बाही / रोज केरकेट्टा
दोपहर पहर होने को थी। खाद ढोकर लौट रहे थे। यह अंतिम खेप थी। अब वे थोड़ी देर सुस्ताकर स्नान करेंगी। फिर घर जाकर कलेवा करेंगी। कुछ देर आराम करने के बाद तीन-साढ़े तीन बजे फिर खाद ढोने निकलेंगी। वे सुस्ताने के लिए पगड़ बूढ़ा की बारी के किनारे गईं। वहाँ बड़ा सा जामुन का पेड़ था। फल पकने लगा था। दूर से ही उन्हें बाही की आवाज सुनाई दे रही थी। वह पेड़ की चोटी पर चढ़ी हुई थी। चुन-चुनकर पके फल खा रही थी, इसलिए चहक भी रही थी। नीचे उसकी दीदी सोमारी गेंडूडांग से पके फल चुन-चुनकर तोड़ रही थी।
मरियम बाही की आवाज सुनकर पेड़ के नीचे से बोली, 'हमारे लिए भी हिला दो न बाही, चुनकर खाएँगे।'
बाही, 'तुम लोग भी चढ़ो और खाओ न मामी (फूफू), तुम लोगों का भी तो हाथ-पैर है।'
मरियम, 'ओहरे बाही, हिला दो कह रही हूँ तो मुझे ही पेड़ चढ़ने को कह रही है!'
बाही, 'हाँ तो मामी, तुम्हारा भी तो हाथ-पैर है। मैं भी तो यही बोल रही हूँ।'
इतने में बाही का बड़ा भाई टोहिला भी पहुँच गया। वह हल जोतकर आया था। डाड़ी से हाथ-मुँह धोकर आया था और जामुन खाना चाहता था। बाही की आवाज सुनकर उसने ऊपर ताका। बाही तो पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर पहुँच गई थी। टोहिला ने बाही से कहा, 'उतरो बाही, नहीं तो अभी पत्थर फेंकूँगा।' 'पत्थर फेंकूँगा' सुनते ही बाही 'हाँ! उतर रही हूँ' बोलते हुए झटपट उतरने लगी। काफी नीचे उतर चुकी थी। लेकिन क्या कहें, जामुन का पेड़ ही ठसराही होता है। एक डाली टूट गई। बाही डाली सहित झड़झोड़ करते नीचे गिर गई। मरियम और उसकी दीदी सब हँस पड़े। मरियम के मुँह से निकल पड़ा, 'मिला न!' यह सुनते ही बाही को गुस्सा आ गया। जमीन से उठकर उसने सोमारी को एक झाँप मारा। सोमारी ने सोचा भी नहीं था कि बाही उसे पीटेगी। उसने सिर्फ इतना ही कहा, 'तुम्हें क्या हो गया बाही? मुझे मार रही हो?' टोहिला ने बाही को रोकने के खयाल से हाँ-हाँ कहा और बाही रुक गई। टोहिला मरियम की तरफ बढ़ा और जोहार बोला। जैसे ही टोहिला की पीठ बाही की तरफ पड़ी, वह गेंडूडांग लेकर घर की ओर चलती बनी।
उस समय तो बाही अपने ही घर गई। मरियम लोग भी अपने घर गए। जेठ का महीना था। दोपहर में सारे पशु-पक्षी आराम करते हैं। बैल-बकरी इस पेड़, उस पेड़ घूम-घूमकर पीपल, पाकड़, बरगद और जामुन के फल चुन-चुनकर खाते हैं। जो पेड़ों के नीचे बैठे रहते हैं, वे पागुर भाँजते रहते हैं। गाँव-घर के लोग पेड़ों के नीचे बैठकर आराम करते हैं। जब ठंढी हवा बहती है, तब लोगों की आँखें अपने आप बंद हो जाती हैं। मरियम लोग भी कुछ गिरजाघर में, कुछ स्कूल घर में, कुछ पेड़ों के नीचे आराम करने लगीं।
रोग-दुःख आदमी को जीवित रहते भर लगा रहता है। किसी को जन्म से तो किसी को बड़े होने के बाद रोग पकड़ता है। रोग का इलाज करने के लिए ही अनेक प्रकार के पेड़, फूल, लतर, कंद और बीज होते हैं। बस, सही इलाज के लिए इन्हें पहचानना है। बाही को पहले मिरगी रोग था। कहीं पर भी पानी, आग में गिर जाती थी। बहुत इलाज कराया पर ठीक नहीं हुई। जैसे-जैसे बाही की उम्र बढ़ने लगी, रोग भी बढ़ता गया। अब तो बाही विक्षिप्त की तरह होने लगी है। इसीलिए उसे लोग 'बाही' कहते हैं। उसका असली नाम तो बुधन था। बाही ने अपने घर में खाना खाया। कुछ देर लेटी भी। लेकिन केब उठकर बाहर निकली, किसी ने नहीं जाना। वह निकलकर सीधे मरियम के घर गई। वह रसोई में घुसी। चूल्हे के पास ही थाली-कटोरी रखे थे। एक चारू (मिट्टी का भात पकानेवाला बरतन) में भात था। थोड़ी दाल थी। बाही ने थाली में भात नहीं परोसा, दाल को ही चारू में डाल दिया और उसी में से निकाल-निकालकर खाया। वह इधर-उधर पूरा जूठा गिरा चुकी थी। खाने के बाद निकल रही थी कि मरियम ने उसे देख लिया। वह आराम करने के बाद गिरजाघर से आ रही थी। वह समझ गई बाही ने कुछ गड़बड़ किया है; क्योंकि बाही के हाथ-मुँह चावल- दाल से सने थे। मरियम रसोई में गई। रसोई का हाल देखा। गुस्से में एक बड़ी लाठी लेकर बाही के पीछे दौड़ी। बाही मरियम को देखकर पहले ही समझ गई थी कि अब उसकी खैर नहीं। वह 'मैंने कुछ नहीं चुराया है' कहते हुए गिधनी भदरा की तरफ भागने लगी। मरियम 'बगधरी, चोरनी, आज मैं तुम्हें मार डालूँगी।' कहते हुए उसके पीछे भागने लगी। गुस्साई मरियम पत्थर फेंक फेंककर मारने की कोशिश करने लगी। घर से ड़ेढ-दो कोस दूर गिधनी टोंगरी तक खदेड़कर मरियम रुक गई। बाही डर के मारे जी-जान से भाग रही थी, मरियम से बहुत आगे निकल गई। मरियम वापस आने लगी। रास्ते में जो मिला, उसी को उसने बताया, 'बाही ने चोरी की। खाना चुराया। हमारा चारू-तवा सब जूठा कर दिया। अभी मुझे सब बरतन बदलना पड़ेगा।' लोग कहते, 'इसीलिए बाही, मत मारो मामी, मत मारो', कहते हुए भाग रही थी।' उस दिन यदि बाही मरियम के हाथ लग जाती तो बेहद पिटाती। मरियम के पूरे शरीर में क्रोध भरा था। वह डंडे से अगल-बगल के पत्थरों, झाड़ियों पर अपना गुस्सा निकाल रही थी। वह रसोई में गई। सारे मिट्टी के बरतन निकाल फेंके। गोबर से रसोई को लीपने के बाद मिट्टी के नए बरतन चूल्हे में चढ़ाए।
बाही ने मरियम के क्रोध का अनुमान लगा लिया। वह इतना डर गई कि वापसी की बात याद ही नहीं रही। छिपने के लिए एक गुफा में घुस गई। कुछ देर तो बाहर झाँक झाँककर देखती रही। लेकिन दौड़ने के कारण थक गई थी, थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। वह वहाँ नींद में बेसुध पड़ी रही। आदमी या कोई भी प्राणी, जितना हो सकता है, प्राण बचाने के लिए भागता है। जब असमर्थ हो जाता है, तब शरीर सिकोड़कर या शरीर और घुटने को सटाकर लेट जाता है। बुधन ने भी वही किया। थककर लेटी तो सारी रात माँद के अंदर ही रही। दूसरे दिन सूरज चढ़ गया, तब उसकी नींद खुली। लेकिन डर से बाहर नहीं निकली। इधर उस रात बुधन को किसी ने नहीं ढूँढ़ा। सोने से पहले उसकी दीदी सोमारी कहती फिरी, 'बाही अभी तक नहीं आ रही है-कब तक जागूँगी।' कभी कहती, 'किसी के पुआल मचान में सो गई होगी। गछवारिन तो है ही।' कुछ देर सोमारी बुधन की राह देखती रही, फिर सो गई।
दूसरे दिन कलेवा- समय होगया, लेकिन बुधन का कहीं पता नहीं चला। दीदी सोमारी और दादा टोहिला को चिंता सताने लगी। जब दोनों ने गाँव में लोगों से पड़ताल किया तो उन्हें पता चला कि बाही ने मरियम के घर में घुसकर भात चुराया था। सारे चारू तवा जूठे कर दिए थे। इसीलिए मरियम ने उसे पीटने को दौड़ाया था। वह पत्थर फेंककर भी मारने की कोशिश कर रही थी। उसने उसे गिधनी टोंगरी की तरफ खदेड़ा था। सोमारी ने मरियम से पूछा तो बड़े क्रोध से वह बोली, 'मेरा इतना सारा पैसा खर्च हुआ। सारे बरतन बदलने पड़े। तब बाही मुदई के लिए मेरे साथ लड़ने आई हो ?' सोमारी पैसे की बात सुनकर चुप्पी साध गई। बात बढ़ने पर उसे जुर्माना भरना पड़ सकता था। सिर्फ इतना बोली, 'पागल ही है। इलाज तो कराया। ठीक नहीं हुई तो मैं क्या कर सकती हूँ?'
मरियम लोग टोला भर में सबसे अमीर, खाते-पीते परिवार थे। सोमारी ने बुधन के मामले में चुप रहना ही बेहतर समझा; क्योंकि पंचायत बैठी और जुर्माना माँगा गया तो वह कहाँ से इतने पैसे देगी? कहीं भी हो, धनी आदमी की ही चलती है। सब उन्हीं का सम्मान करते हैं। लोग तो बल्कि धनी आदमी से डरते भी हैं। धनी आदमी को छेड़ना बिरनी के छत्ते को छेड़ने की तरह है। धनी आदमी का क्रोध खलिहान के आग की तरह होता है। जहाँ लगी, पूरा खलिहान जलकर राख हो जाता है। सोमारी इस दुनियादारी को समझ चुकी है, इसलिए डर गई। मन में सोचती रही, 'बाही तो बाही ही है। रसोई में घुस गई तो अपवित्र हो गया। लेकिन अच्छी होती तो बाही क्यों कहलाती? मैंने तो उसे सिखाकर नहीं भेजा था। चारू जूठा होता है, इसे वह क्या समझती है?' वह सफाई देती फिरी कि 'वह तो पागल है। कब क्या करेगी, कौन जानता है! बुधन तो घर आई थी। खाकर लेटी थी। पता नहीं अब किधर गई है। भूखे-प्यासे इस जेठ में मर भी गई होगी।'
मरियम इस सफाई से और बौखला गई। उसने एक दिन रास्ते में रोककर सोमारी से कहा, 'तुम्हारी बहन को बड़ा बाघ घसीटकर ले गया।'
सोमारी, 'पहाड़ी की तरफ ?'
मरियम, 'जंगल की तरफ जाकर ढूँढ़ो। ढूँढ़ने के बदले यहाँ पूछताछ कर रही है ?'
टोहिला ने इन दोनों की बातें सुन ली। सोमारी से कहा, 'तुम घर जाओ। मैं पहाड़ी की तरफ ढूँढ़ने जाता हूँ'।
इधर बुधन दोपहर होने से पहले जगी। लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि बाहर निकले। निकलने की कोशिश करती, माँद के मुँह तक आकर झाँकती, गिरगिट, बकरी, कुत्ते आदि के चलने की आवाज सुनकर फिर छिप जाती है। दोपहर जरजर धूप हो गया। आदमी तो क्या पशु-पक्षी भी घरों में और पेड़ों के खोंढरों में घुस गए, तब गुफा से बाहर निकली। अंगड़ाई ली। वह बहुत भूखी थी। पहाड़ी के किनारे-किनारे बहुत से जामुन के पेड़ थे। बाही उधर ही गई। उसने कसैले-मीठे जामुन चखकर देखे। मीठे जामुन के पेड़ पर चढ़ गई और इतना खाई इतना खाई कि मन और पेट दोनों भर गया। पेड़ से उतरकर डाड़ी गई। सखुआ पत्ती का लुंकी बनाकर पानी पीया। लुंकी को जैसे ही फेंका, बकरियों के दौड़ने-चलने की आवाज आई। बाही को लगा, लोगों ने उसे देख लिया है। वे उसी की ओर दौड़ते हुए आ रहे हैं। वे उसे पीटने आ रहे हैं। बाही 'चुंदी छूटत' भागी। सीधे उसी माँद में घुसकर रुकी। उसका दिल धड़क रहा था जोर-जोर से। पैर काँप रहे थे जमीन पर। घंटों लेटी रही। इसी में बाही को नींद भी आ गई। यही उसकी दिनचर्या बन गई। उसे आदमी से डर लग रहा था, जंगली जानवरों से नहीं। माँद उसके लिए सबसे सुरक्षित जगह थी। जंगल में घूमते वक्त जरा सी आहट पाकर भी वह पेड़ से चिपक जाती या चट्टान की आड़ में छिप जाती। पर गाँव के लोग क्या उसकी तलाश में थे ?
टोहिला गाँव-गाँव, टोला टोला बुधन को ढूँढ़ता फिरा, पर वह कहीं नहीं मिली। टोहिला के प्रयास और बहन-प्रेम को देख लोगों ने कहना शुरू किया, 'अलबत टोहिला है। बड़े लोग छोटों को इसी तरह सुरक्षा देते हैं। यह सुरक्षा कर्तव्य से ज्यादा स्नेह के कारण देते हैं।' परेशान टोहिला चावल की पोटली
बाँधकर बुधन को ढूँढ़ने निकला। लोग कहते, 'अलबत दादा है। धूप को धूप नहीं, प्यास को प्यास नहीं समझकर बाही को ढूँढ़ रहा है। कोई और होता तो पगली बहन के लिए इतना दुःखी, इतना परेशान नहीं होता।'
बाघ भालू से सभी डरते हैं। वे काटें या न काटें, देखकर ही दिल दहल जाता है। उनका गर्जन सुनकर तो आदमी की हवा निकल जाती है। बाढ़ आती है, उस समय किनारों को धँसाती, ढकती, उछाल मारती नदी किसी को नहीं पहचानती है। लेकिन आदमी क्रोध में भी मीठी बातें बोलता है। मीठी बातों में ऐसा उलझाता है कि दोनों कंधे से कंधे मिलाकर चलते नजर आते हैं। कब कोई पैरों से उलझाकर गिरा देगा, इसे जाना नहीं जा सकता है। आदमी छली होता है। बुधन मरियम के डर से भागी थी; क्योंकि मरियम ने लकड़ी फेंककर मारने की कोशिश की थी। उस पर पत्थर भी फेंके थे। सो डर नस-नस में समा गया था। अब बुधन लोगों के बीच में आने से डर रही है। बाघ-भालू से ज्यादा डरावना आदमी है। नहीं तो बुधन घर छोड़कर क्यों माँद में रहने जाती? जामुन खाकर और डाड़ी का पानी पीकर बुधन माँद में चार दिन रही।
धीरे-धीरे गाँव में उल्टी बयार बहने लगी। लोग कहने लगे, 'मरियम ने ही बाही को पीटकर भगाया है। वह तो हाथ नहीं लगी, नहीं तो मारपीट कर बुरा हाल कर देती। मरियम के डर से ही वह भागी है। पता नहीं बाघ ने खाया, ओड़का ने पूज दिया या कुएँ में गिरकर मर गई। आखिर पागल को पीटकर मरियम कौन सा यश पाती ? मिरगी तो था ही, आग-पानी किसी का भी खतरा था।' लोग बाही के लिए अफसोस जताने लगे।
सोमारी के दुःख का पार नहीं था। अगर बाही को अक्ल होती तो वह वैसा काम क्यों करती ? दो दिनों तक मरियम चुप रही। तीसरे दिन वह भी ढूँढ़ने निकली। शाम को खाली हाथ लौटी। चौथे दिन मरियम अपनी दोस्तों के साथ बाही को ढूँढ़ने निकली। वे प्यास के कारण डाड़ी भी गईं। वहाँ सूखे लुंकी देखकर एक-दो ने कहा, 'लुंकी है, बाही ही पानी पीने आती होगी।' लेकिन ज्यादा ने कहा, 'चरवाहा लोग पीते होंगे।' वे आवाज देने लगीं, 'आ री बाही, जामुन खाने आओ।' लेकिन उनकी आवाज प्रतिध्वनित होकर उन्हीं के पास लौट आई। चूँ-चाँ तक नहीं हुआ। बुधन नहीं मिली-कहकर वे वापस लौट गईं। टोहिला भी निराश होकर लौटा।
पाँचवें दिन सोमारी और टोहिला टोंगरी की तरफ गए। दोपहर हो चुकी थी। इधर बुधन भी आदमी की आवाज न सुनाई देने पर जामुन खाने निकली। वह चट्टान की दरार में छिपकर देख रही थी। कई दिनों से बाल नहीं झाड़ने के कारण किसी पौधे की जड़ों की तरह उसके बाल बिखरे थे धै-धै। टोहिला की नजर उस पर पड़ी। पहले तो टोहिला ने सोचा, बाँस की सूखी जड़ है। लेकिन नजदीक जाने पर लगा कि आदमी का सिर काटकर रख दिया गया है। उसने सोमारी को बुलाकर दिखाया। वे दोनों डरकर पीछे भागने को तैयार हो गए। लेकिन 'चलो देख आते हैं'- कहकर फिर उधर जाने लगे। उस समय बाही की पीठ इनके तरफ थी। ये दोनों दबे पाँव उसके पास जाने लगे। मन में कितने विचार आ-जा रहे थे। 'कटा सिर होगा तो आँखें निकली होंगी। दाँत कीच लिया होगा।' वीभत्स चेहरे की कल्पना कर दोनों का मुख कसैला हो रहा था। अचानक बाही को भी लगा कि आसपास कुछ है। उसने पलटकर देखा। डर से उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। पास में एकाएक आदमी देखकर वह काँपने लगी। सिर हिलने लगा, दाँत लग गया। उसका भयानक चेहरा देख टोहिला और सोमारी ने बाही को पहचाना नहीं। लेकिन बाही ने दोनों भाई-बहन को पहचान लिया। ठहाका मारकर हँसने लगी। तब दोनों ने बाही को पहचाना और दोनों हँसने लगे। सोमारी बोली, 'मायगुलिया बाही कहीं की! चलो घर। हम लोगों को भी पागल बना दिया तुमने !'