बारहखम्भा / भाग-4 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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“दिल्ली में क्या-क्या देखा?”

केतकी के घर रविवार सन्ध्या को जो आयोजन हुआ, उसमें एक एम.पी. भी आन फँसे थे। उन्होंने यह प्रश्न अल्ताफ हुसैन से पूछा।

अल्ताफ ने अपने तरीके से गर्दन को झटका दे कर पेशानी पर लटके लम्बे बालों को और आगे लटका लिया और अचकन के बटनों से खेलते हुए जवाब दिया - “जिन्दगी।”

जिन्दगी की हर आदमी की अपनी परिभाषा होती है। खास तौर से बड़े शहर में हर आदमी की अपनी परेशानी होती है, अपने वैचारिक काट होते हैं, अपने सांस्कृतिक मान होते हैं। दिल्ली दरबार के समय व्यंग्य से कवि ने पूछा था - 'दिल्ली में क्या-क्या देखा?' तब दर्शनीय लाट और कनॉट जो भी रहा हो; आजकल तो यात्री कुतुब,बिड़ला मन्दिर, राजघाट, लालकिला और संसद भवन देख लेते हैं। साथ ही कनॉट प्लेस का बारहखम्भा देखे बिना भी वे नहीं रहते।

“आपने बारहखम्भा देखा?” एम.पी. साहब का शिशुवत् प्रश्न।

“खम्भा तो वहाँ कोई भी नहीं है। सूली का भी नहीं।” पूरी बत्तीसी दरसाते हुए शायर ने उत्तर दिया।

“खम्भे तो सीकरी में पंचमहल की तीसरी मंजिल पर देखने लायक हैं। हर खम्भे पर डिजाइन अलग।” फ्लूटिस्ट सुधीर ने अपना शिल्प-ज्ञान प्रदर्शित किया।

“सबसे शानदार खम्भा है धार में पड़ा हुआ हेलियोडोरस का बनाया लोहे का खम्भा जमीन पर चित्त पड़ा है, अभी भी पालिश ज्यों-की-त्यों है।”

यह खम्भा-पुराण और आगे चलता, यदि परिहास में केतकी ने यह न कहा होता -”जैसे बम्बई के धोबी तालाब में कोई तालाब नहीं है वैसे ही बारहखम्भा में कोई खम्भा नहीं।”

कुन्तल को सहसा एक बँगला लोकोक्ति दुहराने की इच्छा हुई - 'कोलकाता शब मुछे भरा, बोउबाजारे ते बोउ पाबे ना, श्यामबाजार थेके राधाबाजार दूर।'

शायर को जैसे कुछ उकसाहट मिली। बोले - “यह नकली नामों की नकली दिल्ली है?”

एम.पी. ने कहा - “इनकी जिन्दगी भी नकली है।”

रोज-रोज रेडियो पर अनिच्छा से मधुर गीत गा कर और कड़ुई कॉफी पी कर रमानाथ की वाणी में कुछ अतिरिक्त कड़ुवाहट आ गयी थी। वह जोश से बोल उठा -”किसकी जिन्दगी नकली है? नयी दिल्ली की या मोटरवालों की जिन्दगी जो सदा गियर बदलती, चायघरों और पानगृहों में जा कर समाप्त होने वाली जिन्दगी? यह भी कोई जिन्दगी है?”

शायर कुछ अप्रतिभ हुए। शेरवानी के बटनों पर से उन्होंने हाथ उठा लिया और कुर्सी के हत्थे यों मजबूती से पकड़ कर बोले, मानो वे हत्थे न हो कर उस पाँसे-सी जिन्दगी के प्रतीक हों जिस पर से उनका कब्जा छूटा जा रहा हो - “शाम को नयी दिल्ली में कैसा रंग और रूप दिखाई देता है। सच्चा कास्मोपालिटन कल्चर यहाँ देखिए। रस और नाद, गन्ध का समाँ।”

रमानाथ आज जैसे चोट करने पर तुला था-”यहाँ रंग चेहरों पर पुता रहता है, दिल में नहीं उतरता; यहाँ रूप छलना और दिखावा है। एक नूर आदमी, दस नूर कपड़ा। यह जिन्दगी नहीं, चलती-फिरती ममियों की शव-पूजा है।”

कुन्तल ने बीच ही में अकारण छेड़ दिया - “आज श्यामा जी नहीं आयीं अभी तक?”

शायर साहब ने बातचीत कुछ गम्भीर होती देख, उसे दूसरा मोड़ देना चाहा - “तभी रमानाथ इतने चहक रहे हैं।”

फ्लूटिस्ट सुधीर केतकी की ओर देख कर बोला - “हेमचन्द्र उसे अपनी कार में लाने वाले थे न?”

केतकी ने साभिप्राय कहा - “हाँ, कार तो राह में फेल भी हो जा सकती है।” और इसके बाद जैसा ड्राइंगरूम की ऐसी पार्टियों में होता है, मंडली दो-दो, तीन-तीन के छोटे-छोटे गुटों में बँट गयी। रमानाथ जोर से कहा रहा था -”नयी दिल्ली की आलीशान दूकानों और बुर्जुवा वासियों से अलग एक दुनिया भी तो है, और तादाद में वह काफी बड़ी है - “

एम.पी. ने, जैसे कोई रहस्यवादी कविता सुन रहा हो, गर्दन हिला कर कहा - “हाँ, तादाद जनतन्त्र में बड़ी चीज है।”

रमानाथ में, अप्रासंगिक रूप से, मानो कोई मजदूर-नेता भूत बन कर समा गया था। उसने नाटकीय ढंग से कहा, “जी हाँ, ये सैकड़ों नौकर, बावर्ची, बैरा, आया-खानसामे, झाड़ूवाले, चौकीदार, महरियाँ, यह कमकरों की दुनिया जिनमें स्त्रियाँ, बच्चे, बूढ़े सभी काम करते हैं-यह असली दुनिया है...”

लखनऊ के तरक्की-पसन्द शायर, पियक्कड़, आशिकमिजाज अल्ताफ हुसैन साहब बहुत खुश हुए। एकदम कह उठे - “इस सरमायादारी निजाम ने आदमी को मशीन बना दिया है।”

एम.पी. साहब चुप नहीं कर सकते थे। वह जैसे बोलने के लिए अवसर की ताक में ही थे। “ऐसे मशीनी लोग संस्कृति का, कला का निर्माण नहीं कर सकते।”

शायर ने धीमे से कहा, “दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।”

रमानाथ घूर-घूरकर एम.पी. की ओर देखने लगा। और ऐसी विद्रूप-भरी, हिकारत की विषबुझी मुस्कान के साथ उसने फुफकारकर कहा - “संस्कृति?” मानो वह कहना चाहता हो कि खद्दर की खोल से लिपटे इस चिकने-चुपड़े चर्बी के घड़े को क्या पता है संस्कृति के सृजन का दर्द!

और किसी हद तक यह बात सही थी। केतकी की नौकरानी जमुना के लेखे वहाँ जमे भद्रजनों का 'संस्कृति' की लच्छेदार बातें करना बाल की खाल निकाल कर लफ्फाजी का कालीन बुनना जितना निरुपयोगी था; वैसे ही एम.पी. साहब को भी वहाँ चलने वाली दिलचस्प कला-चर्चा एकदम जादू-मन्त्रों की तरह जान पड़ रही थी। एम.पी. साहब की शिक्षा-दीक्षा अल्प थी। और 'संस्कृति' का अर्थ उनके निकट सवेरे पाँच बजे उठना, ठंडे पानी से नहाना, सूर्य-स्नान, स्वास्थ्य, दूध-खजूर और मुसम्मी के रस का सेवन, प्रार्थना में कुछ धार्मिक ग्रन्थों का पाठ और नैष्ठिक रूप से कातना तथा केवल 'हरिजन-सेवक' पढ़ना था। यही उनका नित्यकर्म था। सन् तीस, सन् चालीस, और सन् बयालीस में तीन महीने वह जेल भी हो आये थे। भाई की कपड़े की दुकान अच्छी चलती थी; और इनका सारा जीवन ग्राम-नगर, प्रान्त और जनपद की राजनैतिक जोड़-तोड़ यानी दलबन्दी में ही बीता था।

संस्कृति और ललित कला के सम्बन्ध में एम.पी. मानो, बहुत सीधे और सहज थे। चित्रकला में उनकी पहुँच देश के नेताजनों के रंगीन चित्रों तक थी; संगीत के मामले में उनके आर्यसमाजी संस्कारों ने उन्हें सिखाया था कि जो उपयोगिता से भरा नहीं हो, वह संगीत कैसा? सो सर्वोत्तम संगीत उन्हें 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' लगता था; और उसके बाद 'जय जगदीश हरे' की आरती भी बुरी नहीं थी। कविता उनकी समझ में नहीं आती थी; पर जेल में एक भावुकजी नाम के सज्जन थे, उनकी कविता भी उन्हें बड़ी ओजपूर्ण और राष्ट्रभक्ति-भरी लगती थी। स्थापत्य नाम की किसी कला का उन्हें अन्दाज नहीं था, क्योंकि एम.पी. बनने के बाद जो सीमेंट और लोहा और टीन के पत्रे उन्हें मिल गये थे उन्हीं से गाँव में बने किसी भी आकार-प्रकार के घर से उनका काम चल जाता था।

सो एवंगुणविशिष्ट एम.पी. श्रोता और दर्शक अधिक थे। संस्कृति की बात पर शायर ने अफयून-भरे स्वर में कहा, “तहजीब और तमद्दुन की सच्ची क्रिएशन सोशलिस्ट एकानामी में ही - “

कुन्तल उबल पड़ी, “अभी आप इन गरीबों को मशीन की तरह बता रहे थे। आपका समाजवाद-साम्यवाद जो भी वाद हो, आ जाने पर क्या संस्कृति और सृजन के लिए गुंजाइश रहेगी? सब एक काट के, एक तरह के, एक-सी शिक्षा के आदमी! यह स्टैंडर्डाइजेशन - “

बात काट कर रमानाथ बोला, “मशीन आदमी को अधिक सुसंस्कृत बनायेगी। हमें इस भूख, अकाल, गरीबी और बेकारी से भरी समाज-व्यवस्था की निस्बत वह स्टैण्डर्ड - “

कुन्तल से रहा न गया, “आपको अपने शरीर की रक्षा के लिए आत्मा की मौत मंजूर है?”

शायर ने सिगरेट के धुएँ का कुंडल हवा में छोड़ते हुए कहा, “आतमा? वह सोलहवीं सदी का कानसेप्ट है।”

एम.पी. साहब को लगा जैसे कुन्तल के रूप में उनको दैव-प्रेषित समर्थन मिल गया हो! बोले, “संस्कृति तो स्वतन्त्र आत्मा ही बना सकती है। देखिए, जब तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे, हम उनकी नकल उतारते थे। संस्कृति तो मौलिक होती है, उसमें नकलीपन से काम नहीं चलता।”

मगर कुन्तल ने तेजी से कहा, “संस्कृति के रक्षक न तो ये खद्दरधारी हैं और न ये कामरेड। संस्कृति जनता बनाएगी। वह नेताओं के बनाने से नहीं बनती।”

रमानाथ ने वाग्युद्ध छेड़ दिया, “जनता और आत्मा, ये दो परस्पर विरोधी बातें कैसी कहती हो कुन्तल!”

“जनता से मेरा मतलब है जन-साधारण। हर व्यक्ति को शिक्षित और सुसंस्कृत बनना होगा। नहीं तो संस्कृति की चर्चा करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे।”

अधीर होते हुए फ्लूटिस्ट सुधीर ने कहा, “श्यामा जी अभी तक नहीं आयीं?”

केतकी ने धीमे, पर नपे-तुले शब्दों में एक शरारा छोड़ा, “हेमचन्द्र भी तो अभी नहीं आये।”

सारी मंडली यों अधीरता से प्रतीक्षा कर रही थी और एम.पी. की बातों से ऊब उठी थी। एम.पी. अपने सदा के अप्रासंगिक ढंग से सुना ही रहे थे कि कैसे केतकी के पति मदनराम ने उन्हें मित्र के नाते ज्योतिषाचार्य भोलाशंकर से मिलाने का वचन दिया था; और कैसे उनके ग्रह-योग आगामी वर्ष में और भी बुलन्दी पर थे, कि श्यामा और हेमचन्द्र भी आ गये। पार्टी का समय छः बजे का तय हुआ था, वे आये थे साढ़े सात बजे।

अन्दर आते ही हेमचन्द्र ने क्षमा माँगी, “क्षमा कीजिए, मेरे कारण आपको कष्ट हुआ। जरा देर हो गयी।” और यह कहकर हेमचन्द्र ने श्यामा की ओर यों देखा मानो विलम्ब का कारण वही हो।

श्यामा आज सदा की भाँति प्रसन्न-चित्त और मुस्कराती हुई नहीं थी। उलटे वह कुछ गम्भीर और उदास, कुछ क्रोध से भरी और कुछ आत्म-परिताप से पीड़ित-सी जान पड़ती थी। वह कुछ नहीं बोली। गुमसुम बैठी रही। हेमचन्द्र की ओर उसने यों देखा मानो उसे डाँट रही हो कि वह कोई भेद की बात सबके सामने न कह दे।

बात यह हुई थी कि पौने छः बजे जब अपनी गाड़ी ले कर हेमचन्द्र श्यामा के घर पहाड़गंज पहुँचा तब उससे मिलने-जुलने वाली कोई सहेली या सम्बन्धित बैठी थी और हेमचन्द्र को आध घंटा बाहर के कमरे में बैठा रहना पड़ा। एक अविवाहिता, स्वतन्त्र स्वावलम्बिनी स्त्री के कमरे में इस तरह समय बिताना वैसे न भी अखरता, पर इधर-उधर देखते हुए उसे सहसा एक किताब दिखायी दी। उसे खोलते ही, प्रथम पृष्ठ पर लिखा था बहुत बनावटी अक्षरों में -

'जन्मदिन का उपहार। कुमारी श्यामा माथुर को सस्नेह - रमानाथ'

हेमचन्द्र के मन में सहसा कई बातें उठीं। उस दिन सवेरे श्यामा झूठ क्यों बोली थी? रमानाथ के घर पर रात को मैंने उसे देखा था, यह बात भी मैंने उसे बातचीत में कह दी थी। क्यों?

तो क्या वे सब स्नेह और आश्वासन हृदय-भरे भावुकतापूर्ण पत्र झूठे थे? और क्या प्रेम सचमुच जैसा कविजनों ने वर्णित किया है निरी प्रवंचना है, निरी आत्म-प्रतारणा? श्यामा रमानाथ को चाहती है? सच्चे हृदय से? तो वह जो हेमचन्द्र के प्रति अपनी स्नेह और ममता व्यक्त करती है वह क्या निरा अभिनय है? नारी जन्मना अभिनय-कुशला होती है। हेमचन्द्र ऐसे सहज पराजित होने वाला व्यक्ति नहीं है। उसने निश्चय किया कि अब श्यामा बाहर आयी कि उससे पूछ कर वह फैसला कर लेगा।

पर श्यामा बाहर जल्दी नहीं आयी। और हेमचन्द्र की खीझ बढ़ती ही गयी। उसने मेज पर करीने से लगी किताबों में से भारतीय नृत्यकला पर अंग्रेजी में लिखी कोई पुस्तक उठायी। वही मुद्राएँ थीं, वही उदयशंकर, रामगोपाल, कथकलि के चेहरे, वही सब कुछ था। वैसे हेमचन्द्र को अपनी कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में चित्रकला से बड़ा शौक था। और किताबों के चिकने आर्ट पेपर पर नमन और प्रणति की मुद्रा में छाया चित्रित किसी नर्तिका के पोज पर से उसका मन उड़ कर न जाने किन अज्ञात प्रदेशों में, स्मृति-संवेदनाओं से भरे दिवास्वप्नों से सुसज्जित कल्पना-लोक में पर फड़फड़ाने लगा। शून्य में अपने सुनहले पंखों की आभा में छटपटाने वाला प्रभाव-हीन वह देवदूत-मैथ्यू आर्नल्ड ने शेली पर यह फतवा दिया था-पर उसकी कविता के कारण नहीं, उस कवि के व्यक्तिगत प्रणय-जीवन की अस्थिरता और चंचलता से चिढ़ कर। और इसी तरह हमारे सभी निर्णय होते हैं। हम एक चीज का गुस्सा दूसरी चीज पर उतारते हैं, और जहाँ जो हमें करना चाहिए वह हम नहीं कर पाते, इसलिए और कहीं कुछ और कर बैठते हैं जो नहीं करना चाहिए था। पर यह ख्याल हमें बहुत बाद में आता है। जब यह ख्याल आता है तब वह चीज सुधरने की स्थिति पार कर चुकी होती है...

हेमचन्द्र के मन में विशृंखलित तसवीरें बनती-मिटती जा रही थीं, जिनकी एक झलक कुछ इस प्रकार से दी जा सकती है - बम्बई का समुद्र तट, सुनसान जुहू की बालुका-राशि और दूर से आती हुई एक नारी आकृति जितनी ऊँची समुद्र-तरंग की लावण्यमयी, नील, फुफकारती, फेनिल जलराशि; ताड़ और नारियल के पेड़ों की बिखरी हुई कुन्तल-राशि में से सरसराता हुआ सायंवात - हेमचन्द्र की उँगलियाँ विपुल, स्निग्ध केशभार में से हौले-हौले घूम रही हैं। यह मानो सहकरुणा भरा थपथपाना नहीं है; यह किशोरों का अधीर, उष्ण श्वासों की निकटता से भरा आश्लेषण का स्पर्शारम्भ नहीं है; यह निरी थकान, समुद्र-सन्तरण के बाद की गात्रों की शिथिलता है। ...और सुनहरी गहरी लाल-काली सन्ध्या की अनुभूति उसे दुबारा हुई। समुद्र-तट पर नील-जामुनी क्षितिज-विस्तार, चित्रकार की कल्पना को उकसाने वाली दृश्यावली की वर्णाढ्य रंग-संयोजना, यह सब कुछ था पर पुरी में बम्बई की प्रिया, सखी, सहपाठिनी नहीं थी। एकाकी होने पर मनुष्य को दुःखद स्मृतियाँ ही याद नहीं आतीं, सुख-संवेदनाओं की पुलक का भी ध्यान हो आता है, और अब उनके प्रत्यागमन से उनके दुबारा घटित न होने का अभाव अधिक दुःखद हो उठता है... और हेमचन्द्र का प्रतीक्षा-स्थिर मन उन सब दृश्यों को जगाने लगा जिनसे वह प्रतीक्षा के लम्बे समय के पार जा सकता था। न जाने क्यों उसे समुद्र की बात याद आयी थी। समुद्र की बात को सोचते-सोचते उसे पहाड़ों की याद आयी। नैनीताल से बागेश्वर जाते हुए बैजनाथ के बाद शाम को देखा हुआ नन्दादेवी का त्रिशूल शिखर। हिमवन्त की वह पारदर्शी, चमचम, रजताभ किंवा स्वर्णिम झाईंवाली झाँकी! और उससे भी अधिक सुन्दर था दार्जिलिंग में देखा हुआ कांचनजंगा शृंग, सुदूर, सफेद हाथियों के झुंड से बादलों पर आरूढ़, राजसी, शृंखलाबद्ध, नेपाल, भूटान, तिब्बत की त्रिसीमा का प्रहरी-पति। चायबागान के सुन्दर, करीने से लगे, सीढ़ियों जैसे वृक्ष; बीच-बीच में घाटियों में सिर के बल कूदने वाले झोरा, सदा बदरी; बीच-बीच में आकाश को छूने वाली, 'ऊँ मणिपद्मे हुँ' करोड़ बार लिखी लम्बी पाल के आकार की सफेद तिब्बती ध्वजायें, चावल की बनी राक्षसी मूर्ति की पूजा, काली ठकुरानी, बुधिनी, हुड्डमदेव - 'ड्वांग ड्वांग डुंग डुंग डर लाग्दो बाजा। राति राति हिंड्ने गोर्खाली राजा।' - गोरखनाथ की जय। - लिम्बू जाति के गन्धर्व विवाह - शैव, बौद्ध, मिश्रण -'विगलिंग या बलि दिलाने वाला साधु - भूचाल, धसक जानेवाले पहाड़ के फेफड़े-क्या मनुष्य के मन की आधार-शिलाएँ भी कभी-कभी इसी तरह चट्टानों और मिट्टी के खिसकने और नीचे गिर पड़ने की तरह सहसा अपना सन्तुलन नहीं खो बैठतीं? क्या आदिम विकार आस्था और विश्वास के गले को पकड़ कर, दोनों पंजों से दम घोंटने का काम नहीं करते? ...क्या हेमचन्द्र के मन का आधार...

अचानक हेमचन्द्र नृत्यकला की पुस्तक देखने लगा। और उसका मन समुद्र और पहाड़ से लौट कर चित्र की नारी की आकृति की नीली आँखों और शिल्पप्राय स्तनमंडल पर अटक गया। केतकी के घर पार्टी छः बजे थी। और इस समय श्यामा के घर में बैठा हेमचन्द्र घड़ी में छः बज कर तीस मिनट देख रहा था। और कुछ कर नहीं सकता था। एक मन उसका हुआ कि वह उठकर चल दे और श्यामा को अपने साथ ले ही न जाय। पर यह फिर एक विश्वासघात होगा। किन्तु क्या एक व्यक्ति का दो व्यक्तियों के बारे में एक-सा सोचना इस एक के विश्वास का खंडन नहीं है? क्यों नहीं। जैसे हेमचन्द्र का दार्जिलिंग में उस चीनी लड़की से...

हेमचन्द्र खट से सीधा हो कर बैठ गया। सोचने लगा कि उस दिन रमानाथ के घर की सीढ़ियों पर से वह चुपके से क्यों लौट आया था? क्यों नहीं वहीं उस मंडली में वह पहुँच गया और भरी सभा में जा कर श्यामा से मिलकर लौटा? परन्तु वह अपने आपको सुसंस्कृत समझता था न! क्या संस्कृति हमें कायर भी बना देती है?

कि अपनी सहेली को विदा करके श्यामा आयी। दोनों में बातचीत कुछ झड़प से शुरू हुई। हेमचन्द्र रोष-भरे स्वर में बोला, “बड़ी देर कर दी श्यामा?”

“मैं क्या करूँ। दफ्तर की एक परिचिता थी। उसे मना भी कैसे करती?”

“मना करना सिर्फ पुरुषों को आता है?”

“जी हाँ, वे सभी सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र होते हैं न! स्त्रियाँ अधिक सच बोलती हैं। अभी यह लड़की आयी थी, यह भी कह रही थी कि... मैंने कहा मुझे केतकी के घर आज शाम को जाना है, तो केतकी के बहुत फारवर्ड होने की वह बुराई कर रही थी।”

हेमचन्द्र से न रहा गया। सहला बोल उठा, “हाँ, केतकी जो कुछ कहती हैं, करती हैं। उसमें हृदय का खुलापन है। ट्रांसपेरेंसी है दिल की। कुछ स्त्रियाँ कहीं जाती हैं और पूछने पर झूठ ही कह देती हैं - मैं घर जाकर सोती रही।”

इतने में हेमचन्द्र पुस्तक बन्द करके टेबल पर यथास्थान रखने गया कि एक फोटो भी नीचे गिर पड़ा। सुन्दर-सा छोटा एनलार्जमेंट। हेमचन्द्र उसे उठाने झुका, और श्यामा भी। दोनों की टक्कर होते-होते बची। श्यामा के हाथ से प्रायः छीनते हुए हेमचन्द्र ने देखा - रमानाथ का छायाचित्र था। उस पर अलंकृत अक्षरों में लिखा था - प्रेमपूर्वक श्यामा को।

श्यामा अब कुछ नहीं बोली। एकदम विषय बदलकर उसने कहा, “मैं अभी तैयार होकर आती हूँ।” और वह कपड़े पहनने चली गयी।

विषण्ण, दमित क्रोध से दुखी हेमचन्द्र जा कर खिड़की के पार खड़ा हो गया। बाहर बाजार बराबर चल रहा था। पहाड़गंज में अब बत्तियाँ जलनी शुरू हो गयी थीं। वह सोच रहा था - पार्टी में सब हमें कोस रहे होंगे। रमानाथ भी... अब श्यामा से इस विषय में पूछना व्यर्थ है। वयस्क अविवाहिता है। पता नहीं कितने रमानाथ, हेमचन्द्र और कौन-कौन उसके परिचित मित्र-युवा संगी रहे होंगे! पर फिर उसके मन ने एक पलटा खाया और वह सोचने लगा, इस तरह सहसा किसी निर्णय पर आ पहुँचना बड़ा सस्ता, पुराना, अतिसामान्य सन्देह-प्रधान पुरुष स्वभाव है। परन्तु हेमचन्द्र ऐसा अतिसामान्य नहीं है। किसी उपहार-पुस्तक से, छायाचित्र से, या शाम को या रात को देर तक किसी पुरुष के यहाँ रह जाने से क्या उस स्त्री के सम्बन्ध में कोई निर्णय किया जा सकता है? यह सब सोचना व्यर्थ है। नहीं-नहीं, श्यामा का दिल उसने निरर्थक दुखाया। श्यामा वही श्यामा है; हेमचन्द्र भी वही पहले जैसा हेमचन्द्र है।

श्यामा बहुत सुन्दर धूपछाँही रंग की साड़ी पहनकर बाहर आयी। केशों का भी उसने विशेष आकर्षक प्रकार का विन्यास किया था। और दोनों मोटर में, बिना बोले आ दाखिल हुए।

कुछ दूर तक मौन चलने पर श्यामा ने यह विषय छेड़ा - “हेम, तुम अपने आपको क्या समझते हो?”

“आदमी।”

“आदमी को पाप-पुण्य का डर होता है?”

“आधुनिक आदमी को डर किसी भी चीज का क्यों होना चाहिए? उसकी अपनी बुद्धि है। और विज्ञान सहायक है, यदि आवश्यकता हो।”

“फिर वही बुद्धि और विज्ञान की बात ले आये! हेम, तुम मनुष्य-हृदय को भी क्या खेत समझते हो, कि उस पर ट्रैक्टर चला कर सामूहिक खेती हो सके?”

“मुझे मालूम है श्यामा, तुम मशीन से नफरत करती हो; पर पग-पग पर तुम्हें उसकी जरूरत भी पड़ती है। श्यामा, तुम चाहती कुछ और हो, कहती ठीक उससे उलटा हो।”

वाद-विवाद और भी चलता कि तेज चलने के इरादे से हेमचन्द्र ने मोटर की रफ्तार बहुत बढ़ा दी, और मोड़ पर एक्सीडेंट होते-होते बचा। एक बुढ़िया मेाटर के नीचे आ गयी होती। पर हेम चतुराई से मोटर उससे बचा कर निकाल ले गया। पर और एक संकट आन उपस्थित हुआ; एक्सीडेंट के भय के मारे श्यामा एक चीख के साथ आँखें मूँद कर उसकी बायीं बाँह पर अचेत-सी गिर गयी।

पहले तो हेमचन्द्र यही नहीं समझा कि श्यामा को हो क्या गया। पर थोड़ी देर बाद उसने गाड़ी एक घने छायादार पेड़ के नीचे जा कर रोकी और देखा कि श्यामा बेहोश है। यह श्यामा को कभी-कभी आने वाले हिस्टीरिया के फिट का एक दौरा था।

हेमचन्द्र सहसा घबरा गया। उसने श्यामा की कड़ी पड़ी देह को मोटर के अन्दर के हिस्से में कुछ फैला कर लिटाया। पास के नल से पानी ला कर उसके मुँह पर छिड़का। पर नाड़ी ठीक चल रही थी। हृदय की गति भी नार्मल थी। बस दाँत भींच कर मुट्ठियाँ बाँधे श्यामा वहाँ शहीद की मुद्रा में पड़ी थी। ...'यहाँ जिन्दगी नहीं, चलती-फिरती ममियों की शव-पूजा है।'

बाद में वह डॉक्टर के यहाँ गया। कुछ दवा सुँघाने से श्यामा पुनः पूर्ववत् हो गयी। वह भूल गयी थी कि इस बीच में क्या हुआ। और इस तरह पार्टी में वे देर से पहुँचे थे। श्यामा का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उससे गाने का आग्रह न किया जाय, इस बात पर हेमचन्द्र ने जोर दिया। फिर शायर ने कुछ सुनाया, सुधीर ने बंशी बजायी जो चैन की नहीं बेचैन की बंशी थी। और अन्त में रमानाथ से गजल गाने का बहुत आग्रह किया गया। एम.पी. भी भजन सुनना चाहते थे; पर वह फरमाइश पूरी न हो सकी।

बहुत समय बीत चुका था। सब जाने की तैयारी में थे, तब अन्त में रमानाथ ने बड़ी वेदनाभरी आवाज में 'दर्द' की गजल छेड़ी -

तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले,

जिस लिए आये थे हम वह कर चले।

जिन्दगी है या कोई तूफान है,

हम तो इस जीने के हाथों मर चले।

शमअ की मानिन्द हम उस बज्म में

चश्मतर आये थे दामनतर चले।

साकिया याँ लग रहा है चल चलाव,

जब तलक बस चल सके सागर चले।

हँसी-खुशी से मजलिस समाप्त हुई। एम.पी. साहब नींद के समय का व्यतिक्रम होने से परेशान थे। रमानाथ और सुधीर और दूसरे रेडियो वाले अपनी-अपनी साइकिलें और साज की पेटियाँ उठा कर चल दिये। कुन्तल बेबी को सँभालने घर रह गयी। और दो गाड़ियाँ रात के 'शो' में चित्र देखने चलीं - केतकी अल्ताफ हुसैन को ड्राइव कर ले जा रही थी और हेमचन्द्र श्यामा को। पिक्चर खास अच्छी नहीं थी, पर बहुत बार चित्रपट तो केवल कम्पनी के लिए देखा जाता है।

सिनेमा हाल में विशेष रिजर्व किये हुए 'बाक्स' में चारों जा बैठे, सबसे दायीं ओर श्यामा, बाद में अल्ताफ हुसैन, फिर हेमचन्द्र और बायीं ओर अन्त में केतकी। इन चारों में केतकी वहाँ विशेष रूप से चमक रही थी; वेश आभूषण, प्रसाधन सब यथावत् थे। पिक्चर आरम्भ होने से पहले कुछ मजाक होता रहा। अल्ताफ हुसैन साहब ने अपने रूसी भाषा के अधकचरे ज्ञान को छाँटते हुए कहा - “आज की बेचेसिका बड़ी सुन्दर रही।”

“बेचेसिका?” केतकी ने पूछा।

“रूसी जबान में शाम की पार्टी या दावत को कहते हैं।”

तीर बराबर लगा था। श्यामा ने कुछ स्निग्ध कटाक्ष करते हुए कहा, “अच्छा, आप रूसी भी जानते हैं?”

“कुछ-कुछ। आप आज बहुत अनमनी रहीं। वर्ना मैं आपसे रिक्वेस्ट करने ही वाला था - पोहते पच्जालुस्ता।”

“यह और क्या आफत है? यह भालू की जबान जान पड़ती है।”

अल्ताफ ने हँसकर उत्तर दिया, “इसका मतलब है - कृपया गाइए।”

और पिक्चर शुरू हो गयी।

जो पिक्चर उस रात उन चारों ने देखी, उसमें कोई विशेषता नहीं थी। जैसी भारतीय फिल्में गये चार-पाँच सालों में निकली हैं वैसी ही एक सड़ियल, मामूली, यान्त्रिक कथानक वाली फिल्म। कभी सलवार और कुर्ते में से शरीर के अंग मटका कर कोई कुरूपा शृंगार का अतिरंजित अभिनय कर रही है, कभी पंजाबी ठेके पर टप्पे की तर्ज पर कोई अर्थहीन गाना हो रहा है... शब्दार्थ उसमें गौण है; कामुक स्वरावली प्रधान है।

इंटरवल में सिनेमा की पटकथा की तन-मन-वचन से रुग्णा नायिका पर विवाद चल पड़ा और हेमचन्द्र ने अनजाने ही श्यामा के मन का कोई खिंचा हुआ तार झनझना दिया : “आजकल लड़कियों की बड़ी उम्र तक शादी नहीं होती और अक्सर उनकी तबियत खराब हो जाया करती है।”

श्यामा ने आँखें बड़ी-बड़ी करके डाँटते हुए - यद्यपि उस धुँधली रोशनी में वह भाव इतना स्पष्ट नहीं हुआ - विषयान्तर करने के लिए कहा, “पिक्चर कैसी लगी?”

अल्ताफ सिर्फ हँस दिया।

अपनी रुचि की आधुनिकता का परिचय देते हुए केतकी बोली, “उँह! बोर है।”

श्यामा ने भी कुछ मुँह बनाया और सिर को मजबूत हथेली से पकड़ लिया - “आज कुछ सर्दी ज्यादह है, क्यों?”

अल्ताफ ने अतिरिक्त कोमलता से कहा, “बाहर शायद पानी बरसा है। पिक्चर के बाद हम बार में चलें। आपका यह सरदर्द मिनटों में दूर हो जाएगा।”

केतकी ने कुछ ध्वनि-भरी हँसी से कहा, “श्यामा शायद हार्ड ड्रिंक्स पसन्द नहीं करतीं।”

इस विषय पर अल्ताफ अपने विशद अनुभव की गाथा बयान करते, पर रुक गये। श्यामा ने दोनों हथेलियों से अपना मस्तक और जोर से दबा लिया। और वह कुर्सी की एक बाँह पर जैसे झुक गयी। इस बीच में चित्र अपने जंगली नाच और सर्कस जैसी उछल-कूद के साथ शुरू हो गया था। हेमचन्द्र उठा। उसने श्यामा का हाथ अपने हाथों में लिया और उसे सहारा देते हुए उठाया। केतकी और अल्ताफ से माँफी माँग कर दोनों बाहर निकल आये। हेमचन्द्र ने अपनी गाड़ी में श्यामा को ला कर बैठाया कि श्यामा भयानक शीशपीड़ा से व्याकुल अन्दर लेट-सी गयी।

हेमचन्द्र ने जल्दी से कार डॉक्टर सेन के यहाँ रोक दी। डॉक्टर सेन जमींदार आदमी थे। डॉक्टरी से ज्यादह उन्हें कविता से शौक था। नाटे-से, काले-मोटे भलेमानुस। उतरते ही जब हेमचन्द्र ने सब हाल कहा तो अपना स्टेथेस्कोप लटकाये वह कार तक पहुँच गये। पेशेंट की नाड़ी देखी, और देखी हृदय की गति। थोड़ी देर रुक कर बोले, “केस कुछ साइकोलॉजिकल ज्यादह है।” जब हिस्टीरिया के दौरे की बात हेमचन्द्र ने कही, डॉक्टर ने पूछा, “फिर वह होश में कैसे आयी?”

हेमचन्द्र ने कहा, “मेरे पास एक रूमाल में एसेंस था।”

डॉक्टर सेन ने गम्भीर मुद्रा से कहा, “हाँ, स्मृतिभ्रंश के किसी रोगी को प्रिय फूलों की सुगन्धि पुनः स्मृति ला देती है। सीरियस नहीं है। यह स्लीपिंग टैब्लेट्स दे दीजिए।”

श्यामा के घर हेमचन्द्र पहुँचा। जीने से सहारे-सहारे श्यामा को चढ़ाया। उसकी पर्स में से चाभी निकाल कर दरवाजा खोला। पर्स में एक नोटबुक भी उसे दिखाई दी, जिसे पढ़ने की उत्सुकता उसके मन में जाग उठी। उसे लगा कि कुमारी की प्राइवेट डायरी वह क्यों कर पढ़े? और जब वह इस तरह रुग्णावस्था में हो, तब उसकी अनुमति के बिना? क्या यह पाप नहीं है? पर जिसे अपना स्नेही मान लिया उससे दुराव-छिपाव क्या?

ऊपर पहुँच कर श्यामा को उसने उसके पलंग पर सुला दिया। हलका-सा कम्बल ओढ़ा कर, दवा की टिकिया उसे दे दी। और थोड़ी देर वह बैठा रहा दवा का असर देखने।

सब ओर सुनसान था। घड़ी टिकटिका रही थी। पर्स में से वह नोटबुक निकालकर हेमचन्द्र पढ़ने लगा।

'लारोशेफूको की कहावतें अंग्रेजी में अनूदित पढ़ीं। सत्रहवीं सदी के इस फ्रांसीसी चिन्तक का यह वाक्य कितना अर्थपूर्ण है - “हाउ मच हैज ए वूमन टू कम्पलेन आफ ह्वेन शी हैज बोथ लव ऐंड वर्चू। ...देअर आर मेनी आनेस्ट वीमेन हू आर टायर्ड आफ देयर प्रोफेशन।”

उसी के पास कही हाशिये में और कई वाक्य स्त्रियों के विषय में लिखे थे : 'एक फारसी कवि ने कहा, है, “प्रारम्भ में अल्लाह ने एक गुलाब, एक लिली का फूल, एक कबूतर, एक साँप, थोड़ा-सा शहद, एक सेब और मुट्ठी भर मिट्टी ली और उसकी ओर एक दृष्टिपात किया। देखा तो वह एक स्त्री थी।”

“मेरा कयास है कि मनुष्य जो चीजें सुधार सकता है उनमें स्त्री अन्तिम वस्तु है।” (मेरेड्थि)

“स्त्रियों की 'हाँ' और 'नहीं' में एक आलपिन भी घुस नहीं सकती।” (सर्वेंतिस) “स्त्रियाँ जब अकेले में होती हैं, तब कैसे समय बिताती हैं यह यदि पुरुष जान ले तो वह कभी शादी ही न करे।” (ओ हेनरी)

“ईश्वर ने स्त्री बनायी। और उसी क्षण से जीवन की नीरसता नष्ट हुई - परन्तु उसके साथ-ही-साथ कई चीजें नष्ट हो गयीं। स्त्री ईश्वर की दूसरी गलती है।” (नीत्शे)

'परन्तु स्त्रियों से नफरत करने वाले इन सब पुरुषों के मन में स्त्री के प्रति गहरा नकारात्मक आकर्षण होता है।'

नोटबुक का यह एक ही पन्ना उसने पढ़ा। और आगे वह न पढ़ सका। उसके मन में द्वन्द्व हुआ कि बीमार, सोती हुई श्यामा को यों अकेला छोड़-कर वह घर चला जाय? क्या यह उचित है?

और उसके घर पर सोते रहना तो और भी अनुचित है न! तिस पर उसे सवेरे-सवेरे उठ कर जितना जल्दी हो सके देहात में अपनी ड्यूटी पर पहुँच जाना है; एक ट्रैक्टर का सहकारी खेती के प्रयोग में प्रथम उद्घाटन है। ट्रैक्टर? और श्यामा का स्वास्थ्य उसके आगे कुछ नहीं है? नौकरशाही के विराट् यन्त्र का एक छोटा-सा कीला हेमचन्द्र अप्रतिभ हो कर सोचते बैठा है...

नीले झिलमिले पर्दे से श्यामा सोई हुई दिखायी दे रही है। कमरे की मन्द रोशनी में उसका चेहरा अतिरिक्त फीका और पीला जान पड़ता है। दार्जिलिंग में चाँदनी रात में उस चीनी लड़की ने जब अपनी दर्द-भरी गाथा टूटी-फूटी अंग्रेजी में सुनायी, तब क्या उसका चेहरा ठीक ऐसा ही नहीं था? उस लड़की का नाम था शी-चून। गायिका थी वह।

हेमचन्द्र आखिर भारी कदमों से उठा। गाड़ी स्टार्ट की और अपने घर आ गया। परन्तु उसे नींद बड़ी देर तक नहीं आयी।

उधर पिक्चर पूरा करके केतकी और अल्ताफ लौटे। तब अल्ताफ साहब पूरे अपने कवित्व के जोम में थे। बीच-बीच में कारण-अकारण, कविताएँ जो अधूरी-टुकड़ों में उन्हें याद थीं, सुनाते जाते थे। प्रेम की चर्चा छिड़ी थी और अल्ताफ कह रहे थे, गुनगुना कर -

बेखुदी ले गयी कहाँ हमको,

देर से इन्तजार है अपना।

रोते फिरते हैं सारी-सारी रात,

अब यही रोजगार है अपना।

दे के दिल जो हो गये मजबूर,

इसमें क्या इख्तियार है अपना।

केतकी ने उन्हें चिढ़ाने का निश्चय कर लिया था। बोली, “शायर साहब, सारी-सारी रात रोते रहने वाले शायर आपको पसन्द हैं। ये आपके शायर हैं या आँसुओं के फव्वारे हैं?”

अल्ताफ ने कुछ कहने की कोशिश की कि शायरी हृदय की और भावुकता की चीज है। उसका इस तरह निर्मम भाव से वैज्ञानिक विश्लेषण, फूल के पराग को उससे छीन कर उस पर तेजाब के प्रयोग की भाँति है।

तब सहसा केतकी ने विषय बदल कर कहा, “श्यामा और हेमचन्द्र तो आधे चित्र में से ही जैसे गायब हो गये।”

“श्यामा बीमार थी न!”

“श्यामा शायद वह अमराई वाला दृश्य देख कर ही ज्यादह बीमार हो गयी, क्यों?”

अल्ताफ साहब कुछ हँसी में टालते रहे। वह अपना निर्णय देना नहीं चाहते थे।

इतने में कार कुछ खुले में बाहर आ गयी। लम्बे-लम्बे लान, दूर पर शायद इंडिया गेट की परछायी-सी। सब कुछ धुँधला और कुहरिल। हवा में एक तरह की खुनकी भरी थी, जो कि वर्षा हो जाने के बाद धरती और शून्य के बीच में जैसे जम गयी थी। बड़ी सुखद रात थी। और अल्ताफ हुसैन को लगा, जैसे शायरी के लायक कोई वक्त है तो यही है। केतकी से उसने कहा, “जरा रुक जाओ।” और केतकी ने भी गाड़ी रोक दी।

दोनों उतरे और धीमे-धीमे जलाशय के निकट जाकर बैठे। एक कुमुद का फूल शरारत से जैसे हँस रहा था। प्रेम के नाम पर निरे रूपाकर्षण से पास खिंची इस जोड़ी के मन का हाल जैसे वह फूल जानता हो और कहता हो -

'सब्र मुश्किल है आरजू बेकार

क्या करें आशिकी में क्या न करें?'

न जाने अल्ताफ को क्या लगा, उसने केतकी के कन्धे पर हाथ रख दिया। उसने भी मना नहीं किया।

केतकी के जीवन का यह स्पर्श-पक्ष बहुत अभावपूर्ण है। उसके पति व्यवसाय में सदा बिंधे रहते हैं। सदा दौरे पर। कभी हवाई जहाज से, कभी रेल से, कभी मोटर से वह बँधे रहते हैं जैसे उनके पैरों में चक्कर पड़ा हो। और केतकी ने कई सन्ध्याएँ सुन्दर कपड़े पहिन कर प्रतीक्षा में यों ही बिता दी थीं। उसके मन का मेल इस निरे व्यापारकुशल मदनराम से नहीं हो पाता था। और फिर उसके मन में एक प्रसुप्त संकोच और भय के साथ-ही-साथ पर-पुरुष के प्रति जगने वाली एक अज्ञात कुतूहल-भरी आकांक्षा, एक जिज्ञासायुक्त साहसिकता भी थी।

अल्ताफ जैसे रूप की मदिरा पिये और उन्मत हो गया। जलाशय में पड़ा चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बिखर गया। पानी के सोते में जैसे मिट्टी नीचे से किसी ने ऊपर तक हिला दी। वह गुनगुनाता जाता था -

दिया अपनी खुदी को जो हम ने उठा

जो परदा-सा बीच में था न रहा,

रहा परदे में अब वह परदानशीं

कोई दूसरा उसके सिवा न रहा।

प्रकृति का सरंजाम अनुकूल था। पाप या पुण्य के कोई मानसिक ताले या संयम के बाँध वहाँ नहीं थे। मुक्त मन से नारी और पुरुष मिल रहे थे। स्नेह की प्रगाढ़ छाया में, परस्पराकर्षण की आदिम वन-ज्योत्स्ना की सुरभि से आलोकस्नात।

आसमान में बादल यों छितरे थे, और चाँद उनके टुकड़ों में यों छिपा था जैसे -

अयाँ ऐसे कि हर शै में निहाँ थे।

निहाँ ऐसे कि हर शै से अयाँ थे॥

किन्तु यह प्रणय-लीला अधिक समय तक नहीं चली। सहसा दोनों को समय का भान हुआ। दूर पर कहीं एक घड़ियाल का घंटा, शून्य दिशाओं में अपनी ध्वनि प्रतिगुंजित करता खो गया। जलाशय के पानी में फेंके कंकड़ हट गये। धीरे-धीरे गोल-गोल आवर्त के बने निशान संकुचित होकर एक बिन्दु की ओर सिमटने लगे। और चाँद साफ दिखाई दिया।

तब केतकी ने पुनः कार स्टार्ट की। और अल्ताफ साहब किसी हल्के से नशे में चूर आदमी की तरह उसके साथ हो लिये। अपने मोड़ पर आ कर गाड़ी के रुकने पर बोला, “अच्छा, आपसे फिर मुलाकात होगी न?”

“जरूर, क्यों नहीं।” कह कर केतकी हँस दी, अकारण।

और गाड़ी को जल्दी-जल्दी से मोड़ कर वह घर पर ले आयी।

घर पर आ कर उसने जमना को जगाया तो पता चला - ये सब लोग पार्टी के बाद सिनेमा गये तभी बाद में उधर से सहसा केतकी के पति कश्मीर से लौट आये हैं। वह थके हुए थे और पास के कमरे में सो रहे हैं। कुन्तल जग रही थी, उसने जीजा मदनराम को पार्टी की सारी कहानी खूब कहकहों के साथ सुनायी थी।

केतकी अन्दर जा कर पुनः चोर की तरह, सोने का बहाना करने लगी।

रात का समय नहीं कटता, नींद जल्दी नहीं आती, इसके लिए उधर एम.पी. साहब ने नींद की गोलियाँ नहीं खायीं : परन्तु 'कल्याण' मासिक का एक पुराना मोटा विशेषांक 'नारी अंक' उठाकर इधर-उधर टटोलने लगे।

जहाँ-जहाँ उनकी नजर अटकी वे अंश यों थे :

“स्त्री की सृष्टि जगत् को मुग्ध करने के लिए नहीं, अपने पति-देवता को सुख देने के लिए हुई है।” (एडमण्ड वर्क)

“हिन्दुओं में स्त्रियों को जितना सम्मान दिया जाता है, उतना संसार की और किसी प्राचीन जाति में नहीं दिया जाता।” (विल्सन)

“स्त्रियों के बाहर के कार्यों में लगे रहने से काम नहीं चलेगा। हमारे देश की प्रत्येक महिला को गृहिणी और जननी बनना पड़ेगा।” (हिटलर)

“स्त्रियों को किसी भी वय में स्वाधीन छोड़ना उचित नहीं।” (होरेस मैन)

“पुरुषों के अधीन रहने में ही स्त्रियों की सबसे बड़ी शोभा है।” (ल्यूइस मारिस)

“द्वारोपवेशनं नित्यं गवाक्षेण निरीक्षणम्।

असत्प्रलापो हास्यं च दूषणं खलु योषिताम्॥” (व्याससंहिता)

“न पिता नात्मजो नात्मा न माता न सखीजनः।

इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा॥” (रामायण)

“नाश्नीयाद् भार्यया सार्द्धं नैनाभीक्षेत चरिनतीम्।” (मनुस्मृति)

“युवती गुरुभार्या च प्रणमेत्र पदे स्पृशन्।” (वृहद्धर्म)

“स्त्री शूद्रो नाधीयताम्!” (बुद्ध)

धन्य है भारतीय संस्कृति और उस हिन्दू संस्कृति के रक्षक हम और आप। विलायत वगैरह यानी रूस-अमरीका में स्त्री पूज्य है ही नहीं - मिलिटरी ट्रेनिंग भी ले रही हैं, और क्या-क्या नहीं कर रही हैं - छिः छिः! 'मर्यादा' तो भारतीय नारी में ही शेष है। यों सोचते-सोचते एम.पी. सोने का यत्न करने लगे।

पर नींद किसी तरह से आ नहीं रही थी। उनके मनश्चक्षुओं के आगे बार-बार वही शाम की पार्टी के रंगबिरंगे वेशभूषा-सज्जा वाले चेहरे और नारी-देहलताएँ नाच जातीं। अन्त में उन्होंने कुछ धार्मिक मन्त्रों का मशीन की तरह उच्चारण आरम्भ किया, और पापमय विचारों को भगाने का यत्न किया। पर वे विचार उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पच्चीस बरस के विधुर जीवन का वह अभिशाप था। अन्तिम मन्त्र के नाते उन्होंने गीता गुनगुनानी या बुदबुदानी शुरू की -

ध्यायते विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।

संगात् संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते॥

और अन्त में एटम बम की तरह एम.पी. महोदय ने पवनसुत और इन्द्रियजित् हनुमान का स्मरण किया और सोने का यत्न करने लगे।

रात एक है और चार पुरुषों के चार तरह के मन हैं। ऐसे चार नहीं चार करोड़ भी हो सकते हैं। और चार करोड़ ही क्यों अनगिनत तारों की तरह ये आदमी हैं। और रात एक है, भारी, नीली, जामुनी, स्याह, तारों-भरी, कभी-कभी रुपहली, भूरी, ऊदी, बादल-भरी, झींगुर की झनकार से, सन्नाटे की भाँय-भाँय से, सपनों के गुंजारव से और सियारों के भयावने चीत्कारों से भरी रात। बन्द, कुन्द, सीलन-भरी, बदबूदार, कोठरी-सी रात। और फिर भी उसमें यह छायापथ है, कहकशाँ है, आकाशगंगा है जिसके पार भी अनगिनत तारों के चूर्ण की सिकता पर रजतौघवती एक और दुनिया है जिसका अर्द्धवृत्त मात्र हमारी दृष्टि का क्षितिज है।

और प्रेमी हेमचन्द्र, चित्रकार हेमचन्द्र, फूड विभाग में काम करने वाला सरकारी नौकर हेमचन्द्र सोच रहा था कि नारी के विषय में और चाहे कोई उपमा सही हो न हो, यह निश्चित है कि वह नदी की भाँति है। यह स्रोतस्विनी है, जलप्रपात की यूनानी देवी हंगेरिया, वेगिनी, तटिनी, पयस्विनी, सारि, इन सब नामों से पुकारी जाने वाली संज्ञा नारी -नारी भी वही है!

हेमचन्द्र को भी घर जा कर बड़ी देर तक नींद नहीं आयी। और वह फिर अपनी प्रिय वस्तु ऋग्वेद के संवाद सूक्त पढ़ने लगा। विश्वामित्र-नदी सूक्त। विश्वामित्र के अस्तबल से निकली हुई दो अश्विनियों या वत्स को चाटने के लिए पर्युत्सुक दो सफेद गौओं की भाँति विपाट् और शुतुद्री नदियाँ भाग रही हैं। उन्हें क्षण भर रुकने के लिए ऋषि विश्वामित्र कहते हैं। वे उत्तर देती हैं : “हम इस जल से धरती को सन्तुष्ट करती हुई देव-नियोजित स्थान पर जा रही हैं। हम रुक नहीं सकतीं।” नदियों को रोकना आसान नहीं था। वज्रबाहु इन्द्र ने उन्हें खोदा था, उनके पथ में बाधा बने वृत्र को उन्होंने मारा था, सुहात सवितृदेव ने उन्हें मार्ग दिखाया था और प्रवाहित किया था। उसकी प्रेरणा से वे बह रहीं थीं।

अन्त में नदियाँ उस रोकने वाले को कवि जान कर कहती हैं - “हे कवि, अपना भाषण भूल मत जाना। तू हमें स्तोत्रों में गाना। पुरुषों में हमारा धिक्कार न करना। युगों-युगों तक हमारा नाम गूँजे। तुझे नमस्कार हो, कवि।” तब अन्त में कवि ने नदियों की स्तुति की -

“हे नदियों! सुनो!”

“हे नदियों, सुधासम्पन्न बन कर, सबको अन्नसम्पन्न बना कर समृद्ध करो, नहरें और शीघ्र बहने लगो।”

नदी, नारी और कवि तीनों ही केवल देने के लिए निर्मित हुए हैं। उन्हें याचक मत बनाओ, संस्कृति के ठेकेदारो, वे दाता हैं। यह विचार हेमचन्द्र के मन में आया।