बारह दिन / अशोक अग्रवाल

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पसीने से लथपथ बुढ़िया के चेहरे पर उमंग थी। छोटी-सी पोटली को बगल में दबाए वह एक-एक दृश्य को कभी विस्मय तो कभी भय के साथ अपने भीतर समेट रही थी। बूढ़ा उससे सिर्फ एक हाथ आगे चल रहा था। बुढ़िया बीच-बीच में बूढ़े की उपस्थिति को भूलते किसी अजूबे में खो जाती तो एक हाथ का फासला कई हाथ लम्बा हो जाता। बूढ़ा रुक जाता और उस वक्त तक ठहरा रहता जब तक वह फासला फिर से एक हाथ का न रह जाता। बुढ़िया पास आई तो बूढ़े ने सड़क के दूसरी तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘यह घंटाघर है। यहाँ से कोठी का रास्ता थोड़ी देर का है।’

‘क्या टैम हुआ है?’ बूढ़े ने पास गुजरते आदमी से पूछा।

आदमी हड़बड़ी और तेजी में था। उसने बूढ़े की तरफ देखा भी नहीं।

बूढ़ा गौर से घण्टाघर की घड़ी की बड़ी-बड़ी सूइयों की ओर देखने लगा। बुढ़िया उसके पास आकर खड़ी हो गई। वह भी बिना कुछ समझे उसी दिशा में ताकने लगी।

‘क्या टैम हुआ है?’ बूढ़े ने इस बार तनिक तेज आवाज में पूछा।

‘सवा एक।’ आदमी ने बिना घंटाघर की तरफ देखे एक झटके में उत्तर दिया और सड़क पार करने लगा।

बूढ़ा निराश हो आया। उसकी इच्छा थी कि आदमी ठहरकर इत्मीनान से सुईयों को देख उसे वक्त बताता। उन दोनों के अलावा किसी के पास भी इतनी फुरसत नहीं थी।

उन्हें सड़क पार करनी थी। बूढ़े ने झिझकते हुए बुढ़िया का हाथ पकड़ा और तेजी से दौड़ते रिक्शों के बीच रास्ता बनाने लगा। दूसरी तरफ पहुँच दोनों ने राहत की साँस ली।

बुढ़िया फिर पीछे छूट गई। धूप तीखी हो आई थी। गला सूखने लगा। उसने चारों तरफ आँखें घुमाई।

वह उधर बढ़ चली जहाँ तीन-चार आदमी काँच के गिलास में पानी पी रहे थे। उसने देखा एक भारी भरकम टीन का बक्सा था जिसमें एक नलकी लगी थी। एक बारह-तेरह साल का लड़का उस नलकी को तेजी से खींचता और उसके नीचे रखा काँच का गिलास तुरत-फुरत पानी से लबालब भर जाता।

बुढ़िया पास जाकर खड़ी हो गई। लड़के ने एक बार घूरकर उनकी तरफ देखा और फिर से एक गिलास उसकी तरफ बढ़ा दिया। बुढ़िया की प्यास पूरे चार गिलास पानी के बाद बुझी।

बुढ़िया ठीक तरह से मुड़ी भी नहीं थी कि लड़के की तेज आवाज उसके कान से टकराई, ‘चालीस पैसे निकालो।’

बुढ़िया सहम गई और अवाक् उसकी तरफ देखने लगी।

‘हाँ...हाँ...चालीस पैसे। क्या इसे खैराती प्याऊ समझ लिया था?’ लड़के ने तेज आवाज में उसे डपटा।

बुढ़िया ने देखा इस बीच बूढ़ा काफी आगे निकल चुका था। वह उसे किसी भी प्रकार आवाज नहीं लगा सकती थी। वह भय से घिर उठी जैसे उसे किसी ने चोरी करते रँगे हाथ पकड़ लिया था। उसने धीरे से पल्लू की गाँठ खोली और अठन्नी लड़के की तरफ बढ़ा दी। लड़के ने दस का सिक्का उसकी तरफ खिसकाया और नए आदमी के लिए पानी भरने लगा।

बूढ़े की सिर्फ एक झलक-सी दिखाई दे रही थी। बुढ़िया लगभग दौड़ते हुए हाँफती हुई उसके पास पहुँची।

‘पीछे कहाँ छूट गई थी? मैं कब से यहाँ खड़ा हूँ?’ बूढ़ा कुछ-कुछ गुस्से में बोला।

इस बार दोनों ने साथ-साथ चलना तय किया।

‘वह रही कोठी...’ बूढ़े ने हुलसकर दूर इशारा किया, ‘दोपहरी वहीं काटेंगे। सूरज के ढीला पड़ते ही निकल लेंगे।’

बुढ़िया रुककर उस दिशा में देखने लगी, लेकिन वह उलझन में पड़ गई कि बूढ़े ने इशारा किस तरफ किया था। वहाँ एक नहीं, कई इमारतें थीं जो एक सीधी पंक्ति में दूर-दूर तक फैली थीं। रंग-बिरंगी और चमकती हुई। सभी इमारतों के आगे लोहे के बड़े-बड़े दरवाजे लगे थे और उनके भीतर छोटी-बड़ी मोटरें खड़ी थीं। उसने बूढ़े के मुँह से पिछले तीन साल में कोठी का भूगोल इतनी बार सुना था कि वह आँखें बंद कर चाहरदीवारी के रंग, कमरों के आकार-प्रकार, घास काटने वाली मशीन, मोटरकार, टेलीफोन, ठण्डी मशीन और फूल पौधों के बारे में ही नहीं, धूप-छाँह और सूरज के उन रंगों के बारे में भी बता सकती थी जो सिर्फ उसी एक इमारत को रचते थे। जहाँ बूढ़े ने अपनी जिन्दगी का एक छोटा-सा हिस्सा व्यतीत किया था। ‘तुम्हें एक बार वहाँ जरूर ले चलूँगा’, बूढ़ा अक्सर बुढ़िया से कहता और वह सपनों में डूब जाती। उसे लगता वह बूढ़े के साथ हरी घास पर घूम रही है... नन्हें को अपनी गोद में समेटे लोरियाँ सुना रही है।

आखिरकार वह दिन आया जब बूढ़े ने बुढ़िया को शहर घुमाना तय किया। पूरी जिन्दगी उसकी इसी गाँव में गुजर गई थी और मात्रा पाँच-छह कोस की दूरी होने के बावजूद उसने आज तक शहर नहीं देखा था। दो दिन पहले से उसने तैयारी शुरू की। नन्हें के लिए बेसन के लड्डू तैयार किए। लड्डुओं को पीतल के पुराने कटोरदान में भरकर छिपा दिया। लड्डू सिर्फ नन्हें के लिए थे।, उन्हें बूढ़ा भी नहीं छू सकता था। जंग खाई सन्दूकची में रखी अपनी लाल गोटे वाली साड़ी को तहा-तहाकर अंगुलियों से उसकी सलवटों को दूर किया, उसमें जगह-जगह छेद हो चुके थे लेकिन उसका प्रयोग उसने जिन्दगी के इने-गिने मौकों पर ही किया होगा। भोर होने से बहुत पहले उसने रोटियाँ सेंकी। प्याज की गाँठें, नमक का अचार अलग से बाँधकर उन्हें भी पोटली में सहेजा। बूढ़े की जब आँखें खुली तो बुढ़िया का सजा-धजा देख उसकी आँखें फैल गईं। बूढ़े को एकटक अपनी तरफ देखते पा बुढ़िया नई दुल्हन की तरह शरमा गई।

बूढ़ा गेट के पास पहुँच रुक गया। गेट के भीतर की तरफ दीवार से सटे अमरूद के पेड़ की ओर देखता रहा, फिर बुढ़िया को बताते उमंग से बोला, ‘जब यहाँ से गया था तो यह पेड़ आधी दीवार तक ही पहुँचता था, अब तो दीवार भी चार बालिश्त लाँघ गया।’ बुढ़िया ने देखा ऊपर की डालियों पर कच्चे हरे अमरूद लटक रहे थे।

बूढ़ा हिचकता-सा खड़ा रहा। गेट बन्द था। वह अन्दर प्रवेश करने के बारे में कुछ भी निर्णय नहीं ले पा रहा था। देर तक वह उसके अपने आप ही खुल जाने की प्रतीक्षा करता रहा। उसे अन्दर झाँकने पर भी कोई दिखाई नहीं दिया। गेट की साँकल को खोलते उसने बुढ़िया को अपने पीछे आने का इशारा किया।

पूरी कोठी निस्तब्धता में डूबी थी। बूढ़े की जूतियों के नीचे बजरी के लाल दाने कर्र-कर्र की आवाज करने लगे। बूढ़ा मुख्य पगडण्डी को पार करता बरामदे की सीढ़ियों पर रुक गया। बुढ़िया धीमी चाल से आँख की पुतलियों को चारों तरफ घुमाती पीछे-पीछे आ रही थी। बुढ़े के चेहरे पर बहता पसीना चिप-चिप कर रहा था। उसने कुरते की बाँह से पसीने को सुखाया।

‘लगता है सब आराम कर रहे हैं’, बुढ़िया की तरफ देखते मुस्कराने लगा, ‘हम गलत टैम आए हैं, इस लू में कोई बाहर निकलेगा?’

बुढ़िया के पैर यहाँ तक आते-आते पूरी तरह जवाब दे चुके थे। उसका मन हो रहा था वह धम्म से वहीं सीढ़ियों पर बैठ जाए, लेकिन उसी तरह बूढ़े की तरफ देखती हुई खड़ी रही।

‘कौन है... कौन है...’, तभी तेज आवाज में हाँक-सी लगाता एक आदमी वहाँ चला आया। उसके हाथ में पानी से भरी बाल्टी थी। वह माली था।

‘मैं... मैं... हरिया’, बूढ़े ने कहने की कोशिश की।

‘बिना पूछे गेट खोल क्यों चले आए?’ माली ने उन दोनों की तरफ देखते तेज और भारी आवाज में डपटा।

बूढ़ा हड़बड़ा गया। उसने ऐसी आशा नहीं की थी।

‘मैंने यहाँ काम किया है।’ बूढ़े ने उसे समझाने की कोशिश की, ‘इसे कोठी दिखाने लाया था।’ बूढ़े ने बुढ़िया की तरफ इशारा किया जो माली की डपट से सहम गई थी।

‘पेड़ के नीचे बैठ जाओ। अभी सब आराम कर रहे हैं।’ वह पानी से भरी बाल्टी को हाथ में उठाए गमलों की तरफ बढ़ गया। बुढ़िया ने राहत की साँस ली और पेड़ की तरफ मुड़ ली। बूढ़े ने सफाई दी, ‘यह नया आदमी है। पहचानता नहीं। किसी गैर को भीतर कैसे आने देगा?’

दोनों पैर फैला आराम से छाँव में पसर गए। बुढ़िया ने सूरज को ताका और फिर पोटली की तरफ देखते बोली ‘अढाई बज रहे होंगे। तुम रोटी खा लो।’

बूढ़े ने हाँ में गर्दन हिलाई। बुढ़िया ने पोटली खोल रोटियाँ, अचार और प्याज की दो गाँठें बूढ़े को पकड़ाईं। बूढ़ा चुपचाप अकेला खाने में जुट गया।

‘मैं पानी लेकर आती हूँ’, बुढ़िया लोटे को लेकर उठ खड़ी हुई। बूढ़े ने हाथ के इशारे से उसे नल दिखाया। बुढ़िया बगीचे के किनारे नल तक पहुँची ही थी कि उसे माली अपनी तरफ दौड़ लगाता दिखाई दिया। वह सहम कर पीछे हट गई।

‘दिखाई नहीं देता? चबूतरे का प्लास्टर अभी गीला है।’ माली ने बुढ़िया के हाथ से लोटे को पकड़ा और पाइप से उसमें पानी भर दिया।

बुढ़िया के वापस लौटने तक बूढ़ा अपने हिस्से की रोटियाँ खा चुका था।

‘तू भी खा ले।’ बूढ़े ने लोटे को हाथ में पकड़ते बची हुई रोटियाँ बुढ़िया के हाथों में थमा दीं।

बूढ़े ने एक डकार ली और कुहनियों को जमीन से टिकाते अधलेटा हो आया।

‘खाकर तनिक तू भी सुस्ता ले’, बूढ़े की आँखें बोझिल होते बन्द होने लगी थीं।

बूढ़ा बहुत जल्दी नींद में डूब गया। सूरज के ताप से आँखों को बचाते उसने अपनी बाँह से चेहरे को ढक लिया था। बुढ़िया की आँखों में नींद नहीं थी। उसके पूरे शरीर में थरथराहट हो रही थी। वह उठकर इस कोठी के एक-एक कोने में घूम जाना चाहती थी। चारदीवारी, फूल, पत्ते, पेड़ और एक-एक वस्तु अपनी अँगुलियों से छूना चाहती थी घर के प्रत्येक प्राणी को भरपूर आँखों से देखना चाहती थी। नन्हे को अपने हाथ से बेसन के लड्डू खिलाना चाहती थी। वह उठने का प्रयास करती कि उसकी दृष्टि दूर टहलते माली पर पड़ती और उसकी हिम्मत पस्त हो आती। बूढ़े की नाक धीरे-धीरे बजने लगी थी।

बुढ़िया बैठे-बैठे ही झपकियाँ लेने लगी थी कि माली के पैरों की आवाज सुनाई दी। माली ने बरामदे की तरफ इशारा किया जहाँ एक और खड़ी उन्हीं की ओर देख रही थी।

बुढ़िया ने बूढ़े की ढीली पड़ी देह को हाथ से झकझोरा। बूढ़ा अचकचाकर उठ बैठा। बुढ़िया धीरे से फुसफुसाई तो बूढ़े ने गर्दन घुमाते बरामदे की तरफ देखा।

‘बहुजी लगे हैं। चल उठ...’, कहता बूढ़ा तुरत-फुरत उठ खड़ा हुआ। माली की ओर तन्नाई आँखों से देखते वह बरामदे की तरफ चल दिया। बुढ़िया फासला बनाए उसके पीछे चलने लगी।

बूढ़े ने दूरी से हाथ जोड़े। बरामदे में खड़ी महिला ने धीरे से गर्दन हिलाई। वह जैसे कुछ पहचानने की कोशिश कर रही थी, लेकिन कुछ भी तय नहीं कर पा रही थी।

‘मैं... हरिया।’ बूढ़े ने उत्साह से कहा। बुढ़िया उसके पीछे पहुँच खड़ी हो गई थी।

महिला अभी भी उलझन में घिरी थी। उसे कुछ स्मरण नहीं आ रहा था।

‘मिन्नी बिटिया कैसी है? कोई बाल-बच्चा?’ बूढ़ा जैसे उनकी स्मृति को खंगालते पीछे ले जाने की कोशिश कर रहा था, ‘नन्हा कैसा है?... बाबूजी?’ महिला की स्मृति ने अब बूढ़े के धुँधलाते चेहरे को पकड़ लिया था। वह विस्मय से उसकी तरफ देखने लगी, ‘अरे तुम! कैसे...? यह...?’ उसने बुढ़िया की तरफ इशारा किया।

बूढ़ा शरमा गया, ‘इसे शहर लाया था। आपके हालचाल मालूम करने चले आए।’

बूढ़ा सहसा खामोश हो गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे! उसका सारा शब्दकोष अचानक खाली हो आया। बुढ़िया पहले की तरह उसके पीछे खड़ी एकटक महिला की तरफ देख रही थी।

तभी दरवाजा खुलने की आवाज हुई। बूढ़े ने देखा गाउन पहने बाबूजी बाहर निकल रहे हैं। उसने हाथ जोड़े।

‘पहचानो यह कौन है?’ महिला मुस्कराई और बूढ़े की तरफ इशारा करते पुरूष की तरफ देखने लगी। उसके हाथ जैसे कोई मनोरंजक खेल चला आया था।

पुरुष महिला के पास आकर ठहर गया और बूढ़े की ओर देखने लगा।

‘आप भी नहीं पहचान सके?’ महिला हँसी, ‘यह हरिया है। अपनी घरवाली को शहर घुमाने लाया है।’

‘कौन हरिया...?’ पुरुष अभी भी कुछ नहीं समझ पा रहा था, लेकिन उसके शब्द सुनते ही बूढ़ा स्तब्ध रह गया। वह जैसे अपने ही सुने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।

‘हरिया... वही जिसने मिन्नी के विवाह में कुछ दिन हमारे यहाँ काम किया था।’ कहने के साथ महिला खुलकर हँसी।

पुरुष अकबकाया-सा महिला की तरफ देखने लगा। वह समझ नहीं पाया कि उसमें ऐसे हँसने की कौन-सी बात छिपी है। उसने एक बार लापरवाही से बूढ़े की तरफ देखा और वापस मुड़ते हुए बोला, ‘चार बजने वाले हैं। मैं तैयार हो रहा हूँ।’

बूढ़े को अचानक कुछ स्मरण आया और उसे बातचीत का खोया सूत्रा वापस मिल गया।

‘नन्हे... कैसा है?’ बूढ़े ने उत्साह से पूछा। बुढ़िया भी नन्हें का नाम सुनते ही पास खिसक आई।

‘नन्हे...?’ महिला जैसे एक बार फिर किसी अज्ञात पहेली में उलझ गई थी, ‘तुम विक्कू को पूछ रहे हो...। विक्कू अभी स्कूल से लौटा नहीं है।’

‘नन्हे अब स्कूल जाने लगा है।’ बूढ़े ने बुढ़िया की तरफ देखते हुए कहा जिसके हाथ में पीतल का कटोरदान चमक रहा था। बूढ़े ने कटोरदान अपने हाथ में लिया और महिला की तरफ बढ़ाया। महिला प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी तरफ देखने लगी।

‘बेसन के लड्डू हैं। इसने नन्हें के लिए बनाए हैं।’ बूढ़े ने कटोरदान का ढक्कन खोला।

महिला अपने आपको तिलिस्म में फँसा पाने लगी। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि इन लड्डुओं का वह क्या करेगी? पीछे हटते उसने धीमी और मीठी आवाज में कहा, ‘विक्कू को मीठा बिल्कुल पसंद नहीं है। वह इन्हें छुएगा भी नहीं।’ बूढ़े के दोबारा कहने से पहले ही उसने माली को आवाज देते पास बुलाया और आदेश दिया, ‘अन्दर जाकर महाराज से कहो कि कुछ रोटियाँ ले आए। सब्जी न बची हो तो अचार ले आएगा। मिठाई और केले भी।’ पीछे मुड़ते महिला ने बूढ़े से कहा, ‘हमें अभी बाहर जाना है। तुम दोनों आराम से खाने के बाद जाना।’

महिला अन्दर चली गई। बूढ़े के हाथ में खुला कटोरदान था। उसने उसे बुढ़िया की तरफ बढ़ाया और थकी आवाज में बोला, ‘हमें निकल चलना चाहिए। लौटने तक खूब अँधेरा हो जाएगा।’

दोनों कुछ क्षण ऐसे ही खड़े रहे। बूढ़ा फीकी हँसी हँसा, ‘तीन साल बहुत होते हैं। नन्हें भी बड़ा हो गया होगा।’

दोनों गेट से बाहर निकल आए। बूढ़ा पता नहीं क्यों बुढ़िया से आँखें चुरा रहा था, जबकि बुढ़िया नन्हें से न मिल सकने की चोट के बावजूद अपने में खुश थी। उसने उस जगह को छूकर देख लिया, जहाँ उसके बूढ़े ने अपनी जिन्दगी के बारह दिन गुजारे थे।