बिना शीर्षक / कामतानाथ / पृष्ठ 2
संभवत: वह बच्चा बस में खिड़की के पास अपनी माँ या पिता की गोद में बैठा उन फूलों की ओर लपकता रहा होगा और जैसे ही बस खड्डे में गिरने को हुई बिल्कुल उसी क्षण वह बच्चा फूलों की ओर लपका और फूलों की एक डाल उसकी पकड़ में आ गई और इधर बस खड्डे की ओर लुढ़की और उधर वह बच्चा फूलों की डाल पकड़े खिड़की से बाहर हो गया। जब बस के गिरने की आवाज सुनकर पास के गाँव में रहने वाले लोग दौड़ कर आए तो उन्होंने फूलों के उस वृक्ष की एक डाल से उस बच्चे को लटकता हुआ पाया।
बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। एक गाँव वाले ने पेड़ से लटकते हुए उस बच्चे को गोद में लेकर उतारा। दूसरे लोग नीचे खड्डे में उतर गए। किसी तरह जलती हुई बस को उन्होंने बुझाया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। सब कुछ जलकर राख हो चुका था। लाशें भी इस सीमा तक जल चुकी थी कि किसी को भी पहचानना असंभव था। पुलिस आई। उसने सारी चीजों का मुआयना किया।"
"बच्चे के वस्त्रों आदि को देखकर लगता था कि वह किसी अच्छे घर का है। लेकिन सिवाय "अम्मा" "बाबा" के वह कुछ बोल नहीं सकता था। ऐसी स्थिति में यह पता लगा पाना कि वह कौन था, बड़ा मुश्किल था। बस में जो भी सामान आदि जलने से रह गया था उसे पुलिस वालों ने गौर से देखा कि शायद किसी बक्से में बच्चे की साइज के कुछ वस्त्र आदि मिलें, साथ ही कुछ ऐसा जिससे उसके बारे में कुछ जाना जा सके यह भी ट्रक है।" उसने सड़क पर आते एक और वाहन की रोशनी को देखते हुए कहा।
"उस बच्चे का क्या हुआ?" "दूसरे दिन अखबारों में बस दुर्घटना की खबर के साथ बच्चे का बड़ा सा फोटो भी छपा। लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ। कई दिन निकल गए। लेकिन कोई उसे क्लेम करने नहीं आया। हाँ उसे गोद लेने के लिए कई लोग आगे आए मगर इसमें एक कानूनी अड़चन थी। बच्चा या तो माँ-बाप की अनुमति से गोद लिया जा सकता है या फिर वह पूरी तरह लावारिस हो। यहाँ समस्या यह थी कि कानूनी तौर से बच्चा लावारिस भी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि हो सकता था कि कुछ दिनों बाद उसके हकदार आ ही जाएँ और कौन जाने बच्चे के माँ-बाप दोनों नहीं तो उनमें से एक अभी जीवित ही हो। अत: मेजिस्ट्रेट ने यह आदेश दिया कि बच्चे का फोटो सुरक्षित रख लिया जाए तथा एक छोटा फोटो तावीज के रूप में बच्चे के गले में पहना दिया जाए और पालन-पोषण के लिए किसी अच्छे अनाथ आश्रम भेज दिया जाए। अत: कुछ दिन पुलिस कस्टडी में रहने के बाद बच्चे को एक अनाथ आश्रम भेज दिया गया।"
इस बीच वह वाहन हमारे सामने से निकला तो मैंने देखा वह वास्तव में ट्रक था। मैं उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगा कि आखिर यह है कौन जो दूर से वाहनों के प्रकाश को देखकर ही उनके स्वरूप को पहचान लेता है। "आपको बताऊँ वह बच्चा कौन था?" मैंने उसकी ओर गौर से देखा। "वह बच्चा आपके सामने बैठा है।" और यह कहकर उसने अपने गले में पड़ा हुआ ताबीज मेरे सामने कर दिया। "आप।" "जी हाँ मैं।" "तो आपको बाद में कुछ पता चला।" "नहीं।" उसने कहा। "मैं कोई चार-पाँच साल उस अनाथालय में रहा तब वहाँ से भाग आया। असलियत में उसे अनाथालय कहना ही गलत था। वास्तव में वह बच्चों द्वारा भीख मँगवाए जाने का एक अड्डा था। सुबह सब बच्चे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर बैंड बाजे के साथ निकलते और शाम को भीख में पाए हुए पैसे लाकर मैनेजर के पास जमा कर देते। यदि कोई बच्चा कम पैसे लाता तो उसे सजा दी जाती। खाना भी ठीक से नहीं मिलता था। यही सब देखकर मैं वहाँ से एक दिन चोरी से भाग निकला अब आपकी बस आ रही है, लेकिन यह पैसेंजर बस है मेरी राय में आप इसे मत पकड़िए।"
"ठीक है।" मैंने कहा। "अनाथालय से निकलने के बाद आप कहाँ गए?"
"तब तक मुझे बस एक्सीडेंट के बारे में सारी बातें पता चल चुकी थीं और जाने क्यों मैं लौटकर उसी स्थान पहुँच गया जहाँ एक्सीडेंट हुआ था और वहाँ से कुछ दूर सड़क किनारे बने एक होटल में काम करने लगा। मेरे गले में मेरा उस समय का फोटो अभी भी ताबीज में मढ़ा लटका था। उसे देखकर कुछ लोगों ने मुझे पहचान लिया कि मैं वही बच्चा हूँ जो बस दुर्घटना में बच गया था। सभी मुझे बहुत ही उत्सुकता से देखते। बस के ड्राइवरों-कंडक्टरों को तो मुझमें विशेष रूचि थी। वह मुझे बहुत ही भाग्यशाली समझते और कभी-कभी मुझे अपने साथ अपनी बस में बिठा लेते। कुछ दूर जाकर किसी स्टाप पर मैं उधर से आने वाली बस पर बैठकर वापस आ जाता।"
बस आकर वहाँ रूक गई। वह खचाखच भरी हुई थी। दो-एक मुसाफिर उससे उतरे। "आप जाना चाहें तो इससे जा सकते हैं। हो सकता है समय से यह पहुँचा भी दे। लेकिन मेरे ख्याल से आप रिस्क न लें। एक्सप्रेस बस ही पकड़ें।"
"ठीक है मैं एक्सप्रेस बस से ही जाऊँगा" मैंने कहा।
बस चली गई। "फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा। "फिर तो यह रोज का ही सिलसिला हो गया। मैं आराम से किसी भी बस में सवार हो जाता। ड्राइवर और कंडक्टर मेरे भोजन का प्रबंध करते। नींद लगने पर मैं बस में सो भी जाता। धीरे-धीरे मैं रोज ही मंगलौर से पणजी और पणजी से मंगलौर का चक्कर लगाने लगा। बरसों तक यह सिलसिला जारी रहा। इस रूट के सारे होटल तथा अन्य दुकान वाले यहाँ तक कि अक्सर आने-जाने वाले पैसेंजर भी मुझे पहचानने लगे। सभी मुझे सहानुभूति की दृष्टि से देखते, महिलाएँ मुझे अपने पास बिठा लेतीं और मुझे खाने को फल, बिस्कुट आदि देतीं। साथ में इस तरह के रिमार्क करतीं "बेचारा बिना माँ-बाप का है च् च्।" शुरू में यह सहानुभूति मुझे अच्छी लगी लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा यह सहानुभूति मुझे अखरने लगी।"
"इस बीच मैंने बस के ड्राइवरों की कृपा से ड्राइविंग भी सीख ली थी और सत्रह-अठ्ठारह का होते-होते बड़ी से बड़ी गाड़ियाँ चलाने में दक्ष हो गया। तभी मुझे मंगलौर की एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी मिल गई और माल से लदा हुआ ट्रक मंगलौर से जयपुर, अमृतसर, दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, गौहाटी, मद्रास तक लाने ले जाने लगा। कभी-कभी एक यात्रा में मुझे एक-एक महीना लग जाता। मेरी हिंदी के बारे में आप बात कर रहे थे, वह मैंने इसी दौरान सीखी। और भाषाएँ भी सीखीं। लेकिन चंूकि और भाषाओं का सीमित उपयोग ही था इसलिए उन्हें इतनी अधिक नहीं सीख पाया जबकि हिंदी पूरे देश में ही चलती और समझी जाती है इसलिए हिंदी मुझे अच्छी तरह आ गई।"
"यह कौन-सी गाड़ी है?" एक वाहन की लाइट देखकर मैंने पूछा।
वह देर तक उसे देखता रहा। "यह तो बस ही लगती है लेकिन अभी तो बस का टाइम हुआ नहीं।" वह कुछ सोच में पड़ गया "क्या टाइम हुआ?" "आठ चालीस।" "तब तो बस का टाइम नहीं है। लेकिन है यह बस ही।"
तभी गाड़ी पास आई तो हमने देखा वह वास्तव में बस ही थी। लेकिन किसी टूरिस्ट सेवा की प्राइवेट बस थी। "बत्ती देखकर आप कैसे जान लेते हैं?" "जिंदगी में यही किया और सीखा है।" उसने कहा।
वह कुछ देर शांत रहा तो मैंने उसे कुरेदा, "आप बता रहे थे कि आपने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी कर ली।" "हाँ। लेकिन तीन-चार साल में ही मेरा मन उससे उचट गया। महीनों क्लीनर और हेल्पर के साथ रात-दिन ट्रक पर ही गुजारना पड़ता। कभी-कभी तो ट्रक खराब हो जाने पर कई-कई दिनों तक सुनसान सड़क पर अकेले रहना पड़ता जहाँ खाने-पीना का भी कोई प्रबंध नहीं होता। इसी सबसे ऊबकर मैंने एक दिन वह नौकरी छोड़ दी। कुछ दिन बेकार रहा तब पणजी में एक टूरिस्ट बस सर्विस में ड्राइवर की नौकरी कर ली।" "यह नौकरी अच्छी थी। सुबह आठ बजे एक स्थान से टूरिस्टों को लेकर निकलता और उन्हें लवर्स प्वाइंट, दक्षिण गोवा के गिरजाघर, सी-बीच, माइम, गोवा, मजगाँव डाक्स, फोर्ट अगोंदा वगैरह घुमाते हुए शाम को वापस लौट आता। वहीं पणजी में ही एक क्रिश्चियन परिवार में पेइंग गेस्ट बनकर रहने लगा।"
कुल तीन जनों का परिवार था वह। बूढ़े माँ-बाप और उनकी एक बेटी। एक बेटा भी था पहले लेकिन गोआ की आजादी की लड़ाई के दौरान वह मारा गया था। डिसूजा परिवार था वह। लड़की जूली डिसूजा मुझसे आयु में एक-दो वर्ष कम ही रही होगी। वह बहुत अच्छा डांस करती। गिटार और पियानो भी बजाती। "धीरे-धीरे हम दोनों एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए और जूली के माँ-बाप की रजामंदी से एक दिन हमलोगों ने चर्च में जाकर विवाह कर लिया।
मेरी सिगरेट समाप्त हो गई थी। "कहीं सिगरेट मिलेगी यहाँ?" मैंने उससे पूछा। "कह नहीं सकता।" उसने कहा "चलिए चलकर देखते हैं।"
सौभाग्य से थोड़ी दूर पर ही एक दुकान खुली मिल गई। सिगरेट लेकर हम वापस उसी स्थान पर आ गए। "आप कह रहे थे आपने चर्च में जाकर शादी कर ली।" मैंने उसे कथा का छूटा हुआ सूत्र याद दिलाया। "हाँ।" उसने कहा "शादी करने के बाद हमलोग आराम से उसी मकान में रहने लगे। तभी छह साल के अंदर हमारे तीन बेटे पैदा हुए। तीनों ही एक से एक खूबसूरत। मैंने मन में तय किया कि मैं तीनों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगा। लेकिन मेरे बेटों को एक ही धुन थी। मोटर ड्राइवरी करने की। आखिर जब पहले बेटे ने बड़े होकर बहुत जिद की तो जूली की राय से हमने अपना मकान गिरवी रखकर उसे एक टैक्सी दिला दी और वह टैक्सी चलाने लगा। तब तक दूसरा बेटा भी बड़ा हो गया था। अब दोनों उसी टैक्सी को बारी-बारी से चलाने लगे। लेकिन टैक्सी को लेकर उनमें झगड़ा होने लगा। और दूसरे बेटे ने भी टैक्सी की माँग की। अब दूसरी टैक्सी लेने की ताकत मुझमें नहीं थी। अत: मैंने साफ मना कर दिया। इस पर दूसरा बेटा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर हो गया। मैंने उसे बहुत समझाया कि यह बहुत कठिन जिंदगी है लेकिन वह नहीं माना। तभी एक दुर्घटना घट गई।" "क्या?" मैंने पूछा। "मेरा सबसे बड़ा बेटा एक दिन अपनी टैक्सी पर कुछ सवारियों को लेकर पणजी से मंगलौर जा रहा था।