बारहखम्भा / भाग-5 / अज्ञेय

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शीशे-जड़ी चौकोर साइड टेबल पर लम्बी नोकीली उँगलियों वाला गोरा नाजुक पंजा सिकुड़ा हुआ, खामोश पड़ा था। नाखूनों की ताजी लाल पॉलिश और तीसरी उँगली में तिरछी पड़ी हुई प्लेटिनम की अँगूठी के हीरे रोशनी में चमक रहे थे। छोटी उँगली को छूता हुआ, टेबल पर आधा भरा गिलास रखा था। गेहुँए रंग की, चौड़े नाखून और मोटी गाँठों वाली उँगलियाँ जैसे अनजाने में धीरे-धीरे फिसलती हुई उन गोरी नाजुक उँगलियों की तरफ बढ़ने लगीं, उनकी लुचों से टकरायीं। गोरा हाथ ज्यों-का-ज्यों रहा। उँगलियाँ उँगलियों पर आ गयीं। गेहुँए रंग की पतली उँगली ने गोरे रंग की पतली उँगली को धीरे से अपनी लपेट में ले लिया। गोरे हाथ ने कोई शिकायत नहीं की।

रमानाथ ने अपनी बायीं तरफ गरदन तिरछी घुमाकर श्यामा के चेहरे को देखा। उसकी आँखें बन्द थीं, चेहरा काफी हद तक निर्विकार था। देखने से ऐसा लगा जैसे देह से निर्लिप्त होकर श्यामा इस समय मन मात्र ही रह गयी हो। और वह मन (?) यहाँ नहीं है। रमानाथ ने पहले तो खुद अपने को ही विश्वास दिलाते हुए सोचा कि अभी उसका नशा इस हद तक नहीं पहुँचा कि उसकी विवेचन शक्ति नष्ट हो गयी हो। और यह विश्वास जमते ही, लाख दबाते हुए भी, तीर की तरह होठों और आँखों की पुतलियों पर बिजली कौंध गयी। विचार आया; विचार के साथ ही उँगली ने श्यामा के गोरे नाजुक हाथ को झकोला दिया। असावधानी से झकोला दिया, बाकी उँगलियाँ उतावली के साथ उसके पंजे को अपनी गर्माहट में समेटकर कैद करने के लिए आगे बढ़ीं। विचार आया : श्यामा पोज करती है, मगर उसके जैसा गहरा पोज नहीं कर पाती। इस चतुराई के अभिमान को रमानाथ ने अपनी भँवों, नकसोरों और होठों पर चढ़ाते हुए कौशलपूर्ण रोमांटिक आँखें बना कर कहा - “सुनो”, इतने धीरे-से कहा मानो गुरुमन्त्र दे रहा हो।

श्यामा ने धीरे-धीरे पलकों के गोवर्द्धन उठाये; आँखों की पुतलियाँ उसके चेहरे की तरह ही निर्विकार थीं। रमानाथ एकाएक समझ न पाया। फिर भी समाज की डिसिप्लिन के अदृश्य हाथों से रमानाथ का गर्म-गर्म मन सँभाले न सँभला; एक कदम आगे बढ़ा। रमानाथ ने उँगली छुड़ा कर श्यामा की कलाई पकड़ ली, उसे अपनी तरफ खींचा, होठों पर अर्थ-भरी मुस्कराहट आयी। श्यामा का दाहिना कन्धा कुरसी के बाहर झुक आया, टेबल को ठेस पहुँची। आधा भरा हुआ गिलास खनका, डगमगाया। हत-बुद्धि रमानाथ से कलाई छोड़ते न बनी। श्यामा की स्वाभाविक फुरती उस समय विवशता के बन्धन में थी। उसकी त्यौरियाँ चढ़ीं, कलाई का बन्धन ढीला हो गया। इस जुम्बिश में पहले का ही अस्थिर गिलास फिर मेज पर जम न सका, दोनों हाथों से टकरा कर, दोनों हाथों को सराबोर कर टेबल पर गिर पड़ा। रमानाथ के होश-हवास तब तक सावधान हो चुके थे, गिलास नीचे लुढ़कने से बच गया। - सारा दृश्य आनन-फानन में घट गया, एक आश्चर्यजनक मजाक बन गया। दोनों की आँखें एक-दूसरे के भाव पढ़ने के लिए उत्सुक थीं। रमानाथ की नजरों में सकपकाहट थी। श्यामा की निर्विकार पुतलियों में फिर एक तेज चमक आयी, होठों पर व्यंग्य-भरी मुस्कराहट आयी। श्यामा को मुस्कराते देखकर रमानाथ ने भी अपनी झेंप-भरी समझदारी से काम लेते हुए मुस्कान बिखेर दी। फिर जोर से हँसने लगा, मानो उसने इस मजाक को (देर से ही सही, मगर) बहुत गहरे में पहचान लिया हो। श्यामा को रमानाथ की इस झूठी हँसी पर हँसी आ गयी। दोनों अपनी-अपनी तरह से उल्लास में आ गये थे।

एक क्षण दोनों शान्त रहे। रमानाथ ने पूछा, “लाइट बन्द कर दूँ?”

सवाल पूछकर चोर-जैसा मुँह बनाये रमानाथ उसका मुँह ताकने लगा। श्यामा ने फिर कुर्सी पर व्यवस्थित रूप से अपना सिर टेक लिया था, अब आँखें भी बन्द कर लीं, कहा, “बुझा दो।”

रमानाथ ने उठ कर दरवाजा बन्द किया, दरवाजे के पास वाली दोनों खिड़कियों की सिटकनी लगायी और रोशनी बुझा दी। रमानाथ श्यामा की कुरसी के पीछे खड़ा हो गया। उसके सिर पर मुलायमियत के साथ हाथ रख लिया, उसकी उँगली धीरे-धीरे माँग की लकीर से खेलने लगी।

“चलो उस कमरे में चलें।”

श्यामा 'हाँ-ना' दोनों से मुक्त शून्य-सी पड़ी थी। रमानाथ कुरसी के हत्थे पर आ कर बैठ गया। उसके होंठ श्यामा के होठों से मिलने के लिए बड़ी व्यग्रता के साथ नीचे झुके। चेहरे पर नशे की बदबू से भरी हुई परायी साँस पड़ते ही श्यामा के बायें हाथ ने कड़ाई के साथ उसका मुँह पीछे ढकेल दिया। यह अप्रत्याशित विरोध पाकर रमानाथ लड़खड़ा उठा; खड़ा हो गया। श्यामा सीधा हो कर बैठ गयी। “मैं जाती हूँ - “ उसने कहा और उठकर खड़ी हो गयी।

अँधेरे की आकृतियाँ अपने मन के प्रकाश में एक-दूसरे के भावों को देख रही थीं। रमानाथ कुण्ठित हो गया। बढ़ती हुई वासना की गर्मी क्रोध में बदलने लगी। उसकी बाँहें, उसका सारा शरीर श्यामा को जकड़ कर अपने पौरुष से कुचल डालने के लिए सीमा के अन्दर ही अन्दर तड़फड़ाने लगा। श्यामा आगे बढ़ी। बीच की कुरसियों को पार करती हुई स्विच तक पहुँची। कमरा फिर रोशनी से भर गया। प्रकाश होते ही रमानाथ की सूरत देख कर श्यामा हँस पड़ी।

रमानाथ इस तरह से खौला हुआ खड़ा था जैसे भरे चौराहे पर किसी अधिक शक्तिशाली ने उसे जूता मार दिया हो। श्यामा की हँसी सैकड़ों लोगों की मजाक-भरी हँसी की तरह उसके रोम-रोम में बिंध गयी।

“तुमने आज मुझे गहरा धोखा दिया श्यामा!” तीखी नजरों से श्यामा की तरफ देख कर रमानाथ बोला।

श्यामा ने उसे देखा और फिर हँस पड़ी। हँसी निरर्थक होते हुए भी विजय और व्यंग्य से भरी हुई थी। रमानाथ की मुट्ठियाँ बँध गयीं। उसकी आँखों में नफरत का तीखापन चमक उठा : “तुम समझती हो कि तुम खूबसूरत हो, और मैं तुम्हें प्यार करता हूँ?”

रमानाथ आगे बढ़ा। श्यामा ने स्विच के पास ही किताबों की अल्मारी पर हाथ रख लिया। वह खामोश हो कर देखने लगी, रमानाथ के चेहरे पर नजरें जमा कर देखने लगी। फिर कहा, “मैं तुमसे यही सुनना चाहती थी।”

श्यामा अल्मारी के पास से हट कर आगे बढ़ी, फिर कहा : “बाइ द वे, यह किस पिक्चर का डायलॉग था?”

रमानाथ शान्त हो गया। उसकी मुट्ठियाँ धीरे-धीरे खुल गयीं। चेहरे पर लदी हुई थकान उभर आयी, श्यामा के व्यक्तित्व के आगे उसे अपनी लघुता का आभास हुआ। वह विवश हो गया, ठिठक कर खड़ा हो गया। दरवाजे की तरफ बढ़ती हुई श्यामा से उसने कहा : “क्या हम अब फिर से दोस्त नहीं हो सकते?”

श्यामा बढ़ती गयी, उसने दरवाजे के पास वाली एक खिड़की खोल दी, फिर निश्चिन्त भाव से कोमल स्वर में बोली : “हमारी दोस्ती अभी टूटी ही कहाँ है?”

श्यामा ने बढ़ कर दरवाजे की कुंडी खोली। रमानाथ ने वहीं खड़े-खड़े व्यग्र हो कर पूछा : “जा रही हो?”

“नहीं, अपनी तस्वीरों का एल्बम बन्द कर रही हूँ।” कहते हुए उसने दरवाजे का एक पल्ला खोल दिया, और आ कर कुरसी पर बैठ गयी। रमानाथ वैसे ही खड़ा रहा। श्यामा का जवाब उसके लिए एक पहेली था, जिसे बूझने का कौतूहल जाग कर भी उसके मन में अलसाया हुआ पड़ा रहा।

श्यामा अपने सामने की उन दो हाफ-ईजी कुरसियों को देख रही थी जिन पर थोड़ी देर पहले वे दोनों बैठे थे। दोनों कुरसियों के बीच में छोटी-सी शीशे-जुड़ी टेबल पर रमानाथ का खाली गिलास रक्खा था, मेज और नीचे का फर्श गीला था। रमानाथ की कुरसी के पास भी एक टेबल रक्खी हुई थी, उस पर ह्विस्की की छोटी बोतल, सिगरेट का टिन और एश-ट्रे रक्खी थी। रमानाथ की कुरसी के पास एक और कुरसी तिरछी रक्खी हुई थी जिस पर वह टाँगे फैलाकर बैठा था। कुछ देर पहले का सारा दृश्य निमिष मात्र के लिए श्यामा के मन में सजीव हुआ : उसकी वासनाएँ एक अमूर्त नायक से खेल रही थीं, और वह नायक जब रमानाथ के रूप में मूर्तिमान हुआ तब वह उसे सह नहीं सकी। रमानाथ यों उसे बहुत अच्छा लगता था, किसी हद तक उसके प्रति आकर्षण भी था; पर अन्तिम सीमा तक पहुँच कर झटके के साथ उसने पहचाना कि रमानाथ के प्रति अपने आपको समर्पित नहीं कर पाएगी। उसने उसे ढकेल दिया। रमानाथ उसकी समानता भी प्राप्त नहीं कर सकता - उहुँ - पुअर रमानाथ!

श्यामा ने रमानाथ की तरफ देखा। एक हारा हुआ, पिटा हुआ साधारण पुरुष उसके सामने खड़ा था। चमत्कार की तरह उस जगह उसे हेम खड़ा दिखलायी दिया। वह ललक उठी। कल्पना की अति लघु लीला उसके असन्तोष को भड़का कर समाप्त हो गयी। रमानाथ अपने पास ही पड़ी हुई कुरसी को खिसका कर उससे दूर, मगर उसके सामने बैठ गया। खिसियायी हुई आवाज में उसने कहा, “नशा ओवर तो नहीं गया था, फिर भी शायद उसका ही असर रहा हो।”

श्यामा कुछ न बोली। सूनी आँखों से उसे देखती हुई उँगली का नाखून चबाने लगी।

रमानाथ ने फिर पूछा, “क्या उसके लिए तुमसे माफी माँगूँ?”

श्यामा ने एक बार पुतलियाँ घुमा कर फिर उसके चेहरे पर स्थिर कीं, फिर जवाब दिया, “जरूरत महसूस करते हो?”

“नहीं।”

“तो फिर जाने दो।”

“बल्कि चाहता तो यही हूँ कि तुम मुझसे माफी माँगो। तुमने मेरे साथ खिलवाड़ किया।” श्यामा की तरफ से अभय का आश्वासन पा कर रमानाथ कलाकार की तरह अपना भोला गुस्सा प्रदर्शित करने लगा।

श्यामा अपने पैरों की तरफ देखती हुई बोली, “तुम अगर प्यार करते होते तो जरूर माफी माँग लेती।”

“मैंने तुम्हें दिल से प्यार किया है।” रमानाथ ने तड़प के साथ कहा।

दोनों पैरों को हलके-हलके हिलाते हुए उसी तरह नीची नजर रख कर श्यामा बोली, “अभी तो कह रहे थे कि - “ दबी मुस्कान के साथ उसकी क्रीड़ा-भरी नजरें ऊपर उठीं। बस इतनी ही बात कहना चाहती थी। उसे विश्वास था, रमानाथ फौरन ही बात काटेगा। वही हुआ भी।

रमानाथ कुरसी के हैंडिल पर जोर देता हुआ बोला, “गुस्से में कही हुई बात को क्या तुम दिल से सच समझती हो श्यामा?”

रमानाथ की बात खत्म होते-न-होते उसके ईमान को झटका देते हुए श्यामा ने पूछा, “कितनी नारियों से तुमने यह सच्चा प्यार किया है - सच सच कहना।”

रमानाथ उलझा, गुस्सा आया, फिर खुद भी उसी तरह पूछ बैठा, “और तुम? अपनी तो कहो?”

बात श्यामा के मर्म पर लगी, बड़ी सफाई से अपने मन की असलियत पर पर्दा डालकर उसने कहा, “मैं किसी से बँधी नहीं हूँ। मुझे किसी को जवाब नहीं देना।”

“और मुझे किसे जवाब देना है?” रमानाथ चीख पड़ा।

“अपनी पत्नी को।” श्यामा ने शान्त स्वर में कहा, जैसे उसने पूरे विश्वास के साथ अपने तरकस का सबसे भारी तीर चला दिया हो।

रमानाथ उबल पड़ा, बोला, “अपनी पत्नी के प्रति मेरी कोई भी जवाबदारी नहीं है। मैंने उसे एक दिन भी प्यार नहीं किया। मैंने अपनी मर्जी से उसके साथ विवाह भी नहीं किया। मैं उससे नफरत करता हूँ।” रमानाथ ने उठ कर टिन से एक सिगरेट निकाली, जलायी, कश खींचा और जलती हुई तीली को मुँह के धुएँ से बुझाते हुई नाटकीय ढंग से श्यामा की ओर मुड़ कर खड़ा हो गया।

श्यामा बोली, “और बच्चे? वे भी नफरत की पैदाइश हैं?”

रमानाथ तेजी पर आया, तीखे स्वर में बोला, “वह नफरत जो मुझे तुम्हारे जैसी समाज की तितलियों से होती है, उसे पत्नी के साथ प्यार में बदलता हूँ - बच्चे उसी प्यार का नतीजा हैं।”

श्यामा बेतहाशा हँसी पड़ी। रमानाथ की नाटकीयता को आघात लगा। वह अपने जवाब के खोखलेपन को अनुभव कर रहा था। उसे यह भय भी था कि श्यामा इस हँसी के बाद कोई बड़ा तीखा व्यंग्यबाण छोड़ेगी। रमानाथ उसके पेशतर ही मैदान अपने हाथों में कर लेना चाहता था। वह श्यामा को नीचा दिखाना चाहता था। उसे इस समय श्यामा से सख्त नफरत हो रही थी। बोला, “लेकिन तुम्हें दूसरों के बच्चों और पतियों के लिए हमदर्दी कैसे उमड़ पड़ी एकाएक? क्या देवीप्रसाद का घर उजाड़ने का प्रायश्चित कर रही हो?”

श्यामा एक क्षण के लिए गम्भीर हुई, पैनी निगाहों से रमानाथ को देखा, फिर हँस पड़ी, बोली, “बस? एक डी.पी. का ही नाम जानते हो? मेरी चर्चा लेकर अगर दोस्तों में अपनी शहादत के किस्से बखानना चाहो तो और भी कई नाम बताऊँ?”

“नाम बताने की क्या जरूरत है? जानता हूँ कि तुमने बहुतों के दिल जलाये होंगे।” कहता हुआ रमानाथ मुड़ा और अपनी पहले वाली जगह पर जा कर बैठ गया। एश-ट्रे में राख झाड़ी, सामने वाली कुरसी को खींच कर सीधा किया और टाँगें फैला लीं।

दोनों का फासला और बढ़ गया।

श्यामा बोली, “स्वीकार करती हूँ... अब मेरी बात का जवाब दो। तुम अपनी पत्नी को प्यार नहीं देते तो बार-बार उन पर मातृत्व का भार क्यों लादते हो?”

रमानाथ ने जवाब न दिया। मुँह में सिगरेट दबा ली और लेटे-ही-लेटे दाहिना हाथ बढ़ा कर एक टेबल से बोतल और दूसरी टेबल से गिलास उठाया।

श्यामा उसे देखने लगी। रमानाथ अपना गिलास भर रहा था। उसके चेहरे पर गहरी उलझन, खीझ और थकान झलक रही थी। श्यामा ने एक नजर अपनी घड़ी पर डाली, ग्यारह-चालीस हो गये थे। देर हो गयी है, फिर भी आज वह रमानाथ को अच्छी तरह छका कर ही जाएगी। यह रमानाथ अपने को कुछ अधिक ही समझता है! रेडियो की बदौलत थोड़ा-सा नाम कमा लिया है सो हर तरह के प्रतिष्ठित आदमियों से मेल-जोल बढ़ा कर अपनी गिनती भी प्रतिष्ठितों में करना चाहता है। गला जरा अच्छा पा लिया है, थोड़ी-सी पुरानी साधना के बल पर आज अपने को गायकी का उस्ताद समझता है। ईडियट! मुझे - श्यामा को - जीतना चाहता था। मन की घृणा को प्रदर्शन से बचाने के लिए श्यामा के पतले होंठ सख्ती से भिंच गये। आँखों में घृणामूलक छेड़ की चमक आयी, श्यामा ने बात को फिर उचेला, “क्या यह सच नहीं कि स्त्री को तुम पुरुष की सम्पत्ति समझते हो? तुम्हारा सारा प्रोग्रेसिविज्म महज एक शो है। आज के फैशन के मुताबिक चल कर तुम फेशनेबिल कहलाना चाहते हो, यही न?”

खाली बोतल बायें हाथ से जमीन पर रख कर, दूसरी टेबल के नीचे सोडा उठाते हुए दम्भ-भरी आवाज में रमानाथ ने कहा, “और अगर यही इल्जाम मैं तुम पर लगाऊँ तो?”

“तो क्या?” श्यामा हँसी, “खुद तुम्हारी निगाह में भी वह सफेद झूठ होगा। तुम जानते हो कि मैं वही करती हूँ जो मुझे उचित लगता है। डी.पी., ताजा मिसाल के तौर पर तुम, और तुम्हारी ही तरह और भी दो-चार लंगूर अपनी काबिलियत की लम्बी-लम्बी दुमें फटकारते हुए गये - “

“उनके पास हेम की तरह मोटर नहीं थी।”

“हेम की मोटर पर तुम्हें बड़ा ताब आता है! वह हैसियतदार न सही, सलीकेदार तो हैं। चार पैसे बचा कर उन्हें मोटर खरीदना भी आता है। तुम्हारी तरह वह बाहर किमखाब और भीतर फटे टाट वाली झूठी सामाजिकता के हामी नहीं हैं।”

“ओहो! आज-कल हेम पर बड़े-बड़े तार लपेटती हो। यह न भूल जाना कि मैंने ही तुम्हारा इंट्रोडक्शन कराया था।”

“तो इससे क्या? तुमसे मेरा परिचय डी.पी. ने कराया था। और डी.पी. को मैं कानपुर से ही जानती हूँ, उसकी बहन मेरे साथ पढ़ती थी। परिचय तो इसी तरह हुआ ही करते हैं, उसमें अहसान जमाने की क्या बात है?”

रमानाथ कुछ न बोला। वह खीझ उठा था। श्यामा ने अनुभव किया कि जैसे वह चाहता है कि श्यामा चली जाय। जाना तो अब श्यामा भी चाहती थी, लेकिन जाने से पहले उसने उसे और भी खिझाने की ठानी। बोली, “तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया न! अच्छी बात है, किसी दिन सबके सामने पूछूँगी। अब चलूँ।”

श्यामा उठ खड़ी हुई। रमानाथ घबरा कर उठा, “नहीं श्यामा, ठहरो जरा।”

रमानाथ पास आया। उसी के सामने खड़े हो कर दयनीय स्वर में बोला, “क्या तुम्हें वाकई मुझ पर तरस नहीं आता?”

“आता है। इसीलिए तो पूछती हूँ, बीवी को नफरत करते हो या प्यार?”

रमानाथ एक साँस में गिलास खाली कर उसे सेंटर टेबल पर रखता हुआ दो-एक बार हाँफा, कलेजे की जलन को दोनों हाथों से दबाया, फिर बोलने के प्रयत्न में मुख-मुद्रा और हाथ के इशारे से श्यामा से बैठने का आग्रह करते हुए उसने कहा, “मेरी बात सुन लो। बैठ जाओ जरा। कहोगी तो मैं तुम्हें घर छोड़ आऊँगा।”

श्यामा बैठ गयी। वह मन-ही-मन अपनी विजय पर पुलक रही थी। रमानाथ उसके सामने ही एक कुरसी खिसका कर बैठ गया। वह बात उठाने के लिए जैसे शब्द खोज रहा था। फिर सिगरेट लेने के लिए उठा। उसके कदम लड़खड़ाते न थे; चाल में बेहद फुर्ती आ गयी थी। सिगरेट का कश खींच कर लौटते हुए कुरसी पर बैठ कर उसने कहा, “श्यामा, तुम तो विमला को जानती ही हो। भला सोचो, वह मेरे जैसे कलाकार को इन्स्पायर कर सकती है...”

श्यामा ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि रमानाथ कह उठा, “पहले तुम मेरी सुन लो, फिर जो कहोगी सब सुन लूँगा। देखो, यह प्रॉब्लम सिर्फ मेरी ही नहीं, बहुतों की है। हमारे घरों में आम-तौर पर दो हिस्से हो जाते हैं - जनानखाने में भेड़-बकरियों की तरह भरी हुई स्त्रियाँ, जिन्हें चूल्हे-चक्की, गहने, आपस की तू-तू-मैं-मैं, किस्से-कजिये, जलन-द्वेष और नीरस ढंग से बच्चों की तादाद बढ़ाने के सिवा और कुछ भी नहीं आता। और दूसरे हिस्से में मर्द रहते हैं, पढ़े-लिखे, रिफाइंड टेस्ट के। भला बताओ, इन दोनों का मन कैसे मेल खा सकता है? मिसाल के तौर पर मैं अपने को ही लेता हूँ। दुनिया मेरी तारीफ करती है, तुम सब लोग मेरी कदर करती हो। किसलिए? मेरे संगीत के कारण ही न! मैं कभी गुनगुनाने भी लगता हूँ तो तुम लोग मेरे नजदीक सिमट आते हो। और एक विमला है, जिसे अच्छे संगीत के नाम पर बुखार चढ़ आता है। हाँ, घर-बिरादरी में शादी-ब्याह के मौकों पर अपनी ही जैसी दूसरी फूहड़ औरतों के साथ सिठनियाँ और ऐसे ही बेहूदा गीत गाने में वह अपने फटे गले को चार लाउडस्पीकरों के बराबर बना देती है। तुम खुद ही सोचो श्यामा, कि उस वक्त मेरे कलेजे पर क्या बीतती होगी! तुम लोग मेरे घर आती हो तो उसके पित्ते उबलते हैं। जबान क्या है एटम बम की फैक्टरी है; मेरी कोमल भावनाओं का जर्रा-जर्रा भस्म हो जाता है। तुम तो खुद भुगत चुकी हो। देवी प्रसाद की घरवाली ने खुद ही तुम्हारा झूठा नाम ले कर जहर खाया...”

बड़ी मिठास के साथ कही जाने वाली इन बातों का श्यामा के दिल पर अच्छा असर पड़ रहा था। श्यामा का बचपन भी खुद ऐसे ही वातावरण में पनपा है। उन्हें वह नफरत की नजर से देखती है। डी.पी. की बीवी ने उसे कोसते हुए अपनी आवाज को दस मुहल्लों के ऊपर उठाया था; सिर के बाल नोचे थे, गन्दी से गन्दी गालियाँ दी थीं... वे तमाम चित्र उसके दिल के इतने निकट आये कि नफरत की कड़वाहट उसके गले में कसैले पानी का घूँट बन कर अटक गयी। श्यामा ने मुँह बनाया। रमानाथ को जवाब देने की इच्छा हुई; इन औरतों के खिलाफ दिल का बुखार उतारने की बड़ी इच्छा हुई।

वह तड़प कर बोली, “मनोरमा ने मेरी वजह से जहर नहीं खाया था। ...और मान लो उसने मेरे ही कारण खाया, मुझ पर दोष लगाया, तो भी कुछ गलत नहीं किया। यह दकियानूस समाज अगर हम पढ़े-लिखों पर बड़ी-बड़ी तोहमतें थोपता है तो कुछ भी गलत नहीं करता। हमने पढ़-लिख कर, सभ्य और सुसंस्कृत बन कर समाज के सामने आखिर कौन-सा आदर्श रखा है? नफरत के सिवा हम समाज को और देते ही क्या हैं? झूठ के सिवा हमारे पास और है ही क्या...?”

श्यामा इन औरतों के खिलाफ कहना चाहती थी, मगर आश्चर्य के साथ खुद उसने ही अनुभव किया कि वह स्वयं अपने खिलाफ ही जहर उगल रही है। ...अच्छा ही है। उसे और भी कहना चाहिए। यह रमानाथ है ही सुनाने काबिल। कायर! दुर्बल!

श्यामा और भड़की, “नया समाज हो या पुराना - दोनों में ही पुरुषों का राज है। एक में स्त्री पुरुष का खिलौना बना कर रखी जाती है और दूसरे में दासी बना कर पैरों तले रौंदी जाती है। आई हेट मेन, आई हेट विमेन। आई हेट एवरीबॉडी।”

श्यामा तड़प कर उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर अदमनीय क्रोध की बेबसी छायी हुई थी। वह अपने आपे को खो कर एक मुजस्सिम तड़प बन गयी थी।

उसने सेंटर टेबल पर रखा हुआ अपना पर्स उठाया और दरवाजे के बाहर निकल गयी।

रमानाथ बैठा हुआ टुकुर-टुकुर उसे देखता रहा। एक बार उसकी इच्छा हुई भी कि श्यामा को पहुँचाने के लिए उसके साथ जाय, परन्तु इस इच्छा को वह मन में ही दबा गया। उसे भय था कि श्यामा फटकार देगी; अलावा इसके वह इस वक्त श्यामा से बेहद चिढ़ा हुआ था। उसकी रात बेकार गयी, उसका मूड खराब हो गया।

अँधेरी सीढ़ियों पर नीचे उतरते हुए श्यामा खीझ रही थी कि रमानाथ उसे पहुँचाने नहीं आया। एक बार झूठे भी को नहीं कहा। मैं क्या उसके सहारे की भूखी हूँ? हरगिज नहीं। पुरुष का सहारा भी कोई सहारा है! ...मगर उसका सारा बदन अकड़ रहा था, उसे किसी के सहारे की जरूरत थी - मजबूत बाँहों का गर्म-गर्म सहारा जोकि उसे बाँध कर ले चले, उसे उसकी मंजिल तक पहुँचा दे।

जीने उतरते-उतरते वह हाँफ गयी, निढाल हो गयी। फाटक के अधखुले जँगले से सट कर खड़ी हो गयी। खोई हुई, डूबी हुई आँखों से उसने बाहर देखा। रोशनियाँ, सड़क, सारी दुनिया उसे चक्कर काटती हुई नजर आयीं - तेज चक्कर - और तेज - और तेज! श्यामा ने पूरी जिद और शक्ति लगाकर अपने को सँभाला।

बिल्डिंग के बाहर फुटपाथ के सामने एक छोटी-सी कार खड़ी थी। कार उसकी दृष्टि का केन्द्रबिन्दु बन गयी थी। उसे हेम की कार याद आयी। उसे हेम की याद तेज कसक के साथ आयी। हेम शहर में नहीं है। उससे रूठ कर चला गया है। श्यामा को अपने ऊपर गुस्सा आया, उसी ने हेम को नाराज किया है। उसे रमानाथ पर गुस्सा आया, उसी के कारण उसने हेम को नाराज किया है। उसे केतकी के ऊपर भी गुस्सा आया, वह क्यों उस दिन हेम के यहाँ आयी थी। न वह आती, न उसे बहाना मिलता, और न हेम नाराज होता। श्यामा घुटन के बहाव में बही चली जा रही थी। फुटपाथ पर उसके कदम आप-ही-आप बढ़ रहे थे। उसे इस समय हेम की बड़ी याद आ रही थी। उसे इस समय हेम की बड़ी जरूरत थी।

उस दिन जब वह केतकी, अल्ताफ हुसैन और हेम के साथ शाम की पार्टी के बाद पिक्चर देखने गयी थी, उसे गश आ गया था। केतकी हेम के पास बैठी हुई थी, उसके और हेम के बीच में थी। शाम को उसकी चोरी भी पकड़ी गयी थी, हेम ने रमानाथ का चित्र बरामद किया था, उसके झूठ का पर्दाफाश किया था। श्यामा डर गयी थी। शाम को हेम ने उसके सामने केतकी की प्रशंसा भी की थी। पिक्चर देखते हुए वह डर और बढ़ गया - हेम की खिझलाहट से भरे तानों और केतकी के पास होने के कारण बढ़ गया। वह अपने आपको केतकी के सामने बौनी महसूस करती रही थी। उसे लगा, केतकी हेम को किसी दिन उससे छीन ले जाएगी। यदि वह खुद मन से चोर न होती तो बर्दाश्त नहीं कर सकती। बहुत से पके हुए अनुभवों के बाद हेम उसे ठीक - करीब-करीब - वैसे ही पुरुष के रूप में मिला था जैसा कि वह अपने लिए चाहती थी। मगर वह हेम के प्रति भी अपने आपको समर्पित न कर पाती थी। समर्पण उसकी निगाह में नीचे गिरना था। समर्पण का अर्थ वह समझती थी - दासी बन जाना। वह दासी हरगिज नहीं बन सकती। वह बराबरी भी नहीं बरत सकती - शायद बराबरी बरतना वह जानती भी नहीं। वह तो सिर्फ यह जानती है कि वह सबके ऊपर शासन करने के लिए पैदा हुई है। अगर सबके ऊपर शासन न कर सके तो कम-से-कम उन लोगों पर तो अवश्य करे जो उसके मित्र और निकट के हैं। प्रेम में अपने हिस्से वह केवल अधिकारों का गट्ठर और प्रेमी के हिस्से में सेवाओं का भार रखती थी। अधिकारों में जायज-नाजायज का भेद करने वाला प्रेमी उसकी नजरों में प्रेमी कहलाने के काबिल नहीं रह जाता। इसीलिए हेम की ओर से भी उसका मन निश्चिन्त हो कर नहीं बैठ पाता। प्रेमी पाने की प्यास-सच्चे प्रेमी की खोज के बहाने को वह एक रोमांटिक दर्शन का रूप दे कर चारों दिशाओं में मन की झोली लिये भटका करती है। कोई उसे चाहे, उसकी तारीफ करे, उस पर रीझ जाय, उसके गरब-गुमान को बर्दाश्त करे - बस यही चाह लिये वह भटका करती है। ...मगर फिर भी उसे हेम चाहिए। कभी-कभी अनचाहा हो कर भी हेम उसके जीवन से नींव के पत्थर की तरह अटल हो गया है। अब उसके सिवा कोई आँखों में नहीं जँचता। मगर फिर भी?

इस 'फिर भी' का अन्त नहीं आता।

श्यामा अब हार गयी है, थक गयी है। वह स्वयं अपने ही तन और मन द्वारा उपेक्षित है। कहाँ लिये जा रहा है उसका हठ! मृगजल की खोज आखिर किस दिशा में पूर्ण होगी?...

श्यामा को अब एक दिशा चाहिए। 'वह चाहे हेम ही हो या कोई और, लेकिन कोई और क्यों? हेम! हेम ही! अब हेम के सिवा और कोई न हो। राम! जो मैंने जीवन में कभी कोई भी अच्छाई की हो तो उसके बदले में मुझे हेम मिले।'

उसका रोयाँ-रोयाँ पानी हो गया, उसका जी पानी-पानी हो गया। पानी में टीस उठने लगी। टीस मीठी लगने लगी। प्रार्थना से सन्तोष मिला; आत्म-विश्वास मिला। 'हेम मेरा... मेरे हैं। मेरे सिवा उनका कोई नहीं। मैंने उस दिन फिजूल की अकड़ में केतकी और हेम पर झूठा आरोप लगाया - और उसके खोखलेपन को महसूस करके भी अड़ी रही।'

...बरामदे, फुटपाथ, सड़क, फिर बरामदे, फुटपाथ और सड़क। श्यामा अपने अन्दाज से ठीक जा रही है, निर्भीक जा रही है। केवल उसे इस बात का होश और अन्दाज नहीं है कि उसे कहाँ तक पैदल जाना है। कदम सच्चे सही दिशा में बढ़े चले जा रहे हैं। बीच-बीच में नजर उठा कर अपने आसपास में देख भी लेती है। मगर क्या देखती है, इसकी चिन्ता उसे नहीं।

हेम को गये आज सत्ताईस दिन हो गये। हेम का नौकर जंगबहादुर बतलाता था कि साहब शायद अपने 'मुलुक' गये हैं। साहब का मुलुक कौन-सा है, यह नौकर को भी नहीं मालूम, और साहब से प्रेम का दावा करने वाली श्यामा को भी नहीं मालूम।

उसने कभी भी हेम के पिछले जीवन के सम्बन्ध में जानने की कोशिश नहीं की। कभी कोई ऐसा विचार भी नहीं आया। रमानाथ के घर एक शाम को हेम से भी उसी तरह उसका परिचय कराया गया था जैसे किसी और से, केतकी, अल्ताफ हुसैन किसी से भी। इस साधारण से परिचय में जिस दिन से जान पड़ी, उसी दिन से हेम को जानती है। उसी हेम की उसे परवाह है। वह उसी की होना चाहती है। ...आज सत्ताईस दिन हो गये।

श्यामा ने वेदना के साथ सूनापन अनुभव किया। वह सुबह जो मिलन की अन्तिम सुबह थी, वह सुबह, जोकि उसके जीवन की एक बहुत पराजय के साथ जुड़ गयी है - अपनी याद से ताजा हो उठी। वह सुबह, गहरी अनुभूति भरी कल्पना के सहारे मूक चलचित्र सी ताजा हो उठी। उस सुबह की बातें श्यामा का मन अलग से सोच रहा है।

...होश आने पर श्यामा ने अपने आपको बिस्तर, अपने घर में पाया था कि सिनेमा हॉल के बाद से उसे होश नहीं था। होश आने पर यह चिन्ता लगी कि हेम उसे किस हालत में लाया; रास्ते में कहीं कोई तमाशा तो नहीं बन गया था।

सुबह साढ़े सात बजे वह हेम के घर पहुँच गयी थी। आधी दाढ़ी बनाये, दाहिने हाथ में ब्रश लिए हुए बैठे अखबार पढ़ रहे थे। देखा-देखी हुई; बातें नहीं हुईं। श्यामा किचन की तरफ चली गयी। किचन गर्मा चुका था। जंगबहादुर चिमटा बजाता हुआ बैठा गुनगुना रहा था। उसका चिमटा बजाना श्यामा के दिल में खटक उठा। डर से काँप गयी। हेम भी अखबार छोड़ कर अब फिर दाढ़ी बनाने में मसरूफ हो गया। कुछ बातें हुईं। स्वयं श्यामा की ओर से अधिक हुईं। फिर कार - बड़ी कार - के हार्न की आवाज आयी, कार रुकी, फिर हार्न बजा। उस हार्न से हेम का नाता जुड़ा। श्यामा भी कौतूहल से भर उठी। दरवाजे का परदा उठा, केतकी सामने आ गयी। केतकी उसके आने के आधा घंटा पहले ही वहाँ पहुँच गयी थी; इस वक्त तो हेम के लिए बाजार से ताजी गर्म जलेबियाँ ले कर लौटी है। उसने श्यामा को बतलाया कि वह दरअसल श्यामा की तबियत का हाल पूछने ही वहाँ आयी थी। श्यामा मन-ही-मन गहरी शंका से टूट गयी। डूबते में तिनके के सहारे-सा स्वयं अपने मन का चोर ही काम आया। कोतवाल को डाँटने का बहाना मिल गया। अपने दोष का भार हेम और केतकी पर डाल कर उसने अचानक बड़ा नाटक कर डाला। हेम को, केतकी को न जाने क्या-क्या कहनी-अनकहनी सुना गयी। हेम ने समझाया, डाँटा, बाहर चले जाने को कहा... ओह!

“बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।” एक गहरी ठंडी आह निकल पड़ी। लेकिन हेम पर गुस्सा नहीं, प्यार आया। इन सत्ताईस दिनों में श्यामा के दिल ने खड़ी पछाड़ें खायी हैं। वह अब अजीब ढंग से सोचने लगी है। शायद यही चिन्तन, यही दृष्टिकोण ठीक भी है।

सामने एक ताँगा दिखाई दिया। श्यामा चलते-चलते कतर गयी। ताँगा देख कर श्यामा ने थकान महसूस की। करीब आधी मंजिल तय कर आयी - आधी मंजिल की थाह लेते हुए ध्यान पीछे लौटा, रमानाथ के घर तक गया।

और तुरन्त ही आश्चर्य के साथ इस बात पर भी गौर किया कि रमानाथ के घर से निकलने के बाद रास्ते-भर, कभी एक क्षण के लिए भी, उसका ध्यान थोड़ी देर पहले हुई घटना पर नहीं गया। पिछले सारे दृश्य से, रमानाथ से, वह कितनी बेअसर चली आयी है। श्यामा को अपने ऊपर अभिमान का बोध हुआ। काश! हेम को किसी तरह यह बतला पाती कि जिस रमानाथ की फोटो से उसे जलन हुई थी, वह श्यामा के लिए इतना भी महत्त्वपूर्ण नहीं।

'ताँगा!' उसने शासन के स्वर में पुकारा।

भीड़ में पूर्ण एकान्त का-सा अनुभव करती हुई श्यामा तीसरे पहर अपनी खिड़की के पास खड़ी थी। अनेक घुटती हुई इच्छाओं के रंग-बिरंगे पखेरू विरोधाभास के जाल में फड़फड़ा रहे थे, और एक मानस-हंस विस्तृत आकाश में अकेला उड़ता चला जा रहा था; उसे विश्राम न था, उसकी मंजिल अभी भी नहीं आयी थी। श्यामा अपने गतिरोध और गति-प्रवाह में साथ ही साथ खोई हुई खड़ी थी। जड़ और चेतन के अनोखे संयोग में वह जलती चिता में बैठी हुई सती की श्रद्धा की तरह शान्त थी, आनन्दमग्न थी। अपने मन के सात पातालों की तह में हर झूठे मान से मुक्त होकर श्यामा अपने आपको धीरे-धीरे हेम के प्रति समर्पित करने लगी। लाज को तनिक सन्तोष मिला। कितना गुप्त सन्तोष था! कल की जलन के बाद कितना मादक भी! उसके उदास, फीके चेहरे और खिड़की के बाहर कहीं अटकी हुई आँखों में अन्तर की सन्तोष-भरी तन्मयता चमक बन कर रमने लगी। उसकी प्यास बढ़ कर भी जैसे अपने आपमें परितृप्ति का अनुभव कर रही थी; वेदना स्वयं अपने ही मनोरंजन के लिए गुदगुदी बन गयी थी।

मन को आहट पहुँची। रस-भंग हुआ। मानस-हंस ने उड़ते-उड़ते में ही पंख समेट कर एक क्षण के लिए विश्राम पा लिया, गोया मंजिल पा लेने का छलावा-बहलावा कर लिया। जोड़े से लगी नागिन की तरह उसका क्रोध फुफकार उठा। मन में, जहाँ तसवीरों का लोक समाया था, अब केवल उस फुफकार का धुआँ ही शेष रह गया। श्यामा फिर भी हठपूर्वक स्थिर रही - जैसे खड़ी थी, खड़ी रही। उसने आहट से ही महसूस कर लिया कि मोतीराम आया है, चाय ले कर आया है। मोतीराम ने खिड़की के पास ही रखी हुई सिंगारदान की मेज पर चाय की ट्रे रख दी और एक नजर अपनी मिस साहब के कसे चेहरे पर डाल कर बाहर चला गया।

मोतीराम के कमरे से बाहर जाते ही श्यामा ने अपना पोज छोड़ दिया। सामने लॉन में बच्चे खेल रहे थे - बहुत देर से खेल रहे थे। उन्हें देख कर अनायास ही आँखों को, मन को तरावट मिली। इस समय वह हल्की रहना चाहती थी; मन से हल्की अनुभव कर रही थी, ताजगी महसूस कर रही थी। गुस्सा काफूर हो गया, एकान्त होते ही रस की लड़ियाँ फिर जुड़ गयीं। वह सुहाग-भरी महसूस कर रही थी। अपने नारीत्व को उचित और सार्थक महसूस कर रही थी। जैसे हस्बमामूल अपनी झक के जोम में तड़फते हुए वह यह महसूस करती है कि नारी के रूप में जन्म ले कर उसने बड़ा भारी अपराध किया है वैसा इस समय नहीं कर पा रही। सहारे के तौर पर पुरुष - और पुरुष के रूप में हेम - उसे इस समय झूठा सहारा नहीं लग रहा है। उसे हेम पर विश्वास है - बहुत खामोशी से - अपने गुपचुप मन में उसे विश्वास है। स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे का स्वाभाविक सहारा हैं। एक दिन हेम ने कहा था : 'मुझे भी तुम्हारा सहारा चाहिए... व्यक्ति को व्यक्ति के सहारे की आवश्यकता होती ही है।'

फूलों लदी बेल की तरह श्यामा इस समय अपने आधार से लिपटी हुई थी। वह जानबूझ कर खुशामदन, अधिक लाड़ दिखाती हुई लिपट रही थी। हेम की कल्पना के साथ वह इस समय अपने को छोटी-उम्र में आधी कम-महसूस कर रही थी। उस उम्र में पाये हुए प्रेम के पहले अनुभव की लगन-भरी तड़प के साथ आज की निष्ठा जुड़ती है। बल्कि हेम प्रौढ़ है और सच्चा सहारा है। हेम की गैर-मौजूदगी में, निपट एकान्त में, अपने मन में बसी हुई हेम की प्रतिमूर्ति के सामने जैसे वह मुक्त भाव से यह स्वीकार कर लेना चाहती थी कि मैंने तुम पर जो तोहमत लगायी है, शंकाएँ प्रकट की हैं, वे सब झूठी हैं। वह जैसे हेम को यह विश्वास दिलाना चाहती थी कि वह उसकी है। हेम पहचान क्यों नहीं लेता कि वह उसकी है - अन्ततः उसकी हो कर ही रहेगी।

शिकायत के कसक और मिठास भरे नशे ने शरीर को स्फूर्ति दी। नजर खिड़की से हट कर सामने चाय की ट्रे पर आ गयी। नजर मन के लोक से निकल कर बाहरी दुनिया की सतह पर आ गयी। श्यामा ने छोटी मेज पर चाय की ट्रे रख कर उसे चारपाई के पास खिसका लिया और पालथी मार कर बैठ गयी। चाय बनाते हुए उसका बड़ा जी चाहा कि हेम आ जाय। श्यामा अब फिर उसे अपने पास देखना चाहती है, हँसना-बोलना चाहती है, उसका सहारा बनना चाहती है। वह जाने क्या-क्या बनना चाहती है। सपने आने से पहले तकिये को गाल से दबा कर मन की गर्माहट, केवल एक इच्छा को न जाने कितने रूपों में झलका लेती है। संक्षेप में - उसे घर चाहिए।

घर की भूख श्यामा के उनतीस वर्ष और कुछ महीनों के जीवन में एक शाश्वत अभाव बन कर पनपी है। दुनियादारी के संघर्ष द्वारा कुचली गयी अपनी इस आदि माँग को ले कर अब वह एक शाश्वत हार भी स्वीकार कर चुकी है। यद्यपि उसका आशा-तत्त्व अभी भी प्रज्वलित है, परन्तु वह अपनी क्रोध और प्रतिहिंसा-भरी निराशा की भावना से उसे निस्तेज कर देना चाहती है। “मुझे घर नहीं मिला, न सही। अब मिलेगा भी तो उसे ग्रहण नहीं करूँगी।” श्यामा इन्सान के कुदरती अधिकार का बहिष्कार करना चाहती है। इसी को विद्रोह मानती है। उसके तर्क और विचार लपटों के झरने की तरह उतरते हैं। स्वभाव में भी झनझनाहट उतर आयी है, जिसके कारण मन की लघुता की नींद हराम हो उठी है। होश की शुरुआत से उसे अपने घर के साथ जिस सम्बन्ध का ध्यान आता है वह डर और नफरत का है। सात-आठ बरस की हो जाने तक भी माँ कभी उससे सीधे बोल नहीं बोली : “भाई खा गयी, बाप खा गयी, वह राँड़ पत्थर की बटिया मेरी कोख में बैठ गयी, आते ही मेरा कपाल फोड़ा निगोड़ी ने।”

पिता की मृत्यु के एक महीने बाद श्यामा ने जन्म पाया। अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थी। पहलौठी का भाई हुआ था जो आठ महीने का हो कर जाता रहा। शादी के चौथे बरस में विधवा माँ की पीड़ा बढ़ाती हुई वह धरती पर आयी। जनमते ही, लड़की आने की खबर पाते ही माँ ने मुँह फेर लिया। पड़ोस के रामाधार महाराज की घरवाली ने तरस खा कर उसे पाल लिया - अपनी गोदी के बच्चे का दूध बाँट कर।

रामाधार महाराज की छत पर अकेली बैठ कर श्यामा कभी-कभी सोचा करती थी कि उसने माँ का बहुत बड़ा अपराध किया है। वह चाहती थी कि माँ उसे मारे।

इसके साथ ही श्यामा को इस बात का बड़ा दुःख होता था कि वह लड़का क्यों नहीं हुई। महाराजिन अम्मा ने जब से उसे यह बतलाया कि वह भगवान की मर्जी से ही लड़की हुई है, तब से भगवान को पीटने की उसकी बड़ी तबीयत होती थी। लेकिन महाराजिन अम्मा ने उसे यह भी समझाया कि कि ये पीतल और पत्थर के ठाकुर ही सारी दुनिया के, तमाम लोगों के, सूरज-चाँद और तारों, सबके-त्रिलोक के मालिक हैं, इन्हें कोई नहीं जीत सकता; बल्कि इन्हें नाराज करने से मनुष्य का बहुत बड़ा अकल्याण भी हो सकता है। तब से श्यामा जाहिरा तौर पर ईश्वर से डरती है और दिल-ही-दिल में सख्त नफरत भी करती है। हठ के साथ वह इस बात को अस्वीकार भी करना चाहती है कि ईश्वर अन्तर्यामी है। वह ईश्वर का अन्तर्यामी होना - किसी का उसके मन की थाह पा लेना - हरगिज पसन्द नहीं करती। वह रहस्यमयी बनी रहना चाहती है। उसे बड़ा सन्तोष होता है जब कोई व्यक्ति - स्त्री या पुरुष - उससे यह कहता है - समझ में नहीं आता श्यामा कि तुम क्या हो? - वह अपने कठोरतम या कोमलतम स्वरूप को, जो क्रमशः या साथ-ही-साथ उपचेतन के झकोरों से विवश हो कर फूटता है, इसी रहस्य के तार में एक साथ गूँथ कर अपने को पहेली - महान पहेली - के रूप में प्रदर्शित करना पसन्द करती है।

श्यामा का यह स्वभाव हो गया है कि परिचय के आरम्भ में वह अपने मन की मनोहरता का, अपने सरल स्वभाव का, सर्वस्व निछावर कर दूसरे को अपना बना लेती है। जिससे जितनी दूर तक नाता जुड़ता है, श्यामा उस नाते में गहरा निजत्व भरती है। ...और फिर जिसके प्रति वह जितनी अधिक तन्मय होती है और उसके प्रति वह क्रमशः उतनी ही अधिक कठोर और शिकायत-भरी भी बन जाती है। अभाव रूपी बिच्छू का डंक खा कर मन की भाव-ऊर्मियाँ अपने विष को भी प्रियजन, प्रियतम के प्रति समर्पित करने लगती हैं - और वह भी मान के साथ।

...एक घूँट जो और लिया तो प्याले की तलछट से चार-पाँच चाय की पत्तियाँ भी मुँह में चली आयीं। श्यामा का मजा किरकिरा हो गया, मगर बुरा नहीं लगा। इस समय उसे कुछ भी बुरा नहीं लग रहा था। मन की कुंज-गलियों में वह जिधर भी भटक जाती है, उसे उसके श्याम मिलते हैं। हेम के ऊपर उसे इस समय बड़ा लाड़ आ रहा है। रीझने में भी अजीब नशा होता है, बर्फ के मैदान में फिसलते हुए चलने का नशा। श्यामा मदमाती हो रही है। मन की मोटरकार - हेम जैसी - हेम ही की कार मथुरा-वृन्दावन की सड़क पर दौड़ रही है। वह यात्रा, वह दिन, जिसके किसी भी क्षण में किसी प्रकार का अभाव नहीं था, इस समय भी अपनी स्मृति से स्फूर्ति देने लगी। सेवाकुंज जाते समय रास्ते की गली में एक मस्त बूढ़ा दुकान के चबूतरे पर बैठा हाथ बढ़ा-बढ़ा कर बड़े रस के साथ गा रहा था :

“मैं गोरी मेरौ कारौ री कन्हैया -

कारौ री कन्हैया मतवारौ री कन्हैया...”

गोरी श्यामा की नजरें चलती सड़क पर यही गा उठी थीं। हेम की आँखों में आधी हुई लौ चमक उठी थी।

श्यामा गुनगुनाती और चुटकी देती हुई उठी। मेज को उसकी जगह पर रक्खा। एक बार कमरे में चारों ओर मस्ती से भटक गयी। दूर से रेडियो के गीत ने आकर्षित किया। श्यामा उठी और अपना सैट खोल दिया। गीत आने के इन्तजार में वह चुटकी से ताल देती रही, अपने गीत का खामोश मजा लेती रही - “मैं गोरी मेरौ कारौ री कन्हैया...”

रेडियो का कंठ खुला। आवाज पहचानी हुई लगी। गीत भी पहचाना हुआ है, पन्त का है - “बाँध दिये क्यों प्राण प्राणों से!” आवाज की पहचान जितनी गहरी होती जा रही है गीत उसके मन में उतना ही उबलता जा रहा है। मन ने फिर खोखलापन महसूस किया, जलन उमगती गयी। आवाज केतकी की है। रमानाथ ने आखिर उसे कंट्रैक्ट दिलवा ही दिया। मगर इतनी जल्दी कैसे? अभी उसी दिन तो उसका ऑडीशन हुआ था। श्यामा लिस्नर के पन्ने उलटने लगी। साढ़े नौ पर तो कोई पुष्पादेवी गाने वाली थीं। एवजी का प्रोग्राम मिला होगा। एवजी का प्रोग्राम - श्यामा ने व्यंग्य में सोचा। केतकी की सारी सफलता उसकी नजरों में छोटी हो गयी। केतकी छोटी चीज से ही सन्तुष्ट हो सकती है। श्यामा ने कभी रमानाथ की इस खुशामदाना टेकनिक को अपनी तरफ ज्यादा बढ़ावा नहीं दिया। केतकी को तो यही सब सुहाता है। इसीलिए वह पापुलर है। ...अच्छा है भाई; जिसे जो रुचता है वही करता है। वह अच्छी तरह जानती है - हेम का स्वभाव इस हल्की मनोवृत्ति को ले कर सन्तुष्ट नहीं हो सकता। वह जानती है - हेम उसी का है। बस, उसे तो हेम ही चाहिए, बाकी सारी दुनिया अच्छी रहे, खुशहाल रहे। केतकी भी खुशहाल रहे। उसे केतकी से अब कोई शिकायत नहीं है। उसकी और केतकी की कोई समानता नहीं है। वह केतकी से कहीं ज्यादा अच्छा गाती है। उसे अपना गीत सिर्फ हेम को ही सुनाना है। केतकी रमानाथ को ले कर आलम के सामने आएँ - शौक से आएँ। वह केतकी से अपने मन का मैल साफ कर लेगी। इससे हेम पर भी अच्छा असर पड़ेगा। तब वह आज क्यों न मिल ले? कल शाम रमानाथ के घर अल्ताफ हुसैन भी मिले थे। कल शाम उसने गाया भी था, अपनी बातों से उन दो पुरुषों की मजलिस को बाँधा भी था। उस पार्टी, सिनेमा, और हिस्टीरिया की रात में उसने अल्ताफ आदि के सामने बेबसी की हालत में अपना जो गलत परिचय दिया था, उसे कल शाम उसने उत्साह के साथ सुधारने की तत्परता भी दिखायी थी। अल्ताफ प्रभावित हो कर गया था। और रमानाथ पर जो प्रभाव पड़ा... खैर हटाओ। अल्ताफ ने बातों के प्रसंग में केतकी से आज शाम मिलने की बात कही थी। शायद रेडियो स्टेशन में ही मिलने की बात ठहरी हो। अल्ताफ आज लखनऊ जा रहे हैं। उनके मौजूद रहते वह केतकी से अधिक खुल कर मिल सकेगी।

श्यामा ने तय किया कि वह इसी समय रेडियो स्टेशन पर केतकी से मिलने जाएगी। ...लेकिन उसे पुरानी दिल्ली तो जाना है। जौहरी के यहाँ से मोती की बंगड़ियाँ लानी हैं। आज इसी समय का वायदा है। ...खैर, लौट कर चली जाएगी। रुपये साथ ले जाएगी।

रेडियो स्टेशन पर रमानाथ मिला। वह अपने प्रोग्राम के लिए जा ही रहा था। दोनों एक-दूसरे को देख कर ठिठके, ताजा रिश्ता ढूँढ़ने लगे और सभ्य परिचित की तरह मिले। रमानाथ ने बतलाया कि केतकी अल्ताफ को स्टेशन पहुँचाने गयी है।

श्यामा स्टेशन चल दी। रास्ते में ताँगा छोड़ कर टैक्सी ले ली।

भीड़, पुल, प्लेटफार्म, सौदागर, मुसाफिर चहल-पहल, हेम! चमत्कार की तरह उसकी नजरों के सामने हेम खड़ा था। अपनी चौड़ी उभरी छाती लिये आत्म-विश्वास के प्रतीक जैसा हेम सहसा उसकी बाँह रोक कर खड़ा हो गया।

श्यामा की आँखों में बेसाख्ता पुलक बरस पड़ी। हेम की नजरों ने भी उसका आकर्षण खींचा।

“कहाँ जा रही हो?”

उसकी इच्छा हुई - तीव्र इच्छा हुई कि काश! वह हेम को रिसीव करने आयी होती। उसे तकलीफ हुई जैसे वह एक बहुत सुनहला अवसर चूक गयी। श्यामा ने उड़ते हुए स्वर में कहा, “मिस्टर अल्ताफ हुसैन आज जा रहे हैं। उन्हीं को... बाई द वे... तुम कहाँ चले गये थे?”

“दौरे पर” - श्यामा को और लगा कि उसका एक सपना टूटा। वह इतने दिनों तक समझे बैठी थी कि हेम उससे रूठ कर, दिल में ठेस खा कर चला गया है। वह अपने नायक से इसी की आशा करती थी, इसी पर रीझ रही थी।

श्यामा उदास हो गयी।

“कितनी देर में घर पहुँच जाओगी?” - जैसे हेम इस समय उसके साथ-साथ अल्ताफ हुसैन को सी ऑफ करने नहीं चलेगा। उसे बुरा लगा, इच्छा रहने पर भी उसने हेम से अपने साथ चलने का आग्रह न किया।

“आ जाऊँगी घंटे भर में।” श्यामा ने उड़ता हुआ जवाब दे दिया, “अच्छा, तो, चलती हूँ।”

हेम ने जरा भी नहीं रोका। श्यामा उदास मन से आगे बढ़ी।

प्लेटफार्म नम्बर आठ पर लखनऊ की गाड़ी खड़ी थी। श्यामा खोयी हुई आँखों से कम्पार्टमेंटों को देखती चली।

“श्यामा! श्यामा जी!”

केतकी की आवाज आयी। एक सेकंड क्लास कम्पार्टमेण्ट से केतकी हाथ निकाल कर उसे बुला रही थी। पास ही अल्ताफ बैठा था। श्यामा अन्दर चली गयी।

“आप यहाँ कैसे?” अल्ताफ हुसैन ने पूछा।

श्यामा झोंक में कह गयी, “इसी गाड़ी से जा रही हूँ।”