बीते शहर से फिर गुज़रना / तरूण भटनागर / पृष्ठ 8
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साल पुराना दिन
थोडी देर बाद ट्रेन चलने लगी।स्टेषन छूट गया और षहर धीरे-धीरे गोल-गोल सा घूमता छूटने लगा। मुझे नींद आने लगी।मैं उनींदा सा कंपार्टमेण्ट की खिडकी पर सिर टिकाये बैठा रहा।और तभीण्ण्ण्।हां तभी एक संकरी पुलिया और एक अपार्टमेंण्ट झटके से निकल गये।मैं तेजी से खिडकी से चिपक गया।मेरा चेहरा खिडकी के कांच पर धंस सा गया।पर तब तक सबकुछ निकल गया था। पंद्रह वर्ष पुरानी एक बात मुझे याद आई।मुझे लगा काष मैं केबिन में अकेला होता।अकेला होता तो मैं उस बात को अपनी तरह से याद करता।कोई मुझे देखता नहीं कि मैं क्या कर रहा हूं?
मैं जल्द ही अपनी बर्थ पर लेट गया।मैंने लाइट बुझाई। अपने ऊपर चादर खींच ली।अपने चेहरे पर भी चादर खींच ली।
ट्रेन भागती जा रही थी। मैं सो गया।
जब नींद खुली तब भागती ट्रेन के एक ओर सिंदूरी प्रकाष बिखरा हुआ था।नीला आकाष था।चा¡द तारे नहीं थे।मैं अपनी बर्थ पर लेटा था।बर्थ से आकाष और ऊपर सोये हुए यात्री दिख रह थे।वे वैसे ही सो रहे थे जैसा कि मैंने उन्हें रात को सोते समय देखा था।क्षण भर को लगा कि सबकुछ वैसा ही है।कुछ भी नहीं बदला है।पर यह मेरा भ्रम था।रात को जब मैं सो रहा था,ट्रेन बहुत धीमी चल रही थी।वह रात को साथ-साथ भगने वाले आकाश से भी ज्यादा धीमी हो गई।रात को आकाश और ट्रेन एक ही स्पीड में एक साथ,एक ही तरफ भाग रहे थे।पर ट्रेन इतनी धीमी हो गई कि आकाश आगे भागने लगा।वह आकाश के साथ-साथ आकाश के बराबर स्पीड में नहीं भाग पाई।और यूं ट्रेन पिछडने लगी। ट्रेन आकाश से पिछडने लगी।आकाश आगे भागने लगा। ट्रेन आकाश से पीछे छूटने लगी।रात को साथ-साथ चलने वाले चांद और तारे बहुत आगे निकल गये और ट्रेन बहुत पीछे रह गई। ट्रेन बुरी तरह पिछड गई।उसके साथ-साथ भागने वाला आकाश उससे आगे बहुत दूर जा चुका था ।अब ट्रेन उस आकाश के के साथ थी जो बरसों पहले बीत चुका है।वह बीत चुके आकाश के साथ थी।बाहर सिंदूरी आलोक बिखरा था।वह किसी बीत चुके दिन का आकाश था।मैं सोच रहा था,यह बीते दिनों में से कौन सा दिन है?यह कौन सा दिन आ रहा है।क्या पंद्रह साल पहले बीत चुका कोई दिन है? उसके साथ गुजरे वे दिन।वे दिन जो बीत चुके।वे दिन जो अब तक वापस नहीं लौट पाये हैं।
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