बीते शहर से फिर गुज़रना / तरूण भटनागर / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपने में मौत का मतलब उसका खाली कमरा, वार्डरोब में लटके उसके कपड़े स्कर्ट, पजामा, सलवार, जींस... बिस्तर के नीचे रखे उसके सैंडिल, दीवार पर टंगी उसकी खिलखिलाती फ़ोटो, खिड़की में लटके हल्के नीले रंग के वर्टिकल ब्लांइड्ज जो उसने कुछ दिनों पहले अपनी पसंद से खरीदे थे, फ्लावर-पाट में लगे उसके पसंदीदा कारनेषन के पीले फूल। बुक-शैल्फ़ में उसके फेवरेट ऑथर्स की किताबें ऑर्थर हैले, एमिली ब्रोंट्स... बहस और फिर मान जाने के बाद भी उसने कभी हेमिंग्वे या काफ़्का नहीं पढा, जब भी उससे कहता उसका एक-सा ही जवाब होता-- दीज ओल्डी बूर्जुआ, हाउ यू टॉलरेट दीज ड्राइ राइटिंग्स... और मैं थोड़ा खिन्न हो जाता। कमरे के दरवाज़े पर लटकती चाइनीज-बैल्स जो हर महीने वह बदल देती थी। कमरे के किनारे रखा टैराकोटा का पॉट जो उसने ख़ुद पेण्ट किया था और मुझे उसने कई बार यह बात बताई थी कि यह उसने पेण्ट किया है, मानो हर बार कोई नई बात बता रही हो-- थोड़ा-सा इस सलेटी कलर से गड़बड़ हो गई, है ना... अगर सिर्फ ब्लैक और व्हाइट होता तो अच्छा कोंट्रास्ट हो जाता... क्षण भर को उस पॉट की तरफ देखकर फिर से उसे ही देखने लगता और वह मेरी ओर देखती कि शायद मैं उसकी इस पेंटिंग पर कुछ कहूंगा। उसकी स्टडी-टेबल पर रखा लैंप जो क्यूपिड की काँच की नंगी मूर्ति है और क्यूपिड के हाथ में कुछ है जिसमें बल्ब जलता है। पता नहीं क्या है? मैंने अक्सर जानना चाहा। कमरे में फैली मस्क की हल्की ख़ुशबू वाला रूम फ्रैशनर जो उस कमरे की पहचान-सा बन गया है। कहीं और इस ख़ुशबू को सूंघने पर भी इस कमरे में होने का भ्रम होता है। दीवार पर बिस्तर के ठीक सामने लटकी एक तस्वीर। जैसी अक्सर पुराने इटैलियन चैपलों पर रेनेसां के समय वाली माइकेलेंजलो वगैरा की पेंटिंग होती थी। पर वह ना तो माइकेलैंजलो था और ना लियोनार्दो दा विंसी, वह किसी और की थी, जिसके बारे में मैंने नहीं सुना। जितनों को मैं जानता था, उनमें से वह नहीं थी। उस तस्वीर में बोरियत थी और मैंने उसको कई बार कहा था कि वह इस तस्वीर को वहाँ से हटा दे, पर वह नहीं हटी और अक्सर उसे देखकर मुझे कोफ़्त सी होती थी...। मैंने इस कमरे को कभी इतनी गौर से नहीं देखा जैसा कि आज देख रहा हूँ। अब इस बेजान से कमरे में उसे टटोल रहा हूँ। लगता है इस कमरे की हर चीज़ के पीछे एक कहानी है। हर चीज़ बोल सकती है। बता सकती है,ख़ुद के बारे में। किसी भी चीज़ को देखता हूं तो कुछ बातें और कुछ दृश्य याद आ जाते हैं और फिर मैं देर तक उसे देखता रहता हूँ। उन चीज़ों के पीछे जो कुछ है, वह मुझे बेचैन कर रहा है। उन चीज़ों को देख कर और उनके पीछे को महसूस करके मुझे कुछ मिल नहीं जाता, बल्कि मैं पहले से और ज़्यादा खाली हो जाता हूँ। उन चीज़ों को टटोलकर मैं पहले से ज़्यादा भिखारी हो जाता हूँ। पर भीतर कुछ उमड़ता है, जो मुझे मज़बूर करता है, उन चीज़ों को देखने के लिए।

और भी बहुत कुछ है जो बाहर नहीं है, पर जिसे महसूस करता रहा हूँ...। उसकी डायरी जिसे उसके जीते जी नहीं पढ़ा था। उसमें जगह-जगह मेरा ज़िक्र था। उसमें उसने अपने बारे में नहीं लिखा था, सिर्फ़ मेरे बारे में लिखा था। उसकी पसंदीदा मैग्जीन्स रीडर्स-डाइजेस्ट और सोसाइटी, जिनके पन्ने, पन्नों के हिस्से कैंची से काटकर अलग किये गये थे। वह उन्हें अपनी डायरी में चिपका लेती थी। जिनमें कोई कोटेशन, कोई चित्र सामान्यत: रीडर्स-डाइजेस्ट के लास्ट पेज पर छपने वाली पेंटिंग, कोई फ़िटनेस या स्किन केयर की टिप्स, कोई मेंहदी का डिजाइन...वगैरा होते थे। मैं अक्सर उसकी इन बेवकूफ़ियों पर हँसता था और तब वह मुझ से अपनी डायरी छीन कर मुझे चिढ़ाती। कभी इरिटेट भी हो जाती। उसकी मृत्यु के बाद अब मैं अक्सर उसकी चीज़ें टटोलता रहता हूँ। उन चीज़ों में वह नहीं है, बस उसके होने का झूठ है। वह नहीं आ सकती और ये चीज़ें उसके साथ नहीं जा पाई हैं। वे यहीं रहेंगी इस दुनिया में, बार-बार इस मज़बूरी को पैदा करने कि अब कुछ नहीं हो सकता। कितना टटोलो वह नहीं मिलेगी। जो खाली हो गया है, हमेशा खाली ही रहेगा। उस रिक्तता का कोई उपाय नहीं। उस बेचारगी का कुछ नहीं किया जा सकता है। रुंधा गला और आँसू बेजान हैं। उनसे कुछ नहीं होता। वे अर्थहीन हैं। पर एक कमज़ोरी आ गई है, जो दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। जब उन चीज़ों को टटोलता हूं, तो यह कमज़ोरी और बढ जाती है। उन चीज़ों को टटोलकर मैं कहीं नहीं पहुँचता हूँ...सिवाय इसके कि बहुत-सा समय अचानक बीत जाता है।

जब वह ज़िंदा थी तो मुझ से उलझ पड़ती थी कि मैं उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता हूँ। अक्सर पार्लर से लौटने के बाद वह मेरे सामने खडी हो जाती और पूछती-- उसका नया हेयर-स्टाइल उसको सूट करता है कि नहीं। वह कुछ बदली-बदली नहीं लग रही है? वह अपने हिसाब से फैशन करती थी। उसे इस बात का ख़्याल नहीं होता था, कि मुझे या देखने वालों को क्या अच्छा लगेगा। वह अपनी तरह से ख़ुद को रखती और इस बात पर मेरी सहमति चाहती। जब वह सहमति के लिए मुझे देखती तो,वह बडी आतुरता से देखती। मेरा मन उसके नये हेयर-स्टाइल या बदले-बदले चेहरे के विपरीत होता। मुझे उसकी ये हरकतें किसी फितूर सी लगतीं। पर उसकी आतुरता जो उसकी आंखों से झाँकती जैसे अफ्रीकन-सफ़ारी में कोई पेंथर अपने शिकार के लिए चट्टान पर रेंगता हुआ दबे पाँव बिना आवाज़ किये, चेहरे पर अनंत शांति का भाव लिये रेंगता है। उसमें कोई हैवानियत नहीं होती, बस जीवन और भूख का विनम्र अनुरोध होता है, ठीक वैसी ही आतुरता उसके चेहरे पर होती और मैं उसके नये चेहरे और हेयर स्टाइल को नकार नहीं पाता। मुझे सहमत होते हुए अच्छा लगता। कभी वह कहती-- वह मेरे साथ ही तो गई थी जब उसने यह नया वाला पैंडल खरीदा था...हुँह, तुम्हें तो कुछ याद ही नहीं रहता, सब भूल जाते हो, कम से कम मेरी बातें तो याद रखा करो।...उसने एक नया कैसेट खरीदा है मुझे उसे सुनना चाहिए...। फिर कहती-- तुम्हें तो बस मेरी ही बात याद नहीं रहती है... यू रिमेंमबर आल, एक्सेप्ट माइन... । पर आज उसकी चीजें टटोलकर लगता है, अगर वह ज़िंदा होती तो मैं उसे उसकी चीज़ों के बारे में वह भी बताता जो शायद उसे पता नहीं था। कितना कुछ उसे बताना था। अब मन करता है उसे बताने का। उसे यह बताने का कि उस पैंडल को खरीदते समय मैंने क्या सोचा था। उसी पैंडल को खरीदने को मैंने क्यों कहा था। मैंने उससे झूठ क्यों बोला था कि मुझे याद नहीं कि वह चीज़ कब ली थी, जबकी मुझे सब याद है कि जब हम दोनों विभास की ट्रीट में गये थे तब वह बहुत सुंदर लग रही थी पर चूंकि हमारे बीच किसी बात पर लड़ाई-सी हुई थी इसलिए मेंने चिढ़कर जानबूझकर यह बात नहीं कही थी...। मैंने सोचा था कि उससे किसी दिन कहूंगा कि उस दिन तुम सबसे सुंदर लगी थीं। वह एक ओपन-रेस्टोरेण्ट था और उसकी रेलिंग को पकडकर वह खड़ी थी। पूरी तरह अंधेरा नहीं हुआ था। शाम की बची-खुची रौशनी उसके शरीर पर पड़ रही थी। वह कुछ सोच रही थी और मैं उसे अपनी तरह से देख रहा था। काश ! मैंने उसे बताया होता। काश ! मैं बता पाता। एक बात जिसको दफ़्न करने के अलावा अब और कुछ नहीं किया जा सकता है।

तभी मेरी नींद टूट गई। वह अपनी बालकनी में खड़ी थी। मुझे हड़बड़ाकर जागता देख वह बिस्तर पर मेरे पास आ गई। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और पूछने लगी--

-- क्यों क्या हुआ?

--- तुम्हें तो पसीना भी आ रहा है।

-- खराब सपना था।

-- क्या था?


वह उत्सुकता से मेरे और पास सरक आई। मेरे सामने सिर्फ़ उसकी आँखें रह गई थीं ।

-- लगा तुम मर गई हो और मैं अकेला रह गया हूँ।

वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।

-- इसमें हँसने जैसा क्या है?

-- गौरव, डू यू नो वन हू डाइज इन मार्निंग ड्रीम...लिव्स ए लांग लाइफ़। माई आण्टी सेज। और ये ड्रीम तुमने देखा । लवली।

मुझ में एक साथ अलग-अलग जड़ों वाली कई बातें उग आईं। और उनमें से एक बात कूदकर बाहर आ गई जैसे भाड़ में भुनते पॉप-कॉर्न में से कोई एक उछल जाता है।

-- यू काण्ट डाय एनीवेयर एल्स, एक्सेप्ट ड्रीम्स... मेरा मतलब अगर तुम मर भी जाओ तो जैसे तुम सिर्फ़ सपनों में मरी हो।

वह उलझी-सी मुझे देखने लगी। फिर मुझ से पूछने लगी कि इस बात का मतलब क्या है? मुझे बहुत पहले से लगता रहा है, जैसे वह इस बात का मतलब जानती है।

कल रात मैं और वह बालकनी में देर रात तक बैठे रहे थे। हम दोनों चुप थे। फिर हम चुप्पियों से आगे बढ गये। वहाँ जहाँ ख़ुद के होने का भान नहीं होता है। आदमी और औरत को पता नहीं चलता कि वे हैं। वे कुछ देर एक-दूसरे में घुसने की पूरी मशक्कत करते हैं। फिर थककर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। पहले यह सब एक हिच के साथ होता था। मुझे बीच में अपने होने का अहसास हो जाता, क्षण-भर को उस दुनिया का कुछ दिखता जहाँ मैं हूँ। यह अपने आप होता। मैं उसकी तरह ख़ुद को भूल नहीं पाता था, कि एक बार ख़ुद को इस तरह भूल जाओ जैसे ख़ुद को कभी महसूस ही नहीं करने के लिए भूले हों। मानो ख़ुद को ख़ुद से काटकर गटर में फेंक रहे हों। जब मुझे ख़ुद का अहसास होता, वह मुझे अपनी ओर खींचती और फिर उसने मुझे बख़ूबी सिखाया कि कैसे भूलते हैं ख़ुद को, कि कितना आसान है यूँ भूलना। यूँ भूलकर प्यार करना, कि ख़ुद के होने में कैसा प्यार? ख़ुद को खोना कितना अहम है, प्यार की खुशी और आनंद के लिए। पर अब सब-कुछ सामान्य-सा लगता है। हम अक्सर रात एक साथ होते हैं। एक साथ सोते हैं। और फिर जब मैं उससे कहता हूँ कि-- तुम सपनों के अलावा और कहीं नहीं मर सकती हो, तो वह उलझी-सी मुझे देखने लगती है। मुझे अजीब लगता है कि वह इतना भी नहीं समझती।

घड़ी में सुबह के सात बजे हैं। मैं हड़बड़ाकर बिस्तर से उतर गया। जल्दी-जल्दी तैयार हुआ। वह मुझे हड़बड़ाकर तैयार होता देखकर मुस्कुरा रही है। मानो कह रही हो-- पुअर मैन। मुझे कुछ झुंझलाहट-सी हुई। मैं एक साथ कई चीज़ों पर झुंझला गया, पर फिर मेरी झुंझलाहट ख़ुद पर आकर रुक गई। अंत में मैं ख़ुद पर झुंझला रहा था। मैंने सोचा है, आज मैं घर में झूठ नहीं बोलूंगा। कोई पूछेगा तो साफ़-साफ़ बता दूंगा कि रात को मैं कहाँ था। बता दूंगा कि रात को उसके घर रुका था। हाँ, मैं पूरी रात उसके साथ रहा था। उसके घर में, उसके कमरे में, उसके बिस्तर पर...। मैं उससे प्यार करता हूँ।