बीते शहर से फिर गुज़रना / तरूण भटनागर / पृष्ठ 2
रात वाली ट्रेन और भागती छायायें
रात के एक बजे हैं। अंधेरे में एक ट्रेन जा रही है।
ट्रेन की खिड़की के काँच पर सिर टिकाये, मैं बाहर देख रहा हूँ। बाहर भिन्न-भिन्न प्रकार की छायाएँ हैं।
मैं अगर वे काली छायाऎँ नहीं देखता तो शायद बोर हो जाता, क्योंकि मेरे पास करने को कुछ नहीं था, सो मैंने अंधेरे में भागती छाया को पकड़ने और छोड़ने का खेल ढूंढ लिया था।
मेरे केबिन में पहले लोगों की आवाज़ें थीं। पर अब बस ट्रेन की आवाज़ है। बीच-बीच में सोते यात्रियों में से कोई जाग जाता है। पर उसकी आवाज़ ट्रेन की आवाज़ को पछाड़ नहीं पाती है।
छाया को पकड़ने और छोड़ने का खेल अपने आप चालू नहीं हुआ था। मुझे नींद आ रही है। मैं सोना चाहता हूँ। पर मैंने सोचा है कि मैं जागूंगा। उस समय तक जागूंगा जब तक वह शहर नहीं आ जाता। वह मेरे सपनों का शहर है। पंद्रह साल पहले मैं उसी शहर में रहता था। उस शहर में मैं था और वह थी। तब हम दो थे। आज भी दो हैं। एक यह शहर है और दूसरी उसकी स्मृतियाँ हैं। और यूँ वह आज भी है। कुकुरमुत्ते या आर्किड की तरह... यादों के कचरे पर, एक परजीवी वह शहर आज भी है। वह शहर आज भी वहीं है, जहाँ मैं पंद्रह साल पहले उसे छोड़ आया था। कोई और शहर होता तो अब तक मर चुका होता। कई दूसरे शहर भी हैं, जहाँ मैं रहा हूँ और जिन्हें मैं छोड़ चुका हूँ। वे सारे शहर मर चुके हैं। बीते शहरों में से बस यही एक शहर अभी तक ज़िन्दा है। मुझे उस शहर में उतरना नहीं है। बस, उसके लिए जागना है। उसे देखने की इच्छा है। मै उसे ट्रेन में बैठे-बैठे देखना चाहता हूँ। और यूँ उस शहर को गुज़रता हुआ देखना चाहता हूँ। उसे फिर से एक बार आता हुआ और फिर से गुज़रता हुआ देखना चाहता हूँ। पहले जब वह शहर आया था, तब मैं इसी शहर में रुक गया था। मैं इस शहर में रुक गया था। जीवन की ज़रुरत थी इस शहर में रुकना। जीवन में हम ज़रुरत के मुताबिक ही शहरों को चुनते हैं। उन्हें चुनने में चाहत नहीं होती है। फिर ज़रुरत के मुताबिक ही उसे छोड भी देते हैं। अगर उसे छोडते समय भीतर कुछ कुलबुलाता है तो हम ख़ुद को समझा लेते हैं। हमारी ज़रुरत हमारे मन को समझा देती है।
तभी लगा बाहर भागती छायाओं में से कोई छाया रुक सकती है। कोई छाया रुककर ट्रेन की खिड़की से चिपक कर, ट्रेन के साथ-साथ, मेरे साथ-साथ चल सकती है। वह चिपक सकती है, कंपार्टमेण्ट की उसी खिड़की से जिस पर मैं अपना सिर टिकाये ऊंघ रहा हूँ। खिड़की के काँच के एक तरफ़ मेरा चेहरा चिपका है और दूसरी तरफ़ वह छाया चिपक सकती है। एक अनजान छाया। छाया जिसे मैं नहीं जानता। शायद उस छाया को मैं अपने साथ रख लूँ और फिर एकांत में उस छाया के पाजिटिव बनाऊँ। किसी फ़ोटोग्राफ़र की तरह जो डार्क-रुम के अंधेरे में घण्टों नेगेटिव के पाजिटिव बनाता रहता है। कई पाजिटिव चित्र... ।
वे अकेलेपन के चित्र हैं। वे पाजिटिव चित्र हैं। अकेलेपन के चित्र जो पुराने होकर भी अपना रंग बनाये रखते हैं, जो काग़ज़ पर डिफ़्यूज होकर नहीं मिटते हैं और जिन्हें रसायनों से मिटाया नहीं जा सकता है। वे अपनी मर्ज़ी के मालिक होते हैं। उन्हें मिटाने के लिए ख़ुद को गोली मारनी पडती है। पर उस रात उस ट्रेन में ऐसा कुछ भी नहीं था। भागती ट्रेन के बाहर की अंधेरी छाया, एक टाइम-पास थी। जिसके रुकने का कारण नहीं बनता। अगर अटक कर रुक भी जाती तो वह यादों का हिस्सा नहीं बन पाती। मैं उन छायाओं में से किसी को भी आज याद नहीं कर सकता।
हमें क्या याद रहता है? और क्यों? बहुत महसूस करने के बाद लगा, इसका कोई कारण नहीं है। जिन यादों के कारण थे, वे ज्यादा टिक नहीं पाईं।
-- आई विल रिमैंमबर यू।
-- कुछ दिन और... ।
-- मुझे जाना ही है। जाना है।
उस रात भी अंधियारे वाला हंसियानुमा चांद था। उस रात मैंने उसे आख़िरी बार टटोलती नज़रों से देखा था। निकली हुई कॉलर-बोन, छोटा लंबा चेहरा, उठी हुई नाक, उभरी चीक-बोन, सपाट-सी छाती जिसके बीचों-बीच एक गड्ढे के होने का भ्रम मुझे होता यद्यपि ऐसा नहीं था, रूखे बाल, गंडेरी की तरह पतले हाथ, थूथन की तरह बाहर निकली कोहनी... । मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह मुझे अच्छी क्यों लगती थी? बाद में लगा मैं बिना बात ही अपने को परेशान करता रहा यह जानने में। इस बात का जवाब किसी के पास नहीं होता है। संसार के सबसे अच्छे प्रश्नों की तरह जो किसी जवाब पर पहुँचकर ख़त्म नहीं होते हैं।
मैं उससे बच्चे की तरह जिद करता रहा-- कुछ दिन और। कुछ और दिनों में कुछ नहीं होता। कुछ और गुंजाइश निकल सकती है।
-- अभी नये सैशन के लिए टाइम है। तुम चाहो तो रुक सकती हो।
-- तुम जानते हो...मेरी प्रॉबलम, आई हैव टू गो... ।
-- ठीक है। बट आई एम सेइंग फॉर... ।
-- नॉट एट ऑल। आई हैव टू गो।
उसने मुझे पूरी तरह नकारते हुए कहा। मानो कह रही हो अब और कुछ नहीं, हाँ कुछ भी नहीं।
-- यू आर स्टबबॉर्न।
मैं थोड़ा झुंझला गया।
वह मुझ से थोडा दूर होकर बैठ गई। उसने अपने कानों में वॉकमैन लगा लिया। वह गाना सुनने लगी। वह इतना तेज़ गाना सुनने लगी कि मुझे भी वह सुनाई देने लगा। उसने एकदम से वाल्यूम बढ़ा दिया था। वाकलैन के इयरफ़ोन से गाने की भुनभुनाती आवाज़ सुनाई दे रही थी। उस आवाज़ पर ज़रा-सा ध्यान देने पर समझ आता था कि वह कौन-सा गाना है। वह उसका गाना नहीं था। वह मेरा गाना था। उस गाने से वह हमेशा चिढती थी-- हुँह ट्रेसी चैपमैन। हाउ यू बी सो अनरोमैंटिक... व्हाट ए नॉनसेंस। और मैं उससे वह इयरफ़ोन छीन लेता था। पर आज... वह नहीं सुन रही थी। उसके कान में वह गाना भाँय-भाँय कर रहा था। वह गाना उसके कान के बाहर ही ख़त्म हो रहा था। वह गाना उसके भीतर नहीं जा पा रहा था।
मुझे पता था, वह सुन नहीं रही है। जैसे मैं ट्रेन में टाइम पास कर रहा हूँ, ठीक वैसे ही उस दिन वह वाकमैन सुन रही थी। वह टाइम पास नहीं था, बस उसमें मन नहीं था। उसका मन कहीं और था और वह सारे संसार से एक मौन अनुरोध कर रही थी-- मुझे अकेला छोड़ दो... प्लीज लीव मी एलोन... । धीरे-धीरे अंधेरे में उसकी आंखें चमकने लगी थीं। रात में चांद की रौशनी में जिस तरह पहाड़ी नाले का पानी और उसके नीचे के पत्थर चमक जाते हैं। अचानक ठीक उसी तरह उसकी आँखें चमकने लगी थीं। मुझे पता था उन आँखों में वह पानी भी उसी तरह से आया था, जिस तरह पहाड़ी नाले में दूर पहाड़ से उतर कर, लंबे जंगलों को पार कर पानी आता है। फिर उसके नाक सुड़कने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। फिर वह मेरे पास सरक आई और मेरे कंधे पर उसने अपना सिर टिका दिया। ...एक गीला-सा अहसास मेरी गर्दन पर जम गया। लगता है वह अहसास आज भी बांई गर्दन की खाल पर जमा है। गीलेपन में गर्दन में हल्के चुभते उसके घुंघराले बाल मानो आज भी मेरी गर्दन पर जमे हैं। वे अक्सर मुझे महसूस होते हैं।
उस समय वह बात अब भी मेरे भीतर थी-- कुछ दिन और। ...यू कैन डू इट ...यू कैन डू इट फ़ार मी...। मैं उससे जिद करना चाहता था-- यू कैन स्टे, फ़ार मी... यू कैन... । लगता था, वह मान जायेगी। वह समय हमारे अनुकूल नहीं था। ना मेरे अनुकूल और ना उसके। और जब समय विपरीत होता है,तब सिर्फ़ एक कोरी जिद रह जाती है। मैं उस समय को, उस ज़रा-से समय को भी जीना चाहता था। मैं उसे छोड़ नहीं सकता था। मैं भूलना चाहता था कि बस आज का ही दिन है। कल हम एक दूसरे से अलग हो जायेंगे। मैं मानना चाहता था कि कुछ भी नहीं हुआ है। हम अभी साथ रहेंगे। उस समय तक साथ रहेंगे, जब तक मन चाहेगा। पर ऐसा नहीं होने वाला था। मैं एक बेजान-सी कोशिश कर रहा था कि ऐसा हो जाये। जैसे मैं आज उससे जिद कर रहा था। मैं समय को नहीं बदल सकता था।पर जो चल रहा है, उसे वैसा ही चलने देना चाह रहा था। मुझे लगता था, जिद कुछ समय के लिए समय के बदले होने का झूठा अहसास देती रहेगी। मैं उस अहसास को खोना नहीं चाहता था। पर मैं उससे और जिद नहीं कर पाया। भीतर की वह बात बाहर नहीं आ पाई। मैं हार गया था। मैंने उससे बस यही कहा था-- आई विल रिमैंमबर यू। और मेरी बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया था। वह वाकमैन सुनने का ढोंग करती रही।
उस रात मैं उसके फ्लैट तक गया था। रास्ते भर हमने कोई बात नहीं की थी। हमने एक दूसरे को गुड-नाइट भी नहीं कहा। मैं उसे सीढ़ियाँ चढ़ते देखता रहा। उसने देखा था कि मैं देख रहा हूँ पर वह चुपचाप रही। जब जाने लगा तो लगा एक बार और उससे मिल आऊँ। एक अजीब सी इच्छा थी। एक फड़फड़ाती इच्छा। पर मैं रुका रहा। मुझे भ्रम था कि यह सब झूठ है। हम फिर मिलेंगे। शायद बार-बार मिलें। कितनी बड़ी है यह दुनिया। बहुत आसान है दुबारा मिलना और फिर से शुरु करना। दुबारा मिलकर फिर से शुरु करना। या फिर वहीं से शुरु होना जहाँ पर हम समय को बड़ी बेरहमी से काटकर किसी और समय के लटकते टुकड़े को पकड़कर झूल गये थे। कुछ भी तो कठिन नहीं।
पर फिर हम नहीं मिले। कोशिशें नाकाम रहीं। पता चला मैं ग़लत था। दुनिया बहुत बड़ी है। दुनिया के बड़े-बड़े दाँत हैं। दुनिया किसी इंसान को पूरा का पूरा निगल सकती है। दुनिया ने उसे चबाकर निगल लिया था। उसे एक बार देखने की इच्छा आज भी है। क्या वह वैसी ही होगी जैसी कि उन दिनों थी-- लंबा पतला चेहरा, धँसी हुई छाती, उभरी हुई कालर-बोन, माथे पर फैलते घुंघराले बाल... क्या वैसी ही स्टबबार्न और अड़े रहने वाली... । पता नहीं, वह कहाँ होगी? पता नहीं, कभी वह दिखेगी भी या नहीं? मैं अब नहीं सोचता हूँ कि वह दिखेगी। उसे देखने की इच्छा है, पर उसे देखने का ख़्याल नहीं आता। कोई बात इसी तरह पुरानी होती है। इसे ही कहता हूँ उसकी पुरानी बात, एक आकंठ-इच्छा जो कहीं इतने गहरे दब गई है कि उसका अब ख़याल ही नहीं। एक चमक खो चुकी पुरानी बात, जिसे बहुत गुनने पर भी कोई खालीपन नहीं उतरता है भीतर, कोई बेचैनी नहीं घेरती... । किस तरह वह पुरानी हो गई है। वह जब याद आती है तो जैसे एक इतिहास जिससे मैं गुज़रा ही नहीं हूँ। कितना कठोर होता है समय जो छीलकर अलग कर देता है, हर कोमल भाग को, हर बेचारगी और आँसू को...। पता नहीं, वह कहाँ होगी? पता नहीं।