी में कट जाए।”

अल्ताफ तड़प उठा। केतकी कार के पास आयी। एक रहस्यमयी मुस्कराहट उसके ओठों पर नाच रही थी। उसने शीघ्रता से कार को स्टार्ट कर इंजन को बेतहाशा दौड़ा दिया। पर मुड़ते-मुड़ते जैसे कुछ याद आया हो, जोर से बोली, “लोदी रोड पर कहाँ जायेंगे?”

उतने ही जोर से अल्ताफ ने जवाब दिया, “पार्क के पास जो बस स्टैण्ड है बस वहीं पर।”

फिर कई मिनट तक सन्नाटा रहा। कार तेजी से दौड़ती रही; सन्नाटे को चीरती रही, कुरेदती रही और एक-एक करके सूनी सड़कें, मौन भवन, निद्रालु पार्क सब पीछे छूटते रहे। केतकी का ध्यान बिल्कुल सामने था। अँधेरे को तेजी से चीरती हुई कार की रोशनी के साथ उसकी विचारधारा भी उसके मस्तिष्क के किसी अन्धकार को चीरती जा रही थी; पर जैसा कि सड़क पर हो रहा था, प्रकाश टिकता नहीं था। पानी में जैसे तैरने पर एक मार्ग बनता है पर दूसरे ही क्षण सब-कुछ समतल हो जाता है; यही हालत उसके मस्तिष्क की थी। सहसा उसने स्पीड को कम करना शुरू किया। पचास से पैंतालीस, फिर चालीस-तीस पर होती हुई सुई रुकती हुई पन्द्रह पर आ कर रुकी। कुछ क्षण उसी स्पीड पर चल कर केतकी ने विजयगर्व से कहा, “मशीन कितनी शानदार है!”

अल्ताफ चौंका, “क्या फरमाया?”

“मशीन कितनी शानदार है!”

“इसमें क्या शक है!”

केतकी ने दोनों हाथ चक्के पर रख कर अपने को ढीला छोड़ते हुए, उल्लसित स्वर में, मानो वह मोटर उसी ने बनायी हो, कहा, “श्यामा जी होतीं तो कहतीं - ऊँहुँक्, मशीन की इसमें क्या शान है? मनुष्य चाहे जैसे उसे घुमाता है।”

फिर अल्ताफ को उत्तर का अवसर न देते हुए उसकी ओर देखा और एकाएक कार रोक दी। अल्ताफ ने अचरज से देखा कि कार पार्क के पास खड़ी है।

“ओह, हम तो आ गये!”

“जी हाँ। मशीन की कृपा है।”

केतकी वहीं चक्के पर हाथ रखे बैठी रही। दूर कहीं शोर सुनाई दे रहा था। सिनेमा के शौकीन नर-नारी अन्तिम शो से लौट रहे थे। अल्ताफ उतर कर खिड़की के पास आया, बोला, “शुक्रिया।”

“कल का क्या प्रोग्राम है?”

“सवेरे कुछ जरूरी काम है।”

“कब तक फुरसत मिलेगी?”

“दोपहर तक।”

“तो खाना मेरे साथ खाइएगा।”

“जी...?”

“हाँ, एक बजे कार ले कर आऊँगी?” - और उसने चक्कर घुमाते हुए फिर कहा, “कुछ और मित्र भी आवेंगे। रमानाथ, श्यामा - “

अल्ताफ ने बीच में कहा, “मुझे कोई एतराज नहीं है पर शाम को रखें तो...”

इस बार केतकी ने टोका, “मुझे मंजूर है।”

“जी हाँ। खाने से पहले महफिल भी जमेगी।”

“और बाद में लास्ट शो भी देखा जाएगा।”

“जी?”

“जी हाँ।”

इस संक्षिप्त शब्दावली के पीछे अच्छा-खासा अर्थ-गाम्भीर्य था। केतकी ने कार घुमा दी और एक बार रुक कर कहा, “सो नाउ, टिल वी मीट एगेन।”

“आदाब अर्ज - “ अल्ताफ ने उल्लसित स्वर में कहा और जब दौड़ती हुई रोशनी अन्धकार में खो गयी तो वह एक गहरी साँस ले कर बोला, “दिल्ली में जिन्दगी है!”

और वह आगे बढ़ गया।

केतकी जब घर लौटी तो क्लॉक के टन ने एक बार आवाज देकर साढ़े बारह बजने की सूचना दी। घर में सन्नाटा था, केवल उसके कमरे में रोशनी हो रही थी। कार को गैराज में खड़ा करके जब वह ऊपर चढ़ने लगी, तब शायद रामसिंह की आँख खुल गयी थी। वहीं पास ही वह सोया पड़ा था। वह पीछे-पीछे ऊपर आया और शीघ्रता से डाइनिंग रूम की बत्ती जलाने चला। केतकी ने कहा, “अब खाना नहीं खाऊँगी।”

“तो जमना को न जगाऊँ - ?”

“नहीं।”

फिर कुछ क्षण झिझक कर बोला, “मुझे आने में देर हो गयी। आपको अकेले जाना पड़ा।”

केतकी ने सहसा कहना चाहा, 'कोई बात नहीं।' पर जो कुछ उसने कहा वह यह था :

“हाँ, इधर तुम बराबर देर से आने लगे हो। मैं सवेरे इस बारे में बातें करूँगी।”

फिर कई क्षण सन्नाटा रहा। बाद में केतकी ने पूछा, “कोई आया था?”

“जी नहीं।”

, “बेबी तो नहीं रोयी?”

“जी नहीं।”

“अच्छी बात है। सवेरे आठ बजे कार तैयार रखना, मुझे जाना है।”

“बहुत अच्छा।”

“जाओ।”

रामसिंह चला गया। केतकी ने दरवाजा बन्द कर दिया। फिर अपने कमरे के पास वाली बाल्कनी में झाँक कर देखा। बहुत हल्का प्रकाश था। एक पलंग पर उसकी छोटी बहन कुन्तल सो रही थी। उस समय वह जैसे कोई मधुर स्वप्न देख रही हो। क्योंकि उसके मुख पर जो प्रकाश पड़ रहा था उसमें उसकी मुद्रा मुस्कराती जान पड़ रही थी। लम्बे नेत्रों की लम्बी बरौनियाँ जैसे लजा कर झुक गयी हों और लाल ओठों पर लज्जा जैसे चिपक कर रह गयी हो। एक वेणी पलंग से नीचे उतर चली थी, दूसरी कान को ढकती हुई वक्षस्थल पर झूल आयी थी। दाहिने हाथ पर उसका मुख टिका हुआ था और बायाँ हाथ जंघा तक आ गया था। वह जैसे सो नहीं रही थी, किसी को छकाने के लिए सोने का अभिनय कर रही थी। पास ही केतकी का पलंग बिछा था। उसके इस ओर छोटे पलंग पर सोयी थी उसकी बेबी। कोई तीन साल की होगी। उसके प्रणय की प्रथम कली है वह। नाम यद्यपि मंजु है पर पुकारते सब बेबी कह कर हैं। बाल भूरे घुँघराले, नयन लम्बे, कुछ नील वर्ण लिए हुए, रंग रक्तिम गौर, मुख कुछ बड़ा, मस्तक ऊपर को झुकता हुआ। जैसे बहुत-सी बातें बंगाल हो कर यूरोप से इस देश में फैली हैं ऐसे ही कुछ उसके रूप के बारे में कहा जाता है। निश्चिन्त हो कर सोयी है जैसे परियों के लोक की सैर कर रही हो। उससे कुछ दूर फर्श पर चारों खाने चित्त पड़ी है जमना। घर की दासी है। उम्र से अधेड़ है पर साहब लोगों की चाकरी ने शऊर-सलीका सिखा दिया है।

केतकी एक निगाह सब पर डाल कर अपने कमरे में चली गयी। कपड़े बदलने लगी। सामने उसके पति का चित्र लगा था - जैसा एक व्यापारी का हो सकता है। बहुत वर्ष पहले वे लोग युक्तप्रान्त से आ कर यहाँ बस गये थे। कभी कपड़े का व्यापार होता था पर अब तो मोटर के पुर्जों की दुकान है। अच्छी चलती है। अपनी मोटर ले रखी है। नौकर-चाकर हैं। पढ़े-लिखे हैं। कभी-कभी सोसायटी में भी घूमते हैं और इधर पत्नी के कारण, न चाह कर भी, उनमें कला के प्रति अनुराग पैदा हो रहा है... न जाने क्या हुआ, केतकी ठिठक गयी। एक गहरा निःश्वास छूट कर मुक्त हो गया। आँखों में वेदना का हल्का-सा रंग उभरा। दृष्टि घुमायी। दाहिनी ओर दो पेंटिंग लगे हुए थे। उन्हें कुछ डबडबायी आँखों से देखा; फिर अल्मारी की ओर ध्यान दिया। सितार पास ही टँगा हुआ था। तबले की जोड़ी भी रखी हुई थी। ...केतकी ने एक झटके के साथ उधर से गर्दन घुमा ली। फिर शीघ्रता से कपड़े बदल कर स्विच ऑफ कर दिया। बाहर आ कर तेजी से पलंग पर गिर पड़ी। तभी न जाने कैसे जमना और कुन्तल एक साथ जाग पड़ीं। एक साथ बोलीं, “कौन? जीजी!”, “कौन, बीबीजी?”

केतकी ने उखड़े स्वर में कहा, “हाँ।”

कुन्तल उठ बैठी। “बड़ी देर कर दी, जीजी।”

“मीटिंग ग्यारह बजे तक होती रही, फिर एक साहब को लोदी रोड छोड़ना था।”

“तुम छोड़ कर आयीं?”

“हाँ।”

“कौन थे?”

“लखनऊ के एक शायर हैं, अल्ताफ हुसैन।”

कुन्तल 'हूँ' कह कर रह गयी। जमना बोली, “खाना नहीं खाओगी?”

“नहीं।”

कुन्तल ने पूछा, “खा आयी हो?”

“नहीं।”

जमना ने बताया, “छोटी बीबीजी ने भी नहीं खाया।”

“क्यों, कुन्तल?” - केतकी ने चौंक कर पूछा।

“भूख नहीं थी, फिर तुम्हारी राह देखती-देखती मैं सो गयी। मैंने समझा कि तुम सैकिंड शो में गयी हो।”

“तो!”

किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केतकी स्वयं बोली - “अब तो साढ़े बारह बजे हैं।”

कुन्तल चौंकी, “साढ़े बारह! तो जाने दो, जीजी। मुझे तो भूख नहीं है।”

“मुझे भी नहीं है”, केतकी बोली।

“तो जा जमना। तू ठीक करके सो जा।”

यह कह कुन्तल ने जम्हाई ली और फिर अलस भाव से शरीर को पलंग पर बिखर जाने दिया। कई क्षण बाद जब नींद आने को हुई तो केतकी ने कहा, “मंगल को जाने का विचार कर रही हूँ।”

कुन्तल चौंकी, “कश्मीर?”

“हाँ।”

“इस मंगल को?”

“हाँ।”

“अच्छी बात है, मैं होस्टल चली जाऊँगी।”

“क्यों, यहीं जो रहना! चाचीजी से कह दूँगी। वे सब यहाँ रहेंगे।”

“उनके साथ?”

“तुम्हारा क्या माँगते हैं? जमना रहेगी। मोटर रहेगी।”

“अच्छा।” कुन्तल ने अस्फुट नींद-भरे लहजे में कहा। पर केतकी को फिर कुछ याद आ गया; बोली, “कुन्तल! कल शाम को आठ-दस व्यक्तियों का खाना है।”

कुन्तल कुछ और समझी, कहा, “जीजी! मुझे तो भूख नहीं। शाम को पार्टी में बहुत खा लिया था।”

केतकी हँस पड़ी, “तेरे खाने की बात नहीं, कुन्तल। कल अपने घर पार्टी है।”

कुन्तल चौंकी, “कब?”

“कल शाम।”

“कौन हैं?”

“रमानाथ जी हैं, और दूसरे कलाकार होंगे। लखनऊ के शायर भी होंगे और श्यामा जी - क्यों तू श्यामा जी को जानती है?”

“कौन श्यामा जी?”

“स्वतन्त्र, एकाकी और सरकारी नौकर। विचार तो कुछ प्रतिक्रियावादी हैं पर पढ़ी-लिखी जान पड़ती हैं, गाती भी हैं।”

“ओ हो, श्यामा माथुर। पहाड़गंज रहती हैं।”

“हाँ, हाँ, वहीं रहती हैं।”

“वह तो जीजी, अच्छा गा लेती हैं। एकदम फारवर्ड और स्वतन्त्र हैं।”

“विचार तो प्रतिक्रियावादी हैं। संस्कृति और मनुष्य की श्रेष्ठता की बातें करती थीं।”

“सरकारी नौकर हैं, जीजी।” कुन्तल ने गम्भीरता से कहा और करवट बदल ली। केतकी ने देखा और समझा। वह चुप हो गयी। पर उसे नींद नहीं आ रही थी। कभी कश्मीर की बात सोचती, कभी उसके पति की मूर्ति सामने आ जाती। भले आदमी हैं, बहुत भले। केतकी को किसी बात के लिए मना नहीं करते। उसका गाना सुनते हैं। उसके चित्र देख कर प्रशंसा करते हैं। उसके मित्रों का स्वागत करते हैं। पर केतकी है कि उसका असन्तोष बढ़ता ही जाता है। रिक्तता उभरती आती है। वह उसके साथ सभाओं में नहीं जा पाते। संगीत के बारे में कोई सुझाव नहीं दे सकते। उन्हें सब अच्छा-ही-अच्छा लगता है। सब बहुत अच्छा है, जिसका आशय है कि सब बुरा है। बुरा तो है ही - केतकी कभी-कभी तर्क कर बैठती है। वह मुझे प्रसन्न करने को अच्छा कहते हैं। उन्हें स्वयं कुछ अच्छा नहीं लगता। तब कोई कह उठता है, लगता क्यों नहीं। उन्हें अपना व्यापार अच्छा लगता है। पैसा पैदा करना ही अच्छा लगता है। केतकी तब और विह्वल हो उठती है। पैसा पैदा करना ही तो जीवन का ध्येय नहीं है। फिर उसके मन में पुराना विचार भी कसक उठता है कि पैसा पैदा करने का वर्तमान तरीका शोषण को जन्म देता है। कालेज में जिस पूँजीवादी व्यवस्था की वह धज्जियाँ उड़ाया करती थी उसी का वह अंग बनने जा रही है...

उसे नींद आने लगी पर जब तक वह सुषुप्ति की अवस्था में पहुँची तब तक अनेक मीठे-कड़वे विचारों ने उसके उलझे हुए मस्तिष्क को और भी उलझा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सवेरे जब वह उठी तो उसका हृदय धक-धक कर रहा था। जैसे वह रात-भर दुःस्वप्न देखती रही हो, जैसे उसने कोई भयंकर पाप कर डाला हो। पर ये सब अन्तरमन की बातें हैं; ऊपर से तो वह मुस्करायी। अलस भाव, मुक्त केश-राशि, मुस्कान-विभूषित क्लान्त नयन; यह भी एक सौन्दर्य है। निशान्त का सौन्दर्य!

कार तैयार करके ठीक आठ बजे रामसिंह ने सूचना दी तो केतकी बेबी से उलझ रही थी। बेबी वजिद थी कि वह भी साथ जाएगी और केतकी का निश्चित मत था कि सोसायटी में बच्चों को ले जाना अपने और उनके, दोनों के लिए अहितकर है। इसलिए उसे हर बार कोई-न-कोई झूठा बहाना बनाना पड़ता है। सोचती है, यह बहुत बुरी बात है। उसने पढ़ा भी है कि बार-बार झूठ बोलने से बच्चों को झूठ बोलने की आदत पड़ जाती है या फिर वे माँ-बाप से घृणा करने लगते हैं। दोनों बुरी बातें हैं; पर सभा-सोसायटी में जब कोई गम्भीर विवाद चल रहा हो, या कविता अथवा संगीत का तन्मय कर देने वाला वातावरण छा गया हो, तब यदि बेबी शिशु-सुलभ चापल्य से नाच-गा उठे तो क्या वह दाँत तले किरकिरा उठाने वाली बात न होगी? उसे याद है कि किस तरह एक-दो मित्र अपने बच्चों को ला कर सोसायटी में सदा हँसी का पात्र बनते रहे हैं। सच तो यह है कि वे न्यूसेंस बन भी जाते हैं।

बहरहाल किसी तरह एक मोटर और एक तसवीर वाली किताब लाने का वायदा करके केतकी जाने को तैयार हुई। कुन्तल कॉलेज की एक पार्टी के साथ सवेरे ही पिकनिक पर ओखला चली गयी थी। कार में बैठ कर उसने रामसिंह से पूछा, “तुम्हें तो कहीं नहीं जाना?”

“जी नहीं।”

“बैठो।”

कार चल पड़ी तो उसे लगा-रामसिंह को कोई काम निकल आता तो अच्छा रहता। पर वैसे वह चलती चली गयी। एक बार कार लोदी रोड की ओर मुड़ी, पर फिर कुछ सोच कर बारहखम्भा जा पहुँची। कनॉट सर्कस का एक चक्कर काटा और रमानाथ के मकान के सामने सड़क पर कार रोक दी। रामसिंह ने द्वार खोला, पर वह बोली, “ऊपर जा कर देखो कि मिस्टर रमानाथ हैं या चले गये।”

“बहुत अच्छा।” कह कर रामसिंह चला गया। केतकी अलस भाव से चक्के पर हाथ रखे कनॉट सर्कस की दूकानों को देखती रही। प्रायः सभी बन्द थीं। आवागमन भी प्रायः शून्य था। एक रिक्तता-सी लगती थी जैसे कभी-कभी वह अपने अन्दर महसूस करती है पर वह विचारों में डूब सके इससे पूर्व उसकी दृष्टि एक युवक पर पड़ी - क्या यह फ्लूटिस्ट नहीं है? उसने हार्न बजाया। कई दृष्टियाँ ऊपर उठीं, उन्हीं में वह फ्लूटिस्ट भी था। वह इकहरे बदन का युवक है। लम्बे बाल, लम्बी कमीज और महीन धोती, यह उसकी पोशाक है। आँखें बड़ी-बड़ी हैं। मुख पर सदा एक आह्लाद छाया रहता है। नाम बहुत बड़ा है। संक्षेप में उसे सब सुधीर कहकर पुकारते हैं। केतकी को देख कर वह मुस्कराया और शीघ्रता से पास आ कर बोला, “नमस्कार!”

केतकी ने हाथ जोड़े “नमस्कार” कहा, फिर पूछा, “कहाँ जा रहे हैं?”

“रेडियो स्टेशन।”

“प्रोग्राम है?”

“जी हाँ।”

“शाम को भी है?”

“जी, छः बजे के बाद नहीं है।”

“तो आप प्रोग्राम पूरा करके सात बजे मेरे घर आने की कृपा करें। सब लोग इकट्ठे हो रहे हैं। संगीत-गोष्ठी और इसके बाद वहीं भोजन होगा।”

“जी - “ सुधीर कुछ झिझका।

केतकी मुस्करायी। “रात आपसे कुछ बातें नहीं हुईं। बाँसुरी भी नहीं सुनी। आज आपको कष्ट दिया जाएगा।”

“वह तो आपकी कृपा है - “ सुधीर ने फिर कुछ कहना चाहा पर केतकी ने उसे बोलने नहीं दिया। कहा, “आप मेरा घर शायद नहीं जानते।”

सुधीर ने एकदम कहा, “जानता हूँ।”

“तब ठीक है। हाँ, रमानाथ कहाँ होंगे?”

“क्यों, वह तो रेडियो स्टेशन गये हैं!”

“अच्छा, उनका भी प्रोग्राम है?”

“हाँ, दस बजे बच्चों के प्रोग्राम में हैं। फिर शायद छुट्टी है।”

केतकी ने सन्तोष की साँस खींची। शीघ्रता से बोली, “तो आइए बैठिए। आपको रेडियो स्टेशन छोड़ दूँगी और रमानाथ से बात भी कर लूँगी।”

तब तक रामसिंह भी आ गया था। उसने बताया, “साहब रेडियो स्टेशन गये हैं।”

“अच्छा। बैठो।” कह कर उसने सुधीर के लिए द्वार खोला - “आइए।”

सुधीर पीछे से घूम कर केतकी के पास आ बैठा। केतकी ने आराम से पैडल दबाया और कार पार्लियामेंट स्ट्रीट से होकर उस विशाल भवन की ओर, जिसमें से निकल कर मनुष्य की आवाज सारे संसार में फैल जाती है, दौड़ने लगी। सुधीर ने केतकी से कहा, “आप रेडियो पर क्यों नहीं आतीं?”

“मैं?”

“हाँ, आप इतना सुन्दर गाती हैं। आपने कोशिश नहीं की?”

“नहीं।” केतकी ने कार की गति धीमी कर दी थी। लजीली मुस्कराहट से बोली, “रमानाथ ने कई बार कहा पर...”

“मैं कहूँगा...”

दोनों की बातें अधूरी रह गयीं। रेडियो स्टेशन आ गया था। सुधीर शीघ्रता से उतरा और बोला, “मैं अभी रमानाथ को देखता हूँ।”

“हाँ, आप उन्हें दो मिनट के लिए भेज दीजिए। मैं यहीं बैठी हूँ।”

तीन-चार मिनट बाद रमानाथ वहाँ आ गया। मुस्करा कर बोला, “आइए न, यहाँ क्यों बैठी हैं?”

“मुझे श्यामा जी के पास जाना है। आज शाम को...”

“वह तो मैं सुन चुका हूँ। आपने व्यर्थ ही कष्ट किया। पर क्या किया जाए, कुछ व्यक्तियों को कष्ट उठाने में आनन्द आता है। बहरहाल मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूँ।”

केतकी हँस पड़ी। बोली, “श्यामा जी के पास चल सकते हैं?”

“मैं?”

“हाँ।”

“नौ बजने में दस मिनट हैं और मुझे सवा दस बजे अन्दर जाना है - चल सकता हूँ पर आप मुझे दस बजे यहीं छोड़ दें इस शर्त पर।”

“मंजूर है।”

“तो चलिए।”

रमानाथ शीघ्रता से सुधीर की जगह आ बैठा। कार फिर चल पड़ी। रमानाथ ने कहा, “मैंने आज बातें की थीं।”

“किससे!”

“यही अपने प्रोग्राम एक्जीक्युटिव से। आपको गाने के लिए आना है।”

“यहाँ?” केतकी विजय-गर्व से मुस्करायी।

“जी हाँ, न जाने कौन-कौन गाता है। आपका इतना सुन्दर गला है पर फिर भी आप लजाती हैं। नहीं, अब आप मना नहीं कर सकेंगी।”

केतकी फिर मुस्करायी। धीरे-से चक्का घुमाते हुए बोली, “मैं परसों कश्मीर जा रही हूँ।”

“हमेशा के लिए?”

“कौन जानता है!”

रमानाथ हँस पड़ा। “आप कल रेडियो स्टेशन आ रही हैं। उसके बाद क्या होगा, देखा जाएगा।”

“कल आने दो।”

“जी, कल दो बजे मैं आपके पास आऊँगा।”

केतकी ने कनखियों से रमानाथ को देखा, ओठों को कुछ उपेक्षा से भींचा। बोली, “श्यामा जी को बुलाइए।”

रमानाथ चौंका - “श्यामा जी को?”

“हाँ; सुना है वह बहुत अच्छा गाती हैं।”

“आपने नहीं सुना?”

“आज सुनूँगी।”

ये शब्द इस प्रकार कहे गये थे कि जैसे उसी का गाना सुनने को गोष्ठी का आयोजन किया गया है।

रमानाथ ने अनजाने ही गहरी साँस खींची, “वह बहुत सुन्दर गाती है पर साथ ही वह बहुत स्वतन्त्र भी है। किसी पर निर्भर करना उसे नहीं सुहाता।”

“ओह!” - केतकी इतना ही कह सकी। कोई कार के सामने आ गया था। उसे बचाने के लिए तेजी से हाथ-पैरों का प्रयोग करना पड़ा। और तभी आ गया श्यामा जी का क्वार्टर। रमानाथ के मन की बात मन में रह गयी।

श्यामा ने सहसा हेमचन्द्र की ओर देखा, देखती रह गयी। एक अज्ञात आशंका से क्षण-भर के लिए उसके नयन पलक मारना भूल गये। जो प्याला ओठों की ओर बढ़ रहा था उसे उसने मेज पर रख दिया। उसके कारण जो 'ठक' शब्द उठा वह उसे जैसे वज्राघात था। एक दुःस्वप्न के बाद जैसे दोनों की नींद खुल गयी। श्यामा ने दृष्टि झुका ली। यह सब निमिष-मात्र में हो गया, अनजाने और अनचाहे!

दूसरे ही क्षण हेमचन्द्र ने अपने को पा लिया। वह मुस्कराया, बोला, “श्यामा जी! आप क्या कहती हैं, मोटर तो आपकी ही है।”

“मेरी!” श्यामा ने दृष्टि उठायी और अपने को पाने की चेष्टा की।

“जी हाँ।”

“हेम बाबू! इस तरह क्या अपने को भुलावा दिया जा सकता है?”

हेमचन्द्र ने एकदम कोई जवाब नहीं दिया। वह तब एकटक श्यामा की ओर देख रहा था। उसके मन में कई प्रश्न उठ रहे थे पर वह उन सबको दबा देना चाहता था। इसलिए श्यामा पर से दृष्टि हटा कर वह प्लेट के बिस्कुट से खेलने लगा। उसे उठा कर उसने खाया नहीं। पहला ग्रास अटक जो गया था। यद्यपि अब तक वह नीचे उतर गया था, पर फिर भी उसके स्थान पर खराश हो जाने के कारण वहीं अटका जान पड़ रहा था। कई बार खाँसी उठी, पर सन्नाटा काँप कर रह गया; भंग नहीं हुआ। तब तक श्यामा का रंग लौट आया था। उसने चाय के दो प्याले तैयार किये। एक को चुपचाप हेमचन्द्र की ओर सरकाया। हेमचन्द्र ने शान्त स्वर में कहा, “श्यामा जी! मोटर आपकी है। कल आपके नाम करवा दूँगा।”

“मेरे - “श्यामा ने दृष्टि उठायी।

और ठीक तभी द्वार पर किसी ने आहट की। दोनों ने उस ओर देखा। आहट फिर हुई। श्यामा उठी और बिना बोले द्वार पर पहुँची। किवाड़ खोलते ही सबसे पहले दृष्टि रमानाथ पर पड़ी; इसके पहले कि वह मुस्कराये, देखा पीछे केतकी भी है। सहसा एक अज्ञात भय की छाया उसके मुख पर आयी, वह काँपी, बायाँ पैर पीछे हटने को उठा पर हटा नहीं। इतनी देर में रंग लौट आया; मुस्करायी, मधुर स्वर में बोली, “आप!”

रमानाथ और केतकी ने केवल उसी मुस्कराहट-मिश्रित 'आप' को सुना। वे दोनों भी मुस्कराये। बोले, “नमस्ते।”

“नमस्ते!”

रमानाथ ने हँसते हुए पर क्षमा के स्वर में कहा, “केतकी जी आपका घर नहीं जानती थीं। मुझे आना पड़ा। अब - “

श्यामा बोली, “तो आइए न! मैंने आपसे जवाब तो नहीं तलब किया है।”

और कह कर वह मुड़ी। दोनों पीछे-पीछे चले। चाय की मेज पर हेमचन्द्र को देख कर रमानाथ मानो हर्ष से फूल उठा, बोला, “अहाहा आप हैं हेम बाबू! भई खूब मिले! तुम तो यार ईद के चाँद बने रहते हो। कल की मीटिंग में भी नहीं आये। लखनऊ से तरक्की-पसन्द शायर अल्ताफ हुसैन आये थे। सुधीर थे। केतकी जी थीं। श्यामा जी थीं। अगर तुम आ जाते तो बेचारी केतकी जी को एक मुसीबत न उठानी पड़ती। रात बारह बजे हजरत को लोदी रोड छोड़ कर आयीं।” और फिर उसे कुछ भी न कहने का अवसर देते हुए बोला - “और हाँ, इनसे मिलो तो। अपनी मित्र हैं; श्रीमती केतकी। सुन्दर गाती हैं और उतनी ही सुन्दर इनकी तूलिका है। अच्छे चित्र बनाये हैं। हृदय जितना मुक्त है, मस्तिष्क भी उतना भी सुलझा हुआ। गरज यह है कि आपकी मित्रता पर किसी को भी गर्व हो सकता है।”

फिर केतकी को सम्बोधित करके कहा, “और केतकी जी, ये हैं श्री हेमचन्द्र। हम लोग प्यार से हेम बाबू कहते हैं। सेक्रेटेरियट में सुपरिंटेंडेंट हैं। श्यामा जी के मित्र हैं। कुमार हैं। पास में कार है। जीवन में विश्वास करते हैं।”

जब तक रमानाथ बोलता रहा केतकी और हेमचन्द्र मन के भावों को दबाये नाटक के पात्र की तरह खड़े रहे। वह बन्द हुआ तो दोनों ने शिष्टाचार का नाटक पूरा किया। पर न जाने क्यों श्यामा का मुख रक्तहीन होता जा रहा था। किसी तरह अपने को सँभाल कर उसने नौकर को पुकारा और चाय लाने का आदेश दिया। फिर वह केतकी की ओर मुड़ी और अतिशय विनम्रता से, ओठों की मुस्कराहट में स्वर को सँजोती हुई बोली, “मेरा घर पवित्र हुआ। आपने मुझ पर कैसे कृपा की?”

केतकी उत्तर दे इससे पूर्व रमानाथ बोल उठा, “क्षमा कीजिए। मुझे तो दस बजे रेडियो स्टेशन पहुँचना है, श्यामा जी। देर न कीजिए। केतकी जी आज शाम को अपने मकान पर संगीत-सभा का आयोजन कर रही हैं। एक तरह से 'सांस्कृतिक सन्ध्या' मनाने का आयोजन है। संगीत, फिर भोजन और अन्तिम शो। सब अपने ही मित्र होंगे।”

“जी हाँ” - केतकी ने मधुर स्वर में कहा, “उसी के लिए मैं आयी हूँ। हेम बाबू, आप भी...”

रमानाथ बोला, “हाँ भाई। मैं सिफारिश करता हूँ। तुम खुश होगे। जरूर आना। घर नहीं जानते तो मेरे पास चले आना।”

हेमचन्द्र ने हँस कर कहा, “मैं आऊँगा...” और फिर वाक्य मानो अधूरा रह गया हो, बोला, “श्यामा जी के साथ आऊँगा। वह घर जानती होंगी।”

श्यामा ने तुरन्त कहा, “मैं भी नहीं जानती। कभी ऐसा सौभाग्य मिला ही नहीं।”

केतकी ने उत्तर दिया, “यह मेरा दुर्भाग्य है कि कल से पूर्व आपसे मिलना नहीं हुआ। घर जाने पर मेरी छोटी बहन कुन्तल से, जो कॉलेज में पढ़ती है, पता लगा कि आप तो सुन्दर गाती हैं। ...रात गोष्ठी में क्यों नहीं गाया आपने?”

सहसा एक सिहरन ने श्यामा को आलोड़ित कर दिया पर उधर देखे बिना रमानाथ ने कहा, “आपको जाने को देर जो हो रही थी, वरना ये तो फिर भी काफी देर रुकी रहीं।”

अब तो श्यामा तिलमिला उठी। उसने कुर्सी को जोर से पकड़ लिया पर सौभाग्य से हेमचन्द्र के अतिरिक्त इसे और किसी ने नहीं देखा। हेमचन्द्र की दृष्टि तो मानो उस पर जमी हुई थी। नाना प्रकार के भाव उसे आलोड़ित कर रहे थे। उनमें दुःख था, व्यथा थी पर असन्तोष नहीं था, निराशा नहीं थी। इसीलिए उसने केतकी और रमानाथ की बात सुन कर पूर्ववत् शान्त स्वर में कहा, “तो क्या हुआ। आज गाएँगी और कल की कसर भी पूरी कर देंगी।”

श्यामा ने चिल्ला कर कहना चाहा, “मैं नहीं गाऊँगी। मैं कहीं नहीं जाऊँगी। तुम सब चले जाओ!” पर वाणी ने एकदम असहयोग कर दिया था। वह जड़ बनी बैठी रही। हेमचन्द्र ने फिर उसकी तरफ देखा और कहा, “क्यों, श्यामा जी?”

श्यामा उसे कुछ उत्तर दे कि उसकी दृष्टि केतकी से जा मिली। नारी ने नारी को पहचान लिया। श्यामा ने दृष्टि झुका ली। एक क्षण में केतकी ने उसे देखा, रमानाथ को देखा; हेमचन्द्र को देखा फिर उठी। “तो मैं आशा करूँ, आप सब आ रहे हैं। मुझे कई जगह जाना है। क्षमा चाहती हूँ।”

और फिर रमानाथ की ओर मुड़कर केतकी ने कहा, “चलिए आपको रेडियो स्टेशन छोड़ती जाऊँ।”

श्यामा की वाणी जैसे खुली, “अभी रुकिए, चाय आ रही है।”

“क्षमा चाहती हूँ, श्यामा बहन। देर हो जाएगी। फिर आऊँगी।”

रमानाथ ने भी क्षमा चाही और वे लौट चले। श्यामा उन्हें द्वार तक छोड़ने आयी। निमन्त्रण के लिए धन्यवाद दिया। मुस्करायी, हाथ जोड़े और फिर पूरे जोर से किवाड़ बन्द करके लौट आयी। मुख एकदम गम्भीर हो आया। बोली, “मेरी तबीयत कुछ खराब है, हेम बाबू लेटूँगी।”

“लेटेंगी! आज! रविवार का दिन और यह मेघाच्छन्न आकाश। किसको पागल कुत्ते ने काटा है जो घर में पड़ेगा?”

“हेम बाबू!”

“चलो ओखले चलते हैं।”

“हेम बाबू! मैं कहीं नहीं जाऊँगी।”

“क्यों?”

“कहा तो, तबियत खराब है।”

“विश्वास रखो, ओखले पहुँचने से पूर्व ही तुम्हारी तबियत खिल उठेगी।”

“नहीं, नहीं, हेम बाबू, मैं कहीं नहीं जा सकती!”

और उत्तर की अपेक्षा न करके वह अन्दर की ओर मुड़ने को हुई, तब हेमचन्द्र ने पूछा, “नहीं जाओगी? श्यामा!”

“नहीं।” वही दृढ़ उत्तर था।

“तो क्या डॉक्टर के पास जाना होगा, दवा लाऊँ?”

“आप चिन्ता न करें, मैं सब कुछ कर लूँगी।”

“अच्छा।” वह उठ खड़ा हुआ। “तुम अपनी मर्जी की मालिक हो। तुमने कब किसका कहा किया है। जो जी में आये करो।”

श्यामा मुड़ी, उसने तीव्रता से कहना चाहा, 'हेम बाबू!' पर जो स्वर निकला उसमें तो आँसू भरे हुए थे, उबलते हुए आँसू।

हेमचन्द्र ने सुना और समझा। पर अब वह रुका नहीं। द्वार पर पहुँच कर उसने स्नेह-भरे स्वर में कहा, “स्त्री-पुरुष की बात छोड़ दें तो भी व्यक्ति को व्यक्ति के सहारे की आवश्यकता होती ही है; और फिर तुम अपने ही सहारे की बात क्यों सोचती हो। मुझे भी तुम्हारा सहारा चाहिए। अच्छा, अपने को सँभालो। पाँच बजे आऊँगा। जरूर। नमस्ते।”

और वह शीघ्रता से चला गया।

और श्यामा शीघ्रता से मुड़ी। उसके नयनों की कोरों में जलबिन्दु चमक उठे थे। उन्हें बिना पोंछे वह द्वार पर आयी। कार में बैठा हेमचन्द्र क्लच दबा कर तेजी से चक्के को घुमा रहा था। क्षण-भर में कार में गति भर उठी। वह तेजी से सामने दौड़ी और दूसरे ही क्षण मोड़ पर से आँखों से ओझल हो गयी। पीछे रह गया धुआँ, काला और बदबूदार धुआँ, मशीन का बल और मशीन का प्रसाद...