बालिका वधू-तन-मन दोनों से खिलवाड़ / संतोष श्रीवास्तव
यह किसी को भी असंभव लग सकता है कि कोई स्त्री अपने पचहत्तर साल के जीवन में 69 बच्चे पैदा करे। गिनीज बुक ऑफ रेकॉर्ड में किसी स्त्री द्वारा सर्वाधिक बच्चे पैदा करने का यही विश्व रेकॉर्ड एक रूसी महिला के नाम दर्ज है जो 1701 ई. से 1742 ई. तक जीवित रही। तीन शताब्दियों पहले दर्जनों बच्चे पैदा करना कोई बहुत ज़्यादा चौंकाने वाली बात नहीं रही होगी क्योंकि कुछ दशक पहले तक ही किसी स्त्री का आठ-दस बच्चे पैदा करना बहुत सामान्य बात मानी जाती थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के क्रांतिकारी, प्रगतिशील माहौल में पंद्रह वर्ष से भी कम उम्र की बालिका दो-दो बच्चों की माँ बन जाए या कोई चौबीस साल की महिला सात बच्चों की माँ हो तो सहज यकीन नहीं आएगा पर यह सत्य है। जनगणना के आंकड़े ऐसे तथ्यों से भरे हुए हैं। भारत में पंद्रह साल से कम उम्र की बालिका वधुओं की संख्या पंद्रह लाख है, जिनमें से तीन लाख एक-एक बच्चे की माँ भी बन चुकी हैं। जाहिर है आज भी समाज नाबालिग लड़कियों की शादी को अवैध मानने वाले कानून को कोई गंभीरता से नहीं लेता या शायद अशिक्षा के कारण भी कानून की सही जानकारी उन गांवों और पिछड़े इलाकों तक पहुँच नहीं पाई है जहाँ बाल विवाह आए दिन होते हैं लेकिन क्या यह कहकर इस कुरीति को जिंदा रखा जाए? शरीर शादी के योग्य है या नहीं? लड़की माँ बनने के योग्य है या नहीं ये बातें कानून तो सिखाएगा नहीं। यह सामान्य ज्ञान तो हर इंसान को है। दरअसल इस कुरीति की जड़ें भारतीय इतिहास में काले अक्षरों में भरी हुई हैं।
वैदिक काल से ही हमारे देश में नाबालिग कन्याओं के विवाह की प्रथा शुरू हो चुकी थी। कालांतर में इस प्रथा का और अधिक विद्रूप चेहरा देखने को मिलता है। नव जागरण काल तक कभी किसी ने इस परंपरा पर कोई सवाल तक नहीं उठाया। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय जैसे समाज सेवकों के प्रयासों के कारण भारतीय जनता में थोड़ी चेतना विकसित हुई और बाल विवाह पर सवाल उठने शुरू हुए। लेकिन डेढ़ शताब्दी की कोशिशों के बावजूद आज भी बाल विवाह बदस्तूर कायम है जिसका नतीजा है कि खेलने-कूदने की उम्र में बालिकाओं को बच्चों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। यह तथ्य भी कम घातक नहीं है कि छोटी-छोटी उम्र की लड़कियाँ औसतन पांच बच्चों की माँ हैं।
भारत और बांग्लादेश में बाल विवाह की समस्या बहुत अधिक गंभीर है और खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। बांग्लादेश में 75 प्रतिशत लड़कियों की शादी अठारह साल से कम उम्र में कर दी जाती है। भारत में यह दर 57 प्रतिशत है। कई लड़कियों की शादी तो आठ-नौ वर्ष की उम्र में ही कर दी जाती है। इसका मुख्य कारण गरीबी, अशिक्षा, लड़कियों के संग भेदभाव है।
नाबालिग लड़कियों का जैसे ही कद बढ़ना शुरू होता है माँ की चिन्ता बढ़ने लगती है और पिता के सिर पर मजबूरी, गरीबी का पहाड़ टूट पड़ता है। इस गरीबी, मुफलिसी, लाचारी का फायदा उठाते हैं अरब देशों के शेख जो उनकी बेटी से निकाह के बदले भारी रकम की पोटली थमा उन्हें चिंता से मुक्त कर देते हैं। उसके बाद वह बालिका न तो कभी अपने पिता के घर लौटती है, न उनसे कभी मिलती है। उस नन्हीं-सी जान के बेटी होने के गुनाह का तर्पण कर मां-बाप चैन की सांस लेते हैं। उनकी लाड़ली इन शेखों के हाथों किस नरक से गुजरती है शायद वह कल्पना भी नहीं कर पाते होंगे। अपरिपक्व शरीर के संग शेखों द्वारा यौन शोषण का सिलसिला चलता है। ऐसे में वे गर्भवती भी हो जाती है। कईयों की प्रसव के दौरान मृत्यु भी हो जाती है। मन भर जाने पर शेख उन्हें वेश्यालय में बेच देते हैं और शुरू होता है जीवनभर का तिरस्कृत, नारकीय जीवन। क्या कसूर था इन बच्चियों का जो अपने नाना, दादा कि उम्र के शेखों के हाथों ये बेची जाती हैं। असल सौदागर हैं-मां-बाप या गरीबी, जहालत जो उनसे ये जुर्म करवाती है।
बाल विवाह कच्ची उम्र की लड़कियों के लिए स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक तो है ही साथ ही यह कई दूसरे अपराधों कुरीतियों को भी जन्म देता है। लड़कियों का मानसिक विकास सही उम्र में नहीं हो पाता। गुड्डा गुड़िया खेलने की उम्र में वे सेक्स से परिचित हो जाती है। शरीर और मन दोनों ही उसके लिए तैयार नहीं होते। अत: उनके मन में सेक्स के प्रति वितृष्णा, कुंठा और डर समा जाता है। जो सारी उम्र के लिए उन्हें सेक्स फोबिया जैसा रोग थमा देता है।
भारत के राजस्थान, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में बाल विवाह सामूहिक रूप से संपन्न होते हैं। न तो उन्हें कानून का डर है, न अपने बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता। आधुनिक युग में जबकि बेटी को पढ़ा लिखाकर इस योग्य बनाना चाहिए कि वे स्वावलंबी हों, ये अपनी बेटियों को देते हैं-असमय का मातृत्व, मानसिक रोग, अस्वस्थ ज़िन्दगी और मुंह बाए भविष्य।
इस दिशा में प्रयासरत सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं के प्रचार-प्रसार से परिवर्तन की जो लहर आई हैं उसमें खुद लड़कियाँ सचेत हुई हैं। बैतूल (मध्य प्रदेश) के काजी जामठी ग्राम की बालिका ललिता मर्सकोले ने स्वयं अपने विवाह को रुकवाया। उसकी उम्र चौदह वर्ष थी और वह खुद कलेक्टर के पास जाकर अपनी शिकायत दर्ज कराकर आई कि वह नाबालिग है और उसके माता-पिता उसका विवाह तय कर चुके हैं। उसने विवाह की तिथि भी लिखवाई। घर में निश्चित तिथि पर धूमधाम से जब बारात दरवाजे पर आई तो पुलिस इंस्पेक्टर ने मौके पर पहुँचकर शादी रुकवाई और पिता पर कानून तोड़ने का जुर्म साबित किया। ललिता समाज में व्याप्त कुरीतियों से लड़ने की मिसाल बन गई। अक्सर लड़कियाँ अपने ही माता-पिता को कानून के दायरे में समेटने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। यही वजह है कि वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहते-सहते एक बड़ी बुराई की जड़ बन जाती है।
एक ओर जोर-शोर से यह दावा किया जाता है कि भारत पिछड़ा देश है और अमेरिका सबसे अधिक विकसित राष्ट्र है। लेकिन विडम्बना यह है कि वहाँ बाल विवाह तो नहीं पर नाबालिग मातृत्व के उदाहरण सामने आ रहे हैं। न्यूयार्क के ग्लूसेस्टर के एक हाई स्कूल में पढ़ने वाली सत्रह किशोरियों ने जिनकी उम्र चौदह-पंद्रह साल के बीच की थी एक साथ माँ बनने का फैसला किया... वह भी कुंवारी मां। ये सभी गर्भवती छात्राएँ बच्चे को जन्म देने और उसका पालन-पोषण स्वयं करने की जिम्मेदारी ले रही हैं। इस बात को लेकर कैथोलिक समुदाय की नींद उड़ गई है। स्कूल के अधीक्षक का कहना है कि आज की नौजवान पीढ़ी दिशाहीन हो रही है। उसमें अच्छे बुरे को समझने की सोच विकसित ही नहीं हो रही है। वह एक जुनून में जीती है और किसी की नहीं सुनती। लेकिन क्या यह कथन शत-प्रतिशत सही है। इसी पीढ़ी की परदादियों, परनानियों ने जो कुछ सहा वह इन्होंने सुना, देखा और समझा। इस युवा पीढ़ी ने सुना कि सदियों से औरत उपेक्षित और शोषित है। आज भी तमाम घोषणाओं के बावजूद स्त्री-पुरुष अशमानता कि खाई ज्यों की त्यों है। शिक्षा के तूफानी प्रचारृप्रसार के बावजूद दुनियाभर में 66 प्रतिशत महिलाएँ अशिक्षित हैं। स्वास्थ्य सेवाएँ अभी उनकी पहुँच से कोसों दूर हैं और गर्भावस्था में जुड़े कारणों से हर साल छह लाख औरतें असमय काल कवलित हो जाती हैं। अस्सी लाख औरतें अपंगता कि शिकार हो जाती हैं। सख्त कानून की अवहेलना होती है और तमाम कुरीतियाँ बरकरार रहती हैं।
पिछले पच्चीस वर्षों में लगातार हो रहे विश्व महिला सम्मेलनों में बार-बार यही मुद्दा उठाया जाता है कि बाल विवाह पर रोक लगे पर फिर भी धड़ल्ले से नन्ही-नन्ही बच्चियों की मांग भरी जा रही है। समाज दोमुंही नीति को मानता है। जब स्थिति अपने पक्ष में होती है तो कानून से मुंह फेर लेता है और जब स्थिति प्रतिकूल होती है तो कानून का सहारा लेता है। दशकों पहले 1906 में इंग्लैंड में एक अंग्रेज महिला ने कहा था कि 'मैं ऐसे किसी कानून का पालन नहीं करूंगी जिसके निर्माण में मेरा कोई हाथ न हो, न ही ऐसे कानूनों को क्रियान्वित करने वाले न्यायालयों की सत्ता स्वीकार करूंगी।' इस घटना के सौ वर्ष बाद न्यूयार्क के ग्लूसेस्टर के हाईस्कूल में पढ़ने वाली उन सत्रह किशोरियों ने कुंवारी माँ बनने का निर्णय लिया और कैथोलिक समुदाय लड़खड़ा उठा।
विवाह चाहे नाबालिग कन्या का हो या बालिग सदियों से समाज जिस विभीषिका से गुजर रहा है वह है दहेज। दूरदर्शन से एक कार्यक्रम काफी पहले प्रसारित हुआ था 'स्त्री धन या निर्धन' जिसमें अनेक वक्ताओं ने दहेज हत्याओं और भुक्तभोगी कन्याओं का हवाला देकर इन्हें एक गंभीर विषय के रूप में उभारा था और युवाओं से अपील की थी कि वे ये प्रण कर लें कि न वे दहेज लेंगे और न माता-पिता को लेने देंगे लेकिन फिर भी दहेज एक नासूर बनकर समाज में लगातार फैल रहा है।